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बेशर्म

बेशर्म
थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नजर बाहर खड़े विनोद पर पड़ी, और वह उसे देखती ही रह गयी। कितने दिन बाद देखा था उसने विनोद को। उसकी अनुपस्थिति की टीस फिर मचलने लगी। उसके मन में न तो नफरत का भाव आया और न ही कठोरता का। सारा आक्रोश बर्फ की सिल्ली हो गया और वो जोर से चिल्ला उठी.."विनोद..तुम...तुम यहाँ कैसे..? ? ? जरुर मुझसे मिलने आये होगे..? मैं जानती थी कि तुम मेरे पास जरूर आओगे.....तुमने मेरे शो के बारे में पता किया होगा...? ? ?”पूर्णिमा एक साँस में बोलती चली गई।
विनोद आवाक सा उसको देख रहा था-”तुम आज भी बिल्कुल नही बदली पूर्णिमा। वही बेवाकी, वही बड़-बड़ और खुद ही उल्लास की तस्वीर बना कर रंग भर देना।”
अब पूर्णिमा ने बगैर समय गवाँये विनोद का हाथ पकड़ लिया और शिकायती लहजे में बोली-”इतनी देर क्यों लगा दी..? कहाँ थे अब तक..?”कह कर वह खुद ही इस प्रश्न का संभावित उत्तर तलाशने लगी।”चलो घर चलें...अब तुम आ गये हो तो मैं सब भूल जाऊँगी।”
विनोद भी निरूत्तर सा खिचता चला गया। गाड़ी की पिछली सीट पर बैठते ही पूर्णिमा ने ड्राइवर से गाड़ी चलाने को कहा। पूरे रास्ते पूर्णिमा अकेले ही बोलती रही और विनोद चुपचाप बैठा रहा। वह जानता था कि अगर उसने एक बार भी बोलने से रोका तो वह रूठ जायेगी फिर उसे संभालना मुश्किल होगा।
"विनोद तुम कुछ बोलते क्यो नही..? ?”
"तुम मौका दोगी तब तो बोलूँगा न.”विनोद ने गम्भीर मुद्रा में उपहास किया।
"अरे मैं भी न पूरी की पूरी पागल हूँ।”
"हाँ ..वो तो है.."
"क्या कहा..?”
"नही मैं मजाक कर रहा था"
"विनोद तुमने मुझे मिस तो किया होगा न..? कहते हुये वह विनोद के और करीब आ गयी, उसके कन्धे पर सिर रख कर ठंडी साँस ली और एक साथ बिताये अंतरंग पलों की गर्माहट को महसूस किया। 'जब हम एक-दूसरे के जीवन में आये थे तो हम दोनों ही जीवन संघर्ष से थके आसरा ढूँढ़ रहे थे। कितना स्वर्णिम समय, जिया था हमने..? हम दोनों ही पर्याप्त भावुक थे। हमने भले ही मर्यादाओं का उलंघन किया हो। समाज ने हमारे रिश्ते को स्वीकारा न हो, मगर तुम मेरे मन की अदालत में हमेशा मेरी आत्मा को स्पंदित करते रहे। क्या मैं तब मूर्ख थी..? क्या तुमने मेरे शरीर को हासिल करने के लिये प्रेम को साधन बनाया था....? नही...विनोद ये सही नही है। आज भी तुम मेरा संबल हो। सम्मान हो। मेरी स्वभाविक आवश्यकता हो। आज तुम्हारे सानिध्य से मैं जो स्पंदन महसूस कर रही हूँ वह मेरी पूँजी है। '
विनोद पूर्णिमा को खामोश देख कर सटीक जबाव ढ़ूढ़ने लगा। ये उचित समय था। जब वह चुप थी और ये मौका वह नही गँवाना चाहता था। वह पहले ही उसके इस व्यवहार से सकपकाया हुआ था। बीस मिनट कब बीत गये पूर्णिमा को पता ही नही लगा।
लो विनोद घर आ गया। आओ अन्दर चलो।
उसने पर्स से चाबी निकाल कर गेट खोला। विनोद हिचकिचाहट की रस्सी से बँधा हुआ था। पूर्णिमा ने एक बार फिर बड़ी बेवाकी से हाथ थाम कर अन्दर खीँच लिया।
घर का एक-एक कोना आज भी बिल्कुल वैसा ही था जैसा वो छोड़ कर गया था। वही परदे, वही सोफा, और जयपुर से लाई हुई खजुराहो की आलिंगन में लिपटी मूर्ति, सब कुछ वैसा का वैसा ही था। कुछ भी नही बदला था पूर्णिमा ने। आखिर क्यो..? ? मैं आज तक उसे नही समझ पाया हूँ। सामने वाली दीवार पर एक बड़ी सी तस्वीर , जिसे देख कर विनोद अनायास ही बोल पड़ा-”ये किसकी तस्वीर है..? तुम्हारा बेटा है..? तो तुमने शादी कर ली..?”इस बार एक सबालों का बड़ा सा झुण्ड विनोद को उलझा रहा था। मगर वह चुप रहा। शायद ये कोई घाव हो जो उसकी टीस का कारण बनें। अब पूर्णिमा की जिन्दगी से उसे क्या लेना -देना।
उसने ठंडी साँस ली।
"चाय मैं बनाता हूँ। जाओ तुम चेन्ज कर लो।”पूर्णिमा की समर्थन भरी मुसकुराहट फैल गयी।
चाय की चुसकी लेते हुये उसने कहा-”बिल्कुल वही स्वाद है। विनोद चाय में शक्कर नही है..? ?
