राम रचि राखा - 6 - 1 Pratap Narayan Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राम रचि राखा - 6 - 1

राम रचि राखा

(1)

"तुम यहाँ बैठकर लील रहे हो…! उधर बछड़ा पगहा छुड़ाकर गाय का सारा दूध पी गया...।"

आँगन का दरवाजा भड़ाक से खुला और भैया की कर्कश आवाज़ पिघले शीशे की तरह मुन्नर के कानों में उतर गयी। हाथ का कौर थाली में ही ठिठक गया। खेत से लौटे थे भैया, फरसा अभी भी हाथ में ही था।

खड़ी दोपहर थी। सूर्यदेव अंगार बरसा रहे थे। आँगन के पूर्वी तरफ थोड़ी सी छाया, जो बुढ़वा नीम की डालियों के आँगन में झुक जाने के कारण थी, वहीं बैठ कर मुन्नर भोजन कर रहे थे। अचानक भैया की लाउड स्पीकर सी गड़गड़ाती आवाज सुनकर मुँडेर पर जूठन की लालच में बैठे कौवे फरफराकर उड़ गए।

एक तो मई महीने की चिलचिलाती धूप, ऊपर से परशुराम का क्रोध। चेहरा तवे की तरह लाल हो गया था। ठुड्डी से पसीना ऐसे चू रहा था जैसे जोड़ों पर नल से पानी टपकता है।

“तुम किसी काम के नहीं हो...घोड़े की तरह हो गए, लेकिन अक्ल एक पैसे का भी नहीं है। बस कलेवा डेढ़ सेर चाहिए, चारो टाइम। दस साल तक स्कूल का रास्ता नापे, वहाँ तो कुछ हुआ नहीं। खेती का काम तो छोड़ो, घर का भी कुछ काम नहीं होता तुमसे।" फरसा को आँगन के एक कोने में रखकर गमछा से पसीना पोछते हुए बिफर पड़े।

शोर सुनकर दालान में चरखा छोड़कर माई आँगन में आ गयीं।

"क्या हुआ भैया...?" सिर पे आँचल ठीक करते हुए उन्होंने पूछा।

रसोईं में रोटियाँ सेंकती भौजी के हाथ ठिठक गए। रोटियाँ छोड़कर उन्होंने जल्दी से छोटी बाल्टी में घड़े से पानी उड़ेला और उसमें लोटा डालकर आँगन में ले आयीं। भैया को हाथ-मुँह धोने के लिए। डर था कि कहीं देर हो गयी तो गुस्से की गाज उन पर भी न गिर पड़े। उधर छ: महीने का बाबू कुलबुलाकर जाग गया और रोने लगा। भौजी पानी की बाल्टी आँगन में रखकर उसे चुप कराने अन्दर चली गयीं।

"क्या हुआ...! …कौन सी नयी बात है...पता नहीं यह किस दुनिया में रहता है...कोई जिम्मेदारी नहीं, बस या तो उन लुहेड़ों के साथ पत्ते खेलेगा या फिर रामायण बाँचेगा। बीस बरस का हो गया है, पता नहीं भगवान बुद्धि कब देगें।" भैया दाँत पीस कर बोले, "अब शाम को बंधी वालों को दूध की जगह अपना सिर देंगे?"

मुन्नर खाना छोड़कर हाथ धोने लगे।

"क्या बेटा, पगहा ठीक से नही बाँधे थे क्या?" माई के स्वर में प्रश्न का पुट कम और अफसोस ज्यादा थी। उन्नीस साल पूरे होने में कुछ ही महीने रह गये थे लेकिन मुन्नर माई के लिये हमेशा बच्चे ही रहे।

"मैं कह रहा हूँ कि क्या जिंदगी भर यह ऐसा ही रहेगा...एकदम बेअकल। कब तक चलेगा ऐसे…।" भैया बोले जा रहे थे। माई चुप हो गयीं और मुन्नर को कातर नज़रों से देखने लगीं। गलती तो थी मुन्नर की।

"यहाँ दिन रात खटते-खटते एड़ियाँ घिसी जा रही हैं। किसी को कोई परवाह नहीं।" अब भैया का स्वर थोड़ा नीचा हो चुका था। हाथ मुँह धोते हुए बुदबुदा रहे थे। मुन्नर हाथ धोकर आँगन से बाहर निकल गए।

बाबूजी के जाने बाद जिम्मेदारियों का बोझ और पढ़ाई में मुन्नर की असफलता ने भैया को चिड़चिड़ा बना दिया था। दिन पर दिन खर्च बढ़ता जा रहा है। दो-दो बेटियाँ भी पैदा हो गयीं हैं। आमदनी बढ़ने का कोई रास्ता दिख नहीं रहा था। मुन्नर से आस थी कि पढ़ लिख कर कमाने लग जायेंगे तो घर में एक आमदनी का जरिया हो जाएगा। लेकिन मुन्नर के लिए दसवीं की परीक्षा उतनी ही कठिन साबित हुयी जितना कि अभिमन्यु के लिए चक्रव्यूह का अंतिम द्वार।

रामबदन चौबे कर्मकांडी ब्राह्मण थे। पुरखों की थोड़ी खेती-बाड़ी थी। गुजारे के लिए पर्याप्त थी। जब पहला पुत्र पैदा हुआ तो उसका नाम "परशुराम" रखे। शायद सोचा होगा कि नाम का कुछ असर तो पुत्र में आएगा ही और जो पट्टीदारी के लोग उनसे रार रखते थे वे परशुराम की क्रोधाग्नि में जल कर भस्म हो जायेंगे।

लगता तो है कि नाम का कुछ असर आया है। जब गुस्से में चीखते हैं तो गाँव के दूसरे सिरे तक पता चल जाता है। वैसे माई कहती हैं कि भैया का गुस्सा उनके पिता से ही मिला है।

लाठी की ताकत बढ़ाने के लिए चाहते थे कि चार-पाँच पुत्र हों और हुए भी, किन्तु उनकी किस्मत कि परशुराम के बाद के तीनो बेटे बाल्यावस्था में ही स्वर्ग सिधार गए। केवल एक पुत्री जीवित रह सकी थी। पुत्रों में पाँचवे नंबर पर जयराम उर्फ मुन्नर थे जो बड़े भाई से चौदह-पंद्रह साल छोटे थे। तीन बेटों की मृत्यु के बाद जब फिर बेटा पैदा हुआ तो टोटके के रूप में उसका नाम बुलाने के लिए "मुन्नर" रखा गया। वैसे असली नाम "जयराम" था। मुन्नर बचपन से ही बड़े भाई से उलट बहुत ही शांत और संवेदनशील थे।

मुन्नर द्वार पर आ गए थे। दूर से ही एक नज़र गाय पर डाली। थन सूख चुका था। बछड़ा सारा दूध पी गया था। भैया ने बछड़े को अलग करके खूँटे से बाँध दिया था, कसकर गाँठ लगाकर।

"क्यों भाई मुन्नर! भाई साहब बहुत तड़क रहे थे, क्या बात हो गयी? अपने ओसार में लेटे-लेटे ही लल्लन ने मजा लेने के लिए पूछा। वैसे लल्लन को पता था कि क्या हुआ है । मुन्नर ने एक उड़ती निगाह लल्लन पर डाली, लेकिन कुछ बोले नहीं और नीम के पेड़ के साथ बनी अपनी मँड़ई में घुस गए।

मन बहुत ही खिन्न हो चुका था। आजकल भैया का गुस्सा दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है। पहले तो भौजी ही कचकच करती थीं, अब तो ये भी हर छोटी-बड़ी बात पर बिफर उठते हैं।

"रोज रोज की खिटपिट से तो अच्छा है कि घर छोड़कर कहीं चला जाऊँ..." मुन्नर के मन में अनेक विचार उठने लगे। “…लेकिन कहाँ जाऊँ? बम्बई जाकर किसी मिल-फैक्ट्री में काम कर लूँगा। लेकिन सुलेमान बता रहा था कि मिलों में जून की दोपहरी से भी अधिक ताप रहता है...चमड़ी तक झुलस जाती है। उससे अच्छा तो यहीं खेत में काम करुँ। लेकिन यहाँ भैया और भौजी चैन से रहने दें तब न।“

चारपाई पर लेटकर उन्होंने तुलसी-रामायण का गुटका हाथ में ले लिया। बाबूजी जब तक जिन्दा थे तब तक भैया उन्हें कभी कुछ नहीं कहते थे। बाबूजी बहुत मानते थे मुन्नर को। दोपहर का खाना खाने से पहले रामायण का पाठ करते थे और मुन्नर को पास बिठाकर उनसे भी साथ में पाठ करवाते थे। उन्हें सुन्दर काण्ड की ढ़ेर सारी चौपाईयाँ कंठस्थ हो चुकी थीं ।

बाबूजी की याद आते ही आँखें सजल हो उठीं। आँखें बंद करके रामायण के गुटके को सीने पर रख लिया। लेटे-लेटे कब नींद ने आ दबोचा पता ही नहीं चला।

जब आँख खुली तो देखा माई पानी ले आई थीं। उनकी आवाज़ सुनकर ही नींद टूटी थी। तीसरा प्रहर बीत चुका था लेकिन सूरज का ताप कम होने का नाम नहीं ले रहा था। हालाँकि किरणें थोड़ी मद्धिम पड़ने लगी थीं।

"बेटा, पानी पी लो, और देखो पशुओं को चारा डालने का समय हो गया है। उठ जाओ। गाय कब से खूँटे पर मथ रही है।" माई चारपाई पर मुन्नर के पैरों के पास बैठती हुयी बोलीं।

मुन्नर उठ कर बैठ गए थे। थोड़ा सा गुड़ मुँह में डालकर पानी पीने लगे।

"तुम तो जानते ही हो आजकल वे कितना परेशान रहते हैं। जब देखो तब कोई न कोई आफत आकर खड़ी हो जाती है। कर्ज लेकर भैंस खरीदे कि चार पैसे की आमदनी होगी, लेकिन पता नहीं किसकी नज़र लग गयी, आमदनी तो दूर, कर्ज और सिर पर चढ़ गया। दो-दो बेटियाँ हैं, घास फूस की तरह रोज बढती ही जा रही हैं। दिन भर खून जलाते हैं, फिर भी एक पल को चैन नहीं।" माईं दोपहर की बात को लेकर सांत्वना दे रही थी।

मुन्नर पानी पी कर मड़ई से बाहर चले गए पशुओं को चारा डालने।

क्रमश..