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सुरतिया - 5

सुधीर की आवाज़ पड़ गयी थी बाउजी के कानों में. उन्हें लगा, लौट जायें, लेकिन फिर आ गये टेबल पर, अपनी कुरसी के पास. उनकी कुरसी पर गुड्डू, सुधीर का बेटा बैठा था, सुधीर ने फौरन दूसरी कुरसी की ओर इशारा किया, बाउजी उसके इशारे पर दूसरी कुर्सी खिसका बैठ गये. वैसे आदत तो उन्हें अपनी उसी कुर्सी पर बैठने की है. अब आपको लगेगा कि भई इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? कहीं भी बैठ गये? लेकिन सबकी आदत होती है न अपनी एक निश्चित जगह पर बैठने की! फिर बाउजी तो सदियों से बैठते चले आ रहे उस जगह.....! खैर! बहुत सोचते नहीं बाउजी इन बातों पर लेकिन मन में कुछ खटकता तो है इस उम्र में...!

जब तक बड़ी मम्मा थीं तब तक बाउजी का वही पुराना रुतबा चल रहा था लेकिन उनके जाते ही कितने अकेले हो गये हैं बाउजी. बड़ी मम्मा के रहते उनका चाय, नाश्ता, खाना सब उसी अन्दाज़ में चल रहा था, जैसे रिटायरमेंट के पहले चलता था. बड़ी मम्मा बादाम-छुहारे रात में भिगोतीं, तो सबके नाम के चार-चार बादाम और दो-दो छुहारे भिगोतीं. बाउजी का हिस्सा निकाल के बाकी सरोज को थमा देतीं. दूध में उबाल के बादाम छुहारा देतीं, तब कहीं बाउजी की दिनचर्या शुरु होती. पांच बजे से दोनों प्राणी उठ जाते. और साढ़े पांच बजे बड़ी मम्मा दोनों की चाय लिये बाहर लॉन में जा बैठतीं. सुबह पेपर आता तो जब तक बाउजी पूरा पेपर पढ़ न लें, या अपने मन से सुधीर को न दे दें, तब तक क्या मज़ाल कि कोई पेपर मांग ले! खाना भी बाउजी से पूछ के ही बनता. औरों को कुछ और खाना हो तो खायें, लेकिन मुख्य खाना वही बनेगा जो बाउजी कहेंगे.

बादाम-छुहारे तो अब भी भीगते होंगे लेकिन बाउजी को पता नहीं. उनके पेट और बढ़ती उम्र का हवाला देकर ये चीज़ें अब बन्द कर दी गयी हैं.....! ठीक ही किया होगा बच्चों ने!!

“बाउजी.... आपके फोन की घंटी बज रही है... “

बाथरूम के बाहर से गुड्डू ने चिल्ला के बताया.

झटपट हाथ धो के बाउजी बाहर निकले. उनके फोन की घंटी अब कम ही बजती है सो उन्हें उत्सुकता थी. फोन कट गया था अब तक. उठा के देखा तो उनके पुराने साथी, सहकर्मी और घनिष्ट मित्र रामबिहारी गौतम जी का फोन था. तुरन्त मिलाया बाउजी ने.

“हैलो... कहिये शर्मा जी, क्या हालचाल हैं? कब आ रहे हैं अपने गांव?”

“क्या बतायें गौतम जी.... मन तो बहुत होता है आने का. लेकिन अब उम्र और ऊपर से कान की समस्या. तबियत की तरफ़ से भी डर लगता है. सो अकेले हिम्मत नहीं पड़ती अब. जबकि मन है कि वहीं रखा रहता है. आप सुनायें..”

“अरे साब! आप भी कहां लगे हैं तबियत में!! तबियत जब बिगड़नी होगी तब कहीं रहें बिगड़ेगी ही. और कान की भली कही. अरे कौन सा भाषण सुनने जा रहे? टिकट कटवाओ और बैठ जाओ ट्रेन में. हम उतार लेंगे इधर. दोनों जनें मिल जुल के रहें कुछ दिन तो लगे कि ज़िंदा हैं.”

“बिल्कुल साब बिल्कुल! आना ही है. आप ही लोग तो सहारा हैं अब. बाल-बच्चे सब अपनी अपनी ज़िम्मेदारियों में व्यस्त हैं. रह गये हम बुज़ुर्ग, तो अब क्या करें दिन भर बैठे-बैठे? अपनी कहानी सुनने वाला भी तो कोई नहीं. सुनने के लिये समय भी तो चाहिये, और मन भी....!”

कितनी खरी बात कही गौतम ने!!

मिलजुल के रहें तो लगे ज़िन्दा हैं..............!

“बाउजी, परसों सुनील और बहू आ रहे हैं, तो आप कुछ दिन के लिये गुड्डू के कमरे में शिफ़्ट हो जाइयेगा ताकि उन दोनों को आपका कमरा मिल जाये. वहां बाथरूम अटैच है न तो वही कमरा ठीक रहेगा उनके लिये. अपना ज़रूरी सामान यहां रख लीजिये”

बाउजी ने एक नज़र पलंग के बगल वाली टेबल पर फैली अपनी दवाइयों की गृहस्थी पर डाली. अगल-बगल रखे सामान पर डाली. चारों तरफ़ तो ज़रूरत का ही सामान रखा है! क्या उठायें, क्या छोड़ दें? बीच में किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ी तो फिर कमरे में जाने में संकोच होगा. इस उमर में अटैच बाथरूम की तो बाउजी को ही ज़्यादा ज़रूरत पड़ती है. इससे तो अच्छा होता कि गुड्डू कुछ दिन को बाउजी के कमरे में शिफ़्ट हो जाता... खैर....! अब तो वे खुद सामान की तरह हो गये हैं जिसे लोग अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ यहां-वहां करते रहते हैं. वैसे चाहते तो होंगे कि इस पुराने सामान को कबाड़ में दे पाते...!
क्रमशः

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