अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- 5 Mirza Hafiz Baig द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- 5

पहले के भागों मे आपने पढ़ा किस प्रकार वह व्यापारी, एक ठग के झांसे मे आकर अपनी सम्पत्ति से हाथ धो बैठता है, और किस प्रकार डाकुओं के चंगुल मे फसकर उनके लिये खजाना खोजने का काम करने लगता है ।

डाकुओं का ध्यान बटाये रखने के लिये वह एक कहानी सुनाना शुरू करता है; जिस कहानी मे वह एक समुद्री यात्रा के समय तूफ़ान की चपेट मे आकर एक अनजान और वीरान टापू पर पहुंच जाता है …… विस्तार से जानने के लिये इसके पहले चारों भाग ज़रूर पढ़ें ।

अब आगे …

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे

पांचवा भाग___

दैत्य के चंगुल मे

धीरे-धीरे आकाश पर अंधेरा घिर आया । अब पूरे टापू पर नीरवता छा गई । मै वहां से निकल आया और उस जगह की तरफ़ चल पड़ा जहां मैने अपने सोने का इन्तेज़ाम किया था । मेरे मन मे यह आशंका थी कि दो आंखें मुझे लगातार देख रही है । सन्नटा इतना गहरा था कि मेरे हल्के हल्के पैरों की आहट भी पूरे टापू को गुंजायमान कर रही थी । हर कदम मेरी घबराहट बढ़ती जा रही थी । आखिर को मै तेजी से चट्टान पर चढ़कर अपने सूखे पत्तो के बिछौने पर जा लेटा ।

नींद नही आरही थी । रह-रह कर उस दैत्य सी आकृति का ध्यान बरबस ही मन को विचलित किये दे रहा था । हर आहट पर चौंक उठता । सांसार मे अकेला मानव होने जैसा अहसास मन मस्तिष्क पर हावी होने लगा । दूसरे ही क्षण याद आता कि मै अकेला कहां हूं ? वह दैत्य …? मैने सारी बातों से ध्यान हटाने अपनी नज़र ऊपर आकाश पर टिका दी ।

रात घिर आई थी, तारे निकल आये थे । अकाश पर कभी इतने तारे मैने अपने जीवन मे नही देखे थे । आकाश तो मानो तारों से ढक ही गया था । चांद इतना बड़ा था कि तुम लोगो ने अपनी ज़िंदगी मे कभी नही देखा होगा । मै समझ गया मै धरती के छोर के समीप के किसी टापू पर होऊंगा ।

मै थकान से चूर था । पता नही कब नींद ने मुझे आ घेरा ।

पता नही कितना समय बीता था कि एक अजीब से भय के वश मेरी नींद खुल गयी । मेरी आंखे खुली तो खुली की खुली रह गयी । मेरा भय मेरे सामने था । मेरे बिल्कुल समीप … इतना समीप कि उसकी सांसों को मै अपने चेहरे पर महसूस कर रहा था । उसकी सांसों की बदबू से मेरा दम घुटा जा रहा था । यह वही था । बिल्कुल वही । वही बालों से भरा चेहरा । उसके बालों की तरह उसकी दाड़ी मूछ भी बढ़ी हुई और बिखरी हुई थी । वह अब भी मुझे स्पष्ट नही दिख रहा था; क्योंकि चंद्रमा उसके विशाल सिर के पीछे छिपा हुआ था । मै भय से जड़वत हो गया था । मै चीख पड़ता लेकिन आवाज़ गले मे अटक के रह गयी थी । उसके गले से अजीब सी गररर सी आवाज़ निकल रही थी । आवाज़ बहुत धीमी थी, लेकिन सन्नटे मे बड़ी भीषण लग रही थी । पता नही मुझे क्यो लगा कि उस आवाज़ मे प्रसन्नता थी ।

तभी वह खड़ा हो गया । वह सचमुच कफ़ी ऊंचा था । मुझसे तो बहुत ऊंचा क्योंकि मेरा कद सामान्य से कम ही है और उसका कद तो सामान्य से बहुत अधिक । उसके कंधे भी बहुत चौड़े थे । उसने आसमान की तरफ़ चेहरा उठाया फ़िर अपने दोनो हाथ आकाश की तरफ़ उठाकर अजीब सी धीमी-धीमी आवाज़ निकाली । फ़िर उसने प्रसन्नता से अपने दोनो हाथों से अपने सीने को पीट-पीट कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की जैसे उसे बहुत समय की प्रतीक्षा के बाद कोई चीज़ मिली हो । ज़रूर यह नरभक्षी है और आज बहुत समय बाद आहार मिलने की खुशी होगी ।

