चाँद के पार एक चाबी - 4 Avadhesh Preet द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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चाँद के पार एक चाबी - 4

चांद के पार एक कहानी

अवधेश प्रीत

4

‘ओह, तो ये बोलिए न!’ पिन्टू इस बार सचमुच मुस्कराया।

तारा कुमारी मुस्कराई नहीं। लेकिन उसके मुखमंडल पर व्याप्त चंचलता गजब ढा रही थी।

पिन्टू ने मोबाइल का कवर खोला। पफोरसेप से कुछ चेक किया, पिफर बोला, ‘टाइम लगेगा। मोबाइल छोड़ जाइए तो बना देंगे।’

‘ठीक है। चार बजे तक बना दीजिएगा।’ स्वयं ही मियाद तय करती तारा कुमारी पलटी और सड़क किनारे खड़ी अपनी साइकिल की ओर बढ़ गई।

पिन्टू अवाक तारा कुमारी को देखता रहा। सपफेद सलवार, ब्लू कुर्ता, सपफेद चुन्नी में चपल चंचला तारा कुमारी अपनी दो चोटियों को झटका देते हुए साइकिल पर चढ़ी और पफुर्र से उड़ गई।

पिन्टू के हाथ में तारा कुमारी का मोबाइल था और आंखों में तारा कुमारी का चेहरा। जाने कैसे तो मन में कोई नामालूम-सा रिंगटोन बजने लगा, जिसे वह ठीक-ठीक पकड़ नहीं पा रहा था। इस कोशिश में उसने खुद को असहाय-सा महसूस किया और बेबसी में सिर को यूं झटका दिया, गोया खुद को बेखुदी से बाहर लाने की जिद कर रहा हो। लेकिन उसकी इस जिद को बार-बार परे ढकेलती तारा कुमारी जेहन से जाने का नाम ही नहीं ले रही थी। थक-हार कर उसने आंखें मूंदीं और कल्पनाओं के सारे घोड़े खुले छोड़ दिये। ये घोड़े समतल हरियालियों के बीच चैकड़ी भरते-भरते, हवा में उड़ने लगे। बादलों को चीरते, समंदरों को लांघते वे अचानक किसी कंदरा में घुस गये। घुप्प अंध्ेरे से भरी इस कंदरा में सांसें घुटती-सी लगीं। देह छिलती जान पड़ी। तारी होती मूच्र्छा से मोर्चा लेता वह घबराहट के मारे पसीने-पसीने हो आया। आंखें खुलीं, तो सामने रमेेश पांडे खड़े दिखेे।

रमेश पांडे काउंटर पर अपनी दाहिनी हथेली पीटे जा रहे थे, ‘क्या रे पिन्टुआ, दिने में सपना देखे लगा क्या?’

पिन्टू हड़बड़ाया जैसे रंगे हाथ पकड़ा गया हो। सामने खुले पड़े तारा कुमारी के मोबाइल को काउंटर के अंदर बने दराज में ध्ीरे से खिसकाते हुए मुस्कराया, ‘बाबा, दिन में सपना देखने का क्या अर्थ होता है?’

‘बेटा, दिन को देखा सपना कब्बो सांच ना होता है।’ रमेश पांडे स्टूल खींचकर अपनी पंडिताई बघारने लगे, ‘शास्त्रा में कहा गया है सपना और संभोग दिन के प्रहर में वर्जित कार्य है1 जो यह कार्य करता है, पाप का भागी होता हैै।’

‘तब तो आप पर अब तक बहुत पाप चढ़ गया होगा,बाबा!’ पिन्टू ने दाहिनी आंख दबाकर रमेश पांडे को टहोका।

‘स्साला, तुम क्या जानो शास्त्रा की बात?’ रमेश पांडे की गाढ़ी होती मुस्कराहट में चुहल अठखेलियां करने लगी, ‘शास्त्रा में हर पाप का निवारण बताया गया है।’

‘तो दिन में देखे सपना के पाप का निवारण बताइए न, बाबा !’ पिन्टू के निहोरे में भी हास्य मुखर था।

‘शूद्दर के लिए शास्त्रा-ज्ञान वर्जित है।’ रमेश पांडे का ज्ञान-दर्प हास्य पर हावी हुआ, ‘पाप निवारण तो बिल्कुल असंभव।’

‘बाबा, तब अपना शास्त्रा अपने पास रखिए। हमको अपना काम करने दीजिए तो!’ घड़ी देखता पिन्टू इस शास्त्रार्थ को टालने की गरज से बोला, ‘बहुत अरजेंट काम करना है।’

‘कितना तो बोले हैं कि हमको भी मोबाइल बनाना सिखा दो। तुमरा सब अरजेंट काम हम निबटा देंगे।’ खैनी में चूना मलते रमेश पांडे ने उलाहना दिया।

‘ए बाबा, शूद्दर का काम बाभन से ना निबटेगा।’

‘जिनगी भर शूद्दर ही रह जाओगे!’

‘तो आप भी जिनगी भर बाभन ही रह जाइएगा।’ तुर्की-बतुर्की जवाब देते पिन्टू ने पिफर घड़ी देखी। ढाई बज रहे थे। पता नहीं क्यों, उसको शक हुआ कि घड़ी स्लो चल रही है। शक दूर करने के लिए रमेश पांडे से पूछा बैठा, ‘आपकी घड़ी में टाइम क्या हो रहा है, बाबा?’

रमेश पांडे ने खैनी ठोंकी, चुटकी से मुंह में डाला पिफर घड़ी देखते हुए गुलगुलाये, ‘अढ़ाई बज रहा है।’

‘आपकी घड़ी स्लो तो नहीं ना है?’ पिन्टू अब भी आश्वस्त नहीं हुआ।

‘मंगनी का बूझ लिये हो क्या?’ रमेश पांडे ने दांतों के बीच दबाकर जीभ की नोंक से थूक की लंबी पिचकारी छोड़ी।

इससे पहले कि पिन्टू रमेश पांडे को कोई जवाब देता रमेश पांडे का मोबाइल बजने लगा । रमेश पांडे ने मोबाइल जेब से निकाला। स्क्रीन पर देखा, पिफर कंटीली मुस्कान के साथ उठ खडे हुए, ‘उसी का है। आते हैं।’

‘उसी का है’ मतलब रजकुमरिया पासिन का। पिन्टू मुस्कराया। रमेश पांडे कान में मोबाइल सटाये एकांत की तलाश में उत्क्रमित राजकीय उच्च मघ्य विद्यालय के पिछवाडे की ओर बढ़ गये।

पिन्टू ने राहत की सांस ली। घड़ी पर नजर डाली। दो बजकर चालीस मिनट हुए थे। यानी तारा कुमारी के आने में एक घंटा बीस मिनट का समय बाकी था। उसने जल्दी से दराज में हाथ डाला। हाथ में कोई कील चुभी। झट से हाथ बाहर खींचा। बीच की उंगली में खून की बूंद रिस आई थी। क्षण भर को खून को निहारा, पिफर उंगली मुंह में रखकर चूसने लगा। पीड़ा कुछ कम हुई। तारा कुमारी का मोबाइल निकालकर काउंटर पर रखा और बनाने में जुट गया।

रमेश पांडे जब तक लौटकर आये, तारा कुमारी का मोबाइल बन चुका था। मोबाइल दराज में रखकर पिन्टू ने घड़ी देखी-सवा तीन बजे थे। उसे पिफर लगा कि उसकी घड़ी स्लो है। तस्दीक के लिए पिफर रमेश पांडे से पूछा, ‘ए बाबा, टाइम बताइए तो कितना हुआ है?’

‘काहे रे, हमको घंटाघर बूझ लिया है क्या कि तोरा जब ना तब टाइम बताते चलें!’ रमेश पांडे मूड में दिख रहे थे। लग रहा था रजकुमारिया से मनभर बतियाकर मिजाज बन गया है।

‘बाबा, हम मजाक नहीं कर रहे हैं। सीरियसली बताइए न क्या टाइम हो रहा है?’ पिन्टू चाहकर भी व्यग्रता नहीं छुपा पाया।

‘सवा तीन!’ रमेश पांडे ने पिन्टू की व्यग्रता को लक्ष्य किया, ‘क्या बात है, आज बार-बार टाइम पूछ रहा है?’

‘बस ऐसे ही।’ पिन्टू ने बात बनाने की कोशिश की, ‘काहे तो लग रहा है कि हमारी घड़ी स्लो चल रही है।’

‘बाभन पर कुछ खर्चा-पानी ना करोगे, तो स्लो तो चलबे करेगी।’ रमेश पांडे दाहिनी आंख दबाकर हंसे, ‘तोरा कुछ याद है, कितना दिन हो गया दारू पिये?’

‘सांझ को आइएगा, तो सोचेंगे।’ पिन्टू ने सही अवसर ताड़कर रमेश पांडे को टालना चाहा, ‘अभी जाइए। हमको बहुत काम करना है।’

‘अब तो चार बजने ही वाला है।’ कलाई घड़ी पर नजर गड़ाते रमेश पांडे ने एलान किया, ‘अब तो बाबा रसपान करके ही टलेंगे1’

पिन्टू का दिल ध्ड़क गया। वह एकांत चाहता था और रमेश पांडे थे कि टलने को तैयार नहीं थे। घड़ी की सूई जैसे-जैसे खिसक रही थी उसे लग रहा था, पांव के नीचे से जमीन भी खिसक रही है। उसने बड़ी मुश्किल से जमीन पर पांव जमाने की कोशिश की ही थी, कि राजकीय उत्क्रमित उच्च मध्य विद्यालय की घंटी के साथ ही पिन्टू के भीतर भी घंटियां बजने लगीं। उसे आज पहली बार महासूस हो रहा था कि किसी की प्रतीक्षा की नैसर्गिक अनुभूति उसकी नसों में सनसना रही है। इस अलभ्य क्षण के स्वागत में उसने अपनी चेतना के सारे द्वार खोल दिये।

रमेश पांडे हुलक-हुलक कर सड़क से गुजरती लड़कियों को ताक रहे थे । अंदाज कुछ ऐसा कि हर लड़की को नख-शिख से तौलकर ही मानेंगेे। किसी-किसी को तो वह सीध्े लक्ष्य कर आप्तवचन भी उछाल दे रहे थे, ‘का हो, खइबू कि जियान करबू?’

लड़कियां आपस में खुसर-पफुसर करतीं। पिफस्स से हंसतीं और तेज कदमों से आगे बढ़ जातीं। रमेश पांडे किसी दूसरे गोल की ताक में ताक-झांक करने लगते।

पिन्टू को रमश्ेा पांडे की उपस्थिति अब नागवार गुजरने लगी थी । वह मन ही मन कसमसा रहा था और इस आशंका से दो-चार हो रहा था कि तारा कुमारी के आने पर रमेश पांडे कोई लंपटई ना कर बैठें। ऐसा कुछ हुआ तो वह रमेश पांडे को सापफ-सापफ कह देगा कि बाबा, दुकान पर आये ग्राहक से बद्तमीजी हमको पसंद नहीं है। अध्कि से अध्कि क्या होगा, मुंह पफुलायेंगे। तो पफुलाओ भाई, हमरी बला से।

लेकिन बला अपने-आप टल गई।

‘आते हैं रे, सिंगेसरा की दुकान से अपनी साइकिल लेकर ।’ लपकते हुए रमेश पांडे भीड़ में गुम हो गये।

तारा कुमारी और सौ का नोट

जब तक पिन्टू राहत की सांस लेता, तारा कुमारी की साइकिल सामने आ लगी। स्टैंड पर साइकिल खड़ी करती तारा कुमारी लगभग चिल्लाई, ‘लाइए तो हमरा मोबाइल।’

पिन्टू की आंखें तारा कुमारी के चेहरे पर जमी थीं । तारा कुमारी की आंखें पिन्टू के चेहरे पर पड़ीं, तो वह उसी टनक आवाज में बोली, ‘भटर-भटर क्या देख रहे हैं? लाइए हमरा मोबाइल?’

