Anjane Lakshy ki yatra pe - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे-6

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे -6

छठवाँ भाग_

जलपरीयाँ…

लेकिन बहुत ही जल्दी हमारा सामना उसी तूफ़ानी क्षेत्र से हुआ और हमे दूर से देख कर ही लौटना पड़ा । हम दूसरी बार और तीसरी बार भी गलत अनुमान के कारण वापस आ गये । लेकिन हम एक दूसरे को ढाढस बंधाते रहे । इसी तरह हम सात बार लौटे लेकिन आठवीं बार हम दूर जाने मे सफ़ल हुये ।

हम रात मे सितारों और दिन मे सूर्य की स्थिति से अपनी दिशा का अनुमान लगाकर चलते रहे । दो दिन और दो रात के सफ़र के बाद हमे एक शांत और उजले दिन दूर समुद्र मे हलचल का अहसास हुआ । मुझे तो कुछ समझ ही नही आया, लेकिन मेरे सैनिक मित्र ने अपने अनुभव से बताया कि मछलियाँ खेल रही हैं । मछलियाँ यानि व्हेल मछलियाँ जो आकार मे कई हाथियों के बराबर एक होती है । अभी हम उनके क्रीड़ा क्षेत्र से दूर ही थे कि पहाड़ जैसी विशालकाय मछलियों को समुद्र की सतह से ऊपर उछल कूद करते देखा । इन्हे इस प्रकार अपने सामने खेल करते देखकर कलेजा मुह को आ जाता । उन्हे इस प्रकार जल की सतह से ऊपर उछलते देख यूं लगता मानो कोई पहाड़ ही जल की सतह को फ़ाड़ कर निकल गया हो । और भी कि वे एक दो नही बल्कि हज़ारो की संख्या मे थीं । हम घबरा गये अगर हम इनके बीच फ़से तो जीवित नही बचने वाले । अत: हमने अपनी दिशा बदलकर इनसे दूरी बनाये रखी । आगे हमे डॉल्फ़िन मछलियों के भी विशाल और तीव्र गतिमान झुंड नज़र आये और हमने दिशा बदलते हुये इनसे भी दूरी बनाये रखी । आखिरकार हम शांत क्षेत्र मे पहुंच ही गये । दूसरे दिन हम थकान और प्यास से व्याकुल हो गये । लेकिन किसी तरह एक दूसरे को हिम्मत बंधाते आगे बढते रहे । यह हमारे लिये बहुत ज़रूरी भी था । क्योकि अब हिम्मत हारना, एक पराजित व्यक्ति की मौत मरना था ।

धीरे-धीरे हमारी शक्ति चूक गई । भूख और प्यास से हमारा हाल बुरा था । हमारे पास खाने और पीने के लिये कुछ नही था । हम तो बस अपने आत्मबल के सहारे थे लेकिन अब वह भी चूकने लगा । अख़िरकार हमने संघर्ष भी छोड़ दिया । हमारे हाथ जवाब दे गये थे । हमने चप्पू चलाना बंद कर दिया और अपने बेड़े को किस्मत के हवाले कर दिया । रात हो गई । हमे अब चांद और तारों मे कोई रूचि नही थी और न इस बात मे कि हम किस दिशा मे जारहे हैं । हम विचित्र सी मनसिक दशा से गुज़र रहे थे । न जिंदों मे थे न मुर्दो मे । न जागृत थे न सुप्त । हम शायद अर्धनिंद्रावस्था मे थे । अर्ध विक्षिप्त से । हम लोग यूं ही पड़े थे कि अचानक हमारे शरीर मे कम्पन हुआ और फ़िर एक कर्कश आवाज़ ने हमारे होश लौटा दिये । यह किसी जहाज़ का भोंपू था । बहु धीमा लेकिन स्पष्ट । ऐसे लग रहा था मानो वह आवाज़ किसी और ही दुनिया से आ रही हो । हम उठ बैठे । लड़खड़ाते हुये खड़े हुये और चारो तरफ़ देखने लगे । कहीं कुछ नही था सिवाय घने अंधकार के । तभी मेरी नज़र क्षितिज के अंधकार मे टिमटिमाती किसी मद्धाम से प्रकाश पर केंद्रित हो गई । वह प्रकाश निश्चित ही हमसे मीलो दूर होगा और वह धीमी गति से हमसे और दूर चला जा रहा था । हमने अपनी पूरी शक्ति एकत्रित करके चिल्लाना शुरू कर दिया । लेकिन हमारी आवाज़ को आकाश के चांद तारों के सिवा सागर के जीव जंतुओ ने ही सुना होगा । और दिये की लौ जितना छोटा सा वह प्रकाश भी शनै: शनै: क्षितिज मे कहीं विलुप्त हो गया ।

हम धड़ाम से नीचे बैठ गये ।

वह ज़रूर कोई जहाज़ होगा जिसने हमे देखा नही ; न हमारी आवाज़ ही वहां तक पहुंची । “आशा की एक किरण चमकी और बुझ गई ।“ मै हताशा से बड़बड़ाया ।

हर तरफ़ फ़िर सन्नाटा छा गया । सिर्फ़ लहरों की आवाज़ ही सुनाइ देती । यह आवाज़ कभी ढाढस बंधाती तो कभी भयभीत करती । हम काली अंधेरी रात मे थके हारे और हताशा से चूर बैठे थे ।

“वह कोई जहाज़ था । यदि हमे देख लिया जाता तो शायद हम बचा लिये जाते ।“ मेरा साथी क्षीण स्वर मे बोल रहा था कि अचानक उसके स्वर मे प्राणो का संचार हो गया “इसका यह भी अर्थ है कि हम किसी जलमार्ग के आस-पास हैं ।“

इस बात से अचानक ही हमारे अंदर आशा का संचार हो गया । हम अपनी बची खुची शक्ति बटोरकर अपने दुखते हुये बाज़ुओं से चप्पू चलाते हुये उसी दिशा मे बढ़ने लगे जिस दिशा मे हमने उस प्रकाश को बढ़ते देखा था ।

पता नही कब तक हम चप्पू चलाते रहे लेकिन थक कर यूं गिरे कि हमे होश ही न रहा ।

पक्षियों के शोर और लहरों की आवाज़ से कान के पर्दे फ़टने लगे । मस्तिष्क पर मानो हथौड़े पड़ रहे थे । भारी झुंझलाहट थी जब तन्द्रा भंग हुई । सिर दर्द से फ़टा जारहा था और आंखे खुल नही थी । प्रकाश की किरणे आंखो पर बोझ की तरह पड़ रही थी । जिनका भार पलकों को खुलने नही दे रहा था । शरीर मानो निष्प्राण थे । और जिसे सूर्य का प्रकाश जला रहा था । वही सूर्य जो कभी जीवनदाई जान पड़ता था, आज निर्दई निष्ठुर शत्रु बना हुआ था । हे ईश्वर निस्सन्देह यह सब तेरी ही माया है, और यह मानव मस्तिष्क इस सब को समझने मे असमर्थ है ।

लहर के थपेड़े बराबर बेड़े पर पड़कर शरीर को भिगा रहे थे । एक तेज़ थपेड़ा आकर चेहरे पर पड़ा तो आंखें खुली । और खुली तो खुली की खुली रह गई । हमारे आस पास चट्टाने समुद्र की सतह के बाहर उभरी हुई थीं और लहरें उनपर सिर पटक पटक कर शोर मचा रही हैं । हमारा बेड़ा दूर तक फ़ैली समुद्री चट्टानो के बीच लहरों के सहारे भटक रहा था । और ये चट्टाने दूर दूर तक फ़ैली हुई थी । हमारा दिमाग घूम गया । यह कौनसी नई मुसीबत है । अब इससे बाहर कैसे निकलें ?

अभी हम कुछ समझ पाते की मेरा साथी गेरिक आश्चर्य और भय मिश्रित स्वर मे चीख उठा “जलपरियां…!”

मुझे यकायक कुछ समझ नही आया । यह क्या कह रहा है । लेकिन वह अपने हाथ से एक दिशा मे बराबर इशारा किये जारहा था । मैने देखा हमारा बेड़ा चट्टानो के बीच जिस दिशा मे आगे की ओर बढ़ता जा रहा था, उसी दिशा मे दूर एक चट्टान के ऊपर कुछ स्त्रियॉ बैठी धूप का आनन्द उठा रही थीं । उनमे किसी के बाल काले किसी किसी के लाल और किसीके सुनहरे थे । वे थीं तो स्त्रियाँ ही और मानवों की तरह उनके दो हाथ भी थे लेकिन विचित्र बात थी कि कंधों से नीचे उनके उनके सुगठित शरीर मछ्लियों की तरह चमकीले चटक लाल, हरे, नीले आदि रंगो मे मढ़े हुये थे और उनके पैर नज़र नही आरहे थे ।

“जलपरियाँ … हम जलपरियों के इलाके मे आ फ़से हैं ।“ गेरिक ने मुझसे कहा ।

“जलपरियाँ ? ये जलपरियाँ क्या होती हैं ?” मैने पूछा ।

“तुम देख तो रहे हो ।“ वह बोला ।

“लेकिन मैने ऐसा कभी कुछ नही सुना … ।“ मैने संदेह किया ।

“तो क्या हुआ ? तुम्हारे नही सुनने से यथार्थ तो नही बदल जायेगा । अब अपनी आंखों से देख लो ।“ वह बोला । और जो बोला सच ही बोला था । मैने प्रश्नवाचक नज़र से उसकी ओर देखा । उसकी आंखों मे मुझे गम्भीर चिन्ता के तत्व दिखाई दिये ।

“क्या ये लोग खतरनाक़ होते हैं ?” मैने पूछा ।

“पता नही ।“ उसने कहा “लेकिन हर नई चीज़ से भय तो लगता ही है न ।“

“हे मित्र, भय का मूल तो अज्ञान है । कई बार हम किसी बात से सिर्फ़ इसीलिये भयभीत हो जाते हैं क्योंकि हम उसे जानते नहीं । और जानने के बाद बहुधा वह भय निर्मूल साबित होता है । वैसे ही जैसे धरती पर हम एक दूसरे मानव समाज को जब नही जानते तो उनके बारे मे भयानक धारणाये बना लेते हैं और यही धारणाये आपसी संघर्ष और यहां तक कि भयानक युद्ध तक का कारण बन जाते है; लेकिन जब वही दो समाज आपस मे एक दूसरे को पर्याप्त रूप से जान समझ लेते हैं तो वही धारणाये गलत प्रमाणित होती हैं और संघर्ष का कारण ही समाप्त हो जाता है । जैसे पहले मैने भी तुम्हे दैत्य समझ कर भयभीत हुआ लेकिन जब तुम्हे जाना समझा तो तुम्हे अपना अब तक का सबसे प्रिय मित्र पाया ।“

“शायद तुम ठीक कहरहे हो मित्र ।“ वह कहने लगा “लेकिन कई बार विषम परिस्थियों मे फ़से दो शत्रु भी आपस मे इतने प्रगाढ़ मित्र हो जाया करते हैं क्योंकि एक दूसरे की रक्षा के सिवा उनके पास और कोई विकल्प नही बचता । या एक दूसरे की रक्षा करना उनके अपने अस्तित्व के लिये आवश्यक हो जाता है ।“

“तुम सही हो मित्र !” मैने उससे कहा “लेकिन यह आपस मे विश्वास के बिना सम्भव नही होता है । और जब तक हम किसी को जान नही जाते उसपर विश्वास नही कर सकते हैं ; यानि ज्ञान से ही विश्वास की उत्पत्ति होती है और विश्वास ही भय का नाश करता है । तो क्या यह उचित नही होगा कि हम इन्हे जाने समझें और इन्हे हमे जानने का अवसर प्रदान करें । मुझे विश्वास है हम इसी तरह आसरा पा सकेंगे ।“

“तुम कह तो ठीक रहे हो ।“ उसने कहा “लेकिन वे भी तो हमसे अनभिज्ञ हैं । और अनभिज्ञ ही सबसे अधिक भयभीत और सबसे अधिक आक्रामक होता है । और यह भी सच है कि, अनभिज्ञता ही जिज्ञासा जगाती है और जिज्ञासा ही ज्ञान के पट खोलती है ।“

“तुम सच कह रहे हो मित्र । अब हमे प्रार्थना करनी चाहिये कि हमारे प्रति इनके मन मे पहले से कोई पूर्वाग्रह न हो । यदि ऐसा रहा तो हमे उनके पूर्वाग्रह को तोड़कर अपनी मित्रवत छवि गढ़नी होगी जो ज़रा दुःसाध्य है । क्योंकि नई छवि बनाना आसान है लेकिन एक बनीबनाई छवि को तोड़ना दुष्कर कार्य होता है ।“

“तो ठीक है । हमे चलकर उनसे सम्पर्क करना चाहिये ।“

“एक बार फ़िर विचार कर लो, क्योंकि कहा गया है कि; बिना विचारे जो करे, सो पीछे पछताये… ।“ मैने कहा “हम भी तो उनसे अनभिज्ञ हैं । और हो सकता है उन लोगो का व्यव्हार हमारे प्रति मित्रवत न होकर शत्रुवत रहे । तब हम क्या करेंगे । इससे क्या यह उचित नही होगा कि हम लोग चुपके से यहां से निकल जायें ?”

“तुम्हारा कथन भी उचित जान पड़ता है मित्र , लेकिन यहां से हम जायेंगे कहां ?” गेरिक ने कहा “खुले सागर मे हम भटकेंगे कहां ? मित्र ! सच तो यह है कि हमारे पास कोई विकल्प ही नही । और विचार तो विकल्पों पर किया जाता है । जब विकल्प ही नही तो विचार पर समय व्यतीत करना बुद्धिमानी नही हो सकती है । फ़िर अत्यधिक विचार तो निश्चय का क्षय करता है और पुरुषार्थ को क्षीण करता है । तो हमे दुविधा मे फ़सने के बजाये तुरन्त आगे बढ़ना चाहिये ।“

“सत्य वचन मित्र ।“ मैने कहा “चलो चलते हैं ।“

तो हमलोग आगे बढ़े । थोड़ा ही आगे बढ़े होंगे कि एक एक अपेक्षाकृत खुली जगह पर पहुंचते ही हमे पानी के अन्दर कई जलपरियाँ किलोल करती नज़र आई । लेकिन हमारे बेड़े के उस क्षेत्र मे पहुंचते ही वे चीखती चिल्लती धनुष से छूटे बाण की गति से दूर भागने लगी ।

यह तो बहुत बुरा हुआ । हमने अपने पहले ही सम्पर्क के प्रयास मे उन्हे डरा दिया । निश्चित ही इससे हमारे बारे मे उनकी धारणा खराब ही बनेगी ।

क्रमशः. . .

पढ़ें अगला भाग – जलपरियों के बीच

मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग की कृति.

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