इसके बाद वह एक चट्टान से टिक कर बैठ गया और मेरी तरफ़ देखने लगा । हे ईश्वर ! यह क्या कर रहा है ? यह अब मुझे खा क्यों नही रहा है ? शायद इसका पेट भरा हो या शायद इसके भोजन का समय नही हुआ हो और यह अपने भोजन की रखवाली मे बैठा हो । कहीं इसके जैसे और भी तो नही है जो मुझे अपना आहर बनाना चाहते हों । ठीक है अब मुझे क्या यह हो या कोई और हो, एक हो या एक हज़ार हो मुझे तो बस आहार ही बनना है ।

रात भर मै आखे मूंदे, पलको की दरारों से उसे देखता रहा कि मेरे जागने का उसे पता न चले । रात भर न मै सोया न वह ।

सवेरा हो गया । सुर्य तो नही उसकी किरणे आकाश पर उदित हो चुकी थी । प्रकाश फ़ैलने लगा । मै उसी तरह आंखे मूंदे पड़ा था । लेकिन कब तक मै यूं ही पड़ा रह सकता था । यह टलता भी तो नही यहां से । तभी मेरी बंद पलकों पर एक परछाई का आभास हुआ । लगता है वह खड़ा हुआ और मेरे समीप तक आया । मेरी धड़कने बढ़ गई । यकायक ऐसा आभास हुआ मानो वह मुड़ा और मुझसे दूर जाने लगा । उसकी आहटो से ऐसा आभास हो रहा था कि वह चट्टान से नीचे समुद्र तट की ओर उतर रहा हो ।

थोड़ी देर यूंही पड़ा रहने के बाद, मैने धीरे-धीरे आंखे खोली । वहां कोई नही था । मै बच गया । मै जल्दी से उठ खड़ा हुआ । चाकू निकाल कर उसकी चौड़ी फ़ाल को चूमा और उसे वापस कमर के पट्टे के साथ लगे खोल मे रख लिया । वह समुद्र तट की ओर उतरा था, अत: मै जंगल की ओर उतर गया । सीधा जंगल की ओर भागने की बजाय मैने एक क्षण रुक कर टोह लेने की कोशिश की । उसके चट्टान पर चढ़ने की आहट पाकर मै चट्टान से चिपक गया । चिपके-चिपके मै अपनी दायी ओर बढ़ने लगा । मुझे पता था वह मुझे चट्टन पर न पाकर जंगल की ओर चट्टान से नीचे की तरफ़ झांकेगा ।

लेकिन इसके बाद वह क्या करेगा इस बात का मै अनुमान नही लगा पा रहा था । बस मै चट्टान से चिपके चिपके एक ओर को सरकता रहा और वह जंगल की ओर से नीचे उतर कर मेरे सामने आ खड़ा हुआ । यह मेरे अनुमान से बिल्कुल विपरीत बात थी । अचानक होने वाले इस हादसे ने मुझे भय और अचरज से जड़ कर दिया । मै अपनी जगह से हिल भी नही पाया ।

अब वह स्पष्टत: मेरे सामने था । साक्षात ! दिन के उजाले मे । सूर्य चूंकि मेरे पीछे था: अब मै उसे सूर्य के प्रकाश मे स्प्ष्ट देख रहा था । वह काफ़ी लम्बा चौड़ा बलिष्ट शरीर वाला एक इनसान ही था । जिसके बाल बे तरतीब और रूखे थे दाढ़ी पर भी ज़माने से कैंची चली थी न उस्तरा । मूछें इस तरह बढ़कर उसकी दाढ़ी मे उलझ चुकी थी कि मुझे संदेह था कि उसने लम्बे समय से कुछ खाया नही होगा । उसकी आंखे अंदर धसी हुई और गालों की हड्डियाँ उभरी हुई थीं । उसके शरीर पर चिथड़े-चिथड़े हुई एक सैनिक वर्दी थी । शायद यह कुछ वैसी ही वर्दी थी जो मुझे रेत मे से मिली थी और अब मेरे कंधों पर थी । हां, उसकी कमर पर वैसा ही चमड़े का पट्टा बंधा हुआ था । जैसा मुझे उस वर्दी से प्राप्त हुआ और अब मेरी कमर पे बंधा हुआ था और उसमे भी वैसा ही एक चौड़े फाल वाला सैनिक चाकू भी पैवस्त था, जिस प्रकार का मेरे पास ।

मेरे दोनो हाथ उसके हाथों मे थे, जिन्हे थामे वह एक टक मेरे चेहरे को निहारे जारहा था । उसके मुख से प्रसन्नता भरी किलकारी निकल रही थी । मै हत्प्रभ सा उसे देख रहा था । खुशी के अतिरेक से उसकी आंख से आंसू बहने लगे । उसने मुझे अपने सीने से लगा लिया और हुमक-हुमक कर रोने लगा । यहां तक कि मै भी अपने आंसू रोक न सका और उसके साथ रोने लगा ।

बाद मे कई दिन उसके साथ रहने पर मुझे उसके बारे मे पता चला कि, वह शायद बरसों से इस द्वीप पर अकेला फ़सा हुआ रहने के और किसी से बात चीत नही कर पाने के कारण अपनी भाषा और शब्द भंडार खो चुका था । अब वह कुछ उल्टी सीधी आवाज़ों के द्वारा और इशारों मे ही अपने भाव व्यक्त करता था । लेकिन मै अपनी भाषा तो नही भूला था अत: धीरे-धीरे मेरे साथ रहते वह भी टूटी फ़ूटी हिन्दी बोलने लगा । अब मुझे पता था कि उसका नाम गेरिक है और वह दूर किसी देश का शाही सैनिक था जो अपने राजा की आज्ञा से खोज अभियान पर निकले एक जहाज़ के सैन्य सुरक्षा दल का सदस्य था । जो मेरी ही तरह एक तुफ़ान की चपेट मे आकर इस टापू पर आ फ़सा था । उसके साथ उसका एक सैनिक साथी भी था जो इतना अधिक घायल था कि कुछ ही दिनो मे मर गया । तबसे वह अकेला ही यहां भटक रहा है । उसी से पता चला कि इस टापू से दूरदराज़ के क्षेत्र, तूफ़ान जनित क्षेत्र हैं, जहां हमेशा तूफ़ान आते रहते है । बिरले ही कोई ऐसा समय होगा जब तूफ़ान नही आते हो और इसी लिये इस टापू पर हमेशा टूटे हुये जहाजों और नावों का मलबा और सामान बहकर आते रहते हैं । अलबत्ता वो क्षेत्र यहां से दूरी पर है । ऐसा नही कि उसने यहां से निकलने की कोशिश नही की । कई बार की, लेकिन हर बार तूफ़ान का सामना करके वापस लौट आया है ।

अब हम दोनो मिलकर इस टापू से निकलने की योजना बनाने लगे । लेकिन मै तो ठहरा व्यापारी बुद्धी । मैने सलाह दी कि सबसे पहले हम इस टापू पर बिखरे पड़े मलबे मे से अपने काम के सामान और सोना चांदी आदि की कीमती वस्तुयें लेकर एक जगह इकट्ठा करके सुरक्षित रख दें क्योंकि ये वस्तुयें हो सकता हमे यहां से निकालने एवज मे धन देने के काम आ सकती हैं । फ़िर तो हमे वो-वो खज़ाने मिले कि कोयी देखे तो दंग रह जाये । तीन बड़े-बड़े बक्से तो पूरी तरह शाही खजानो से भरे थे, जिनमे सोना चांदी, हीरे जवाहरात सब कुछ थे । जो इधर उधर रेत मे दबे हुये न जाने कितने वर्षो से पड़े थे । सब कुछ हम दोनो ने मिलकर एक एक पहाड़ की खंदक मे छुपा दिया ।

इसी सब के दरमियान उसने मुझे पानी के ऐसे कई कुन्ड दिखाये जिसमे गरम पानी उबलता रहता है और यह पानी शरीर के घावों को जल्द भर देता है और इसके स्नान से शरीर का दर्द गायब हो जाता है । यह मेरी विद्वानो की संगत करने की आदत का ही प्रतिफल था कि मै तुरन्त समझ गया, अरे ! हम तो जिन्दा ज्वाला मुखी पर बैठे हैं ।