पिन्टू हड़बड़ाया। आंखें चुराते हुए चोर आंखों से तारा कुमारी को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। दराज से मोबाइल निकालकर तारा कुमारी को ओर बढ़ाते हुए महसूस हुआ कि उसके भीतर कोई रोमांटिक-सा रिंगटोन बजने लगा है।

‘कितना पैसा हुआ?’ तारा कुमारी ने पूछा।

‘पैसा?’ जी में तो आया कि कहे, पैसे की क्या जरूरता है? लेकिन आवाज घुटकर रह गई।

‘बोलिए न, कितना देना है?’ इस बार तारा कुमारी के स्वर में आजिजी थी।

‘पचास रुपया दे दीजिए।’ किसी के लिए मन से कुछ करने का सुख पहलीबार महसूसते पिन्टू के स्वर में बेबस उदासी थी।

तारा कुमारी ने बैग से टिन का एक डिब्बा निकाला। टिन के डिब्बे में रखे तुड़े-मुड़े सौ के नोट को सीध करते हुए बोली, ‘ठग नहीं न रहे हैं?’

ठगा-सा पिन्टू तारा कुमारी को देखता रह गया। जवाब देते न बना।

‘लीजिए पैसा काटिए।’ तारा कुमारी ने नोट बढ़ाया, ‘हमको जल्दी है।’

‘पफुटकर तो नहीं है।’ पिन्टू थोड़ा परेशान दिखा।

‘तब रखिए। कल दे दीजिएगा।’ तारा कुमारी नोट काउंटर पर रखकर पलटी और अपनी साइकिल की ओर बढ़ गई।

पिन्टू और तारा कुमारी के बीच अगली मुलाकात की संभावना बना नोट पफड़पफड़ा रहा था। पिन्टू ने झट से पकडकर नोट को भींच लिया।

तारा कुमारी साइकिल पर सवार होकर चार कदम बढ़ी ही थी कि रमेश पांडे अपनी साइकिल लिये-दिये आ पहुंचे1 जाती हुई तारा कुमारी को देखकर कुछ ज्यादा ही गहरे तक मुस्कराये ।

‘तारा तुमरी दुकान पर काहे आई थी, पिन्टुआ?’ मुस्की छंाटते रमेश पांडे ने दरयाफ्रत किया।

‘तारा? कौन तारा बाबा?’ पिन्टू अनजान-सा बना।

‘यही लड़किया, जो अभी साइकिल से गई है!’

‘अच्छा, उसका नाम तारा है क्या?’ नाटकीय भोलेपन से पिन्टू ने सवाल उलट दिया।

‘हां रे, कोहरा के रामदहिन शुक्ला की बेटी है।’ रमेश पांडे ने तारा कुमारी की कुंडली बांच दी, ‘इसका बाप स्साला हमरे जजमानी में टांग अड़वले रहता है। उसी के चलते कितना जजमान छिटक गया है।’

पिन्टू को रमेश पांडे का यह लहजा अच्छा नहीं लगा। लेकिन प्रतिवाद करने का साहस भी नहीं हुआ।

रमेश पांडे का प्रलाप जारी था, ‘बाबू जी बोले, गरीब बाभन है। जिये-खाये दो। यही सोच के हमू चुप लगा गये।’

रमेश पांडे चुप होने का नाम नहीं ले रहे थे। पिन्टू से रहा नहीं गया तो झनक पड़ा, ‘ए बाबा, अपना निंदा-पुराण बंद कीजिए तो।’

‘निंदा-पुराण क्या होता है, रे?’ रमेश पांडे की पेशानी पर बल उभरे।

‘जैसे वेद-पुराण होता है, वैसे ही निंदा-पुराण होता है।’ पिन्टू ने चुहल की।

‘हम तो इस पुराण का नाम ना सुने हैं।’

‘आज सुन लिए न।’

‘स्साला, चार अच्छर पढ़ क्या लिया है, लगा हमी को पिंगल पढ़ाने।’ रमेश पांडे ने झिड़की दी।

पिन्टू मुस्कराया। हथेली में दबा सौ का नोट कसमसा रहा था और उसका मन कोहरा गांव की ओर बेलगाम भागा जा रहा था।

पिन्टू की मुस्कराहट को झटका देते रमेश पांडे बोले, ‘हम तो तुमको बताना भूल ही गये थे कि दिगंबर मिश्रा किराया का सौ रुपया पहुंचा देने को बोले हैं।’

पिन्टू की हथेली में बंद सौ के नोट की सांस घुटती-सी जान पड़ी। उसका चेहरा पफक पड़ गयाा।

*****