चांद के पार एक कहानी
अवधेश प्रीत
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इस बार तो मैं सचमुच अन्दर तक हिल गया। मेरे सामने एक ऐसा यथार्थ था, जो मेरे तमाम लिखे-पढ़े को मुुंह चिढ़ा रहा था। यह किताबों से परे, पफैंटेसी से बाहर, सांघातिक अनुभव था, मेरे उफपर घड़ों पानी डालता हुआ।
‘नहीं पिंटू, इसकी कोई जरूरत नहीं हैं।’ मैने उसे बरजने के लिए एक-एक शब्द पर जोर दिया, ताकि वह इस आग्रह से उबर जाय।
कप ट्रे में रखकर उसने मुझे कृतज्ञ भाव से देखा और पिफर जैसे उसके अंदर खदबदाती बेचैनी बेसाख्ता बाहर निकल आई, ‘सर, गांव में आज भी कुछ नहीं बदला है। छुआ-छूत, शोषण, दंबगई सबकुछ वैसे ही है।’
उसकी आवाज में हताशा थी, तो चेहरे पर हाहाकार। मेरे लिए यह मुश्किल क्षण था। मेरे पास जो आश्वासन के शब्द थे, वे निहायत खोखले जान पड़ रहे थे। मैं जो कहना चाह रहा था, उसमें आदर्शवादी चिमगोइयां थीं और मैं निश्चित नहीं था, कि यह कहकर मैं उसके अंदर कोई हौसला पैदाकर पाउफंगा। लेकिन कुछ तो कहना था। वह मुझसे मुखातिब था और जाहिरन मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहा था। मैं पहलीबार किसी बौ(िक बहस के बाहर एक ऐसे शख्स को संबोध्ति कर रहा था, जहां ऐकेडमिक टूल्स बेमानी थे। मैंने बेहद कठिनाई से उसे समझाने की कोशिश की, ‘पिंटू, बदलाव में समय भले लगे, लेकिन समय के साथ बदलाव आता है। जैसे-जैसे शिक्षा बढ़ेगी, लोग बदलेंगे। समाज बदलेगा। तुम जैसे नौजवान आगे आयेंगे तो मेरा विश्वास है, हालात भी बदलेंगे।’
वह मेरी बात मंत्रामुग्ध्-सा सुनता रहा। लेकिन मेरे चुप होने के साथ ही उसके चेहरे पर अपफसोस तिर आया। उसने उसी अपफसोसनाक अंदाज में कहा, ‘सर, पढ़ना-लिखना बहुत मुश्किल काम है। एक तो मुशहर लोग को पढ़ने में रुचि नहीं है और कोई पढ़ना चाहे तो इतना अडं़गा है कि पूछिये मत। हम कितना मुश्किल से पढ़े, कितना कुछ सहना पड़ा, हमीं जानते हैं।’
मेरी आदर्श कामना और उसके कड़वे सच के बीच जो पफासला था, उससे आंख मिलाना कठिन हो रहा था। मैंने पिफर भी उसकी हताशा को हौसला देने की कोशिश की, ‘पिंटू, तुम पढ़ो। मुझसे जो मदद चाहिए बेझिझक बताना।’
‘सर!’ उसने संक्षिप्त-सा जवाब दिया।
हमारे बीच संवाद का कोई सिरा नहीं रह गया था। मैं चुप-सा उसके पिफर कुछ बोलने की प्रतीक्षा करता रहा था कि वह एक झटके उठ खड़ा हुआ।
मैंने अचकचाकर पूछा, ‘क्या हुआ?’