असल मे यह पूरा समुद्री क्षेत्र, समुद्रतल मे छिपे जीवित ज्वालामुखियों से भरा पड़ा था । जिसके कारण समुद्र मे ज्वालामुखी फ़ूटते रहते हैं; और जिससे आसमान को छूती लहरें उठती और दूर-दूर तक धुन्ध छाई रहती । यह क्षेत्र इस टापू से इतने दूर थे कि वह तूफ़ान या वे आकाश को छूती लहरें यहा से दिखाई नही देती । अल्बत्ता दूर आकाश पर छाई हुई धुन्ध ज़रूर नज़र आती थी । इस टापू पर कुछ दिशाओं से तेज़ लहरें भी आकर टकराती हैं और समुद्र का पानी भी गर्म बना रहता है । इसका मतलब यही है कि यह टापू ठीक-ठीक ज्वालामुखी क्षेत्र मे नहीं बल्कि ऐसे क्षेत्र के किसी किनारे पर स्थित है और समुद्रतल पर बहता हुआ लावा यहां तक पहुंच कर इस पानी को गर्म कर देता है । इसका यह भी अर्थ हुआ कि कोई न कोई तो ऐसी दिशा तो होगी जो निरापद हो ।

उसने मुझे यह भी बताया कि एक बार वह एक दिशा मे बहुत ही दूर तक चला गया था लेकिन विशाल हथियों से भी बड़ी, दैत्याकार मछलियों की जलक्रीड़ा और अधिसंख्या के कारण पेड़ के तने की अपनी डोंगी के लिये कहीं कोई रास्ता नही मिल पाने के कारण वापस लौट आया । और यह दिशा भी उस तट से बिल्कुल विपरीत दिशा वाले तट की ओर थी जिस दिशा पे मैने अपने को पड़ा हुआ पाया था । बस ! समझो मुझे रास्ता मिल गया था और बस अब सफ़र की तैयारी करनी थी ।

अब हमने रात दिन एक करके पेड़ों और बांसों को काट काटकर एक बेड़ा बनाना शुरू किया । जिसके सहारे हम समुद्र मे सफ़र कर सकें । वह यानि गेरिक जिसे मै पहले दैत्य समझ बैठा था और फ़िर वह मेरे एकांत का साथी बन गया और जिसे मै अब दोस्त बुलाने लगा था क्योंकि उसका नाम भी वह ठीक से उच्चारित नही कर पा रहा था; या शायद मै ही ठीक से समझ नही पा रहा था । तो दोस्त इस काम मे बहुत माहिर निकला । और उसे जंगल के जीवन का बहुत अनुभव भी हो चुका था । उसने जंगल से पुरानी और मज़बूत बेलें काट लाई जिससे हमने रस्सी का काम लिया । इस तरह हमारा बेड़ा तैयार हो गया । फ़िर हमने पुरानी नावों के अवशेषों से ही कामचलाऊ चप्पू और पाल तैयार किये और हमारे समुद्री सफ़र की व्यवस्था हो गई । उस खोह मे छिपाये खज़ाने मे से हमने जितना हो सकता था उतना सोना और हीरे जवाहरात कपड़े की पट्टियों की सहायता से शरीर मे बांध लिया । यह वास्तव मे खजाने की तुलना मे बहुत कम था लेकिन किसी को धनवान बनाने के लिये बहुत अधिक था ।

इस तरह हमने अपनी यात्रा का आरम्भ किया ।

क्रमशः

आगे जानने के लिये पढ़ें छठवां भाग – जलपरियाँ……

………हमे अब चांद और तारों मे कोई रूचि नही थी और न इस बात मे कि हम किस दिशा मे जारहे हैं । हम विचित्र सी मनसिक दशा से गुज़र रहे थे । न जिंदों मे थे न मुर्दो मे । न जागृत थे न सुप्त । हम शायद अर्धनिंद्रावस्था मे थे । अर्ध विक्षिप्त से । हम लोग यूं ही पड़े थे कि अचानक हमारे शरीर मे कम्पन हुआ और फ़िर एक कर्कश आवाज़ ने हमारे होश लौटा दिये । यह किसी जहाज़ का भोंपू था । बहु धीमा लेकिन स्पष्ट । ऐसे लग रहा था मानो वह आवाज़ किसी और ही दुनिया से आ रही हो । हम उठ बैठे । लड़खड़ाते हुये खड़े हुये और चारो तरफ़ देखने लगे । कहीं कुछ नही था सिवाय घने अंधकार के ।………

_मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग द्वारा रचित