"तुम कहाँ पीती हो ..शक्कर वाली चाय..?”
"तुम्हे याद है विनोद..?”पूर्णिमा आनन्द रस से आत्म विभोर हो उठी। दोनो हाथोँ से गालो को थामें झूम उठी। अनैतिक कहा जाने वाला सम्बन्ध, भत्सर्ना के रंग सब फीके लग रहे थे। वो विनोद से लिपट गई। आलिंगन पाश के लिये तड़प उठी। समाज की रुढ़ीवादी मान्यताएं इस विराट प्रेम के समक्ष तुच्छ सी लग रही थीं। विनोद मुझे लाल रंग के सिंदूर से क्या लेना...? परिपक्वता, आत्म सम्मान और सानिध्य है हमारे पास। जी लेंगे हम। मैने अपने स्वाभिमान से तुम्हे पाने के लिये बहुत संघर्ष किया है। अब तुम कहीँ नही जाओगे। मेरे पास रहोगे। पूर्णिमा ने चुम्बनों की बौछार से मूक प्रणय निवेदन का आग्रह किया। सुध-बुध खोया ह्रदय प्रेम की एकतरफा पराकाष्ठा पर था। एकाकी जीवन के आगे स्वाभिमान बेमानी हो चला था। और फिर प्रेम में अहम टिकता ही कहाँ है। ये विरह वेदना का अटूट प्रमाण था।
विनोद जाने के लिये उठ खड़ा हुआ।”पूर्णिमा तुम्हारी ये बेशर्मी, वेबाकी, निर्लज्जता गयी नही अभी तक..? लाज औरत का गहना होती है। आज मुझे तुम पर लाज आ रही है। प्रेम और संबधों की पहल एक औरत की तरफ से अशोभनिय है। सुलभता से मिलने वाली चीज का कोई मोल नही होता। तुम में और एक बाजारू औरत में क्या फर्क है..? छि: इतनी काम वासना..? ये प्रेम है या उन्माद ..? यही बजह थी हमारा रिश्ता लम्बा नही चल पाया। मै जा रहा हूँ।”
"नही विनोद तुम कहीँ नही जा सकते। तुम अब मेरे पास ही रहोगे। मेरा अन्त:करण तुम्हारे विना ध्वस्त हो चुका है। मुझे तुम्हारी जरूरत है विनोद..मत जाओ..।”
"जिद मत करो पूर्णिमा”विनोद ने जाते-जाते फिर उस तस्वीर को रुक कर देखा इस कोफ्त के साथ, कि कुछ सवाल अधूरे ही रह गये।
विनोद चला गया। वह अकेली तस्वीर से लिपट कर सिसकने लगी-”मुझे माफ कर दे विक्की, मैं तेरे पापा को नही रोक पाई।”
सूरज की पौ फट चुकी थी। सिर भारी था। आज थियेटर जाने का न तो मन था और न ही जरुरत। वह बिस्तर पर पसरी रही।
विनोद आज मैंने सोचा था तुम्हे विक्की , हमारे बच्चे के बारे में बताऊँगी, मगर तुमने मौका ही नही दिया। फिर तुम्हे बताती भी तो कैसे की वह अब इस दुनिया में नही है..? छ:महीने का ही तो था जब मैं उसे डबल निमोनिया से नही बचा पाई। तुम्हारी निशानी मैं संभाल नही पाई। मुझे माफ करना विनोद। वैसे तुम्हे अधिकार भी क्या है उसे अपना कहने का। तुम तो उसके गर्भ में आते ही छोड़ कर चले गये थे।
'आज भी तुम पारम्परिक किस्म के हो। क्या भावनाएं व्यक्त करना पुरुषों का अधिकार है..? और औरत के लिये गुनाह...? तुम्हारे दिमाग की जटिलता में स्त्री नीर कहीँ गहरे अटके हैं जो अपनी जगह खोना नही चाहते। क्या पुरुष की ग्रन्थियां इतनी सुद्रढ़ हैं ? कि जहाँ से वह वही देखता है जो वहाँ पहले से गुथा हुआ है ..? या फिर कुछ और देखने की क्षमता ही नही..? पुरूषवादी सोच में सने तुम बदसूरत से हो गये हो। क्या तुम इतने खुदगर्ज हो..? अपने अंतरंग पलो को जीकर भूल गये बगैर ये सोचे कि वो पल किसी नवसृजना का कारण तो नही बन गये...? विनोद तुम बुजदिल हो। फिर भी तुम मेरे हो। मेरे बिक्की के पिता हो। भरी आँखों को पूर्णिमा ने बंद कर लिया।
