अचानक गुड्डू को याद आया कि उसके स्कूल में भी तो लोककला पेंटिंग होने वाली है, वो भी नेशनल लेबल की!! यदि बाउजी कोलाज़ जानते हैं, तो और भी बहुत कुछ जानते होंगे. गुड्डू तुरन्त वापस लौटा. बाउजी को बताया. बाउजी तो बाखुशी तैयार हो गये. कब से तो कोई काम जैसा काम खोज रहे थे वे. अब हाथ आया है तो छोडेंगे नहीं. गुड्डू भी मारे खुशी के दौड़ता हुआ सरोज के पास गया खबर सुनाने.
“जानती हो मम्मा, बाउजी कोलाज़ जानते हैं और फ़ोक पेन्टिंग भी. वे मेरी एग्जीबिशन के लिये पेंटिंग बनायेंगे...हुर्रे.....!”
“अरे! बाउजी कैसे बनायेंगे? उन्हें कैसे आती होगी?? मैने करीम भाई से बात कर ली है. वे पेंटर हैं न, सो बढ़िया पेंटिंग बनवा देंगे.”
गुड्डू के पीछे-पीछे रसोई तक पहुंच गये बाउजी ने कुछ कहने को मुंह खोला था, लेकिन सरोज की बात सुनके वापस मुंह बन्द कर लिया.
“नहीं मम्मा. मुझे पेंटर वाली पेंटिंग नहीं चाहिये. उसमें नम्बर नहीं मिलेंगे. कई लड़के बनवा रहे न उनसे. मुझे तो बाउजी वाली ही चाहिये. मुझे फ़र्स्ट आना है भाई. तुम्हें पता नहीं शायद बाउजी तो कोलाज भी बना लेते हैं.” गुड्डू ने फिर ज्ञान बघारा.
गुड्डू की ज़िद के आगे सरोज ने भी घुटने टेक दिये.
अगले दिन सुबह बाउजी ने डेढ़ मीटर लम्बा और डेढ़ मीटर चौड़ा प्लाई का टुकड़ा मंगवाया. दूधवाले से कह के गोबर मंगवाया. उसका घोल बनाया एक बाल्टी में और ब्रश से पूरी प्लाई पर एक कोट किया. सरोज कहती रह गयी कि –“थक जायेंगे, बीमार पड़ जायेंगे, तो पेंटिंग तो ठीक ही है, एक नई समस्या आन खड़ी हो जायेगी.” लेकिन बाउजी अपने इस भूले-बिसरे काम को करने में बेहद मगन थे. एक कोट करने के बाद ही वे अपने कमरे में गये. थोड़ा आराम किया और फिर काम पर लग गये. अब दूसरा कोट किया गया. एक घंटे बाद तीसरा कोट. अब प्लाई एकदम गोबर से लीपी गयी चिकनी ज़मीन सा दिखने लगा था. प्लाई के सामने कुर्सी पर बैठे बाउजी ने अपने सधे हाथों से पचासों बिन्दु बनाये, खड़िया मिट्टी के सफेद घोल से. और फिर इन्हें मिलाने लगे. दो-दो बिन्दु मिल रहे हैं. कलाकृति आकार ले रही थी धीरे-धीरे. अगले एक घंटे में ही बाउजी ने बुंदेलखंड के प्रसिद्ध “सुरतिया” को बोर्ड पर उतार दिया था. ये कलाकृति बुंदेलखंड के हर घर में बनाई जाती है, दीपावली के समय. बगल में बैठा गुड्डू पूरे मनोयोग से देख रहा था बाउजी को काम करते हुए. और जब पेंटिंग तैयार हुई, तो हक्का-बक्का सा देखता रह गया. झूम उठा गुड्डू. सुधीर और सरोज भी भौंचक से खड़े थे. जैसे बाउजी का एक नया ही अवतार देख रहे हों.
अपने ज़माने में यूनिवर्सिटी के टॉपर रहे बाउजी का नाम आज भी सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थियों की सूची में विश्व विद्यालय की दीवार पर अंकित है. कविताओं का अर्थ ऐसा समझाते हैं कि दो लाइन की व्याख्या, आप दो पेज़ में कर के रख दें. रस,छंद, अलंकार सब इस खूबी से समझाते हैं कि ज़िन्दगी में आप कभी न भूलें. लड़के स्कूल के हों या कॉलेज के, हिन्दी में अटकने पर उन्हीं की शरण में आते. दिल के इतने सच्चे और ईमानदार, कि जो कहना है साफ़ कहना है. झूठ शायद ही कभी बोले हों. काम के प्रति ईमानदारी इतनी कि कोई भी मौसम हो, दस बजे सुबह ऑफ़िस पहुंचना यानी ठीक दस बजे ही पहुंचना. लोग उनके आने से घड़ी मिलाने लगे थे अपनी. जाने का समय उनके पास मौजूद काम के अनुसार होता था. पांच के छह भले ही बज जायें, चार बजे कभी नहीं उठे वे अपनी कुर्सी से. पता नहीं कितने ग़रीब लड़कों की फ़ीस, यूनिफ़ॉर्म, किताबें सब खरीद के दिलवाते रहे. ( तब सरकारी स्कूलों में यूनिफ़ॉर्म और किताबें मुफ़्त मिलने का चलन नहीं था.) पूरे घर पर ये रुआब कि बाउजी हंस रहे हैं, तो सब हंस रहे हैं, बाउजी तनाव में हैं, तो सब तनाव में. बाउजी कह दें आज तो दावत होगी घर में, तो बच्चे नाचने लगते. बड़ी मम्मा यानी बाउजी की धर्मपत्नी, उन्हें सब इसी सम्बोधन से बुलाते हैं, रसोई की ओर रुख करतीं. बाउजी पूरा मेन्यू बनाते. सब्ज़ियां, खीर, कचौरी, पूरी, रायता सब बनता. पूरा घर दावत उड़ाता. बाउजी कह दें कि आज तो खिचड़ी खाने का मन है, तो पूरा घर खिचड़ी खाने पर उतर आता.
(क्रमशः)