राम रचि राखा - 4 - 3 Pratap Narayan Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राम रचि राखा - 4 - 3

राम रचि राखा

मरना मत, मेरे प्यार !

(3)

लगभग छः बजने वाला था जब अविनाश का फ़ोन आया। मैं ऑफिस में था। प्रिया को गए लगभग दो सप्ताह हो चुके थे।

"कहाँ हैं जीजा जी… ऑफिस में?"

"हाँ ऑफिस में ही हूँ...और बताओ सब ठीक ?"

"हाँ बिलकुल ठीक है...बस आपके शहर में आया था तो सोचा कि आपके दर्शन भी करता चलूँ। "

"अरे...! कब आए ?"

"आया तो दोपहर में ही था। पी डब्लू डी की ऑफिस में कुछ काम था। अभी फ्री हुआ। आपको ऑफिस से निकलने में अभी कितना समय लगेगा?"

"तुम ऐसा करो, फ्लैट पर पहुँचो। मैं ऑफिस से निकलता हूँ। लगभग साथ ही पहुँच जाएँगे। "

"ठीक है। "

मैंने अपना सामान समेटा और ऑफिस से निकल गया।

पिछले तीन साल अविनाश के लिए बहुत ही बुरे रहे। उसके घर से अलग हो जाने के बाद जब प्रिया रायबरेली से लौटकर आई तो अविनाश से बातचीत करना बिलकुल बंद कर दी। मैं हाल-चाल जानने के लिए गाहे-बगाहे फ़ोन कर लिया करता था।

उस घटना को लगभग छः महीने बीते होंगे कि उसकी बच्ची काल के गाल में समा गई । उसे हेपिटाइटिस सी हो गया था। जन्म के समय ही कमजोर थी। सारे इलाजों के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका था। उसकी मृत्यु की खबर पाकर मैं और प्रिया गए थे।

अविनाश और नमिता को बच्ची की मौत का गहरा आघात लगा था। नमिता का चेहरा एकदम पीला पड़ चुका था और कांति बिलकुल गायब हो चुकी थी। चहकती हुई आवाज एकदम क्षीण हो चुकी थी। ऐसा लग रहा था मानो बरसों से बीमार हो। सब कुछ बिखरा-बिखरा लग रहा था।

उस समय सबका मत यही था कि अविनाश नमिता के साथ पुनः अपने पैतृक घर में चला जाय। बहुत मान-मनौवल हुआ। माँ बहुत रोईं भी। लेकिन वे जाने को राजी नहीं हुए।

अविनाश का दुःख पहली संतान के चले जाने पर ही नहीं ख़त्म हो सका। अभी आगे उसे और भी विकट स्थितियों का सामना करना था। बच्ची के जाने के लगभग एक साल बाद नमिता टी बी से ग्रसित हो गई। जब पता चला तब तक बिमारी अपने अंतिम चरण में पहुँच चुकी थी। अविनाश लखनऊ के अलावा नमिता का दिल्ली तक के अस्पतालों में इलाज़ करवाया लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। लगभग चार-पाँच महीने बाद उसकी भी मृत्यु हो गई।

अविनाश को इतना हारा हुआ पहले कभी नहीं देखा था। अंदर से बुरी तरह टूट चुका था। अस्पतालों के चक्कर लगाते लगाते उसका स्वयं का भी स्वास्थ्य खराब हो चुका था। अब वह नितांत अकेला हो चुका था। इस बार जब उसे वापस घर ले जाने की बात हुई तो उसके पास विरोध करने का न तो कोई कारण बचा था और न ही शक्ति। नमिता को गुजरे लगभग एक साल हो चुका है। अब धीरे-धीरे अविनाश का मन थोड़ा शांत हो चला है। वह अब पुनः पूर्ववत व्यवहार करने लगा है।

जब मैं सोसाइटी के गेट पर पहुँचा, वहाँ अविनाश को चहलकदमी करते हुए पाया। उसकी कार गेट के बाहर खड़ी थी। आज ड्राइवर नहीं था। आमतौर पर अविनाश स्वयं ड्राइव नहीं करता है।

"ड्राइवर नहीं है?" मैंने पूछा।

"नहीं, वह कहीं गया है। मेरा आना जरुरी था इसलिए आज खुद ही ड्राइव करके आ गया।" उसने उत्तर दिया।

मैंने उसकी कार गेस्ट पार्किंग में पार्क करवायी और अपनी कार अपने जगह पर पार्क करके हम दोनों फ्लैट में पहुँच गए। वैसे तो मेड साफ़-सफाई करने आती थी लेकिन फिर भी घर थोड़ा अस्त व्यस्त पड़ा हुआ था। मेरा खाना बनाने का कोई नियम नहीं था। कभी इच्छा हुई तो बना लिया, नहीं तो बाहर से मँगा लिया। दिन में तो ऑफिस की कैंटीन में ही खाता था।

मैंने फ्रिज से पानी की दो बोतलें निकाली और हम सोफे पर बैठकर बोतलों से ही पानी पीने लगे।

"और बताओ...कैसे आना हुआ लखनऊ?" मैंने पानी पीते हुए पूछा।

"पी डब्ल्यू डी में एक काम का टेंडर निकला हुआ है। उसी सिलसिले में आया था। सोच रहा हूँ कि अब छोटे-मोटे कामों के ठेके भी लेना शुरु कर दूँ।"

"हूँ...यह तो बहुत अच्छी बात है।" फिर थोड़ा रूककर मैंने पूछा, "बिल्डिंग मटेरियल का बिज़नेस कैसा चल रहा है?"

"एकदम बढ़िया। अब तो पापा भी कभी-कभी बैठने लगें हैं। पहले तो दुकान के पास भी नहीं जाते थे।“ उसने मुस्कराते हुए कहा, "इसी से हिम्मत बढ़ी है कुछ और भी करने की। "

"बहुत अच्छा। बाकी सब ठीक...। अम्मा -पापा?”

"ठीक हैं सब लोग। आते समय वर्तिका जिद कर रही थी कि मुझे भी पापा से मिलने जाना है।" अविनाश ने फीकी हँसी हँसते हुए कहा। वर्तिका को सोचकर मेरा चेहरा थोड़ा गंभीर हो गया।

"चाय पिओगे?...रुको मैं बनाता हूँ" कहता हुआ मैं सोफे से उठा। जब किचन की तरफ जाने लगा तभी मेरे मन में कुछ और आ गया। मैं किचन से दो काँच की गिलासें और आलमारी से व्हिस्की की बोतल उठा लाया।

"ये क्या ! आप तो चाय बनाने गए थे।" अविनाश ने हँसते हुए कहा।

"अरे यार चाय छोड़ो...आज दो-दो ड्रिंक लेते हैं।“ कहते हुए मैं गिलास और बोतल सेंट्रल टेबल पर रखकर वापस मुड़ा, पानी और कुछ स्नैक्स लेने के लिए।

फिर याद आया कि हमने अभी तो कपड़े भी नहीं बदले हैं।

जाते हुए मैंने कहा, "ऐसा करते हैं कि चेंज करके आराम से बैठते हैं। तुम भी चेंज कर लो। उस बेडरूम में चले जाओ "

मैं अपने बेडरूम में चला गया। जब कपड़े बदलकर और फ्रेश होकर लौटा तब तक अविनाश भी कपड़े बदल चुका था। ड्राइंग रूम में लौटते समय मैं किचन से पानी और स्नैक्स लेता आया।

जब मैं पैग बना रहा था तो देखा कि अविनाश के चेहरे पर कुछ असमंजस के भाव थे। जैसे कि वह पीना नहीं चाहता था।

"क्या हुआ…? मन नहीं है…? कोई बात नहीं, एक ही पैग लेना।" मैंने उसे गिलास पकड़ाते हुए कहा। हमने चीयर्स किया और एक-एक चुस्की ले कर गिलास को मेज पर रख दिया।

थोड़ी देर खामोशी सी छाई रही। फिर अविनाश ने कहा, "यह पहली बार है जब मैं इस घर में आया हूँ और आप अकेले हैं। "

"हाँ..." मैंने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा। साथ में व्हिस्की का एक लंबा घूँट भरते हुए पूछा, "प्रिया कैसी है?"

"यह तो आप को पता होना चाहिए जीजा जी। बाकी सबका हाल तो मैं बता सकता हूँ लेकिन दीदी का हाल...।" उसने वाक्य बीच में ही छोड़ दिया।

मैं उसके उलाहने को समझ सकता था। गिलास में बची हुई व्हिस्की को मैं एक घूँट में पी गया। दूसरा पैग बनाना चाहता था। देखा कि अविनाश की गिलास अभी भी भरी हुयी थी। मैंने कहा,"अरे ख़त्म करो, दूसरा बनाता हूँ। "

"नहीं मैं और नहीं लूँगा।" अविनाश ने कहा।

"अरे, एक और लो...अब रात में रायबरेली तो जाना नहीं है। खाकर सोना ही है।" मैंने थोड़ा जोर देते हुए कहा।

"नहीं, वो बात नहीं है। वास्तव में मैं इसे भी ख़त्म नहीं कर सकता।" उसने अर्थपूर्ण ढंग से कहा।

मैंने तब तक अपने लिए दूसरा पैग बना लिया था और पहला घूँट भरते हुए कहा, "क्यों? डॉक्टर ने मना किया है?" मैंने कुछ परिहास के ढंग से कहा।

"हाँ...डॉक्टर ने मना किया है।" उसने बेहद गंभीरता से कहा। मुझे लगा जैसे वह कुछ बताना चाह रहा हो।

"क्या ? कहना क्या चाहते हो?" मेरी आँखों में खड़ा प्रश्नचिह्न एकटक अविनाश को देख रहा था। अविनाश थोड़ी देर खामोश रहा। जैसे वह निर्णय कर रहा हो कि बताये या नहीं।

"बोलो...कोई दिक्कत है?" मैंने अविनाश को खामोश देखकर कहा।

"जीजा जी..." एक लम्बी साँस भरते हुए अविनाश ने कहना शुरू किया जैसे कि वह निर्णय कर चुका हो, "आप पढ़ते लिखते हैं...मानवीय संवेदनाओं को समझते हैं..." वह थोड़ी देर रुका जैसे कि आगे कहने के लिए साहस जुटा रहा हो। मेरी नज़रें उसके चेहरे पर टिकी थीं। उसने आगे कहना शुरू किया, "बहुत कुछ मन के अंदर दबा पड़ा है जो निकलना चाहता है। अगर किसी से कह सकता हूँ तो वह आप ही हैं। आप ही समझ सकते हैं मेरी बातों को। "

"हाँ... बेझिझक कहो।"

"मैं एच आई वी पॉज़ीटिव हूँ।" मुझे लगा कि कमरे में कोई बम फूटा हो। मेरा दिल धक् से कर गया। शराब की जो थोड़ा खुमार चढ़ा था वह एकदम से हिरन हो गया।

"क्या…?" मैंने लगभग अपनी जगह से उछलते हुए कहा। मेरा मुँह खुला रह गया था।

"हाँ...।" सिर हिलाते हुए उसने धीरे से कहा। जब कुछ क्षणों में मेरी चेतना लौटी तो सबसे पहले मन में यही उठा कि मेरे सामने एक व्यक्ति बैठा है, जो मेरे साथ शराब पी रहा है, जो मेरे ही प्लेट में से लेकर नमकीन और चिप्स खा रहा है, जिसने मेरे बोतल से पानी पीया, जिसने मेरे गुसलखाने का उपयोग किया, जिसने मुझसे हाथ मिलाया और जिसे मैंने गले से लगाया; वह व्यक्ति यदि एच आई वी पॉज़ीटिव है तो मैं कितना सुरक्षित हूँ?

"मैं टॉयलेट से अभी आता हूँ।" कहकर मैं एकदम से उठा और तेजी से टॉयलेट की ओर चला गया। कुछ देर वहाँ स्वयं को संयत किया। कुछ विज्ञापन याद आये कि एच आई वी छूने से नहीं फैलता है। दूसरे यह भी सोचा अविनाश इससे ग्रसित है तो उसे इसके बारे में पता होगा। मैं वापस लौटकर ड्राइंग रूम में आ गया।

"जीजाजी, आप ठीक तो हैं ?"

"हाँ।" मैंने बैठते हुए कहा।

"पहले तो आपको यह बता दूँ कि आपको मुझसे कोई खतरा नहीं है। क्योंकि एच आई वी न तो छूने से फैलता है न ही साथ में बैठने और खाने-पीने से।" संभवतः वह मेरे मनोभावों को समझ गया था और मुझे निश्चिन्त करना चाहता था। उसने आगे कहा, "आपके लिए और बाकी सबके लिए भी मैं एक सामान्य व्यक्ति ही हूँ।"

उसकी बातें सुनकर जब स्वार्थी मन निश्चिन्त हुआ, तब करुणा उभर आई। सोचने लगा कि मेरे सामने एक ऐसा व्यक्ति बैठा है जो एक लाइलाज बीमारी से ग्रसित है। अभी इसकी उम्र ही क्या है। मन द्रवित होने लगा।

"कैसे...मतलब कि..." समझ में नहीं आ रहा था कि क्या पूछूँ , कैसे पूछूँ।

"मैं जानता हूँ आप के मन में अनेक प्रश्न उठ रहे होंगे। कब हुआ, कैसे हुआ, अभी क्या हाल है, मैं कब तक ज़िंदा रहूँगा वगैरह।"

मैंने हाँ में सर हिलाया।

"आपको याद होगा कि बच्ची के जन्म के बाद हॉस्पिटल से लौटने के बाद मैंने अलग घर ले लिया था..." उसने कहना शुरू किया, "बिलखती माँ के आँसुओं को भी दरकिनार करके घर छोड़ देना आसान नहीं था मेरे लिए।" कहते-कहते आँखें भर आई थीं और चेहरा भावुकता की तीव्रता से सिहर उठा था।

"यानी कि हॉस्पिटल में पता चला था ?"

“हाँ...नमिता के खून की जाँच हुई थी। मैं वार्ड में उसके पास ही था। उसे थोड़ा दर्द हो रहा था। डॉक्टर अभी तय नहीं कर पा रहे थे कि नार्मल डिलीवरी हो पाएगी या ऑपरेशन करना होगा। तभी एक वार्ड बॉय आया और मुझे डॉक्टर के चैम्बर में ले गया। वहाँ लेडी डॉक्टर के साथ एक और डॉक्टर भी थे। पहले तो मुझसे मेरे बारे में पूछने लगे - कहाँ रहते हो ? क्या करते हो ? और भी कई बातें। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बात है। उन्होंने पूछा कि क्या आपके पिता जी आ सकते हैं? मेरे मन में एक शंका सी उठने लगी थी। हालाँकि पापा कुछ देर में हॉस्पिटल पहुँचाने वाले थे, लेकिन मैं उन्हें इन सब बातों में नहीं पड़ने देना चाहता था। ख़ुशी का मौक़ा था और मैं चाहता था कि अगर कोई कम्प्लीकेशन है तो वह पापा को न पता चले।

आखिर मैंने जोर देते हुए कहा - "डाक्टर साहब जो भी कहना चाहते हैं आप मुझसे ही कहिये। वैसे तो मैं अभी बाइस साल का ही हूँ लेकिन हर स्थिति के लिए तैयार हूँ। आप मुझसे बेझिझक कह सकते हैं। "

डॉक्टर ने कहना शुरू किया, "आपकी पत्नी के ब्लड रिपोर्ट में एच आई वी एंटी बॉडीज पॉजिटिव पाई गई हैं। हमें शक है कि वे एच आई वी से इन्फेक्टेड हैं। हमने कन्फर्म करने के लिए आगे की जाँच का सैंपल भेज दिया है। लेकिन चूँकि डिलीवरी को और देर तक टाल नहीं सकते, इसलिए अभी ऑपरेशन करना होगा। ऑपरेशन में रिस्क है लेकिन ऑपरेशन न करना माँ और बच्चे दोनों के लिए ज्यादा रिस्की होगा।...नार्मल डिलीवरी में बच्चे के इन्फेक्टेड होने का खतरा भी बढ़ जाएगा।"

डॉक्टर की बातें सुनकर मेरे होश उड़ गए। मेरे अंदर बाहर एक गहरा सन्नाटा छा गया। संतान प्राप्ति की सारी ख़ुशी पल भर में काफूर हो गयी। मैं जड़वत हो गया।

"मिस्टर अविनाश! ऑपरेशन करना जरुरी है।" मुझे चुप देखकर डॉक्टर ने आगे कहा। "ठीक है " मैंने बस इतना ही कहा।

ऑपरेशन से डिलीवरी हुयी। बच्ची पैदा हुई। जब पापा बेटी का बाप बनने के लिए मुझे बधाई दे रहे थे, तब मैं अपने ब्लड-रिपोर्ट के बारे में सोच रहा था। ऑपरेशन के दौरान मैं जाँच के लिए खून दे आया था। लाख कोशिशों के बावजूद चेहरे पर चिंता साफ़ झलक रही थी। पापा को लगा कि मैं बेटी पैदा होने के कारण उदास हो गया हूँ।

उन्होंने कहा-“पहली संतान है। लक्ष्मी है। मायूस क्यों हो।“

मन में बार-बार यही उठता कि काश मेरा रिपोर्ट नेगेटिव आ जाए। शाम तक मेरा भी रिपोर्ट आ गया था। जैसी कि आशंका थी, एंटीबॉडी टेस्ट पॉजिटिव ही निकला।‌---

कहकर अविनाश ने एक लम्बी साँस भरी। मैं उसे विस्मय और कौतूहल देख रहा था।

फिर उसने आगे कहना शुरू किया, "जीजाजी, जब मैं पैथोलॉजी से रिपोर्ट लेकर वार्ड की तरह जा रहा था, तब एक बार मन में आया कि वहीं तीसरी मंज़िल से छलांग लगा दूँ। लेकिन अपने आप को रोक लिया। बहुत सी बातें मन में घूमने लगीं। अम्मा-पापा का चेहरा। नमिता और नवजात की चिंता।"

"उफ्फ्फ...कितने कष्ट से तुम गुजरे! “ मैंने कहा। फिर पूछा, “नमिता को कब पता चला?"

"मेरे बस का होता तो शायद उसे कभी नहीं बताता। जब डिलीवरी के बाद उससे वार्ड में मिला तब कुछ देर में ही उसे यह लगने लगा था कि सब कुछ ठीक नहीं है। पहले तो उसने भी यही सोचा कि शायद लड़की के पैदा होने के कारण मैं उदास हूँ। लेकिन जल्दी ही उसने उदासी और परेशानी के बीच के अंतर को पढ़ लिया। हालाँकि मैंने उस समय उसे बच्ची के बहाने टाल दिया था। बच्ची भी इन्फेक्टेड थी और काफी कमजोर भी। इसलिए उसे अलग ग्लास बॉक्स में रखा गया था। नमिता ने सोचा मैं बच्ची के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित था।"

ऐसा लग रहा था कि अविनाश की आँखों के सामने वे पल तैर रहे थे।

थोड़ा रुक कर उसने आगे कहना शुरू किया, "अजीब सी स्थिति थी। एक तरफ जश्न था और एक तरफ मातम। पहले दिन नमिता को कुछ भी बताने की हिम्मत नहीं हुई। वायरल लोड टेस्ट के रिपोर्ट में नमिता का "सी डी फोर काउंट" एक सौ बयासी आया। यानि कि बीमारी अपने अंतिम चरण में पहुँच चुकी थी।...हमारे शरीर में "सी डी फोर" सेल्स होते हैं जो रक्षा कवच की तरह काम करते हैं। वायरस उन्हें नष्ट करने लगते हैं जिससे बहुत ही आसानी से कोई बीमारी शरीर में प्रवेश कर सकती है। "एच आई वी" की गंभीरता को जानने के लिए यह टेस्ट किया जाता है। मेरी स्थिति काफी बेहतर थी। पहला ही चरण था। अभी वाइरस ने मेरे सेल्स को ज्यादा नष्ट नहीं किया था।"

मैं निरंतर अविनाश को देख रहा था। उसके चेहरे पर उठते गिरते भावों की लहरों को महसूस कर रहा।

उसने आगे कहना जारी रखा, "बहुत मुश्किल था नमिता से कुछ भी छुपा पाना। फिर भी मैंने लगभग चार दिनों तक उसे पता नहीं चलने दिया था। हालाँकि रिपोर्ट आने के बाद ही उसकी एंटी रेट्रोवायरल थेरेपी चालू हो गयी थी। शुरू में वह समझी कि वे दवाएँ ऑपरेशन का घाव सुखाने के लिए हैं। लेकिन वह पढ़ी-लिखी समझदार लड़की थी। जल्दी ही जान गयी कि मेरी चिंता के पीछे कोई गंभीर कारण था। मेरे मन में भी पिछले चार दिनों से एक गुबार पल-पल घना होता जा रहा था जो फूटना चाहता था। चीखना चाहता था। चौथे दिन, रात में वह गुबार फूट पड़ा। हम दोनों एक दूसरे के गले लगकर बहुत देर तक रोते रहे। आँसुओं साथ-साथ बहुत ढेर सारा दर्द भी बहा।" कहकर वह चुप हो गया। उसके चेहरे पर दर्द उभर आया था।

कुछ देर हमारे बीच एक खामोशी सी छायी रही। मेरा मन तमाम घटनाओं की कड़ियाँ जोड़ने में लगा हुआ था। बच्ची के जन्म के फंक्शन में अविनाश का अनमना रहना, उसका घर से अलग होना, अचानक उसके व्यवहार में परिवर्तन होना, नमिता का कांतिहीन और बीमार चेहरा इत्यादि सारी कड़ियाँ स्वयं ही जुड़ती जा रही थीं। हालाँकि कई प्रश्न अभी भी मन में थे।

मैंने मौन भंग करतेहुए कहा, "यार कितना कुछ तुमने अकेले सहा...। अकेले संभाला...। कोई और होता तो शायद आसमान सर पर उठा लेता।"

मेरे सामने बैठा तेईस-चौबीस साल का लड़का अचानक मुझे बहुत बड़ा दिखाई दे रहा था। कितनी विकट परिस्थितियों से उसे इतनी कम उम्र में ही गुजरना पड़ा। अकेले ही लड़ता रहा। किसी को भनक तक नहीं होने दी। सारा दोष अपने माथे पर लेता रहा।

बीमारी की गंभीरता के परिमाण से मुझे इतना तो अंदाजा हो गया था कि इस वायरस से पहले नमिता ही ग्रसित रही होगी क्योंकि जब अस्पताल में दोनों का टेस्ट हुआ तो उनके हालत में बहुत अंतर था। फिर भी मैंने पक्का करने के लिए पूछा, "नमिता पहले से ही ग्रसित थी?"

"हाँ।" उसने सिर हिलाते हुए कहा।

"उस समय तो मन में काफी रोष भी उपजा होगा।" मैंने कहा।

"जीजाजी! गुस्सा आना तो बहुत स्वाभाविक था। हम दूसरों के द्वारा हुए अपने छोटे मोटे नुक़सान नहीं बर्दाश्त कर पाते हैं और आपत्ति दर्ज करा देते हैं। मेरी तो ज़िन्दगी का ही प्रश्न था।" भावावेश में उसके चेहरे का रंग बदल गया था और आँखें छलछला गई थीं।

वह थोड़ा रुककर बोला, "मैंने नमिता से बहुत प्यार किया था और मुझसे ज्यादा उसने मुझसे किया था। मेरे अंदर वह इतना घुल चुकी थी कि कभी अलग लगी ही नहीं। अस्पताल में बीमारी के बारे में पता लगने पर उसके चेहरे पर जो पीड़ा उभरी थी उसमें मेरा सारा गुस्सा स्वाहा हो गया।" वह चुप हो गया।

फिर शून्य में देखते हुए स्वयं बोल उठा ,"उसने मुझे बहुत खुशियाँ दी थीं। लाखों खूबसूरत पल दिए थे। इतने खूबसूरत जिनकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। आज भी उनकी गुदगुदाहट मेरे मन में है। उसने हर पल मुझे अहसास दिलाया था कि उसका अस्तित्व सिर्फ मेरे लिए ही था। अगर मुझे पहले से पता होता तो भी शायद नमिता से ही शादी करता।"

अविनाश की बातें सुनकर मुझे प्रिया के साथ के अपने शुरूआती दिनों की याद आ गई। जब लगता था कि पूरी दुनिया की ख़ुशी उसके चेहरे और हँसी में समाई है।

अविनाश कहता जा रहा था, "अंतिम पल तक उसे अपनी ज़िन्दगी की चिंता से अधिक सिर्फ यही अफ़सोस था कि उसके कारण मुझे यह रोग हुआ। रात-दिन पश्चाताप में जलता उसका मन उसे जल्दी ही निगल गया। नहीं तो शायद कुछ और दिन जी सकती थी।"

उस समय अविनाश के सामने मुझे अपना कद बहुत ही छोटा लग रहा था। एक वह है जो ऐसी घातक बीमारी से जूझते हुए आज भी यह सोच रहा है कि नमिता, जिसके कारण उसे यह बीमारी लगी, कुछ समय और जी ली होती। और एक तरफ मैं..."

मुझे गंभीर देखकर अविनाश बोल पड़ा, "खैर, कोई अफ़सोस नहीं है मुझे किसी भी बात का। न ही किसी से कोई गिला शिकवा है। न दुनिया से, न ज़िन्दगी से और न ही ऊपर वाले से। ज़िन्दगी जैसी भी है बहुत अच्छी है।"

अविनाश के भावात्मक उद्गारों के बीच एक प्रमुख बात तो रह ही गयी थी जो कई बार मन में उठी थी। किन्तु बातों में दब गयी थी। वह यह कि अविनाश का स्वास्थ्य का अभी क्या हाल क्या है ।

मैंने पूछा , "अभी तुम्हारी तबियत कैसी है?"

"जीजाजी! मैंने इस बीमारी को हराने की ठानी है। मुझे एक आम आदमी की तरह ही अपनी पूरी ज़िन्दगी जीनी है। तभी नमिता की आत्मा को शांति मिल पाएगी और वह अपनी नज़रों में दोष-मुक्त हो सकेगी। उसकी कातर नज़रें आज भी मुझसे कहती हैं - मरना मत मेरे प्यार!"

फिर गला साफ़ करते हुए आगे बोला, "यहीं पीजीआई में हर महीने चेक अप कराता हूँ। नियमित रूप से दवाइयाँ खाता हूँ। योग और मॉर्निंग वॉक करता हूँ। खान-पान का पूरा ख़याल रखता हूँ। वास्तव में एच आई वी अपने आप में कोई बीमारी नहीं है। इसके वायरस शरीर के इम्यून सिस्टम को नष्ट करने की कोशिश करते हैं जिससे कोई भी बीमारी शरीर में आसानी से लग जाती है। इसलिए अपने इम्यून सिस्टम को ठीक रखना पड़ता है। पहली बार डिटेक्ट होने के बाद से आज तक मैंने अपना "सीडीफोर" कम नहीं होने दिया है। और न ही होने दूँगा।" उसने बहुत आत्मविश्वास से कहा।

मैंने खाना बाहर से मँगा लिया था। हम दोनों खा पीकर ग्यारह बजे सोए।

दूसरे दिन सुबह नाश्ते के टेबल पर-

"कैसे चलेंगे आप, अपनी कार से या मेरे साथ?" अविनाश ने पूछा।

"तुम्हारे साथ ही चलता हूँ। लौटते समय टैक्सी कर लूँगा। वर्तिका साथ में होगी... उसके साथ खेलते आऊँगा।

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