‘सर, चलता हूं।’ उसने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
मैंने भी उसे रोकने-टोकने की कोई कोशिश नहीं की। हम दोनों दरवाजे तक आये। उसने एक बार पिफर प्रणाम किया। मैंने जवाब दिया और वह लपकता हुआ ओझल हो गया।
उसके जाने के साथ ही जंुबिशों भरी हवा पछाड़ खाती महसूस हुई। उस सुबह की सारी रोमानियत हवा हो चुकी थी।
हमारी दुनिया में मोबाइल का आना
जब वह मुझे दूसरी बार मिला, हमारी दुनिया में मोबाइल दाखिल हो चुका था। हम नई-नई शब्दावलियों से वाकिपफ हो रहे थे। लोगों से मिलना-मिलाना कम होता जा रहा था और जानने वालों के मोबाइल नंबर याद रखने के बजाय उसे सेव करना सीख गये थे। कई बार इन सेव नंबरों से वर्षों बातचीत नहीं होती थी और मेमोरी पुफल होने पर उन्हें डिलिट कर देने में कोई दिक्कत भी नहीं होती थी।
इन्हीं दिनों में वह दूसरी बार मिला।
वह यानी पिन्टू कुमार। वह अब नायक होने जा रहा है, इसलिए अब वह, वह नहीं पिन्टू कुमार है।
पिन्टू कुमार जब दूसरी बार मुझसे मिला, तब उसे पहचानने में थोड़ी दिक्कत हुई। वह तकरीबन आठ-नौ साल बाद मिल रहा था, लिहाजा उसकी शक्ल-सूरत, पहनावे, ओढ़ावे में कापफी परिवर्तन आ गया था। संक्षेप में बताउफं तो वह उस दिन सुबह नहीं, दोपहर बाद आया था। दरवाजे पर दस्तक हुई थी 1दरवाजा पत्नी ने खोला था। पत्नी उसे पहचान नहीं पाई थीं। तब उसने कहा था, ‘मेरा नाम पिन्टू कुमार है। ढिबरी से आया हंू।’
पिन्टू कुमार! तकरीबन दस साल पहले सुना-जाना नाम, ढिबरी की वजह से याद आया और सोलह-सत्राह साल के लड़के का चेहरा आंखों में उभर आया। थोड़ा ताज्जुब भी हुआ कि इतने अर्से तक वह कहां गुम रहा और आज अचानक उसे मेरी याद कैसे आ गई? कई-कई सवाल, खयाल मन में अनायास आते गये और मैं जो इस वक्त एक प्रेम कहानी पढ़ रहा था, उसे छोड़कर दरवाजे तक आया।
पिन्टू कुमार दवाजे पर प्रतीक्षारत था। उसने मुझे देखते ही प्रणाम किया। उसके भाव-मुद्रा में पहलीबार का-सा संकोच नहीं था। मैने उसे उफपर से नीचे तक देखा। उसने चारखाने की हापफशर्ट और नीलेरंग की जींस पहन रखी थी। पैरों में स्पोट्र्स शू थे। बाल करीने से कटे। चेहरा भरा-भरा और क्लीनशेव्ड। एक भरापूरा जवान। जमाने के आईने में खड़ा कुछ-कुछ माचोमैन-सा।
मैने परिचय के पुराने सिरे को पकड़कर पिन्टू कुमार का हुलसकर स्वागत किया, ‘आओ भाई, आओ। कहां रहे इतने दिन? तुम तो एकदम गुम ही हो गये?’
वह मेरे पीछे-पीछे डाइंग रूम में आया। मैंने उसे बैठने का इशारा कर पूछा, ‘अच्छा पहले ये बताओ, क्या लोगे, चाय या कुछ ठंडा-वंडा?’
‘सर, कोई तकलीपफ करने की जरूरत नहीं है।’ सोपफे पर बैठते पिन्टू कुमार ने जवाब दिया, ‘बस, एक गिलास पानी चलेगा, सर।’
मैं अन्दर गया। खाली गिलास और एक बोतल ठंडा पानी लेकर लौटा तो पिन्टू कुमार को बुकशेल्पफ के सामने खड़े होकर किताबों के टाइटल पढ़ते पाया। मुझे देखते ही वह लपककर मेरे पास आया और मेरे हाथों से ट्रे लेते हुए बोल पड़ा, ‘सर, आपसे कुछ लंबी बात करनी है। आपके पास टाइम होगा?’
जरूरी बात? मेरे दिमाग में घंटी-सी बजी- कहीं यह लेखक तो नहीं बन गया और इस वक्त मुझे अपनी कोई रचना तो नहीं सुनाना चाहता? अपनी कोई किताब छपवाने-वपवाने के लिए मेरी मदद तो नहीं चाहता? या इन गुजिश्ता वषो में उसे कोई बड़ी कामयाबी तो नहीं हासिल हो गई, जिसकी दास्तानगोई से अपने मौजूदा रुतबे का अहसास कराना चाहता हो? जो भी हो, वह इतनी दूर से, इतने साल बाद मुझसे मिलने आया है, लिहाजा शिषचारवश मैंने उसे आश्वस्त किया, ‘टाइम की कोई बात नहीं है, पिन्टू कुमार, तुम इत्मीनान से बात कर सकते हो।’
पिन्टू कुमार के चेहरे पर आश्वस्ति दिखी। उसने गिलास में पानी भरा और पूरा गिलास एक ही सांस में खाली कर दिया। खाली गिलास टेबुल पर रखकर बोला, ‘सर, इतने साल बाद मैं आपके पास इसलिए आया कि मुझे लगा, आप ही हैं, जिसने भरोसा दिलाया था कि जैसे-जैसे शिक्षा बढ़ेगी। लोग बदलेंगे। समाज बदलेगा।’
मैंने ऐसा कुछ कहा था, ठीक-ठीक याद नहीं। लेकिन पिन्टू कह रहा है, तो हो सकता है, प्रसंगवश मैंने ऐसा कहा होगा। मैंने मुस्कराकर पूछा, ‘तो तुमको मेरी बात अब तक याद है?’
‘हां सर!’ वह संजीदा था, ‘आपकी एक-एक बात याद है। मुझे भी लगा था, पढ़ने-लिखने से ही हालात बदलेंगे। आपके यहां से जाने के बाद मैं आपने पिता के पास गया था। सोचा था, उनके साथ ही रहकर यहां पढ़ूंगा। लेकिन सर, जब मैं पिता से मिला तो उनकी हालत देखकर सदमा पहुंचा। वह दिनभर रिक्शा खींचते थे। रात में दारू पीकर पफुटपाथ पर ही सो जाते थे। वह टी.बी के मरीज हो चुके थे। वह जीने के लिए पीते थे या पीने के लिए जीते थे। मुझे कुछ समझ नहीं आया। उनकी हालत देखकर मैं घबरा गया। उस वक्त पिता के अलावा मेरे लिए कुछ भी सोचना संभव नहीं था। पटना में एक-दो डाॅक्टरों को दिखाया। लंबा इलाज,आराम और अच्छा भोजन उनके लिए जरूरी था। मैं उन्हें लेकर ढिबरी चला गया।’
पिन्टू कुमार रुका। पहलीबार उसे इतना लंबा और धरा प्रवाह बोलते सुन रहा था । समझते देर नहीं लगी कि वह भीतर तक भरा हुआ है। वह जैसे वह सब कुछ कह जाना चाहता है, जो इन वर्षों में उसके साथ गुजरा है। लिहाजा मैंने उसे टोकना उचित नहीं समझा।
उसने बात जहां खत्म की थी, वहीं से पिफर आगे बढ़ा, ‘सर, ढिबरी में हाईस्कूल से आगे पढ़ने की सुविध नहीं थी। मां की मजदूरी से मेरी पढ़ाई भी संभव नहीं थी। मेरे सामने कमाने की मजबूरी थी। मैंने सोचा, दो-चार ट्यूशन मिल जायेगा, तो कुछ आसानी होगी। लेकिन, सर, मुशहर से कोई अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए तैयार नहीं हुआ। उल्टे लोग ताना मारते-अब ये दिन आ गया है कि हमारे बच्चों को मुशहर-डोम पढ़ायेगा।’
पिन्टू कुमार की आवाज सीली-सीली लगी1 मुझे लगा, शायद उसका मन भी भर आया है। मैंने झट से गिलास में पानी भरकर, उसे पानी पीने का इशारा किया। उसने इस बार महज दो घूंट पानी पिया। पिफर खुद को संयत कर बोला ,‘क्या करता, भागकर समस्तीपुर चला गया1 वहां कुछ दिन मजदूरी करता रहा। वहीं एक ठेकेदार मिला। वह लड़कों को मजदूरी के लिए पंजाब भेजता था। उसी ने बताया कि वहां ज्यादा मजदूरी मिलती है। वहां छुआछूत का भी चक्कर नहीं है। बस, एक दिन आठ-दस लड़कों के साथ मुझे लेकर वह ठेकेदार लुध्यिाना चला गया।’
पिन्टू की तपफसील में उसके बीते दिनों के दृश्य सहज ही आकार लेने लगे थे। वह बता रहा था, ‘सर, दो साल एक पफैक्ट्री में काम करने के बाद, मैंने वहीं मोबाइल रिपेयरिंग का काम सीखना शुरू कर दिया। काम सिखाने वाला सरदार बोला, इसका बहुत स्कोप है। तू चाहे तो अपने देस में भी यह काम कर सकता है। भूखों नहीं मरेगा।’
पिन्टू के बोलने में जितनी सापफगोई थी, उतने ही मोड़ भी थे,यह समझना मुश्किल नहीं था। वह हर मोड़ पर रुकता और पिफर जैसे मेरे चेहरे का जायजा लेता, कहीं मैं उसकी बातों से उफब तो नहीं रहा। वाकई मैं उफबने के बजाय उत्सुकता से भरा हुआ था और शायद यह मेरे चेहरे से भी जाहिर हो रहा था। उसका मुझ पर इत्मीनान बढ़ता जा रहा था और वह जिस मोड़ पर रुकता ठीक उसी से आगे बढ़ता। उसने आगे बताना शुरू किया, ‘एक दिन खबर मिली कि पिता जी नहीं रहे। मेरे लिए यह खबर अप्रत्याशित नहीं थी। मैं जानता था, यह अनहोनी तो एक दिन होनी ही है। आश्चर्य तो यह था, सर, कि वह इतने वर्षों तक चल कैसे गये?’
यह पिन्टू कुमार का सवाल था, या तंज, मैं समझ नहीं पाया। लेकिन यह समझना मुश्किल नहीं था, कि उसके अंदर एक किस्सागो बैठा है, जो अपनी बात तरतीब से कहना जानता है। उसने उसी तरतीब के साथ कहना जारी रखा, ‘सर, मैं लौटकर ढिबरी आ गया। यहां आने पर पता चला मां भी ज्यादा बूढ़ी और बीमार हो चुकी हैं। पिता के बाद उसकी देखभाल के लिए कोई सहारा नहीं था। मैने लुध्यिाना लौटने का इरादा छोड़ दिया। वहीं ढिबरी में सड़क किनारे एक खोखा ;गुमटीद्ध डाला और मोबाइल रिपेयरिंग की दुकान शुरू कर दी।’
‘अरे वाह, यह तो तुमने बहुत ही अच्छा किया!’ मैंने उसे दाद देने के साथ हौसला आपफजाई की, ‘मोबाइल तो अब गांव-गांव हो गया है। आजकल तो इसका बिजनेस खूब चल रहा है।’
पिन्टू कुमार बड़ी देर बाद मुस्कराया लेकिन उसकी मुस्कराहट का रंग चटख नहीं था। मेरे अन्दर कुछ चटखा-कहीं कुछ गलत तो नहीं कह गया? वह बोला तो कुछ नहीं, लेकिन बहुत कुछ अनबोला उसकी मुस्कराहट में शेष था।
ढिबरी बाजार में पिन्टू कुमार
नेशनल हाईवे बन जाने के बाद ढिबरी की रौनक बढ़ गई थी। ढिबरी का वह हिस्सा, जो नेशनल हाईवे से सटा हुआ था, अब अच्छे-खासे बाजार में तब्दील हो गया था और वह बकायदे ढिबरी बाजार कहा जाने लगा था। ठीक इसके उलट बाकी हिस्से का मूल रूप बरकारार था और इस प्रकार ढिबरी गांव और बाजार साथ-साथ बने हुए थे। दोनों के होने से हुआ यह था कि गांव की चैपाल उजड़ गई थी और बाजार में बैठकें बढ़ गई थीं। चाय-पान की दुकानों पर लोग एक सुबह से जो जुटते, तो दुनियाभर की बतकही में दुपहरिया कर देते। खाद-सीमेंट की दुकानों पर आस-पास के गांवों के लोगों की भीड़ जुटनी शुरू होती तो देर शाम तक खरीद-बिक्री जारी रहती। शाम को एगरोल और चाउमिन के ठेले गुलजार हो जाते, जहां ज्यादातर जवान हो रहे लड़कों की भीड़ स्वाद के चटखारे ले रही होती। उसी के बगल में देसी शराब की दूकान तो देर रात तक खुली रहती और पीने वाले आपस में गाली-गलौज करते जमीन-आसमान के बीच कुलांचे भर रहे होते। चिप्स, कुरकुरे, पेप्सी, कोकाकोला तो पान की दुकानों पर भी बिक रहे थे और वहां स्कूली लड़के-लड़कियों की आमद-रफ्रत दिनभर बनी रहती।
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