उपन्यास: शम्बूक -7
रामगोपाल भावुक
4 श्रीराम के काल में आश्रम प्रणाली भाग.2
अब तक वह उन ब्रह्मचारियों के पीछे-पीछे चलकर, जो अन्न गाँव से लेकर आये थे उसे कोठार में सँभलाया। उसके बाद हम गुरुदेव के कक्ष में प्रवेश कर गये। सामने आचार्य की वेषभूषा में सजे-संवरे, पदमासन की मुद्रा में विराजमान गुरुदेव को देखा। माथे पर रामानन्दी तिलक शोभयमान हो रहा था। उसने भी उन ब्रह्मचारियों की तरह उन्हें साष्टांग दण्डवत किया।
आचार्य का स्वर उसके कानों में गूँजा- ‘वत्स तुम कौन?’
उनका प्रश्न सुनकर वह काँप गया। वह जान गया कि जैसे ही वह कहेगा कि वह शूद्र है, वे उसे अस्वीकार कर देंगे। यह सोचकर भी वह सत्य ही बोला-‘मैं शम्बूक, शूद्र हूँ ज्ञान प्राप्ति की आशा से यहाँ आया हूँ। कृपा करके मुझे कृतार्थ करें।’
वे एक क्षण तक कुछ सोचते रहे फिर बोले-‘तुम तो सत्यकाम जावाला की तरह निर्भीक जान पड़ रहे हो। उसका तो पिता भी ज्ञात नहीं था तुम्हें सत्य भाषित तो है और उसे स्वीकार भी कर रहे हो। मैं तुम्हारे भी सत्यनिष्ठ होने से बहुत प्रभावित हुआ हूँ। अतः तुम्हें अपना शिष्य स्वीकार करता हूँ। तुम इस आश्रम में रह सकते हो। उन्होंने अपने एक शिष्य को आवाज दी-‘ सुरेन्द्र।’
उसने कक्ष में प्रवेश करते हुये कहा-‘ जी गुरुदेव।’
‘इस छात्र को उत्तर वाले कक्ष में ले जाकर व्यवस्थित कर दो। अब ये यही रहेगा। इसे आश्रम के सारे नियमों से अवगत करा दो।’
‘जी, गुरुदेव।’
इसके बाद वह शम्बूक के पास आकर बोला-‘ चलिये।’
शम्बूक आत्म विश्वास समेटते हुये उठा और उसके पीछे- पीछे चल दिया। वह उसे उत्तर के कक्ष में ले जाकर बोला-‘ इसमें बहुत से छात्र निवास कर रहे हैं। उस कोने में अपनी चटाई विछा लो। वहीं अपने दैनिक जीवन यापन का सारा सामान अन्य छात्रों की तरह व्यवस्थित करलो। अभी चलकर आये हो। आराम करलो। किन्चित समय के पश्चात् ,अध्ययन से निवृत होकर,छात्र आते होंगे। दिन अस्त होने के पश्चात् सभी गुरुदेव के समक्ष उपस्थित होंगे। तुम्हें भी उन्हीं के साथ प्रत्येक दिन गुरुदेव के समक्ष उपस्थित रहना पड़ेगा। वहाँ समस्या का समन होता है। किसी प्रकार की कोई समस्या हो गुरुदेव के समक्ष प्रस्तुत कर दें। तुम्हें समाधान मिल जायेगा। कल सुबह से गौशाला की सेवा कराना पड़ेगी। उससे निवृत होकर अध्ययन कक्ष में उपस्थित रहना पड़ेगा। गौ सेवा की बात सुनकर उसे अच्छा लगा। घर पर भी तो अपने घर की गायों की सेवा में ही लगा रहता था। अब मैं यहाँ से भागने वाला नहीं हूँ।
जो व्यक्ति उसे इस कक्ष में भेजने आया था ,वह वहाँ से जा चुका था। उसने दीवार के सहारे एक कोने में टिकी चटाइयों में से एक चटाई उठाई और उसके बतलाये कोने में विछा ली। वह आराम करने के लिये उस पर लेट गया। उसे लगा वह पहली वार अपनी कल्पना के स्वर्ग में आ गया है। कुछ ही समय व्यतीत हुआ होगा कि उसमें निवास करने वाले छात्र आ गये। सभी उससे उसका परिचय पूछने लगे। वह क्रम से सभी से अपना परिचय बताने लगा। सभी ने एकत्रित रखी चटाइयों में से अपने अपने स्थान पर चटाइयाँ विछा ली और उन पर सुस्ताने के लिये बैठ गये। कुछ उन पर लेट भी गये। जिसको जैसा ठीक लग रहा था , बिना दूसरे को व्यवधान उत्पन्न किये अपना काम करने लगे। कुछ पढ़ने-लिखने का दैनिक अम्यास भी करने लगे। शम्बूक अपनी चटाई पर बैठा उनके कार्य- कलापों का निरिक्षण करने लगा- यहाँ एक साथ रहना है, खाना-पीना भी है। आश्रम में कार्यों का बटवारा उनकी जाति देखकर तो नहीं हैं। गुरुदेव भी क्या करें ,जिसके यहाँ जो कार्य किया जाता है, गुरुदेव, प्रवेश के समय उसके यहाँ किये जाने वाले कार्य के बारे में भी पूछ लेते हैं जिससे उस छात्र को उसी कार्य में लगाया जा सके। वह छात्र भी आसानी से उस कार्य को कर सकेगा। मुझे मेरे मन का ही कार्य मिला है। मुझे वे खाना बनाने में लगा भी देते तो मैं बना भी न पाता। मुझे भिक्षा माँगने के लिये भेज देते तो मुझे यह कार्य भी नहीं रुचता। यह सोचते हुये वह दूसरे दिन गौशाला में पहुँच गया। दूसरे अन्य छात्र उसकी साफ सफाई में लगे थे। कुछ जंगल से गायों के लिये घास काटने हासिया लेकर चले गये थे। कुछ गायों का दूध दोह रहे थे। कुछ दूध को एकत्रित कर पाकशाला में पहुँचा रहे थे। एक छात्र खड़ा खड़ा सभी को आदेश दे रहा था। उसने मुझे भी आदेश दिया-‘ तुम गायों का स्थान बदलकर बाँध दो। मैंने जहाँ बधीं थी वहाँ से खोल कर दूसरी जगह बाँधना शुरू कर दी। कुछ गायें मरखू थीं। उन का स्थान वदलने के लिये डन्डी हाथ में लेना पड़ी। यह मुझे अच्छा नहीं लग रहा था किन्तु मजबूरी में डन्डी का सहारा लेना पड़ रहा था। एक गाय तो उसे मारने दौड़ ही पड़ी। शम्बूक ने हाथ फेर कर उसे शान्त कर दिया। इस पर सभी छात्र आश्चर्य करने लगे। एक बोला-‘ इस गाय ने तो मुझे सींग से मारकर पटक ही दिया था किन्तु तुमने तो उसे प्यार से उस पर हाथ फेर कर शान्त कर दिया।’
यह चर्चा आश्रम में तेजी से फैल गई। बात गुरुदेव के कानों तक पहुँच गई। रात्री के समय प्रार्थना के बाद गुरुदेव ने उसके विवेक की सभी छात्रों के समक्ष बहुत प्रशंसा की। यह सुनकर वह बाग- बाग हो गया। उसके इस साहस की आश्रमभर में चर्चा का विषय बन गया। कुछ ही समय में उसे सब जान गये। यह मानव स्वभाव है कि जब कोई चर्चा का विषय बनता है उसी समय से उसका विरोध शुरू हो जाता है। उसके लिये सभी साथियों के दिलो में ईर्ष्या ने प्रवेश कर लिया। ऊपर से सभी वाह! वाह! कर रहे थे। अन्दर से सोच रहे थे कि कैसे यह इस आश्रम से भागे। कुछ तो उसकी शिकायत गुरुदेव से जाकर करने की सोचने लगे। सीधा-सच्चा शम्बूक किसी के मन की क्या जाने!
एक दिन की बात है जंगल में फल तोड़ते समय एक व्यक्ति पेड़ से गिर गया और उसे चोट लग गई। रक्त का श्राव हो रहा था। उपचार के लिये कुछ छात्र गुरु जी के पास दौड़े गये। शम्बूक ने उसके पिता श्री का बतलाया इलाज एक घमरा नाम की जड़ी पीस कर उसके रक्त प्रवाह वाले स्थान पर लगा दी। रक्त का श्राव बन्द हो गया। गुरुजी ने यह सब आकर देखा तो जो वे उसके सिर पर हाथ फेरने लगे। उसमें अनन्त सम्भावनायें तलाशने लगे।
चाटुकार तो सभी जगह होते हैं। वे गुरुदेव के कान उसके विरुद्ध भरने लगे। रात-दिन एक ही बात दोहरायी जाये तो वह सच न होने पर भी सच लगने लगती है। उसके सही होने पर भी गुरुदेव को उसके अबगुण ही अबगुण दिखाई देने लगे। अब तो गुरुदेव बात-बात पर उसे डॉटने लगे। कुछ ही समय में उसे आश्रम में रहना बोझिल लगने लगा।
एक दिन एक घटना घटी। गुरुदेव ने साधना में मृगचर्म पर बैठना अनिवार्य कर दिया। उनका दृष्टिकोण है कि मृगचर्म पर बैठकर की जाने वाली साधना षीघ्र फलदाई होती हैं। सभी छात्र साधना के समय मृगचर्म लेकर बैठने लगे। शम्बूक खड़ा-खड़ा कुछ सोचता रहा। गुरुदेव ने उसे सोचते देख लिया, वे उससे बोले-ष्शम्बूक, तुम्हें कुछ कहना है, कहो?’
उसने साहस करके कहा-‘ गुरुदेव, यदि मृगचर्म पर बैठकर कोई साधना फलीभूत होती है तो मुझे ऐसी सधना नहीं करना। जब-जब मैं मृगचर्म पर बैठकर साधना करता हूँ, मुझे कुछ दूसरे तरह के विचार घेर लेते हैं। आज्ञा हो तो कहूँ?’
गुरुदेव मुस्कराते हुये बोले-‘ कहो कौन से विचार?’
उसने एक सांस में सब कुछ कहा-‘गुरुदेव जिन प्राणियों की हत्या की गई है उसके चर्म पर बैठकर मुझे लगता है कि वह प्राणी मुझ से कह रहा है कि तुम्हारा इस मृगचर्म पर बैठकर की गई साधना से कल्यान होने वाला नहीं हैं। गुरुदेव, उस प्राणी की आत्मा मुझे कोसने लगती है। अतः मैं कुशासन पर बैठकर साधना करना चाहता हूँ।’
गुरुदेव की गम्भीर वाणी सुनाई पड़ी- शम्बूक, तुम्हें ज्ञात होगा कि सीता मैया ने श्रीराम जी को मृगचर्म के ही निमित्त उसे मारने के लिये भेजा था।
उसने उनकी बात का नम्रता से उत्तर दिया-‘ गुरुदेव, इस पाप का यह परिणाम निकला, जिसका प्रायश्चित करने में वे जीवन भर लगीं रहीं। हत्या तो हत्या है, चाहे किसी भी प्राणी की क्यों न हो।’
गुरुदेव की बात कटती सुन कर सभी छात्र उसके मुँह की ओर आश्चर्य चकित होकर देखने लगे। उसने देखा- गुरुदेव का रूप भी बदल गया है। वे अत्यन्त गम्भीर मुद्रा में तनकर बैठते हुए बोले-‘ तुम्हें ,हमारे निर्णय पर सन्देह हो रहा है। तुम्हारी बात से हमारे सभी छात्र तुम्हारी ओर सन्देह की दृष्टि से देख रहे हैं। अरे! मृगचर्म पर बैठकर की गई साधना फलदाई होती है। यह बात परम्परा से हम अपने गुरुओं से सुनते चले आ रहे हैं। और तुम्हें आश्रम के इस नियम पर सन्देह हो रहा है। अब तो तुम्हें इसी समय यह आश्रम छोड़कर चले जाना चाहिए।’
उसके सामने दो प्रश्न खड़े होगये। उसे गुरुदेव का आदेश मान लेना चाहिए अथवा उनसे अपनी बात के लिये छमा याचना कर लेनी चाहिए अन्यथा आश्रम से चले जाना चाहिए। उसे आश्रम से चले जाना ही उचित लगा। उसने विधिवत गुरुदेव को साष्टांग प्रणाम किया और अनमने मन से आश्रम से बाहर निकला।
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