पिछले भाग से-
यह तो बहुत बुरा हुआ। हमने अपने पहले सम्पर्क के प्रयास में ही उन्हें डरा दिया। निश्चित ही, इससे हमारे बारे में उनकी धारणा खराब ही बनेगी...
सातवाँ भाग-
जलपरियों के बीच
उधर हमसे दूर चट्टानो पर धूप सेकती मत्सकन्यायें, जिन्हें हम जलपरियाँ भी कहते हैं, हमे देखते ही कुछ अजीब सी भाषा मे चीखने चिल्लाने और धड़ाधड़ पानी मे कूदने लगीं। थोड़ी ही देर मे उस पूरे जलक्षेत्र मे भीषण हलचल मच गई। उधर अचानक ही चारो तरफ़ से नर मत्स्यमानव हमारे चारो ओर पानी मे प्रगट हो गये। उनके कंधे चौड़े और भुजायें बलिष्ठ थी। उनके सिर पर लम्बे लम्बे बाल और चेहरों पर लम्बी घनी दाढ़ियां थीं। वे सैकड़ों की संख्या मे थे। उन्होने अपने हाथों मे भाले और धनुष बाण जैसे हथियार पकड़ रखे थे। वे बिल्कुल डॉल्फ़िन मछलियो की तरह तेज़ गति से तैर रहे थे। उन्होने हमे चारो तरफ़ से घेर लिया। उन लोगो ने हमारे बेड़े को अपने लम्बे मज़बूत बाज़ुओं में जकड़ लिया और तेज़ गति से ले चले। वे चट्टानो के बीच से इतनी कुशलता और इतनी तेज़ी से मुड़ते और तैरते हुये हमे लिये जा रहे थे कि हमे सन्तुलन बनाये रखना दुष्कर हो रहा था। अत: हम अपनी जगह बैठ कर बड़ी मुश्किल से अपना सन्तुलन बनाने की कोशिश करने लगे।
हम सोच रहे थे कि इन्ही चट्टानो के मध्य ही पानी के नीचे इनकी बस्तियां होंगी। और ये हमे वहीं ले जायेंगे। लेकिन पानी के भीतर हम जीवित किस प्रकार रह पाएंगे। यह सोच सोच कर हम परेशान हो रहे थे। तभी चट्टानो की भूलभुलय्या से आगे एक हरा भरा टापू नज़र आया। वहां टापू के तट पर सैकड़ों की संख्या मे लोग जमा थे और वे सब इधर ही देख रहे थे। हां ! वे दिखने मे तो इन्ही लोगो के जैसे थे लेकिन इनके पैर थे। यानि वे मानव थे। और ये मत्स्यमानव हमे उसी द्वीप की ओर लिये जा रहे थे।
धन्य है, आखिर हम लोग मनुष्यों के बीच पहुंचे तो। हमारी खुशी का ठिकाना नही रहा। हम कितने दिनो से हम दोनो के सिवा किसी मानव का चेहरा देखने को तरस गये थे। और सच पूछो तो हम इसकी आशा भी छोड़ चुके थे।
लेकिन हमारे सामने एक बड़ा आश्चर्य था…
वे सुंदर मत्स्यकन्यायें जो कुछ देर पहले हमारी आंखों के सामने समुद्र मे अपनी पूंछ के सहारे तीर की गति से तैर रही थीं, अब टापू पर चढ़कर भागती हुई बाकी भीड़ मे जा मिली थीं। वे चेहरे से भयभीत लग रही थी। हम विस्मय और चिंता के दबाव से फ़टे जारहे थे… इनके तो पैर भी है… और ये धरती पर चल फिर भी सकती हैं। बल्कि भाग दौड़ भी सकती है। और यह क्या अपनी पूंछ को उन्होने अपने पैरों के गिर्द ऊपर उठा रखा है जैसे कोई वस्त्र हो। और यह सच भी था। जब हमे उन लोगों ने टापू पर चढ़ाया और खुद ऊपर आये तो हमने देखा वे सब मानव ही थे। मानव की ही एक प्रजाति। उनके शरीर हमेशा पानी मे तैरते रहने के कारण बिल्कुल सुगठित थे। यहां तक कि उनके वृद्ध भी एकदम सुगठित शरीर के स्वामी थे। और वह उनके तैरने के रंग बिरंगे वस्त्र थे जो उनके सुगठित शरीर से इस प्रकार चिपके रहते कि उनके शरीर का ही एक हिस्सा प्रतीत होते। उन वस्त्रों के सबसे निचले हिस्से पर उसी कपड़े की पूंछ जैसी रचना होती जो मछली की पूंछ का आभास देती और पानी मे उनके तैरने के लिये वही काम करती जो मछलियों के लिये उनकी पूंछ। यानि उनका यह रूप पूरी तरह मछलियों से प्रेरित था। इसी लिये इन्हें मत्स्यमानव कहा गया है। तो यह रहस्य होता है, मत्स्यकन्याओं का...” यहां व्यापारी ने कथा रोक दी। लगातार बोलते बोलते उसका गला दुखने लगा था।
“सच मे?” एक डाकू ने पूछा “तुम सच कह रहे हो?” आश्चर्य से उस डाकू की आंखे बाहर आ रही थीं।
“हां, बिल्कुल !” व्यापारी बोला। व्यापारी को खुशी हो रही थी कि उसकी युक्ति काम कर रही थी। उसकी कहानी उन दोनो डाकुओं पर गहरा असर डाल रही थी। यह उनके चेहरों से स्पष्ट था।
“वो मत्स्यकन्यायें नही थी न?” दूसरे डाकू ने पूछा।
“वे मत्स्यकन्यायें ही थीं, जिन्हें हम जलपरियाँ कह देते हैं। बिल्कुल वही थीं।” व्यापारी ने कहा।
“लेकिन अभी तो तुमने कहा कि उनके पैर थे, और वे धरती पर रहते हैं।” एक डाकू बोला।
“यही तो बात है, हम लोग उनके बारे मे पता नही क्या क्या बातें गढ़ लेते हैं। यह मानवीय प्रवृत्ति ही है कि जिनके बारे में हम अधिक नहीं जानते उनके बारे में ऊटपटांग धारणायें बना लेते हैं और फिर उसे ही अंतिम सत्य मानने लगते हैं। लेकिन उन लोगो के साथ रहकर पाया कि वे भी हमारी तरह मानव ही होते हैं; लेकिन थोड़ा अलग। वे समुद्र के बीच मे ही रहते हैं, लेकिन पानी के अंदर नही। पानी के अंदर रहेंगे तो सांस कैसे लेंगे। हां वे अलग थलग रहने के कारण बहुत सी बातों मे हमसे अलग होते हैं; लेकिन हमारे जैसे ही मानव।” व्यापारी ने बताया।
शेरू को कहीं से एक हड्डी मिल गयी थी और वह उसे चबा चबा कर लार टपकाये जा रहा था। तीनो उसे ध्यान से देखने लगे। व्यापारी सोच रहा था, अगर यह सचमुच मे खजाना ढूंढने मे माहिर नही हुआ तो क्या होगा। इसकी क्रिया कलाप देखकर तो ऐसा ही लगता है कि इसमे इस प्रकार की कोई प्रतिभा नही है। मैने कोई जांच पड़ताल नही की और लालच मे अंधा होकर बिना कुछ सोचे समझे इसे खरीद लिया। सच है, बिना विचारे जो करे सो पीछे पछताये… लेकिन अब यह सब सोचने से क्या फ़ायदा। कहा भी है कि, कर्म करने से पूर्व सोचना बुद्धिमत्ता है, कर्म करते हुये सोचना सतर्कता है; किन्तु कर्म कर चुकने के पश्चात सोचना मूर्खता है।
लेकिन, अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत… तो अब पछताने से अच्छा यही है कि आने वाले संकट से निपटने का कोई तरीका ढूंढा जाये।
बीती ताहि बिसार दे, अब आगे की सुध लेई…
व्यापारी अभी इन्ही विचारों मे खोया था कि दोनो डाकुओं मे से एक ने कहा, “देखो तो लगता है, शेरू को भूख लग आई है।”
“अरे! इसे देख तो मेरे पेट मे भी चूहे उछल कूद मचाने लगे हैं।” दूसरे डाकू ने कहा।
“क्यों तुम्हे भूख नही लगी?” पहले डाकू ने व्यापारी से पूछा।
“हां, लगी तो है।” व्यापारी ने उत्तर दिया।
“ठीक है, पहले भोजन की व्यवस्था करते हैं।” उन लोगों ने कहा।
भोजन पकाने और खाने के लिये उचित स्थान खोजा जाने लगा। एक बड़े जलाशय के किनारे व्यवस्था हुई। दोनो डाकुओं मे से एक, जलाशय से पानी लाने लगा और दूसरा जलावन की व्यवस्था करने लगा। शेरू बारी बारी से दोनो के इर्द गिर्द चक्कर लगाने लगा। व्यापारी वहीं जलाशय के निकट एक स्थान पर खड़ा, भोजन के सामान की सुरक्षा कर रहा था।
वहां खड़े खड़े व्यापारी ने तेजी से कुलांचे भरते हिरन को देखा। वह हिरन बड़ा ही सुंदर और चपल था; और उसकी छलांग भी दो मीटर से ऊंची रही होगी। यह दृश्य देख उसका मन प्रसन्न हो उठा। वह हिरन जलाशय की ओर ही भागा आ रहा था। जब वह जलाशय के काफ़ी निकट आ गया तो व्यापारी ने देखा कि एक तेंदुआ उसका पीछा कर रहा है और हिरन बुरी तरह घबराया हुआ जिधर पाये उधर भागा जा रहा है।
‘हे प्रभु, यह तेरी कैसी माया है? इतने सुंदर जीव को तू किस परीक्षा मे डालता है? शेर और तेंदुये जैसे निकृष्ट और हिंसक पशुओं को तो अभयदान देता है, और इतने सुंदर निरीह जंतुओं को जो तेरी वसुंधरा को शोभायमान रखते हैं, निरंतर जीवन और मृत्यु की सीमा पर रखता है……,’ व्यापारी इसी प्रकार के विचारो मे खोया था कि क्या देखता है, जैसे ही वह हिरण जलाशय के निकट पहुंचा एक बड़ा सा मगरमच्छ जलाशय से निकलकर अपना मुंह खोले आक्रामक मुद्रा मे उस हिरण की ओर लपका। यह देख वह व्यापारी चिंतित हो गया। अब तक तो उस मृग को मात्र तेंदुये से ही भय था, लेकिन अब यह मगरमच्छ भी…। अब इस हिरण को कोई बचा नही सकता। अगर तेंदुये से बचा तो मगरमच्छ के मुंह मे और अगर मगरमच्छ से बचता है तो तेंदुये के मुंह में। और दोनो में से जो भूखा रहा, वह सम्भव है मुझ पर आक्रमण कर दे।
लेकिन यह क्या? जैसे ही तेंदुआ उस हिरण पर झपटा सीधा मगरमच्छ के जबड़ों मे जा फ़ंसा। क्योंकि वह हिरण कुलांचे भरता उनके बीच से यह जा, वह जा।
अब तेंदुये और मगरमच्छ के बीच भीषण संघर्ष छिड़ गया और वह हिरण कहीं नज़र नही आ रहा था।
तब तक दोनो डाकू भी अपने धनुष बाण सम्भाले, व्यापारी के अगल बगल आ खड़े हुये थे। शेरू उन तीनो के इर्द गिर्द चक्कर काटता भौंके जा रहा था। वे सभी स्तब्ध थे।
थोड़ी देर बाद तेंदुआ घायल होकर जंगल की ओर भाग गया और मगरमच्छ थका हारा जलाशय मे उतर गया। शेरू अपनी प्रकृति के अनुसार दोनो भागते हुये पशुओं को भौंक भौंक कर डराने की असफ़ल चेष्टा करता रहा फ़िर हमारे पास वापस लौट आया।
‘तो इस प्रकार प्रकृति अपनी समस्याओं का निदान करती है,’ व्यापारी बुदबुदाया और मुस्कराया जैसे उसने कोई रहस्य प्राप्त कर लिया हो। दोनो डाकुओं ने उसे विस्मित नज़रों से देखा और कुछ समझ नही पाने के कारण सिर खुजाने लगे; फ़िर अपने काम मे जुट गये।
व्यापारी ने अपनी लगभग सारी सम्पत्ती के बदले मे शेरू को जिस उद्येश्य से खरीदा था, उस ओर से अब तक निराशा ही हाथ लगी थी। व्यापारी को अपनी सम्पत्ती गंवाने से भी ज़्यादह दुःख अपने ठगे जाने के अनुभव से था। उस बूढ़े ने मुझे न सिर्फ़ धोखा दिया बल्कि एक भयंकर संकट मे फ़सा दिया है। यदि शेरू ने कोई कमाल नही दिखाया तो मेरा बचना असम्भव है। संधि की अवधि बीतती जारही है। और वे डाकू भी मुझसे निराश हैं। उन्हे पूर्णरूपेण विश्वास है कि मै उन्हे सिर्फ़ भ्रमित कर रहा हूं। अब वे लोग मेरे प्रति अधिक सतर्कता बरत रहे हैं। यदि कहानी सुनाने की कला न होती तो शायद वे मेरे साथ कुछ और भी दुर्व्यवहार करते। शायद वे मुझे मार ही डालते। लेकिन जब तक मेरी कहानी चलती रहेगी, सम्भव है मेरा जीवन बचा रहे। और हो सकता है मै उस बूढ़े को भी खोजकर उसे समुचित दण्ड दे सकूं। सम्भव है, ये दोनो उस बूढ़े के संदर्भ मे कुछ काम की बात बता सकें।
जब उसने उन दोनो डाकुओं से कहा कि, “यदि तुम मुझे उस बूढ़े को ढूंढने मे और मेरी सम्पत्ति वापस प्राप्त करने मे सहायता करो, तो उससे प्राप्त सम्पत्ती का आधा तुम दोनो को दे दूंगा। और वह इतनी अधिक सम्पत्ती होगी कि तुम फ़िर यह संकट भरा जीवन छोड़, सुख से जीवन यापन कर सकोगे।”
वे दोनो डाकू हस पड़े, और बोले, “तो आखिर तुमने यह मान ही लिया न कि यह कुत्ता कोई खजाना वजाना नहीं ढूंढ सकता और तुम हमारे साथ छल कर रहे थे।”
“ऐसी बात नही है मित्रों। मैने कभी किसी के साथ छल नहीं किया। यह अवश्य कहना चाहूंगा कि छल तो मेरे साथ हुआ है।” व्यापारी बोला।
“नहीं हम तुम्हे जानते हैं; तुम छल प्रपंच में कुशल हो और रूप परिवर्तन में भी। अब तुम यह मान ही लो कि तुम्हारी वह बात झूठी है। और इससे पूर्व हमारे साथ छल करने वाला वृद्ध भी तुम ही थे।”
“मै तुम्हे विश्वास दिलाना चाहता हूं कि वह मै नही हूं। और यदि तुम लोग उसे ढूंढने मे मेरी सहायता करोगे तो, निश्चित ही लाभ मे रहोगे।”
“तुम भागने का प्रयास मत ही करो। यही तुम्हारे लिये श्रेयस्कर है। हम तुम्हारे झांसे मे आने वाले नहीं हैं। और यदि हमे तुम पर संदेह भी हुआ तो तुम स्वयं जानते हो कि हम क्या कर सकते हैं।”
“तुम मुझ पर व्यर्थ ही संदेह कर रहे हो मित्र। संदेह तो आपसी सम्बंधों के लिये विष के समान हानिकारक होता है।” व्यापारी बोला।
“देखो तुम जो कोई भी हो, हम तुम पर विश्वास ही नहीं करते। हम तो अपने सरदार की आज्ञा से तुम्हारे साथ हैं। और सप्ताह से भी अधिक समय बीत गया लेकिन तुमने अब तक खजाना तो क्या एक कंकड़ तक नहीं खोजा।”
“अभी तो मात्र दस दिन ही बीते हैं; और तुम यह मत भूलो कि हमारे बीच एक माह की समय सीमा निर्धारित हुई है।”
“इसी लिये तो हम कह रहे हैं कि इधर उधर की बातों मे समय व्यर्थ करने से अच्छा यह है कि तुम अपना कार्य पूर्ण करने पर विचार करो।”
“तुम्हे तो विदित ही होगा कि खजाने कोई राह मे पड़े नही होते हैं। उन्हे ढूंढने मे समय तो लगेगा ही।” व्यापारी ने कहा।
