उपन्यास: शम्बूक -6
रामगोपाल भावुक
4 श्रीराम के काल में आश्रम प्रणाली
सतेन्द्र के अपने गाँव वापस लौटते ही सुमत के चित्त में श्रीराम के काल में पल्लवित हो रही आश्रम प्रणाली के विचार घनी भूत हो उठे-
भारत वर्ष में श्री राम के काल में आश्रम प्रणाली बहुत तीव्र गति से फल-फूल रही है। प्रत्येक आश्रम के आचार्य प्रमुख के अपने-अपने नियम हैं। आश्रमों के बाहर राज्य का अस्तित्व होता है किन्तु आश्रम के अन्दर गुरुदेव के अपने बनाये नियमों से वह संचालित रहता है। इस तरह प्रत्येक आश्रम अपनी-अपनी तरह से संचालित हो रहे है। श्रीराम भी उन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप पसन्द नहीं करते है। उन्हें यह पूरा विश्वास है कि आश्रम असत् के पथ पर नहीं जा सकते। इधर कुछ आश्रम अपने को राज्य शासन से ऊपर मानने लगे हैं। कोई राजा आश्रम में प्रवेश करता हे तो जन सामान्य की तरह ही उसमें प्रवेश कर पाता है। इसी कारण कुछ आश्रमों के आचार्य, अधिष्ठाता अपने आश्रम के मनमाने नियम कानून बनाने लगे हैं। लोग अपने अस्तित्व का सम्पूर्ण समर्पण करके के ही आश्रमों में प्रवेश कर पाते हैं। इससे उनमें उच्छखंलता आना स्वाभाविक हो गया है। इस तरह आश्रम दिन-प्रतिदिन जन सामान्य के साथ मनमाना व्यवहार करने लगे हैं।
आश्रमों की व्यवस्था के लिये ब्रह्मचारी किसानों की फसल आने पर भिक्षा के लिये झुंड में निकलते है। वे किसानों के खलियानों से ही आश्रम के लिये भिक्षा एकत्र कर ले जाते हैं। किसान लोग आश्रमों के नाम पर खलियान से अन्नदान एक निश्चित अंश में निकाल कर आश्रमों में पहुँचा देते हैं, वे मानते हैं इससे उपज में बढोत्तरी होती है तथा इससे प्रकृति के प्रकोप से भी किसानों की फसल बची रहती है। इस तरह आश्रमों से जन जीवन का जुड़ाव बना रहता है। इस वर्ष गत वर्ष की अपेक्षा किसानों की फसल अच्छी आई है। आश्रमवासी यह प्रचार करते फिर रहे है कि फसल अच्छी आने का कारण उनकी तपस्या है। इस वर्ष तो आश्रमों से ब्रह्मचारी अन्नदान एकत्रित करने झुंड के झुंड निकल पड़े है। वे गाँव-गाँव जाकर किसानों से आश्रमों के लिये अनाज एकत्रित कर रहे हैं। कृषक बन्धु एक दूसरे को अपनी शान प्रदर्शन में एक दूसरे से अधिक अन्नदान कर रहे हैं। शासन भी आश्रमों की व्यवस्था के लिये सहयोग करने तत्पर रहता है। इस तरह आश्रम पूरी तरह सम्पन्न होते चले जा रहे हैं।
मुझे मेरे फूफा जी परमानन्द शास्त्री से यह वृतांत ज्ञात हुआ था कि शम्बूक के गाँव में भी दूर के किसी आश्रम से दो ब्रह्मचारियों का अनाज एकत्रित करने के लिये आगमन हुआ। उन्हें देख कर गाँव के लोग उनकी आवभगत में लग गये। गाँव के लोग उन्हें खलियानों में ले जाकर अन्नदान दिलाने में सहयोग करने लगे। जब उनके पात्र छका-छक भर गये, नीम के पेड़ के नीचे सभी ग्रमीणों के साथ बैठक जम गई। वे ब्रह्मचारी आश्रम से ढेर सारी मृगछालायें लेकर आये थे। गाँव की प्रतिष्ठा के क्रम में लोगों को आश्रम की ओर से उपहार में देने लगे। जब सारी मृगछालायें बट गई तो बोले -‘देखिये ये मृगछालायें आपके बड़े काम की हैं। इन पर बैठकर की गई साधना षीघ्र ही फलदाई होती है। आशा है आप लोग अपनी साधना में इसका उपयोग अवश्य ही करेंगे। ये हमारे गुरुदेव की ओर से आप के लिये विशेष उपहार है। जिन लोगों को ये नहीं मिल पाईं हैं वे निराश नहीं हों अगले वर्ष हम उनके लिये भी लेकर आयेंगे। जिन्हें मृगछाला मिलीं थीं वे उन्हें खोल- खोलकर एक दूसरे को दिखा रहे थे। शम्बूक को लगा- ये इतनी सारी मृगछालायें मरे हुये मृगों की कैसे हो सकती है, ये तो आश्रम वासियें ने इनकी हत्या की है। जिन प्राणियेां की हत्या की गई है उनकी मृग छालाओं पर बैठ कर की गई साधना कैसे फलदाई हो सकती है! मैं यह जानता हूँ स्वाभाविक रूप से मरे हुये मृगों की मृगछालायें आश्रम वासियेां के वस्त्रों की पूर्ति करती हैं। शम्बूक के पिता श्री सुमेरू काका जी अपने पुत्र को सोचते हुये देखकर बोले-‘ आप अपने साथ हमारे शम्बूक को आश्रम में लिये जाओ, गुरुजी से हमारी ओर से निवेदन करना कि यह बचपन में अक्षर ज्ञान तो एक आश्रम में रह कर सीख गया है। इसे आगे ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा है यह बात हम बचपन से देख रहे हैं। हमारी ओर से आचार्य जी से कहना कि वे शम्बूक को तप करने का मार्ग सुझा दे। यह आप लोगों के साथ अन्न की पोटली आश्रम तक ले जाने में मदद कर देगा। वहाँ रहकर आश्रम की सेवा भी करता रहेगा।’
इस तरह वे शम्बूक को अपने साथ लिवा कर ले गये। इससे उसके सभी परिजनों को बड़ी राहत मिली। वे सोचने लगे-‘चलो, अब तो यह जिस रास्ते पर चलना चाहता है वह पथ इसे मिल ही जायेगा। मनचीता करते रहने से लक्ष्य सहजता से नहीं मिल पाता। गुरुदेव के बतलाये मार्ग पर चलकर लक्ष्य आसानी से मिल जाता है। इस तरह सभी लोग उसकी तरफ से आश्वस्त होकर अपने-अपने के काम में लग गये थे।
कुछ किसान गेंहूँ के लाँक पर टटिया चला रहे थे। कुछ हवा का रुख देखकर उड़ान कर रहे थे। एक खलियान में पुरुष तिपाहिए पर खड़ा हवा का रुख देखकर भूसे में से गेंहूँ निखार रहा था, उसे एक औरत पलवा दे रही थी। एक बूढ़ी औरत बोंखरी(बुहारी) से अनाज से कूडा हटाकर साफ कर रही थी। छोटे किसानो के खलिहान निपट चले थे। वे अपने गठुआ पर दॉय चला रहे थे।
एक खलियान के लोग अपने काम से निवृत हो गये थे तो पैदावार का हिसाब लगा रहे थे। सुमेरु काका कह रहा थे-‘बीज के लिये तो पहले ही बचाकर रखना पड़ेगा। सरकार को सारी फसल का दशांश पहुँचाना पड़ेगा। राम जी के राज्य में लोगों की सम्पन्नता क्या बढ़ी है कि विवाह महगें हो गये हैं!’
पास में बैठे धनीराम ने कहा- श्री राम जी के विवाह के बाद उनमें नये-नये चाल-चलन चलने लगे है। आदमी की शान-शौकत इतनी बढ़ गई है कि सभी राज परिवार की तरह प्रदर्शन करना चाहते हैं, इसलिये आर्थिक तंगी रहना स्वाभाविक हो गया है। बेटी के विवाह में राजा जनक से प्रेरणा लेकर दहेज का चलन चल पड़ा है। दहेज के प्रकरण में सभी राजा जनक बनना चाहते हैं। दिखावा बहुत बढ़ रहा है। श्रीराम ने सत्ता का जो त्याग किया है उसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता।’
सुमेरु काका बोले-‘हम जो आश्रमों के लिये दान देते हैं, उससे राज्यकीय कर देते समय छूट मिल जाती है। इसी करण लोग आश्रमो के लिये बढ़-चढ़कर दान देते हैं। इन दिनों आश्रम शिक्षा के बड़े-बड़े केन्द्र बन गये हैं। अब तो देखना यह है कि हमारा शम्बूक वहाँ से कितना क्या सीखकर आ पाता है?
उधर राह चलते में शम्बूक को वे दोनों ब्रह्मचारी उसे आश्रम में रहने के तरीके सुझा रहे थे। एक कह रहा था-‘गुरुदेव तर्क करना पसन्द नहीं करते। उन्होंने जो कह दिया, हम लोग उनकी बात पर आँख मूंद कर विश्वास करते हैं। भैया उन्होंने रात को दिन कह दिया तो हम सभी शिष्य उनकी बात के समर्थन में अपने अपने सिर हिला कर उनकी बात का समर्थन कर देते हैं। आश्रम में इतना साहस किसी का नहीं कि उनकी बात काट सके।’
उसकी बात को आगे बढ़ाते हुये दूसरे ब्रह्मचारी ने कहा-‘ भैया वे अपने गुरुजी हैं। त्रिकालज्ञ हैं। हमारे मन की सारी बातें जान लेते हैं। हम कभी कुछ कहने को होते हैं तो वे अक्सर कहने लगते हैं-‘ मैं सब जानता हूँ ,तुम्हारे मन में क्या चल रहा है। यह सुनकर तो हमारे सोच पर ही विराम लग जाता है। गुरुदेव महान तपस्वी हैं। वे अपने आसन पर बैठे-बैठे सब देखते रहते हैं। वे दिव्य दृष्टि बाले परम योगी हैं। हमने यदि उनके सामने कुछ भी असत्य कह दिया तो वे तत्काल हमारे असत्य भाव को पकड़ लेते हैं फिर उनके दण्ड’ से बचा नहीं जा सकता।’
शम्बूक सोचने लगा-‘ये ब्रह्मचारी तो आश्रम में पहुँचने से पहले मेरे मन पर अपने गुरुदेव का प्रहरेदार की तरह पहरा बैठा रहे हैं। गुरुदेव से ये ब्रह्मचारी कितने भयभीत हैं। इसका अर्थ है एक राजा की प्रजा की तरह, उनके आश्रम में भी एक तंत्र ही हैं। ऐसे आश्रम में कैसे मैं रह पाउँगा! मैं सत्य की खोज के लिये निकला हूँ। सत्य को बिना तर्क की कसौटी पर कसे, प्रमाणित करना कठिन है।’
यही सब सोचते हुये हम आश्रम के निकट पहुँच गये। आश्रम की प्राचीनता स्पष्ट झलक रही थी। बरगद, पीपल और नीम के वृक्षों की छाया प्रकृति के वातावरण को अनुकूल बनाने में सहयोग कर रही थी। वहाँ पहुँचते ही मन शान्त हो गया। मेरे मन का नकारात्मक सोच जाने कहाँ विलीन हो गया। मुझे उसके अन्दर प्रवेश करने में अच्छा लग रहा था। मैंने ब्रह्मचारियों के साथ चुपचाप मुख्य द्वार से आश्रम में प्रवेश किया। आश्रम में सभी छात्र ब्रह्मचारियों की भेष-भूषा कमर के नीचे केशरिया वस्त्र, उस बस्त्र का आधाभाग ऊपर कन्धों से इस तरह कसा है कि उनका जनेऊ बाहर झाँकता रहे। सिर पर काले लम्बे वालों का समूह जिसे कन्घी से व्यवस्थित करके उसकी गाँठ लगा दी गई जिससे कार्य में व्यवधान उत्पन्न न करें। शम्बूक को यह वेष उसके मन को भा गया। यहाँ रह कर निश्चय ही मुझे भी ऐसी ही वेषभूषा अपनानी पड़ेगी। इसी समय एक कक्ष से वेदों की ऋचाओं का पाठ करते विद्यार्थियों का सस्वर पाठ, उसके मन को झंकृत करने लगा।