चाँद के पार एक चाबी - 6 Avadhesh Preet द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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चाँद के पार एक चाबी - 6

चांद के पार एक कहानी

अवधेश प्रीत

6

‘इसका बाप अपने आपको बड़का बाभन बूझता है। सरयूपारी। क्या तो तरवा का बिआह सरयूपारिये में करेगा!’ रमेश पांडे ने पिच्च से खैनी के साथ ही जैसे तिताई भी थूकी, ‘बाभनो सब में कम घोर-मट्ठा नहीं है।’

पिन्टू का चेहरा स्याह पड़ गया। वह जो उसके अंदर जादू-सा जगा रहा था, तिरोहित होता-सा जान पड़ा। उसने कांउटर कसकर पकड़ लिया। पैर जमीन पर जमाया, गोकि खुद को जमीन पर लाने की कोशिश कर रहा हो।

सायास खिंच गई चुप्पी के इस पार पिन्टू था, तो उस पार रमेश पांडे थे।

भारी मन से पिन्टू तारा कुमारी की सहेली के मोबाइल का मुआयना करने लगा। रमेश पांडे उठे और बगैर बोले खिसक गये।

पिन्टू को आज रमेश पांडे का व्यवहार अजीब-सा लग रहा था। लगा, उनका चित्त स्थिर नहीं है।

चित्त तो पिन्टू का भी स्थिर नहीं था। मोबाइल बनाने के बजाय उसने दराज में से एक पुरानी पत्रिका निकाली और उलटने-पुलटने लगा। पत्रिका पढ़ चुका था, पिफर भी वह किसी-किसी पन्ने पर रुकता, कुछ पढ़ता और आगे बढ़ जाता। वह, जो वह खोज रहा था, किसी पन्ने पर उसके न मिलने की व्यग्रता उसके चेहरे पर सापफ दिख रही थी।

जिंदगी की सबसे हसीन हंसी

शाम चार बजे, रोज की तरह उत्क्रमित राजकीय उच्च मध्य विद्यालय की घंटी बजी-टन्न...टन्न...टन्न। लेकिन ताज्जुब कि पिन्टू भीतर के न कोई घंटी बजी,न कोई ध्ुन उठी। सन्नाटों से भरी आंखे अनायास ही रोज की तरह स्कूली लड़कों-लड़कियों के हिलकोरे लेती झुंड को ताकती-निहारती रहीं।

इसी भीड़ से निकलती तारा कुमारी अपनी सहेली के साथ साइकिल लिये-दिये दुकान पर आ खड़ी हुईं।

पिन्टू ने दराज से निकालकर मोबाइल काउंटर पर रखकर शुष्क स्वर में कहा, ‘साठ रुपया। खुदरा दीजिएगा।’

तारा कुमारी सकपकाई। उसकी सहेली तो तारा कुमारी का चेहरा ही देखती रह गई।

‘लगता है, गुस्सा हैं क्या?’ तारा कुमारी की आवाज अनेपक्षित रूप से नरम थी।

पिन्टू का चेहरा सपाट था।

‘उस दिन खुदरा वाली बात बोले। इसी से ऐसा बोल रहे हैं?’ तारा कुमारी को जैसे शब्द नहीं मिल रहे थे। स्वर में सचमुच संकोच था।

पिन्टू चुप था।

‘छोड़ दीजिए, आज पैसा नहीं है। कल ले जायेंगे।’ मायूस-सी तारा कुमारी ने सहेली का हाथ पकड़कर खींचा, ‘गौरी चल!’

कसमसाती-सी सहेली गौरी हिली नहीं। शायद, कोई उम्मीद उसे रोके हुए थी। पिन्टू ने देखा, गौरी की आंखों में याचना-सी थी। लेकिन तारा का चेहरा तो पूरी तरह उतरा हुआ था। निष्प्रभ-सी वह, किसी शून्य में खड़ी थी।

पिन्टू उस शून्य में गहरे पछतावे के साथ दाखिल हुआ, ‘ले जाइए। पैसा बाद में दे दीजिएगा।’

गौरी की आंखें चमकीं। बगैर देरी किये मोबाइल झट से कब्जे में लेकर, उसने पिन्टू को भरोसा दिलाया, ‘कल आपका पैसा पक्का मिल जायेगा।’

पिन्टू ने तारा कुमारी को भर आंख देखा। तारा कुमारी अभी भी शून्य में खड़ी थी। गौरी ने उसे हाथ पकड़कर खींचा, ‘तारा, चल!’

तारा कुमारी घिसटती-सी साइकिल तक गई। सिर झुकाये-झुकाये साइकिल के हैंडिल को थामा और सिर झुकाये हुए ही साइकिल पर सवार हो गई।

पिन्टू को उम्मीद थी कि तारा कुमारी एक बार मुड़कर जरूर देखेगी।

वह उम्मीद की आंखों को तारा कुमारी की पीठ पर उसके ओझल हो जाने तक टिकाये रहा। लेकिन तारा नहीं मुड़ी, तो नहीं मुड़ी।

जाते हुए इस दिन के साथ पिन्टू के भीतर एक ध्ूसर बियाबान हांय-हांय करने लगा। सड़क पर रोशनियां थीं। बाजार में रौनक। लेकिन पिन्टू के लिए ये सबकुछ बेमानी-सा था। वह तो बस तारा कुमारी के चेहरे की मायूसी के मायने बूझने में डूब-उतरा रहा था। ऐसे में, जबकि होना नहीं चाहिए था, पता नहीं क्यों पिन्टू को रमेश पांडे की बेतरह याद आई। रमेश पांडे का कोई पता नहीं था। पता नहीं बबवा कहां मंुह मार रहा है? न इध्र आया, न पफोन-वोन किया। जी में आया कि रमेश पांडे को पफोन करे। मोबाइल हाथ में लिया ही था कि अचानक रिंगटोन बजने लगा- ‘मैं तेरा कल भी इंतजार करता था, मैं तेरा अब भी इंतजार करता हूं।’ अनजान नंबर था। बेमन से ‘रिसीव’ किया।

‘हलो!’

दूसरी ओर से आवाज आई, ‘हम तारा बोल रहे हैं।’

पिन्टू को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। खुद को विश्वास दिलाने के लिए पिफर से पूछा, ‘कौन? कौन बोल रहा है?’

‘तारा। तारा कुमारी बोल रहे हैं।’ आवाज तारा कुमारी की ही थी।

बजते जल-तरंगों की ध्ुन ऐसी ही होती होगी, महसूस किया पिन्टू ने। खुद पर काबू रखने की कोशिश करते हुए पूछा, ‘आपको मेरा नंबर कैसे मिला?’

‘दुकान के बोर्ड पर तो लिखा है।’ तारा कुमारी की आवाज में गजब की मासूमियत थी।

‘क्या बात है? काहे पफोन की?’

‘आप गुस्सा हैं क्या?’

तारा कुमारी के इस सवाल पर लरजकर रह गया पिन्टू। वह गुस्सा है, ऐसी पिफक्र तारा कुमारी को क्यों हुई? आजतक तो किसी ने उसके गुस्सा या गम की पिफक्र नहीं की? यकायक उसका मन भर आया। जवाब देते नहीं बना।

‘हमको लगा, आप गुस्सा हैं।’ तारा कुमारी उसके जवाब का इंतजार कियेे बगैर बोली, ‘हमको अच्छा नहीं लगा। इसीलिए पफोन किये हैं।’

पिन्टू की इच्छा हुई कि वह चुपचाप तारा कुमारी को सुनता रहे। लेकिन यह सोचकर कि उसकी चुप्पी से वह नाराज न हो जाये, बोला, ‘हम काहे गुस्सा होंगे?’

‘आप मेरी सहेली के सामने कितना खराब से बोले!’ तारा कुमारी की आवाज का संगीत बज रहा था, ‘हम कितना अध्किार से उसको बोले थे कि मोबाइल बन जायेगा। हम कहेंगे तो पैसा उधर भी रह जायेगा।’

‘जी...जी..., आप ठीक बोली थीं।’ बड़ी मुश्किल से बोल पाया पिन्टू।

‘जी...जी...क्या कर रहे हैं? हमरी बेइज्जती हुई, उसका क्या?’ तारा कुमारी के स्वर में उलाहना था।

‘ग...गलती हो गई।’ पिन्टू हकलाया

‘कुछ बूझते नहीं हैं। गलती हो गई। यही करते हैं।’

उलाहने का अंदाज झिड़की में तब्दील हो चुका था।

‘जी!’ क्या कहे, कुछ नहीं सुझा पिन्टू को।

‘जाइए, मापफ किया!’ हंसी तारा कुमारी।

पिन्टू के भीतर यह हंसी अनारदानों-सी बिखर गई। उसे बड़ी देर तक वह हंसी महसूस होती रही, गोकि दूसरी ओर से आवाज आनी बंद हो गई थी। यकीन की सतह पर यह उसकी जिंदगी की सबसे हसीन हंसी थी, जिसे वह सात तालों में महपफूज रखना चाहता था। उसने ताले बंदकर चाभी हवा में उछाल दी। आसमान की ओर देखा तो चाभी उड़ती हुई चांद के पार जा चुकी थी।

दो दूनी चार आंखें

आसमान में हजारहा तारे टिमटिम कर रहे थे और पिन्टू उन तारों की आंखों में आंखें डाले सारी रात गुफ्रतगू करता रहा। यह अनिंदी रात उसकी तमाम रातों से कहीं ज्यादा जगमग थी। उसने खुद को एक ऐसे इंसानी जिस्म के रूप में तब्दील होता हुआ महसूस किया, जिसके अंदर प्यार करने वाला दिल ध्ड़क रहा था। यह दिल इस कदर जोर-जोर से ध्ड़कने लगा था कि पिन्टू को खुद से बतियाना मुश्किल हुआ जा रहा था। वह अपने-आप से पूछना चाहता था कि पिन्टू, आग के इस खेल में समिध हो जाने की चाहना आखिर किस ईश्वर का अभिशाप है? लेकिन ध्ड़कते दिल के शोर में कोई संवाद संभव नहीं हो पा रहा था।

वह बतियाना चाहता था खूब-खूब। किसी से भी, कुछ भी। लेकिन किससे? किससे करे दिल की बात? आस-पास की झोपड़ियों से ध्ुआं उठ रहा था। बच्चे सूअरों के पीछे ‘हुल्ल-हुल्ल’ कर रहे थे। मर्द बच्चों को गलिया रहे थे। औरतें अपने मर्दों के इस शौर्य पर हुलस रही थीं। पिन्टू को ये सारा का सारा दृश्य बेहद खुशगवार लगा। वह बेसख्ता बच्चों के इस खेल में शामिल हो गया।

बच्चे ठिठके। क्षणभर को उसे कौतुक से देखा। पिफर ‘हो-हो’ कर उछल पड़े। मर्द-औरत सबके सब पिन्टू को बच्चों के साथ खेलते देख आपस में मुस्काये। यह इस सुबह की सबसे ताजा मुस्कराहट थी।

मां ने आवाज दी, ‘पिन्टू, मोबाइल बज रहा है, रे?’

पिन्टू चिहुंका। अपने-आप में लौटा। मोबाइल बज रहा है? कौन है? कहीं तारा कुमारी तो नहीं? कलेजा मुंह को आ लगा। भागा-भागा झोंपड़ी में घुसा। मोबाइल की घंटी बंद हो चुकी थी। स्क्रीन पर मिस काॅल देखा- रमेश पांडे!

हड़बड़ा कर रमेश पांडे को काॅल लगाया। उध्र से आवाज आई-यह नंबर पहुंच से बाहर है।

पता नहीं किस खोह में है बबवा कि मोबाइल लग ही नहीं रहा। दुबारा पिफर काॅल लगाता कि एक मैसेज आ गया। खोलकर देखा, तो दिल ध्क्क कर गया-गुड माॅर्निंग।

वाकई, यह सुबह बेहद खुशगवार थी। मैसेज के साथ नाम नहीं था। लेकिन नंबर तारा कुमारी का था, इसमें कोई शक नहीं। अपने मोबाइल को चूमता पिन्टू हवा में उड़ रहा था। उड़ता हुआ वह बच्चांे के पास आया और रजवा को पकड़कर बोला, ‘तुमको मोबाइल का काम सीखना है न?’

रजवा चकित। गर्दन हिलाकर रजवा ने हामी भरी।

‘तो चल, आज से शुरू कर।’ रजवा के सिर पर हाथ पफेरते पिन्टू ने प्यार से एक धैल जमाया, ‘हम दुकान जा रहे हैं। तुम तैयार होकर आ जाना।’

थोड़ा चकित, थोड़ा आह्लादित रजवा पिन्टू को जाता देखता रहा।

दुकान खोलकर पिन्टू अभी काउंटर पर बैठा ही था कि तारा कुमारी की साइकिल आ लगी। पिन्टू के जिस्म के सारे तार झनझना उठे। लगा कि कंठ सूखा, कि होंठ सूखे, कि आंख पथराई, कि पांव कांपे, कि हाथ सुन्न हो गये।

तारा कुमारी साइकिल खड़ी कर पास आई। पिन्टू गुम था। तारा कुमारी की खनकती आवाज गूंजी, ‘गौरी आज नहीं आई। पैसा भिजवाई है, वही देने आये हैं।’

पिन्टू चुप था।

तारा कुमारी साठ रूपये काउंटर पर रखते हुए बोली, ‘गिन लीजिए।’

पिन्टू ने पचास और दस के नोट को निहारा।

‘ऐसे क्या देख रहे हैं? गिन लीजिए।’ तारा ने जिद-सी की।

‘आप दी हैं, तो क्या गिनना!’ पिन्टू को अपनी आवाज अनचीन्ही-सी जान पड़ी

‘अच्छा ये बात बताइए, आप इतना सब क्या पढ़ते रहते हैं?’ तारा कुमारी की उत्सुकता में उसी की-सी चपलता थी।

‘बस ऐसे ही।’ पिन्टू बोलना तो बहुत कुछ चाहता था, लेकिन भीतर की जकड़न टूट नहीं रही थी।

‘हम तो जब देखते हैं, आप किताबे में घुसे रहते हैं।’ तारा कुमारी मचल-सी पड़ी।

‘मन लगाने के लिए कुछ-कुछ पढ़ते हैं।’ पिन्टू ने थोड़ा साहस किया।

‘अच्छा करते हैं। यहां तो पढ़वइया लड़का सब भी कुछ नहीं पढ़ता है। सबका सब लखेड़ा है।’ तारा कुमारी ने मुंह बिचकाया,‘सोचता है सब चोरी करके पास हो जाएंगे,तो पढ़ने की क्या जरूरत है?’

‘जाने दीजिए। जो पढ़ेगा अपने लिए, जो नहीं पढ़ेगा अपने लिए।’ इस बार पिन्टू थोड़ा और खुला,‘जो चोरी से पास करेगा,वो जिन्दगीभर खाली चोरी-चकारी ही करेगा।’

तारा कुमारी को पिन्टू की यह संजीदगी अच्छी लगी। उसने मुग्ध्भाव इसरार किया,‘सुनिए न, पढ़ने के लिए हमको कुछ दीजिएगा?’

अप्रत्याशित था यह आग्रह । पिन्टू ने अविश्वास से देखा तारा कुमारी को। तारा कुमारी उसके उत्तर की प्रतीक्षा में उसे टुकुर-टुकुर ताके जा रही थी। जी में आया, काश! दुनिया की सारी खूबसूरत किताबें तारा कुमारी को दे पाता। लेकिन खुद पर काबू रख इतना ही पूछ पाया, ‘क्या पढ़िएगा?’

‘आपको जो पसंद हो, वही दीजिए!’ तारा कुमारी के बंद होंठों में मुस्कुराहट दबी हुई थी, ‘पढ़के लौटा देंगे।’

पिन्टू ने साहस कर तारा कुमारी की मुस्कराहट में पहली बार अपनी मुस्कुराहट मिलाई। दो मुस्कुराहटें मिलकर चार गुना र्हो आईं।

खुमारी में डूबा पिन्टू काउंटर के बगल में बनी शेल्पफ में रखी किताबों को तजबीजता रहा। पिफर कुछ सोचता हुआ, किताबों के बीच से एक किताब निकाली-तुम्हारे लिए। यह नीरज की कविताओं का संग्रह था। किताब तारा कुमारी की ओर बढ़ाते हुए उसका हाथ कांपने लगा। तारा कुमारी ने पिन्टू के कांपते हाथ में कांपती किताब का टाइटल गौर से देखा, पिफर पिन्टू को देखा। दोनों की आंखें मिलीं। निमिष मात्रा को एक-दूसरे में गुंथी आंखों ने पिन्टू के पूरे वजूद में हलचल-सी पैदाकर दी। जब तक वह कुछ समझता, तारा कुमारी ने किताब उसके हाथ से खींचकर अपने बैग में डाला और लगभग पफुसपफुसाते हुए बोली, ‘जा रहे हैं। स्कूल को देरी हो जाएगी।’

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