“हम तो तुम्हे केवल सचेत कर रहे हैं। बाकी तुम जानो। हाँ, हमसे कोई आशा न रखना।” डाकुओं ने स्पष्ट चेतावनी दी तो व्यापारी चिंता मे पड़ गया।
रात मे सोते समय डाकुओं ने जब बची कहानी सुनाने कहा तो उसके पास और कोई विकल्प ही नहीं था। किंतु वह बहुत चिंतित था; अतः उसकी कल्पना शक्ति साथ नही दे रही थी। उसने बड़े अनमने मन से कहानी आगे बढ़ाई _
“…जल्द ही उन लोगों ने हमारे हाथ पैर बांधकर हमे अपने राजा के सम्मुख उपस्थित किया। वे लोग बड़े उत्तेजित थे और उनका राजा भी हमसे क्रोधित था। वह पत्थरों के हृदय को भी हिला देने वाली कड़क और गम्भीर आवाज़ मे हमसे कुछ कहे जा रहा था और हम कुछ समझ नही पा रहे थे। हम लोग कुछ कहने का प्रयास करते रहे जिसे वे लोग समझ नहीं पा रहे थे। फ़िर वे लोग आपस मे बहस करने लगे। उनकी आवाज़ें तीव्र होती गईं और हमारे हृदय की धड़कन तीव्र होने लगीं। हमे लगने लगा कि वे लोग हमे तो नोच ही डालेंगे । कहीं वे नरभक्षी तो नहीं है? इस विचार के आते ही हमारी चिंता दुगनी हो गई । अब हम लोग मन ही मन अपनी सुरक्षा की ईश्वर से प्रार्थना करने लगे।
बहुत देर की बहस के बाद उन लोगों ने हमे बांधकर बांस मे लटकाया और कंधों पर उठाकर ले चले। हम दोनो को अपना अन्तिम समय निकट जान पड़ने लगा। मुक्ति की सारी आशायें धूमिल हो गई थीं।
“लगता है, ये हमारी बलि चढ़ाने ले जारहे हैं।” गेरिक ने कहा।
“तुम सही कह रहे हो मित्र,” मैने कहा “लगता है, विदाई की बेला आ पहुंची है।”
“हाँ, किसे पता था हमारा अन्त इस प्रकार होगा?” मित्र ने कहा।
“मित्र, मै तुमसे एक बात कहना चाहता हूँ; तुम मेरे जीवन के सबसे अच्छे मित्र हो।”
“मै भी तुम्हे बहुत चाहता हूँ, मित्र!”
हम दोनो की आंखों मे आंसू आ गये। हमने एक दूसरे से अन्तिम विदा के बोल बोले और मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगे। बस यही एक इच्छा रह गई थी कि अधिक कष्ट न हो। वे लोग हमे उठाये हुये फ़िर सागर के पथरीले तट पर ले आये। यह देख हम लोग सोचने लगे, पता नही क्या होने वाला है? शायद ये लोग सागर तट पर बलि चढ़ाते हों…। या हो सकता है समुद्र की मानव भक्षी मछलियों को भोग लगाते हों; या मगरमच्छ को? जिस तरह का उनका जीवन है, सागर से घिरा हुआ और उसी पर निर्भर, इसमे कोई आश्चर्य नहीं कि समुद्री जीव ही इनके आराध्य हों। क्योंकि, भय और निर्भरता ही स्वार्थी मानव समाज को आराधना और उपासना पर आश्रित कर देते हैं। अन्यथा यह अहंकारी और कृतघ्न मानव कब और किसके आगे झुकने वाला है?
हमारा क्या होने वाला है; कौन बतायेगा? हमारा भविष्य क्या है?
हम एक अज्ञात भविष्य की यात्रा पर थे…
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आठवां भाग
अज्ञात भविष्य की यात्रा में पढ़ें...
"मुझे तो लगता है, वे हमें मारकर खाना चाहते हैं।" मैंने कहा।
"नहीं, ऐसा कुछ नहीं है।" उसने कहा।
यह भी कोई बात हुई, जैसे उन लोगों ने इसके कान में कुछ कह दिया हो...
मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति.