Anjane lakshy ki yatra pe - 26 books and stories free download online pdf in Hindi

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - भाग 26

अब तक आपने पढ़ा...
“तुम्हे क्या हुआ है?” व्यापारी ने आश्चर्य से पूछा, “अभी तो कथा में हृदय विदारक पल आयेंगे। तब तुम क्या करोगे?”

“मुझे अपनी पत्नि की याद आ गई। मैं भी उसे बहुत प्रेम करता था, किंतु...”

“किंतु” के आगे वह बोल न सका। उसकी रुलाई फूट गई।

“किंतु क्या?” व्यापारी ने बेचैन होकर पूछा।
अब आगे...
अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे भाग-26
राक्षस और राजकुमार
“तुम पूछते हो इस किंतु का अर्थ? क्या तुम जानते नहीं हर व्यक्ति अपने अंदर कई किंतु परंतु छिपाये रहता है। तुम तो कथाकार हो, एक कुशल कथाकार। किंतु क्या कथा खोजने में भी तुम इतने ही कुशल हो? या तुम्हे यह मालूम ही नहीं कि हर व्यक्ति किसी न किसी कथा का पात्र होता है। हर व्यक्तित्व के पीछे एक कथा छिपि होती है। हर व्यक्ति की अपनी कथा होती है...”
व्यापारी स्तब्ध था। वह आज से पहले इसे एक मूर्ख व्यक्ति ही समझता रहा। इसके इस व्यक्तित्व के पीछे भी एक व्यक्तित्व छिपा था। क्या हमारे कई व्यक्तित्व होते हैं? हाँ, एक ही व्यक्ति के अंदर कई व्यक्तित्व छिपे होते हैं और वे समय समय पर सामने आते हैं। वे अनुकूल परिस्थिति देख कर सामने आते हैं; और हमें हैरान कर देते हैं, जैसे इस समय इस डाकू ने मुझे कर दिया है... हैरान! यह सच कहता है कि हर व्यक्तित्व की अपनी कथा होती है।
अर्थात् एक व्यक्ति में कई व्यक्तित्व और हर व्यक्तित्व की अपनी कथा... ओह! यह दुनिया तो कथाओं का खजाना है। किंतु किसी कथाकार ने कभी ऐसा सोंचा है?...
“...तब इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि मेरी भी एक कथा है...” वह बोल रहा है, “तो सुनो कथाकार!...” यह एक और आश्चर्य था कि उसने आज इस व्यापारी को ठग के बजाय, कथाकार कहकर सम्बोधित किया।
“मैं सदैव डाकू नहीं था। कोई भी नहीं होता। जैसे तुम इतने कुशल कथाकर होकर भी लोगों को मूर्ख बनाते ठगते फिरते हो। यह तुम्हारी मूल प्रवृत्ति तो नहीं है, फिर भी तुम ऐसा करने पर मजबूर हो। ठीक इसी प्रकार मैं मूल रूप से एक किसान था। मेरा अपना गांव था। छोटा सा गांव, जहां सभी लोग एक दूसरे को जानते थे। वहाँ मेरे अपने खेत थे। मैं अपने खेतों से बहुत प्रेम करता था। मैं अपने गांव से भी बहुत प्रेम किया करता था। लेकिन मेरे खेत मेरा अभिमान थे। मैं उनपर अथक परिश्रम करता था और वे मुझे सोने जैसी फसल देते थे। मैं अपने खेतों पर अभिमान करता था। मेरा अपना परिवार था। मां, पिता और बहन भाई। मैं इन सबसे प्रेम करता था। यानि प्रेम, मेरा मूल स्वभाव था।
फिर मेरा ब्याह हुआ। एक सुंदर सी लड़की मेरे घर आई मैं उससे अंजान था, वह मुझसे अंजान थी। किंतु ब्याह के बंधन ने हमें एक दूसरे से बांध दिया। उसका स्वभाव बहुत मधुर था। वह एक पागल लड़की थी। उसने मुझमें ऐसा क्या देखा जो मुझसे इतना प्राण प्रण से प्रेम करने लगी। यह अजीब बात नहीं लगती? एक अंजान लड़की जो आज से पहले तक आपको जानती भी नहीं, आपके स्वभाव से परीचित नहीं होती फिर भी वह आप पर प्राण न्योछवर करने लगे। आप पर अपना सब कुछ न्योछावर कर दे... सिर्फ ब्याह के बंधन के कारण।”
“हाँ, केवल और केवल ब्याह के बंधन के कारण। यह बंधन होता ही ऐसा है, मेरे मित्र...” व्यापारी ने बीच में कहा और उसे आश्चर्य हुआ कि उसने इसे मेरे मित्र कहकर सम्बोधित किया। क्या परस्पर भावनाओं का आदान प्रदान आपस में सम्बंध जोड़ देता है? किंतु वह डाकू आगे बोलता रहा...
“तुम्हें नहीं लगता कि यह एक जादू भरा बंधन होता है? इसमें बंधते ही लोग एक दूसरे पर प्राण न्योछावर करने लगते हैं। अपना मूल स्वभाव भी भूल जाते हैं और एक दूसरे के अनुसार खुद को ढालने लगते हैं।... तो जैसा कि मैंने बताया उसका स्वभाव बहुत मधुर था। उसकी भावनायें बहुत कोमल थीं और उसके सानिध्य में जादू था। मैं कभी भी कितना भी थका हारा होता उसके समीप जाते ही प्रफुल्लित हो उठता, किंतु ऐसा अवसर बहुत कम ही मिलता क्योंकि वह निरंतर मेरी मां की निगरानी में रहती। उसे घर के सारे काम निपटाने होते थे और उससे सहानुभूति इस घर में एक अपराध था... कारण वही जो तुमने बताया, वह इस घर परिवार के लिये बाहरी थी, एक घुसपैठिया जो इस घर की सबसे मूल्यवान सम्पत्ति यानि घर के कमाऊ पूत को हथियाना चाहती है...
माता उसे जादूगरनी कहती। वह कहती कि उसने आते ही मेरे पुत्र पर जादू कर दिया है। उसे वश में कर लिया है। हाँ, उसने जादू तो किया ही था मुझपर, वह वशीकरण जानती थी। वह प्रेम करना जानती थी, प्रेम अपने आप में जादू है जो हिंसक पशुओं को भी अपने वश में कर लेता है। मधुर वाणी अपने आप में एक वशीकरण मंत्र है, जो मनुष्य को अपने वश में कर लेता है; और यह भी उसमें खूब थी। वह साक्षात जादू ही थी। और मैं जिसका मूल स्वभाव ही प्रेम था। मैं जो अपने गांव से प्रेम करता था, अपने खेतों से प्रेम करता था, अपनी फसलों से प्रेम करता था। अपने माता-पिता भाई-बहन हर किसी से प्रेम करता था... यहाँ तक कि अपने पशुओं से प्रेम करता था, कैसे उस लड़की से प्रेम नहीं करता जो मुझसे निश्छल प्रेम करती थी। जो मेरी पत्नि थी। जो मेरी जीवनसंगिनी थी...
धीरे-धीरे मुझपर तानों की बौछार होने लगी और उसपर अत्याचार की। अब हर कोई मुझपर फब्तियाँ कसता। वे सब जिन जिन से मैंने प्रेम किया था सब मुझपर ताने कसने लगे... वह पुरुष ही क्या जो किसी स्त्री के प्रेमपाश में बंध जाये और अपने लोगों को भूल जाये।
किंतु मैं तो किसी को भूला नहीं था। मैं तो सभी से पहले की ही तरह प्रेम करता था; फिर यह उलाहने किस आधार पर?
“क्या खाक प्रेम करता है, तू तो सदा उसका साथ देता है...”
“मैं तो सदा सच का साथ देता हूँ।”
“अच्छा! तो अब वह सच हो गई और हम झूठ? यही प्रेम है?”
मैं कोई उत्तर नहीं दे पाता। कई बार हम सत्य होते हुये भी निरुत्तर क्यों हो जाते हैं?
मां कहती, “पुरुष बन। स्त्री तो पैर की जूती होती है, उसे सिर पर रखेगा .तो वह तुझपर शासन करने लगेगी...”
और आज ही मैंने जाना कि वह वास्तव में सत्ता का संघर्ष ही था। असली प्रश्न तो यह था कि मुझपर शासन कौन करेगा, पत्नि, माँ, भाई बहन दोस्त यार अथवा और कोई। फिर वह तो सबसे कमज़ोर उम्मीदवार थी, बाहरी तत्व थी न? एक घुसपैठिया जिसे इस घर में जीना है तो दासी बनकर ही जीना होगा।
किंतु मेरा हृदय यह स्वीकर करने को तत्पर न था। मैं उसे न्याय दिलाना चाहता था। इस घर में इस परिवार में उसे सदस्य के रूप में मान्यता दिलाना चाहता था। वास्तव में मैं उसे एक मनुष्य का दर्जा दिलाना चाहता था।
किंतु,
किंतु दूसरी ओर थे मेरे पुराने प्रगाढ़ सम्बंध, मेरे रक्त सम्बंध और सबसे बढ़कर माता-पिता... वे जो भगवान तो नहीं किंतु एक पुत्र के लिये भगवान से कम भी नहीं होते हैं। और न्याय? क्या करूँ किसके साथ जाऊँ?
मैं हर समय हर पल दुविधा में घिरा रहता। कभी कोई फैसला नहीं ले पाता। सुबह शाम बस मस्तिष्क में द्वंद चलता रहता। मेरी मानसिक क्षमता क्षीण होने लगी। इस समस्या का कोई हल नज़र नहीं आता।
धीरे धीरे मेरा खाना पानी कम होने लगा। शरीर निर्बल होता गया... खेत खराब होने लगे। उलाहने बढ़ने लगे, “यह तुझे बरबाद करके छोड़ेगी... अब भी बुद्धि नहीं आई... पुरुष बन...”
इसके बाद वह सुबक सुबक कर रोने लगा।
“फिर, क्या हुआ?” यह वाक्य पहली बार उस व्यापारी ने पूछा जो स्वयं कथाकार था।
“एक दिन मैंने इसी विक्षिप्त सी अवस्था में इस समस्या का हल यूँ निकाला कि कुल्हाड़ी उठाकर अपनी पत्नी का सिर काट डाला... दिन दहाड़े ... सबके सामने... जैसे ही मुझे कुछ होश आया मैं भाग निकला। अब मैं भटकता फिरता, जंगल जंगल, पहाड़ पहाड़... किंतु मुझे कहीं चैन न मिलता। उसकी मीठी बातें, उसका मासूम चेहरा, उसकी निश्चल मुस्कान, और उसका कटा हुआ सिर हमेंशा मेरी स्मृति में विद्यमान रहते। मैंने उसका कटा हुआ सिर देखा था। उस कटे हुये सिर की आंखें खुली हुई थीं... नहीं बल्कि वे आश्चर्य से फटी हुई थीं। और मेरे परिवार के बाकी सदस्यों की आंखें प्रसन्नता से...। वे परेशान होने का दिखावा ज़रूर कर रहे थे। उन्हे दुख न था, उल्टे प्रसन्नता थी। उनके चेहरे बनावटी थे। वे अपनी चिंता में मग्न थे। वे ऐसे प्राणी थे जो किसी से प्रेम नहीं कर सकते थे... और वह कितना विश्वास करती थी न मुझपर? मैंने विश्वासघात किया था उसके साथ...”
वह रुका सागर की ओर अनंत में देखने लगा जहाँ क्षितिज पर एक काला बिंदु उभरने लगा था, फिर धीरे से बोला, “एक रात मैं उसी विक्षिप्त अवस्था में घर वापस आया और कुल्हाड़ी से सबके सिर काट दिया और वापस जंगल को भाग गया। इससे मुझे बहुत चैन मिला और तब से मुझमें एक राक्षस का उदय हुआ जिसे बस लोगों को मारना और खून बहाना ही पसंद है। उसे बस इसी से चैन मिलता है। मैं अब एक मानव नहीं एक राक्षस हूँ राक्षस...”
वह सुबकने लगा। स्पष्ट था, वह अपनी रुलाई पर नियंत्रण करना चाह रहा था।
व्यापारी मौन था। वह उस क्रूर और उज्जड डाकू को सिसक सिसक कर रोते देख सोंचने लगा, क्या प्रेम ही दुख देता है? क्या सुख भी प्रेम से ही है? लेकिन यह तो तय है प्रेम ही मनुष्य को सभ्य बनाता है। सत्य तो यही है, प्रेम का अभाव मनुष्य को उज्जड बना देता है राक्षस बना देता है, जैसे आज यह ...
उस डाकू ने व्यापारी की ओर देखा, “हे ठग शिरोमणी तुम तो कुशल कथाकार हो,” वह बोला, “तुमने तो राक्षसों और वीर राजकुमारों की कथायें भी सुनाई होंगी? क्या तुमने कभी यह सोंचा है, कि वे कथायें हमारे अंदर ही होती हैं। वे हमारे ही विवेक और अविवेक की कथायें हैं... वे राक्षस और वे राजकुमार दोनो हमारे अंदर ही विद्यमान होते हैं, जिस समय जो शक्तिशाली होता है वही हम नज़र आते हैं। हमारे अंदर सभी विद्यमान होते हैं, भयंकर राक्षस भी, वीर राजकुमार भी, ज्ञानी महात्मा भी और बर्बर डकैत भी... यह हमारे ऊपर है कि हम किसका शमन करते हैं और किसे प्रश्रय देते हैं... सारा कथालोक हमारे अंदर ही विद्यमान है...”
थोड़ी देर मौन व्याप्त रहा। इस मौन को केवल सागर की लहरें ही भेद रही थीं। और कुछ समुद्री पक्षी जो तेज़ आवाज़ के साथ आसपास उतर रहे थे।
“तुम्हारे अनुसार मेरी कथा का सार क्या है? ठग शिरोमणी कथाकार...” मौन भंग करते हुये उसी डाकू ने व्यापारी से पूछा।
“यही कि जो अंतिम चीज़ मनुष्य को चाहिये वह है, प्रेम...” व्यापारी ने कहा।
“तुम सच कह रहे हो कथाकार, किंतु एक चीज़ तुम भूल रहे हो प्रेम न्यायपूर्ण होना चाहिये। यदि प्रेम में सबके साथ न्याय होता तो आज मैं यहाँ न होता...”
“किंतु क्या यह सम्भव है?” व्यापारी ने पूछा।
“पुनः वही किंतु!! यह किंतु ही सारी समस्याओं की जड़ में होता है...” उस डकैत ने कहा और तीनो हंसने लगे।
**
जारी अगले भाग में...
अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- भाग 27
प्रेम और छल
(मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति)

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED