अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - भाग 27 Mirza Hafiz Baig द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - भाग 27

पिछले भाग में आपने पढ़ा-
“यही कि जो अंतिम चीज़ मनुष्य को चाहिये वह है, प्रेम...” व्यापारी ने कहा।

“तुम सच कह रहे हो कथाकार, किंतु एक चीज़ तुम भूल रहे हो प्रेम न्यायपूर्ण होना चाहिये। यदि प्रेम में सबके साथ न्याय होता तो आज मैं यहाँ न होता...”

“किंतु क्या यह सम्भव है?” व्यापारी ने पूछा।

“पुनः वही किंतु!! यह किंतु ही सारी समस्याओं की जड़ में होता है,,,” उस डकैत ने कहा और तीनो हंसने लगे।

**
अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे-
भाग-27
प्रेम और छल
दृष्टि की अंतिम सीमा पर, सागर की परिधि रेखा पर, जहाँ आकाश और सागर परस्पर मिलते हैं, एक काला बिंदु उभरा और कुछ समय बीतते बीतते ज़रा बड़ा लगने लगा।
“मुझे भय है, ठग शिरोमणि तुमने भी समस्या का यही समाधान निकाला है, तभी तो तुम भी हमारी तरह भटकने के लिये अभिशप्त हो।” उस डाकू ने जिसने अपनी व्यथा कथा कही थी, आह भरकर व्यापारी से कहा।
“नहीं, बल्कि मेरी समस्या का समाधान मेरी पत्नि ने ही कर दिया।” व्यापारी बोला।
“वो कैसे?”
“ऐसे, कि एक दिन मैं व्यापार के कार्य से बाहर गया हुआ था और जब लौटा तो दोनो बहिनो को रोता बिसूरता पाया वे कह रही थीं कि भाभी अपनी तैराकी की पोशाक पहनकर मत्स्यकन्या का रूप धरकर नदी में कूद पड़ी और उसके बाद दिखाई ही नहीं दी। हम यह सोंचकर कि अभी बाहर निकलेगी, अभी बाहर निकलेगी, सारा दिन किनारे बैठे रहे किंतु वह बाहर नहीं आई...
मैं नदी की ओर भागा रात घिर चुकी थी। अंधेरा हो गया था। जंगल अंधेरे में भांय भांय कर रहा था। मैं पागलों की तरह नदी किनारे चट्टानो से टकराकर घायल होता, गड्ढों में गिरता पड़ता उसे ढूंढने की कोशिश कर रहा था। अंधेरे में कहीं कुछ दिखाई नहीं देता था किंतु नदी की कल-कल ध्वनि स्थिति का आभास करा रही थी। मैं जानता था, अब देर हो चुकी है। मैं जानता था, अब कुछ नहीं हो सकता। किंतु मैं यहाँ से वापस नहीं जाना चाहता था। वास्तव में मैं चाहता था कि मैं भी उसे ढूंढते ढूंढते यही अपने प्राण त्याग दूं।
उसके बिना मेरे जीवन का कोई अर्थ न था। मैं इस निरर्थक जीवन से मुक्ति की कामना करने लगा था। मैं घोर अंधेरे में बैठा अपने जीवन के अंत के बारे में सोंचने लगा था। मैं चाह रहा था कि कोई जंगली जानवर आकर मुझे खा जाये। नदी में कूदकर जान देने के बारे में भी मैं सोंचने लगा था। बहुत प्रतीक्षा के बाद भी जब मेरे साथ कोई दुर्घटना नहीं घटी तो मैं दृढ़ संकल्प के साथ नदी में कूद गया। किंतु इसे सौभाग्य कहूँ अथवा दुर्भाग्य कि जब मैं नदी के जल में हाथ-पैर पटक रहा था। जल के भीतर ही मुझे दो हाथों ने थाम लिया। घोर अंधकार में मैं कुछ देख नहीं सकता था, किंतु महसूस कर सकता था। उन प्रेम भरे हाथों का स्पर्ष मैं कैसे भूल सकता था? उस प्रेम भरे आलिंगन को मैं कैसे विस्मृत कर सकता था। लम्बे घने बालों के रेशमी स्पर्ष को...
और उस प्रेम में पगे गहरे चुम्बन को जो जल से बाहर आते ही मेरे अधरों पर आरोपित हो गये थे... उन अधरों की ऊष्मा को मैं आज भी अनुभव करता हूँ। जब नदी किनारे मेरा भीगा हुआ शरीर एक समतल चट्टान पर पड़ा था और मेरा सिर उसकी गोद में था। वह अपनी तैराकी की विशेष पोशाक में थी। वह पोशाक जो उसे साधारण स्त्री से मत्स्यकन्या या जल परी बनाती थी।
“तुम यह क्या कर रहे थे, मेरे प्राण? तुम्हे पता नहीं मेरे प्राण तुम्हारे अंदर बसते हैं?” मेरे अधरों से अपने अधर हटाने के पश्चात् उसने बड़ी पीड़ा भरे स्वर में कहा।
“तुम यह क्या कर रही थीं मेरी प्राण? क्या तुम भूल गई कि तुम्हारे अंदर मेरे प्राण बसते हैं?” मैंने कहा।
“तुम जानते हो, मैं जो कर रही हूँ। मैं तुम्हे चिंता और दुविधाओं से मुक्त करना चाहती हूँ। तुम नहीं जानते हमारा प्रेम कितना गहरा है? तुम्हारे प्रेम के वश ही मैं सागर को छूकर वापस आई हूँ। मैं तो डॉल्फिनो के साथ तैरती विचरण करती अपने द्वीप वापस लौट जाती किंतु मुझे तुम्हारे इस कदम की आशंका ने वापस खींच लाया।”
“अब ऐसा कभी न करना मेरी प्राण; तुम जानती हो मैं अपने प्राण त्याग दूंगा।” मैंने कहा, “चलो अब घर चलो।”
“नहीं मेरे प्रियतम! उस दुनिया के लिये अब मैं मर चुकी हूँ। तुम इस उनके इस सुखद भ्रम को न तोड़ो।”
“मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता।” मैंने कहा।
“मेरे बिना कहाँ?” उसने कहा, “और भूलो मत मैं एक मत्स्यकन्या हूँ, अपने बिना तुम्हें जीने भी नहीं दूंगी।”
“तब ठीक है, यही तो मैं भी चाहता था कि हम दोनो वापस अपनी उसी दुनिया में चले जायें जहाँ हमारे बीच कोई न आये।”
“तुम तो यह बात पहले भी कह चुके हो?”
“किंतु तुमने कहा था कि तुम्हारे परिवार को इस समय तुम्हारी ज़रूरत है।”
“मैं अब भी यही कहती हूँ, मेरे प्राण ! तुम अपने कर्तव्य से मुख न मोड़ो अन्यथा मुझे बुरा लगेगा। सुनो जब यहाँ सबकुछ सही हो जाये तुम चले आना।”
“नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। तुम चली जाओगी तो मैं कैसे जीऊंगा?”
“मैं तुमसे दूर कहाँ हूँ, मैं तो हमेंशा तुम्हारे दिल में रहूंगी। फिर यह कुछ दिनों की तो बात है।”
“ऐसा नहीं हो सकता। तुम वापस चलो।” मैंने ज़िद की।
“ऐसा नहीं हो सकता मेरे प्राण!” उसने कहा, “वह दुनिया मेरे लिये नहीं है। वहाँ मैं पहले भी अवांछित थी और अब तो कोई मुझे नहीं स्वीकार करेगा।”
“पत्नि की दुनिया वही होती है, जहाँ पति हो...” मैंने इतना ही कहा था कि मेरे कान खड़े हो गये। शहर की ओर से शोरगुल सुनाई देने लगा था। मशालें लिये बहुत से लोग नदी की ओर आ रहे थे।
“तुम वापस जाओ,” उसने मुझपर दबाव डालते हुये कहा, “उन लोगों ने मुझे देख लिया तो...”
“देखने दो।” मैंने उसकी बात काटते हुये कहा और उसकी बांह पकड़ ली, “जो होगा देखा जायेगा…”
“तुम अभी जाओ। मैं तुमसे मिलने फिर आऊंगी।”
“सच?”
“तुम्हारी सौगंध।”
“कब? कहाँ?”
“यहीं। अगले वर्ष, इसी दिन...” कहती हुई वह नदी में कूद पड़ी।
अगले वर्ष मैं वहाँ पहुंचा। मैंने उस दिन के अपने सारे कार्य स्थगित कर दिये और सारा दिन वहाँ बैठा रहा, सारी रात वहाँ बैठा रहा। सुबह हो गई, दिन निकल गया और मैं वहीं बैठा रहा। वह नहीं आई। मैं समझ गया वह नहीं आने वाली। दूसरा दिन चढ़ आया किंतु वहाँ से उठने का मन नहीं होता। मैं जब भी वापस जाना चाहता मुझे लगता, वह आयेगी। कई बार मैं चौंक सा उट्ठा, लगा वह आस-पास ही है।
मन में कई प्रकार की आशंकाओं ने सिर उठाना प्रारम्भ किया। कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया? हो सकता कि वह यहाँ से वापस जाते जाते सागर के बीच ही ...फिर यह सम्भावनायें भी जागी कि हो सकता है वह एक दिन पहले ही आ चुकी हो और मैं गलती से एक दिन बाद आया हूँ। हो सकता है वह मुझे न पाकर अप्रसन्न होकर चली गई हो। उसने मुझे धोखेबाज़ समझ लिया हो। लेकिन मैं धोखेबाज़ नहीं, मैं यह उसे किस प्रकार बताऊँ। मैं उसे बताना चाहता हूँ, मैं धोखेबाज़ नहीं... मैं उसे भूल ही नहीं सकता...
किंतु उसे बताऊँ किस प्रकार?
मैंने अपने आप को इतना अधिक निर्वश और लाचार कभी नहीं पाया था। तब भी नहीं जब उस गुप्तचर ने मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचा था। किंतु आज मैं बहुत लाचार था। उसके साथ बिताये एक एक क्षण मेरे स्मृतिपटल पर सजीव होने लगे। उसकी प्रेम भरी वह नज़र, उसके हाथों का वह स्पर्ष और उसके नर्म मुलायम बालों की वह शीतल छाया मुझे बुलाने लगी थी लेकिन वह थी कहाँ।
मेरे मन में आया कि नदी में कूद कर प्राण त्याग दूँ; किंतु इससे मैं उसे मिल न पाऊंगा। फिर हो सकता है वह देर सवेर आये और उसे पता चले कि मैंने उसकी प्रतीक्षा में प्राण त्याग दिये तो उसपर क्या बीतेगी। मैं बहुत कठिन परिस्थिति में फंसा हुआ था। क्या करूँ समझ नहीं पा रहा था।
मैं कई दिनो तक रोज़ नदी किनारे जाकर उसकी प्रतीक्षा करता। हज़ारो आशंकाओं का सामना करता। क्योंकि मैं जानता था, चाहे कोई भी अनहोनी हो सकती है किंतु यह नहीं हो सकता कि वह अपना वादा तोड़े।
नदी की लहरों से विनती करनी शुरू कर दी कि वह मेरा संदेश उस तक पहुंचा दे और उसका कोई संदेश ले आये। मैंने सूरज, चांद सितारों से प्रार्थना की। मैंने आकाश से प्रार्थना की... किंतु सब व्यर्थ। वे भी मेरी तरह निर्वश ही थे। शायद मुझसे भी अधिक।
किसीने भी मेरी सहायता नहीं की... किसी ने भी नहीं...”
इसके बाद व्यापारी मौन हो गया।
वे दोनो डाकू उसे बहुत दया भाव से निहार रहे थे; क्योंकि उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे जो उसके सच्चे प्रेम का प्रमाण थे। किंतु कथाकार जानता था, कथा के पात्र उसके जीवन और उसके हृदय पर क्या प्रभाव डालते हैं।
कथा के पात्र झूठे ही सही, कथाकार के लिये उनका अस्तित्व होता है। वे कथाकार के मनमस्तिष्क पर अपना अधिकार जमा लेते हैं। कथाकार उन्हीं के साथ जीता है मरता है। जब एक पात्र मरता है तो अपने अंदर कथाकार भी मरता है। वह हर पात्र के साथ जीता मरता है। एक कथाकार एक ही जनम में कई कई बार जीता और मरता है। और इसी कारण लोग उसकी मिथ्या कल्पनाओं को सच के समान अंगीकार कर लेते हैं।
वे थोड़े समय उसे देखते रहे।
जब मौन अधिक लम्बा खिंचने लगा तो एक डाकू ने बहुत सहानुभूति पूर्वक पूछा, “फिर क्या हुआ?”
व्यापारी ने उत्तर दिया, “मैं विक्षिप्त सा हो गया था। मैं भटकता फिरता था। अंततः मेरे परिवार वालों ने ज़बर्दस्ती मेरा दूसरा विवाह कर दिया और मैं अपनी दूसरी ज़िंदगी में रम गया।”
“यानि तुमने अपनी पत्नि के साथ छल किया? तुमने अपने प्रेम के साथ छल किया? छिः तुम नीच हो, अधम हो...”
व्यापारी चुप था। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। उसने यह क्या कर दिया। कथा समाप्त कर दी। और वह भी किस स्थिति में लाकर समाप्त की? अब वह इनकी और अधिक घृणा का पात्र बन जायेगा। अब वह इन्हें कैसे नियंत्रित करेगा?
**
जारी है...
क्या कल्पना यथार्थ के रूप में प्रकट हो सकती है?
व्यापारी की कल्पना को यथार्थ में बदलते देखें
अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- भाग 28
कल्पना और यथार्थ में
मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति