अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - 8 Mirza Hafiz Baig द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - 8

पिछले भाग से-
"लगता है, वे हमारी बलि चढ़ाने ले जारहे हैं।" गेरिक ने कहा।
"तुम सही कह रहे हो मित्र," मैंने कहा, "लगता है, हमारे विदाई की बेला आ चुकी है।
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आठवां भाग

अज्ञात भविष्य की यात्रा

अभी हम इस प्रकार से विचार कर ही रहे थे कि उन लोगों ने हमे दो अलग अलग चट्टानो पर रख दिया और हमारे हाथ पैर जिन रस्सियों से बंधे थे उनके दूसरे लम्बे सिरों को अलग अलग पेड़ से बांध दिया और दो सैनिक वहां पहरा देने लगे।
वह कोई सूना समुद्रि तट नही था, यहां बहुत ही चहल पहल थी। कई छोटे बच्चे और किशोर वय के लोग चट्टानो और पेड़ों पर उधम मचाते या तट पर भागते दौड़ते चीखते चिल्लाते खेल रहे थे। वहीं कई नौजवान और प्रौढ़ महिला पुरुष अपनी विचित्र सी तैराकी की पोशाक पहने सागर मे छलांग लगाते या गोते लगाते और बहुत सारी गठरियां सी उठाये तट पर वापस आते और उन जाल जैसी पोटलियों से कुछ चीज़ें ज़मीन पर उलटाते जाते फ़िर कई दूसरे लोग उन चीज़ों का निरीक्षण करते और कई अन्य लोग उन चीज़ों को उठा कर कहीं और ले जाते। मानो कोई उद्योग चल रहा हो। क्या वे लोग मछलियां पकड़ रहे हैं? लेकिन वह सब मछली तो नहीं लग रही थी। पता नहीं वहां क्या चल रहा है? वे सभी लोग और खेलते हुये बच्चे भी रह रहकर हमारी ओर देख लेते, और फिर से अपने कामो मे मगन हो जाते।
कुछ लोग हमसे चिल्लाकर कुछ कहते भी जो हमारी समझ मे नहीं आता और इसके प्रत्युत्तर मे वे पहरेदार उनसे कुछ कहते और वह भी हमारी समझ मे नहीं आता। कभी कभी वहां खेलेते बच्चे भी हमसे कुछ कहते या कभी हमे घेरकर खड़े हो जाते और उत्साह से चीख पुकार मचाते। फ़िर पहरेदार उन्हे डांट डपट कर भगाते और इतनी बात तो हमारी समझ मे आ रही थी कि कभी कुछ किशोर हमारी ओर देखकर कुछ चीखते और अपना रोष प्रगट करते और हमारी ओर देखकर मुट्ठियां लहराकर हमे धमकाने की कोशिश करते।
यह सब क्या हो रहा है और क्यों? यह सोंच सोंचकर हम बहुत ही परेशान और सच कहूं तो आतंकित हो रहे थे। यहां हो क्या रहा है? और अगर ये लोग हमे मारना ही चाहते हैं तो एक ही बार मे मार ही क्यों नही डालते? वे आखिर हमारे साथ करना क्या चाहते हैं? इस प्रकार के जीवन से तो मृत्यु ही श्रेयस्कर जान पड़ती है।
लेकिन वहां सिर्फ़ भय या आतंक ही नही था। भय और आतंक तो मन के भाव होते हैं जो विभिन्न परिस्थितियों मे मन मे उत्पन्न होते हैं। भौतिक जगत मे तो प्रकृति के निरपेक्ष कार्यकलाप और गतिविधियां प्रचलित रहती हैं। इनका हमारे मन मस्तिष्क पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह बहुधा हमारे अनुभव और हमारी मनसिकता पर निर्भर होता है। अतः हमने आतंकित करने वाली गतिविधियों से अपना ध्यान हटा कर सुखद अनुभवों पर केंद्रित करने की कोशिश की।
यहां से सागर का दृष्य कितना सुंदर लग रहा है। समुद्र की अथाह जलराशि जो दूर क्षितिज को स्पर्श कर रही है, और सुर्य किरनो की, जल की सतह से अठखेलियां कितनी सुन्दर और मनभावन लग रही है। अथाह जलराशि के मध्य जगह जगह उग आई काले रंग की चट्टाने और उनके बीच से तीव्र गति और चपलता से तैरती मत्स्यकन्यायें… अर्थात् जल में किलोल करती परियाँ...जलपरियाँ!! सब कुछ कितना सुन्दर है। इस सुन्दर दृश्य का विनिमय अपने प्राणो से; कोई महंगा सौदा तो नहीं। अखिर इतना सब कुछ देखने के बाद जीवन मे इससे सुन्दर कुछ होगा भी नहीं। फ़िर क्यों व्यर्थ की चिन्ता? यही सब सोचते हुये हम अपना सम्बल बनाये रखने का प्रयास कर रहे थे।
तभी कुछ नवयुवतियों की एक टोली हमारी तरफ़ आई और हमसे कुछ पूछने और बात करने का प्रयास करने लगी। वे सभी स्वभाव से मृदु थीं और उत्साही भी। निस्संदेह उनकी बातें हमारी समझ मे नहीं आरही थीं; किन्तु उनकी बातों के स्वर हमारे कानो मे रस घोल रहे थे। तभी वे पहरेदार उनकी बातों मे टोकाटाकी करने लगे और वे उनसे उलझने लगीं। बीच बीच मे वे हंस हंस के कुछ कहती जातीं और इससे हमारा मन भी प्रफ़ुल्लित हो उठता।
तभी नवजवान लड़कों की एक टोली उधर से आ निकली और उन लड़कियों को आवाज़ देने लगी फ़िर लड़कियों ने भी उन्हे आवाज़ लगाई और वे इन लड़कियों से आ मिले। फ़िर उन लोगों ने उन पहरेदारों से बातें कीं फ़िर आपस मे बातें कीं फ़िर वे सभी वहां से चलने लगे। लड़कियों के हाव भाव से लग रहा था मानो वे कोई युद्ध जीत कर जा रही हों। वे जाते जाते हमारी ओर देखकर हँसते हुये हाथ हिलाती और कुछ कुछ कहती जातीं जो हमे अच्छा लगता और मन को सान्त्वना का अनुभव होता। यह दुनिया इतनी बुरी भी नहीं है, मन ने कहा, कम से कम नारियों के रहते तो यह विश्व उतना बुरा और असंवेदनशील नहीं हो सकता। और युवाओं के रहते आशायें मृत नहीं हो सकतीं। नाश हो इन युद्धों का जो मानव जाति की युवा पीढ़ियों का विनाश करते हैं। हमारी आशाओं का विनाश करते हैं।
लेकिन वर्तमान मे यहां कोई युद्ध तो नही था। क्या सचमुच यह युद्ध नहीं था? क्या हम इसीलिये प्रताड़ित न थे कि हम उन जैसे नहीं है। क्या यही भय सभी युद्धों का कारण नहीं होता। लेकिन हम युद्ध कर नहीं सकते अत: यह युद्ध नही है; फ़िर भी हमारी दशा युद्ध बंदियों की सी है।
अभी तो हम दोनो पर संकट के बादल मंडरा रहे थे और हमे उससे उबरने का उपाय करना था। निस्संदेह यह असम्भव प्रतीत होता था; किन्तु था तो आवश्यक।
उस टोली के जाने के बाद, दोनो पहरेदार भी थकान का अनुभव करते हुये पत्थरों पर बैठ गये।
धीरे –धीरे धूप चढ़ने लगी और वह चट्टन गर्म होने लगी। हम थोड़ी देर तो सहन करते रहे लेकिन बाद मे उस गर्म चट्टान पर यूं पड़े रहना हमारे लिये जानलेवा हो गया। हमारे हाथ पैर यूं बंधे हुये थे कि हम खड़े होने या बैठने मे भी अक्षम थे। मुझे लगा कि यह शायद इन लोगों का सज़ा देने का तरीका हो या कहीं ऐसा तो नहीं कि वे इस तरह हमे ज़िंदा ही भूनना चाहते हों? क्या पता यह इनका नरभक्षण का तरीका ही हो कि जब हम अच्छी तरह पत्थर पर भुन जायें तब ये हमे बड़े चाव से स्वाद ले लेकर खायेंगे। यह सोंचकर मेरे रोंगटे खड़े हो गये।
ऐसे मे कुछ देर तो हम हिल-डुल कर राहत पाने की कोशिश करते रहे लेकिन जब इससे भी कोई बात बनती नज़र नही आई तो मैं चीखने चिल्लाने लगा। मेरा साथ देते हुये मेरा साथी गेरिक भी चिल्लाने लगा। इससे दोनो पहरेदारो की नींद टूट गयी और वे हड़बड़ाकर उठ बैठे। आस- पास के लोग भी हमारी तरफ़ देखने लगे। कुछ बच्चे हमे चिल्लाते और छटपटाते देख तालियाँ बजाने लगे लेकिन कुछ नौजवान लड़के और लड़कियाँ आकर उन दोनो पहरेदारों पर चिल्लाने लगे। वे लोग क्या कह रहे थे हम समझ नहीं पाये लेकिन यह ज़रूर समझ पाये कि वे हमारे कष्ट के कारण पहरेदारों से नाराज़ थे। उनकी निगाहों में हमारे लिये सहानुभूति स्पष्ट झलक रही थी। इसी कारण वे पहरेदार काफ़ी डर गये और हमे वहां से उठाकर उस चट्टान की दूसरी तरफ़ ले गये। यहां एक गुफ़ा सी बनी हुई थी। उन दोनो ने मिलकर हमे उस गुफ़ा नुमा गड्ढे मे ढकेल दिया, फ़िर चिल्लाकर हमसे कुछ कहा जो हमारी समझ मे नही आया। फ़िर उन्होने उस गड्ढे के मुह पर एक चट्टान रख दी और हमारे गुफा में अंधेरा छा गया।
आसमान से गिरे तो खजूर मे अटके।
चट्टान रख देने से उस गुफ़ा नुमा गड्ढे मे बिलकुल अंधेरा छा गया था लेकिन अब हमारे शरीर के नीचे गर्म चट्टान नहीं बल्कि नम धरती थी।
“अब यह कौनसी नई मुसीबत है?” गेरिक ने कहा।
“आख़िर ये लोग हमारे साथ क्या कर रहे हैं; और चाहते क्या हैं?” मैने कहा।
“यह तो पक्का है कि वे हमसे किसी कारण से भयभीत हैं।” गेरिक बोला।
“मुझे तो लगता है, वे हमे मारकर खाना चाहते हैं।” मैने कहा।
“नहीं, ऐसा कुछ नहीं है।” उसने कहा।
यह भी कोई बात हुई। जैसे उन लोगो ने इसके कान मे कुछ कह दिया हो।
“यह तुम किस आधार पर कह सकते हो?” मैने पूछा।
“क्योंकि, प्रकृति मे स्वजाति-भक्षण, केवल विकल्पहीनता की स्थिति मे ही सम्भव है। और तुमने देखा नहीं ये लोग कितने समृद्ध हैं?”
समृद्ध? वह इन्हे समृद्ध कह रहा है। कहीं इसका दिमाग़ तो नहीं फ़िर गया? वह इन्हे समृद्ध कह रहा है।
इस तरह दिन बीता और रात आई। इस बीच दो बार हमे भोजन और पानी भी दिया गया था। पका हुआ भोजन … इनसानो के हाथों पका हुआ भोजन… इनसानो द्वारा खाया जाने वाला भोजन… जाने कितने लम्बे समय बाद हमे ऐसा भोजन नसीब हुआ था। और कोई समय होता तो इसे पाकर हमे कितनी खुशी हुई होती; लेकिन भय ने हमारी वह हालत कर रखी थी कि हमे यह भी अनुभव नही हुआ कि हम कितने लम्बे समय के बाद पका हुआ भोजन कर रहे हैं। हमने बड़े अनमने मन से भोजन किया। मुझे पता जो था कि ये लोग हमे अच्छा खिला-पिला के मारना चाहते हैं ताकि हमारे शरीर से खूब सारा मांस मिले। लेकिन गेरिक अब भी मुझसे असहमत था और अब भी अपनी समृद्ध वाली परिकल्पना पर अड़ा हुआ था।
इस तरह रात हो गई लेकिन हमे वहीं बंद रखा गया था। गुफ़ा के मुह पर पत्थर रखा होने के कारण अन्दर अंधकार तो था ही, रात होते ही वह और अधिक घना हो गया। पता नही हमारा क्या होने वाला है। अगर कोई सांप बिच्छू गुफ़ा मे घुस गये तो पता भी नही चलेगा। भय के मारे जान निकली जारही थी। “वे हमे मार ही क्यों नही डालते? इस प्रकार तड़पा क्यों रहे हैं?” मैने गेरिक से कहा।
“पता नहीं।“ उसने कहा, “शायद वे हमे मारना ही नही चाहते हों। देखते है, भाग्य मे क्या लिखा है। चलो अभी सोने की कोशिश करो ताकि कल पूरी क्षमता के साथ भाग्य का सामना कर सकें।”
‘यह इस समय सोने की बात कैसे कर सकता है जब प्राणो पर खतरा मंडरा रहा हो।’
ख़ैर! मुझे नींद आई, या नही आई पता नहीं लेकिन गेरिक बेफ़िक्र होकर सो गया। ‘तुलसी भरोसे राम के निर्भय होकर सोए, होनी तो होके रहे, अनहोनी न होय।’
दिन निकले वे लोग हमे लेने आ गये। मै समझ गया, अन्त निकट है। मैने अपने ईष्ट देव को याद किया और उनके साथ चल पड़ा। गेरिक ने अपने मज़बूत हाथ से मेरा हाथ थाम रखा था और वह बिल्कुल शांत था।
वे हमे फ़िर वहीं ले गये; राज दरबार मे। इस बार उनके राजा के साथ एक कठोर चेहरे और गरूड़ पक्षी जैसी तीव्र दृष्टि वाला एक व्यक्ति खड़ा हमे अपनी तीव्र दृष्टि से घूर रहा था। वह कुछ अलग ही भाषा मे कुछ कह रहा था जिसे मैं समझ नही पा रहा था। थोड़ी देर बाद गेरिक भी उससे उसी भाषा मे बोलने लगा। तो यह बात है… मैने सोचा, वह कोई दुभाषिया है और यह गेरिक के देश की भाषा जानता है। उस समय तो मै भी कुछ समझ नही पया लेकिन क्या बातें हुई यह बादमे गेरिक ने मुझे समझाया।
“तुम्हारे बाकी साथी कहां है?” उसने कड़क कर कहा।
“हमारा कोई साथी नहीं है।” हमने उसे साफ़ बता दिया कि हम दो ही हैं, और हमारा और कोई साथी नहीं।
“यह कैसे हो सकता है?” उसने प्रश्न किया, “सिर्फ़ दो लोग, मुख्य महाद्वीपों से इतनी दूर बीच सागर मे, सिर्फ़ एक बेड़े के सहारे कैसे भटक रहे हैं?”
“दरअसल हम लोग यहाँ से दूर दराज़ के ज्वालामुखी क्षेत्र के समीप के एक द्वीप के मालिक हैं, और हमारे जहाज़ तूफ़ान की भेंट चढ़ गये हैं; और हमारे पास भोजन और कपड़े आदि जीवित रहने के साधन भी समाप्त हो चले थे और वहाँ से कोई व्यापारी जहाज़ भी नहीं गुज़रता अतः हम व्यापार के संबंधों की खोज मे निकले हैं। चूंकि हमारे जहाज़ भी समुद्री ज्वालामुखी के तूफ़ान मे नष्ट हो चुके तो हमारे पास अपना बेड़ा बनाकर यात्रा करने के सिवा और कोई मार्ग नहीं बचा था।”
जब उस दुभाषिये ने हमारी बात उन लोगों को अनुवाद करके सुनाई तो वे हत्प्रभ से हमे देखने लगे। वहाँ उपस्थित लोगो और राजा के सलाहकारों मे भी बातें शुरू हो गईं। वे बातें हम समझ तो नहीं पा रहे थे लेकिन बहुत से लोग हमारी तरफ़ प्रशंसा और श्रद्धा के भाव से देखते हुये बातें कर रहे थे। धीरे धीरे बातों की आवाज़ें तीव्र होने लगीं और एक वाद विवाद सा माहौल दिखाई देने लगा।
“क्या तुम सच कह रहे हो?” राजा ने पूछा।
“इसमे झूठ की क्या आवश्यकता है?” हमने कहा।
“तो तुम यह कहना चाहते हो कि, तुम समुद्री लुटेरे नही हो?”
“समुद्री लुटेरे? यानि जल दस्यु?? हम???”
“बिल्कुल ! क्या यह सच नही कि तुम लोगों को उन समुद्री लुटेरों ने टोह लेने भेजा है?”
“यह सच नहीं है। हमारा जल दस्युओं से कोई सम्बंध नही है।” हमने कहा तो; लेकिन स्वयं ही विश्वस्त नही थे कि हम उन्हे विश्वास दिला पायेंगे।
“हम तुम पर विश्वास क्योंकर करें?” राजा ने पूछा।
मुझे लगा अब हमारी जान गई। आखिर इस बात का क्या उत्तर हो सकता है कि, हम पर विश्वास क्यों किया जाये? हमारे पास कोई प्रमाण ही नही था कि, हम सच बोल रहे हैं। लेकिन गेरिक ने हार नहीं मानी...
“विश्वास तो मन मे ही होता है महाराज !” वह बोला “और कहा गया है कि, नयनो से शुद्ध कोई तुला नही और मन से बड़ा कोई न्यायालय नहीं। तो महाराज आप तो यह देखिये कि आपका मन क्या कहता है?”
जैसे ही अनुवादक ने गेरिक की इस बात का अनुवाद किया, आस-पास उपस्थित लोगों मे प्रशंसा के भाव दिखाई दिये और बहुत से लोग हमारे पक्ष मे बोलने लगे।
आख़िर तय यह हुआ कि हमारी सच्चाई की जांच की जाये और यदि सच निकला तो हमे भी हर सम्भव सहायता दी जाये जैसे औरों के साथ करते हैं। औरों के साथ? मै चौंका। क्या हमारे सिवाय और लोग भी इधर आ चुके हैं। यानी कि, और भी आबादियां हैं यहां पर। मैने गेरिक की तरफ़ प्रसन्नता और रहस्य भरे भाव से देखा। मुझे लगा वह मेरे भाव समझ जायेगा और मुस्कुराकर अपनी सहमति देगा। लेकिन अजीब बात थी उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वास्तव मे वह बहुत अधिक चिंतित था। वह जानता था कि इन लोगों का विश्वास जीतना सबसे दुश्कर कार्य है। क्योंकि कहा गया है कि जो आप पर एक बार अविश्वास करले वह तो आपके हर कार्य मे अविश्वास की सम्भावना ढूंढेगा ही। किन्तु, मरता क्या न करता? हमे उनके प्रस्ताव पर सहमति देनी ही थी। हमारे पास इसके सिवा और कोई रास्ता भी तो न था।
गेरिक और मैने सलाह करके एक और दांव चला। हमने अपनी ओर से कहा कि हम लोगों के पास धन सम्पति तो बहुत है किंतु प्रजा और सेवकों की समस्या है अत: हम आपके पास इसी समस्या के निवारण हेतु इतने खतरे उठाकर आये हैं। कृप्या हमारी समस्या का भी निदान करें।
“आप लोग कहना क्या चाहते हैं अपना मन्तव्य स्पष्ट करें।” राजा ने पूछा।
“हम आपसे सांस्कृतिक, सामाजिक सम्बंधों के साथ ही व्यापारिक सम्बंध स्थापित करना चाहते हैं।” हमने कहा।

आखिर तय हुआ कि अगले दिन हमे वहां की सेना और प्रतिनिधियों के साथ वापस जाना होगा। यदि वहां का निरीक्षण करने पर उन लोगों को हमारी बात पर विश्वास हो गया तो हमारे निवेदन और हमारी समस्या पर ध्यान दिया जायेगा। हम सहमत हो गये। वैसे हमारे पास कोई और रास्ता भी नहीं था।
अब उन लोगो ने हमे बन्धनमुक्त किया। पहनने हेतु वस्त्र आदि दिये और सिपाहियों की निगरानी मे द्वीप मे घूमने फ़िरने की अनुमति भी प्रदान की। हम अच्छी तरह समझ रहे थे कि हमारे वापसी की तैयारियां युद्ध स्तर पर चल रही थीं। लेकिन यहां से कूच करने से तक जितना समय हमे मिलता है, वह इन लोगो से मित्रवत सम्बंध बानाने मे लगायें।
...हम तो सचमुच कूटनीतिज्ञ बन गये थे …
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मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति.