विज्ञापन की महिला padma sharma द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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विज्ञापन की महिला

विज्ञापन की महिला

चेहरे पर खुशी

आँखों में उत्साह

मेकअप की कई पर्तों में ढँकी

सजी-सँवरी

बाहर से हँसती हुई

अन्दर से गमगीन

पर खिली हुई दीखती हैं

विज्ञापन की महिलाएँ

दिल में हैं कइ्र्र जख्म

छुपाकर उनको

खिलखिलाती हैं

घर जाकर फिर उनसे

होना है रूबरू

वे कैमरे में और कमरे में

होती हैं अलग - अलग

उनकी रील लाइफ

और रियल लाइफ

होती है बिल्कुल अलग

गर्मी के विज्ञापन में भी

मर्द रहते हैं सूट-बूटेड

असह्य सर्दी के विज्ञापन में

है नारी अर्द्धवस्त्र

पता नहीं किसका

कर रही हैं विज्ञापन

या दे रही हैं ज्ञापन

खोजी नजरें तो

कपड़ों के अन्दर से भी

ले लेती हैं नाप

सीने और अधखुले वस्त्र

ओछे और छोटे वस्त्र

नाममात्र के कपड़े

कर रहे हें प्रचार किसी वस्तु का

साथ ही प्रसार किसी और ‘बात’ का

सब ओर वे ही दिख रही हैं

चाहे उत्पाद

मर्दों के लिए हों

स्त्री के लिए हों ,

या बच्चों के लिए

इनका होना जरूरी है

वे अपनी अदा

अपनी देह

दिखाने का

सबको रिझाने का

ले रही हैं मेहनताना

उन्हें नहीं मालूम

वे बन गयी हैं श्रमिक

पैसा पा रही हैं श्रम का

पर वो भी आधा

तिजोरी भर रहे हैं

वे लोग

जो देते हैं मेहनताना

शोषण कर रहे हैं

जेबें भर रहे है

दे रहे हैं कम

पा रहे हैं मनमाना

उनकी देह और मन के

उत्पीड़न का बुन रहे हैं

विज्ञापन की महिला

चेहरे पर खुशी

आँखों में उत्साह

मेकअप की कई पर्तों में ढँकी

सजी-सँवरी

बाहर से हँसती हुई

अन्दर से गमगीन

पर खिली हुई दीखती हैं

विज्ञापन की महिलाएँ

दिल में हैं कइ्र्र जख्म

छुपाकर उनको

खिलखिलाती हैं

घर जाकर फिर उनसे

होना है रूबरू

वे कैमरे में और कमरे में

होती हैं अलग - अलग

उनकी रील लाइफ

और रियल लाइफ

होती है बिल्कुल अलग

गर्मी के विज्ञापन में भी

मर्द रहते हैं सूट-बूटेड

असह्य सर्दी के विज्ञापन में

है नारी अर्द्धवस्त्र

पता नहीं किसका

कर रही हैं विज्ञापन

या दे रही हैं ज्ञापन

खोजी नजरें तो

कपड़ों के अन्दर से भी

ले लेती हैं नाप

सीने और अधखुले वस्त्र

ओछे और छोटे वस्त्र

नाममात्र के कपड़े

कर रहे हें प्रचार किसी वस्तु का

साथ ही प्रसार किसी और ‘बात’ का

सब ओर वे ही दिख रही हैं

चाहे उत्पाद

मर्दों के लिए हों

स्त्री के लिए हों ,

या बच्चों के लिए

इनका होना जरूरी है

वे अपनी अदा

अपनी देह

दिखाने का

सबको रिझाने का

ले रही हैं मेहनताना

उन्हें नहीं मालूम

वे बन गयी हैं श्रमिक

पैसा पा रही हैं श्रम का

पर वो भी आधा

तिजोरी भर रहे हैं

वे लोग

जो देते हैं मेहनताना

शोषण कर रहे हैं

जेबें भर रहे है

दे रहे हैं कम

पा रहे हैं मनमाना

उनकी देह और मन के

उत्पीड़न का बुन रहे हैं

सरेआम ताना-बाना

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मेरी मुम्बई

ये मेरी मुम्बई है

इसने झेले हैं कई जख्म

कई चोंटें भी

खाई हैं कई ठोकरें भी

कई घाव हुए इसके दिल में

इसकी इमारतों में हुए हैं

दर्दनाक हादसे

जवानों ने यहाँ के

झेले हैं कई खतरे

वो रात का मंजर

भूले न भुलेगा

इतिहास का लेखा है

कइयों की गयी जान

कुछ दिन खोयी मुम्बई

कुछ पल ठिठकी

कुछ क्षण सोयी

फिर से चल पड़ी

अपनी इठलाती चाल

ये मेरी मुम्बई है

राह में पड़ी लाश

दफ्तर और होटल के धमाके

बाढ़ में फँसे वाशिंदे

खतरों में फँसे लोग

कुछ दिन सहमी रहती है

डरी सी मुम्बई

फिर से चल पड़ती है

अपनी बल खाती चाल

ये मेरी मुम्बई है

रोज होते हैं उत्पात

कभी भाषा के , कभी जाति के

कभी नस्ल को लेकर

कभी जन्मना अंचल को लेकर

लड़ते हैं लोग अक्ल खोकर

पूरा देश सहम जाता है

विश्व भौंचक्का हो जाता है

शुरु हो जाता है विवाद

दंगंे-फसाद

पर जैसे कुछ हुआ ही न हो

शांत ,निर्भीक

चल पड़ती है

अपनी आत्म विश्वासी चाल

ये मेरी मुम्बई है

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चीरहरण

चीर हरण क्या करे दंुशासन हरने को ही चीर नहीं है

आँखें बंद क्यों करें पितामह आँखों में वो पीर नहीं है

यहाँ तो हारी खुद ही सीता रावण हारा असमंजस में

देह दुकान धरे बैठी ये सावित्री भी अधीर नहीं है

जिस तन में ममता का सागर उसमें अब कामुकता दिखती

विचार हुए हैं समृद्ध बड़े ही भाव मगर गम्भीर नहीं हैं

भारी हैं लाखों के जेवर वस्त्र हुए छोटे उतने हैं

सुन्दरता की लगीै नुमाइश रांझे की अब हीर नहीं है

जान लुटा दे देश की खातिर शत्रु का कर डाले संहार

अरि को अब जो मार गिराए शायद वो शमशीर नहीं है

अपनों से ही आँच आन पर किस का करें भरोसा

बचा सके जो लाज नारि की ऐसा अब बलबीर नहीं है

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स्त्री के काम

लौट आयी है वो काम से

पुकारी जाती है घर में

वो दूसरे नाम से

घुसते ही उठाती है मोजा

राह में पड़ा पति का

रखती है सहेजकर

बच्चों की बिखरी किताबें ,

जूतों को लगाती है करीने से

फिर अपनी जूती उतारती है

कमरे में रखी जूठी प्लेटें

और गिलास पानी के

रखती है घिनौची पर

तब हाथ का पर्स

रखती है अल्मारी में

कपड़े बदल हाथ मुँह धेाकर

चाय चढ़ाती है गैस पर

बच्ची की ठुनकती बोली

ध्यान ले आती है होमवर्क पर

चीनी , चाय पŸाी डाल

देखती है सब्जी नदारद

क्या बनायेगी रात को

अब आयेगी उसकी ही शामत

दूध डालती है

उबलती है चाय

अन्दर भी उबलता है बहुत कुछ

बस खदकता रहता है

उफनता नहीं

चाय की चुस्की , उड़ती भाप

मन में कई सारे काम

उनकी गुंजलक में

भूल गयी है स्वाद

बस मीठा और गरम ‘कुछ’ है

अपने न होने का अहसास

दो आलू की सब्जी

पति और बच्चे खाकर

सो चुके हैं कबके

बचे हैं पतीली में चार टुकड़े

अधपेट खाती है वह

पेट के लिए कमाती है वह

बिस्तर पर लेटकर भी

अगले दिन की तैयारी

पूरी रणनीति

बनती है मन में

थकान तन में

पलक झपकती है

नींद में बड़बड़ाती

बच्ची को थपकती है

सिर में दर्द, आँखों में नींद

जकड़ रहा है बदन

हो रही थकन

तिस पर भी

पति की इच्छा को

करती है पूरा अनिच्छा से

पिस रही है वो

भीतर और बाहर

फिर जाती है वो काम पे

वहाँ पहचानी जाती है वो

दूसरे नाम से

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