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पीढ़ी की पीड़ा बादामी

मुझे हतप्रभ छोड बादामी तो एक झटके से बाहर निकल गई लेकिन मैं उसके शब्दों के अर्थ खोजने लगी थी। उसकी बातें दुगने बेग से मेरे विचारों पर छाती चली गई।

दूसरी औंरतों से कुछ अलग व्यक्तित्व है इसका । ...यूं वह वदानी छरहरे बदन की औरत है । त्वचा का रंग खूब गहरा साँवला, किन्तु नाक-नक्श बड़े आकर्षक और तीखे बदन सुघड़ और सुदंर- ऐसा कि हर कोई ठिठककर उसे एक बार देखने को मजबूर हो जाता। कुल मिलाकर सौंदर्य की ऐसी प्रतिमा ; जिसे ब्लैक-ब्यूटी कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी। मंगलसूत्र के नाम पर उसके गले में काला धागा, हाथों में सुर्ख लाल रंग की चूडियाँ, माथे पे बड़ी सी बिंदिया, यही साधारण सा श्रृंगार था उसका ।

...उस दिन मैंने चाय बनाकर एक कप अपने लिये ले ली और दूसरे कप में छानकर बाई के लिये रख दी थी। दीवार घड़ी पर नजर दौड़ाई तो देखा सात बज गये थे। घड़ी देखकर मन मे शंका उठने लगी की आज लगता है बाई नही आने वाली । बादामी के आने का समय साढ़े छः है यानी साढ़े छः- आप घड़ी मिला सकते है उसके आने से ।

अभी मै चायका आखिरी घूॅट पी कर कप रखने ही जा रही थी कि दरवाजे पर दस्तक सुनी । दरवाजा खोला तो देखा बादामी की बारह वर्ष की बेटी बबली घबराई सी खडी है।

मैंने पूछा- ‘‘क्यों मम्मी कहाँ है? वो नही आई ?‘‘

वह हकलाते हुई सी बोली - ‘‘आंटी जी आज मम्मी नही आएगी, मै यही करने आई हूँ।’’

‘‘क्या कही बाहर जा रही है वो ? तबियत तो ठीक है !’’

उसने फिर नकारात्मक रूप से सिर हिला कर कहा - ‘‘मम्मी ठीक है और घर पैई है।‘‘

मै खीझ गई ‘‘घर पर है तो फिर क्यों नही आएगी ?’’

वह एक पल को हड़बडा़ गई, आँखे नीचे कर कुछ देर शंात रही फिर बोली -‘‘पापा आ गए है।‘‘

इसके आगे कुछ भी पूछने की मुझे जरूरत नही थी। बबली वापस चली गई और मैने क्रोध में दरवाजे भेडे जिनकी भडाक, फट खट, ठक की आवाजें मेरे अंदर के तूफान की आवाजों से मेल खा रही थी। मैंने कोई प्लान यदि पहले से बनाया हो और किसी कारणवश वह अधूरा रह जाए तो मुझे बहुत कोफ्त होती है। ऐसा लगता है कि प्लान फेल करने वाला सामने मिल जाए उसमें तड़ातड़ चांटे घूंसे मारकर अपनी भडा़स निकाल लू। मेरे अंदर का तूफान झंझाबात बनकर झाडू, बर्तन और पानी के भगोने पर उतरने लगा।

मैं सहसा रूक कर सोचने लगी कि उसका पति कई दिनो के बाद घर लौटा ह,ै इसलिए उल्लास में उसने छुट्टी कर ली है। उसने चर्चा में बताया तो था कि उसका पति गोठू ट्रक चलाता है, किसी बात पर दोनों अलग रहने लेगे है लेकिन सम्बंध अभी भी पति-पत्नी के है। यह भी कि एक महीने से वह कहीं दूर गया है ।

अगले दिन जब वह आई तो मैं चौंकी। उसके साँवले चेहरे की चमक गायब थी, उसके स्थान पर गहरे काले झॉई के धब्बे गाल के ऊपरी पडावों पर दिख रहे थे। अंदर धसीं ऑखों के गिर्द गहरे स्याह रंग के घेरे थे। माथे पर लाल बिंदिया सलवटों के साथ ऊॅची-ऊॅची लग रही थी। बाल जूड़े में नही थे। वे आज लटों का रूप धारण कर इधर-इधर बिखर रहे थें। हाथ की भर चूडियेां में से कई नदारद थी और कुछ चूंड़ियों की तो आवाज ऐसी लग रही थी जैसे वे चटक गई हों। उसकी चाल-ढाल तथा उसके काम में रोज की तरह आज तेजी नही थी। बल्कि एक उदासीनता थी, ऐसा लग रहा था कि उसे वैराग्य हो गया है।

मैंने सहज होकर पूछा- क्यों बाई क्या बात है ? तबियत तो ठीक है।‘‘ वह बडे ही विरक्त भाव से बोली- ‘‘बैनजी मेई तबियत कों का भओं ? मैं तो कारे कऊआ खाकें आई हो। मरई जाती तो दुख काये उठाने पडते सब जंजालन से मुकुति पा जाती।‘‘

मैं पटा (चौकी) डालकर आंगन में उसके पास बैठ गई ‘‘बबली‘‘ बता रही थी कि उसके पापा आये थे।‘‘

पति की बात सुन वह बिफर गई ‘‘बेनजी वो आदमी नई मै पूरौ कसाई है जासे तो होयई नई तौऊ अच्छो है। बिना बात मोई पिटाई करते मेरी। कल खूब मारो धुआ लगे ने मो को।‘‘

मैं चौंकी महिलाये पति की लंबी उमर के लिये करवाचौथ का व्रत रखती है पर ये तो अनोखी महिला है। जो पति की मरन कामना कर रही हैं।

वह उसी आर्न्तनाद करते स्वर में बोली ‘‘बेनजी तुम्हाईग सों मैं भौत परेशान हों। मैं वासे कौऊ संबंध नही रखै हों,

न्यारे हो गये दो जन, मैं वासे अलग रह रई हों तौऊ मोए खाए जात है। बाने मेरी नाक में दम कर दई है।‘‘

मैंने कहा. ‘‘लेकिन हुआ क्या था ?‘‘

वह बोली - ‘‘बैनजी कछू नही सोमवार को पइसा मिले होंगे सों बस मंगल को शराब पीेकें आ गऔं और घर भर को गरियान लगौ।‘‘

मैंने सस्मित कहा- ‘तो क्या हुआ? शराब पीना तो उसकी पुरानी आदत है न ? फिर वो चाहे तब तुम्हारे घर आता ही रहता है।‘‘

‘‘बेनजी जो बात नईयै, में तुमसे का कऊँ। ‘‘ कहकर वह कुछ लज्जाशील हो चली थी। उसने चारों तरफ देखा। जब वह संतुष्ट हेा गई कि आसपास दूसरा कोई नही है तो वह फुसफुसा कर बोली - ‘‘बो मेरे संग के लाने मारो जा रहो है । आज तो बेनजी वो काम पे नई आने दे रओ थो, कह रओ थो कि आज मत जा आज मौका देख के ....। अब बेनजी तुमई बताओं मौंडी-मौडा बडे हो गये है, उनके सामने फिर दिन में जे काम सोभा देंते का?

अब पूरी स्थिति मुझे समझ आ गई थी।

मैंने हॅसकर कहा- ‘‘बाई वो तुमको बहुत चाहते है।‘‘

मेरे यह शब्द सुनकर वह और अधिक सिकुड़कर गठरी बन गई थी। मैने उसे समझाया ‘‘देखो बाई, आदमी को भी समय देना चाहिए। जब तक उसके पास बैठोगी नही, उससे मन नही जोडोगी और उसे अपनी समस्या नहीं सुनाओगी। फिर वह घर गृहस्थी से कैसे जुडा रहेगा।..........’’

लगता है मेरी कुछ बाते उसके मन में गहराई तक बैठ गई थी, क्योंकि उसके कुछ महीनों तक उसके लडाई-झगडे़ सुनाई नही दिेये।

बादामी इसी शहर की रहने वाली है उसका भाई पुलिस में सिपाही है। बाई के दो बेटे और सबसे छोटी बेटी बबली है।छोटा बेटा किराने की दुकान पर काम करने जाता है। बडा बेटा महेश मजदूरी का काम करता था, जिससे उसका शरीर अधिक तन्दुरूस्त हो गया हैऔर जल्दी ही जबान दिखने लगा है। अब बबली भी बचपन को छोड आगे की सीढ़ियों पर कदम रख रही थी। उसे देख-देख कर बादामी बाई भी चिंतित रहने लगी थी कि अब उसका विवाह करना हैं।

मैंने कहा.‘‘तुम्हारे घरवाले को भी तनखा मिलती है खर्च उठाता होगा। संग में खाता है कभी आकर रहता भी है तो वह भी लडकी की शादी में पैसा लगाएगा।‘‘

वह बोल उठी-‘‘बैनजी जेई तो है वो खीर मे साँझ महेरी में न्यारौ है। वैसे अलग रहेगो पर खुद की जरूरत पे आन ठाड़ो होगो।

समय बीतने लगा था। एक दिन मॉ की जगह बबली काम करने आइ तो चौंक गई , क्योंकि बाई कभी-भी अपनी लडकी को अकेले काम पर नही पहुॅचाती थी। इसलिए मैंने उत्सुकतावश पूछ लिया-‘क्यों मम्मी नही आई ?

वह बडी ही सर्द आवाज में बोली-‘‘पापा हवालात मे बंद है। मामा ने बंद करवा दिया।‘‘

सुनकर मैं और भी आश्चर्य में पड गई लेकिन बबली मेरे उस प्रश्नों का समाधान नही कर पाई।

अगले दिन बादामी आई और घूनमथान (चुप और नाराज)बनी काम करने लगी तो मेरे सब्र का बाँध टूट ही गया‘‘बाई काम बाद में करना पहले ये बताओं कि इसके (बबली के) पापा को तुम्हारे भाई ने बंद क्यों करवा दिया?‘‘

वह बोली -‘‘बैनजी बाको तो एकई काम है। दारू पीनो और ऊधम करनो। तौऊ नासमीटे को चैन नईये पूरे मोहल्ला में फजीती करवात फिरतै।‘‘

मैंने उसे घूरते हुए कहा- ‘‘लेकिन तुम्हारी तो उससे पटने लगी थी न अब क्या हुआ?‘‘

अब तक दूसरे कमरे में जाकर बबली अपने कामों का मोर्चा संभाल चुकी थी, इसलिये बादामी खुलकर बोली मैने मुुतकेे दिनों से वा से ‘‘बात’’ बन्द कर राखी है सो फिरंट हो रहा है‘‘ चुप रह कर शून्य में ताकती फिर वह बोली-‘‘ बस जईपे से वो ऊधम कर रऔ है वो कहतै कि कामवारे मालिको से तेेरे गलत संबंध हेागें तईसे तू मोसे ‘‘बात‘‘ नई करती। वो मोये धमकी देतै कि तेरो पीछो करेांगो और तेरे काम वालों से लड़ के आओंगो।

कल ज्यादई ऊधम करन लगौ तो भईया ने थाने में कह के बिठा दऔ।‘‘ दो दिन बाद मेरे बेटे रिंकू का बर्थडे था। मैं लगातार जुटी रही सो रात तक मेरा शरीर निढा़ल हेा गया था। रात ग्यारह बज चुके थे।मन सोने को हो रहा था लेकिन संदीप की इच्छा तो कुछ और ही थी। मेरा मन न था... लेकिन संदीप जिद पर था। संदीप की जबरदस्ती पर मैंं खिसिया गयी। मन अचानक बादामी से खुद की तुलना करने लगा। उसको तो रोज का ही इतना सारा काम रहता है। वह भी तो रेाज ही थक जाती होगी फिर आराम के समय उसके आदमी का जर्बदस्ती करना उसे कितना बुरा लगता होगा। मुझे अंदर ही अंदर बाई से एक अजीब-सी सहानुभूति होने लगी।

