सुरतिया - 4 vandana A dubey द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सुरतिया - 4

सरोज और सुधीर, दोनों का ही महीने के पहले हफ़्ते में मूड अच्छा रहता है, तब तक, जब तक बाउजी ने पैसा नहीं दिया . उसके बाद फिर रोज़ के ढर्रे पर ही उनका मूड भी चलने लगता है. लेकिन ये बुरा नहीं लगता बाउजी को. घर में यदि कोई ऐसा व्यक्ति रह रहा है जिसे पर्याप्त पेंशन मिल रही हो, तो उसका दायित्व है घर के खर्चों में हाथ बंटाना.

टीवी ऑन करके बैठ गये थे बाउजी. सीरियल वे देखते नहीं, न्यूज़ में एक ही न्यूज़ को इस क़दर दिखाते हैं चैनल वाले कि बाउजी उकता जाते हैं. सुबह का पढ़ा हुआ अखबार फिर से पढ़ने लगते हैं. जो कुछ छूट जाता है उसे खोज-खोज के पढ़ते हैं. वैसे बहुत सी खबरें, और खासतौर से सम्पादकीय पृष्ठ छूट ही जाता है सुबह. सुधीर एक ही पेपर लेता है न. उसके दफ़्तर में सारे अखबार आते हैं सो कहता है काहे को दो-दो पेपर लेना? एक पेपर आने से दिक़्क़त ये है कि बाउजी को जल्दी से पढ़ के पेपर सुधीर को देना होता है. पहले वे आराम से पढ़ते रहते थे तो एक दिन सुधीर ही झल्ला के बोला-

“ क्या बाउजी, सुबह से आप ही पकड़े हैं अख़बार. जल्दी पढ़ लिया कीजिये या फिर बाद में पढ़ा कीजिये. आखिर आपको करना ही क्या है दिन भर? चाहे जब पढ़िये न.”

अब अपने ही लड़के को कोई क्या याद दिलाये कि पेपर तो सुबह ही पढ़ने का असली आनन्द है. और वे तो नियम से दो-दो पेपर सुबह पढ़ के ही नहाने उठते थे. खैर.....तब से जल्दी-जल्दी हैडलाइन्स पर निगाह डाल लेते हैं बाउजी कुछ खास खबरें पढ़ भी लेते हैं, लेकिन सुधीर के ड्रॉइंगरूम में आते ही पेपर उसकी ओर बढ़ा देते हैं. एक बार कहा भी था बाउजी ने कि एक और पेपर मंगवाने लगे. लेकिन सुधीर ने छूटते ही कह दिया-

“बाउजी, खबरें तो वही छपनी हैं दूसरे अखबार में भी, तो काहे को पैसा बरबाद करना? आपके पास पूरा दिन खाली रहता है, आखिर करना क्या है आपको? पड़े-पड़े अख़बार ही पढ़िये.”

उसके बाद कुछ नहीं बोले बाउजी. मन तो था कहने का कि वे दे दिया करेंगे डेढ़ सौ रुपये अलग से, दूसरे अखबार का, लेकिन फिर कहा नहीं, चुप लगा गये. पता नहीं क्या सोचें बेटा-बहू. एक समय के बाद बच्चे भी कितने पराये लगने लगते हैं..... एकदम बदले हुए से. सोचते हैं कई बार बाउजी. यही सुधीर उनके बिना सोता नहीं था. शाम को कॉलेज से लौटे नहीं कि सुधीर बाहर बरामदे में इंतज़ार करता मिलता था. दौड़ के लिपट जाता. वे चाय पीते, तब वो दूध पीता. उन्हीं के साथ खाना खाता. कंघी भी उसे बाउजी से ही करवाना पसंद था. उसका छोटा भाई सुनील मां से ज़्यादा लगा था. और बहन सत्या भी मां से ही ज़्यादा लाड़ करती थी. हांलांकि पिता इन तीनों ही बच्चों को प्रिय थे. ही बच्चों को प्रिय थे. बड़े हुए, कॉलेज में पहुंचे, तब भी बाउजी की आज्ञा के बिना कुछ न करते. कहीं जाना हो या कुछ खरीदना हो, तो बाउजी की सहमति ज़रूरी होती. सुधीर तो नया कपड़ा जब तक बाउजी को दिखा न ले, उसे चैन कहां? और अब!! अब तो कब क्या आ रहा घर में बाउजी को पता ही नहीं. हांलांकि उनका न बहुत ध्यान जाता है इन बातों पर न ही बुरा लगता है कि उन्हें क्यों नहीं बताया. लेकिन अगर बताते तो खुशी ज़रूर होती.

“बाउजी ssssss.................. खाना आपके कमरे में ही भिजवा दूं या यहां आ रहे हैं?” आवाज़ ऊंची करके पूछा सरोज ने, ताकि बाउजी एक बार में ही सुन लें.

जवाब देने के पहले उठ के डायनिंग रूम की ओर चल दिये थे बाउजी.

“अरे यार वहीं दे दो न. यहां कहां बैठेंगे? इतनी देर तक खाना खाते रहते हैं वे. वहीं दे आया करो, उनके कमरे में.”