आश्रम से फोन आया कि बिट्टू बीमार है सीढ़ीओं से फिसल गया है। काफी चोट आई है। पूर्णिमा तड़प उठी। विनोद के छोड़ कर जाने और बिक्की के बाद यह आश्रम ही उसके जीने का सहारा था। जहाँ उसका सारा बात्सल्य प्रतिरोपित होता था। जीवन के खारे सागर में स्नेह की नाव सुरक्षित थी और उसी नाव पर समूचा आश्रम समा गया था।
झटपट आश्रम पहुँची। तो सारे बच्चे दीदी..दीदी कह कर लिपट गये। पूर्णिमा ने बारी-बारी से सबको दुलार किया और बिट्टू को गोद में उठा कर वह सीधे अस्पताल पहुँची।
डाक्टर ने बताया खतरे की बात नही है। उसने चैन की साँस ली। बिट्टू को गोद में उठा कर अस्पताल से निकली ही थी कि सामने एक बार फिर वही खड़ा था। जिसने टहनी पर लगे हुये फूल को तोड़ कर गुलदान में सजाया और फिर सुखा कर मिट्टी में मसल दिया।
इस बार वह अकेला नही था। एक गर्भवती बेहद खूबसूरत स्त्री विनोद के साथ थी। जिसको वह सहारा देकर अन्दर ला रहा था। पूर्णिमा को देख कर वो सकपका गया। उसका सकपकाना लाजमी भी था। इस बार धुँआ-धुँआ हो रहे अनकहे रिश्ते से लजाते विनोद ने पहल की थी-”पूर्णिमा, ये बर्षा है मेरी पत्नी.....और बर्षा ये पूर्णिमा हैं मेरे कालेज की दोस्त..."दोनो तरफ से औपचारिक अभिवादन हुये।
“क्या सिर्फ दोस्त ? एक पुरुष अन्तरंग होकर कौमा में चला गया और फिर चेतना आने पर सब भूल गया। मगर एक स्त्री के लिये पक्के रंगों की जीवान्त तस्वीर जो उसके अन्तस में धड़कती रही। अब एक और बिक्की...? विनोद तुमने अपना बिक्की बदल लिया...? निष्ठुर...कमीने....निर्लज्ज... काम वासना किसके अन्दर है...? धोखेबाज....तिरस्कार किया है तुमने ....घायल हो गयी आत्मा...मैं तो आज भी तुम्हारा इन्तजार कर रही थी और तुम....? नही विनोद अब कोई बिक्की इस दुनिया में नही आयेगा......उफफफ ये मैं क्या सोच रही हूँ..? प्रेम हमेशा से त्याग और समर्पण का भूखा रहा है..मैंने भी तुमसे वही प्रेम तो किया है फिर.....? नही ..नही. .मेरा प्रेम अपनी परीक्षा अब्बल दर्जे में उत्तीर्ण करेगा।
बिट्टू ने कराह कर कहा”चलो न दीदी".... पूर्णिमा ने मन -ही-मन फैसला ले लिया था और बिट्टू को कस कर सीने से लगा लिया...मातृत्व सुखानुभूति से वह खिल उठी। विनोद के करीब जाकर बोली-"बधाई हो...आज वह हल्का महसूस कर रही थी। उसे सागर से मिलने की तमन्ना नही थी। निर्मल धार सी बह रही थी.......
छाया अग्रवाल

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