कुछ दिन बाद बाई सुबह-सुबह आई तो मैंने कहा- ‘‘पहले चाय पीलो बाई फिर काम करना नही ं तो तुम मशीन की तरह काम करती ही रहोगी और रात तक लगी रहोगी।‘‘

सुनते ही वह फूट-फूटकर रेाने लगी मैं स्तब्ध हो उसे देखने लगी ‘‘अरे क्या हो गया ? इतनी बुरी तरह क्यों रो रही हो?

वह बोली - ‘‘बैनजी अब तौं जीनौंई बेकार है ऐसे इल्जामन तैं तेा अच्छौं हे कि ईश्वर मोये मौत दै दे।‘‘

मैंने सोचा, सदैव जिंदादिली से जीने वाली तथा हर समस्या का जीवटता से सामना करने वाली बादामी आज इस तरह निराशाभरी बातें कैसे कर रही थी। मुझे लगा वास्तव में कोई बहुत बडा कारण होगा।

देर तक सुबकती रही फिर वह बोली-‘‘वो रात कौ पी आऔ थौ। रोटी खा लई पानी पी लओ, बिस्तर कर दओ, तौउ वाये चैन नई पडौ, तौ बस लगौ गारी दैवे। बडे़ मौडा़ पे सहन नई भई तो बानें बाप खौ पीट दओ। रात कों तौ उठि के जाने किते चलो गओ लेकिन भुनसारे आकें बानें ऐसी- ऐसी बाते कही कै सही में बैनजी मोये तो कहतैंई में सरम आ रईयै।‘‘

कहने के साथ उसकी ऑखों से आंसू बह पडे।

वह थोडी देर चुप रही, फिर रेाते हुए बोली-‘‘ अबें तक तौ कामवरन के संगें संबंध बतात थौ, लेकिन आत तो हद्दई हो गई आज कैहन लगो है तेरे तो अपनेई बेडे मौडा से गलत संबंध है तइसें तू मौंसे बात नई करती ।मैं तो जमीन में गड़ गई सीधी।‘‘

कुछ समय के लिय मैं भी सन्न रह गई। लगा माने धरती छूम रही है और आसमान गिर रहा है। मुंह से कुछ नही निकला मैं यंत्र चालित सी अपने कमरे में आ गई। और बिस्तर पर गिर पडी ।ं

मन में अजीब से प्रश्न उठ रहे थे कि क्यांे हमेशा स्त्री को ही अपनी शुचिता का प्रमाण क्यों देना पड़ता है। पुरूष हमेशा उसे लांछित पद्दलित और प्रताडित करता रहता है और सिर्फ एक ही आरोप है जिसे उछाल कर पुरूष विभिन्न तरीकों से अपनी इच्छा पूर्ण कर लेता है।

समय बीतता रहा...।

एक दिन अचानक बबली सूचित कर गई- आंटी जी मम्मी अस्पताल गई है, वो नई आएंगी।‘‘

मैंने कहा-‘‘क्यों क्या हुआ मम्मी को ?

बह बोली -‘‘पापा की तबियत खराब है उनके संग गई है।‘‘

दो -तीन दिन बाद शाम के समय बडी तेजी से बाई घर आई तो मन मे कई प्रश्न थें। मैने पूॅछ ह लिया-‘‘ बाई तुमने अपने आदमी को भर्ती क्यों कर दिया। वह बोली - बैनजी वेा एंनई सूक गओ है। चार पंाच दिनां से खूब दस्त लग रए हते और बुखार चढौ हतौ। हस्पताल में भर्ती कराओं तौ बोक शरीर में कई जगै गांठे भी मिली है। कई जगह खाल में छाले जैसे निशान भी पड़ गये यें। खॉसी के मारे चैन नही हैा कछु उधार दे दे मोये डर है के वाये वो एड न होए मुझे होए।‘‘

मुझसे पैसे लेकर वह तेजी से वापस चली गई लेकिन मेरे कई प्रश्नें को वह अनुत्तरित ही छोड़ गई कैसा है स्त्री का मान उसी से नफरत , उसी से प्यार। कही सचमुच इसके पति को एड हो गया हो तो क्या होगा इसके घर का ?

दो-तीन महीने बीत चुके थे, बादामी का कही पता नही था। मैने दूसरी बाई रख ली ।

आज बादामी आई। मैंने पूछा- ‘‘बाई कैसी तबियत है उसकी ? क्या हो गया उसे?’’

बादामी सिसकते हुए बोली-‘‘वो ट्रक ले के जहॉ तहॉ घूमत थो और जाने कहां कहां मुंह मारत हतो । सो कही की जनी से एड लगा लाओ। बैनजी डॉक्टरन ने तो जबाब दे दओ ऐ। तुम सबन की दुआ लग जाय तो बच जायेगों। मौडा -मौडिन के ब्याए कर लेयेगो। अब तो बैनजी खूब कसमे खातै, कि अब तोये परेसान नही करउँगो, तोए तनखा लाके देउँगो, कोई औरत के पास नई जाऊँगो। बचा ले मोय। ...लेकिन अब का हो सकतै ? फिर एक आशा भरी निगाह से उसने पूछा‘‘काए बैनजी जा बीमारी कौ कौनऊ इलाज नईए का?‘‘

मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि उसे नकारात्मक उत्तर देकर सेवा में लगी उसकी ऊर्जा को नष्ट कर दूॅ।बस प्रकट प्रकट में उसकी आशा के लिये एक शब्द बोलती हूॅ-‘‘हाँ‘‘

फुसफुसाते हुये बादामी बोली ‘‘बैनजी जे मर्द कित्तेऊ दूबरे हो जायें फिर भी इनमे घोडा जैसी ताकत बनी रहते। आज अस्तपताल में बबली के बाप खों नहलावे के लाने ले गई तो धुंआ लगे ने लपक के दरवाजे बंद कर लये और मेरी साडी खेंच डारी फिर मोखों जमीन पे पटक लई जबरिया.........‘‘

वह संास लेने को रूकी तौ मैं व्यग्र हो उठी, उसके निकट खिसक आई और फुसफुसाते हुए पूछा ‘‘फिर।‘‘

‘‘फिर का बैनजी पहले तो इच्छा भई की अपन भी कित्ते दिन से तरस रहे, हो जान दो वा के मन की। ..और सांची तो जा है कि अपने मन की भी। ...फिर अपनी और बच्चों की हालत याद कर हिया कड़क करो, और उठते वाये ऐसो धक्का मारो के दीवार से जा टकराओं। खुपडिया से लहू बह उठों सो लुगाइयन की नाई रोन लगो।’’

मैं तो उठी और अपने कपडा संवार के बाहर आ गई।

मैंने राहत की सांस ली ‘‘चलो, शुक्र है कि बच गई।‘‘

‘‘का कह रई हो बैन जी, कोई लुगाई ना चाहे तो मर्द की का हिम्मत कै बो उंगरिया भी छू सकें... और आज के जमाने में हम सब जनी इतनों तो हक राखत है कै जबे अपनीऊ मर्जी होय तब ही मर्द को पास आन दंेंय ं। ऐसो भी ना कर सकें तो काहे की पढा़ई लिखाई और काहे की तरक्की।‘‘

.........मैं हतप्रभ होकर उसकी बात सुन रही थी। वह उठी और चेहरे पर एक अनूठे तेज के साथ वहाँ से चल पडी।

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