चांद के पार एक कहानी
अवधेश प्रीत
8
मां अध्कच्ची नींद से अकबकाकर उठी। पिन्टू ने मां को देखा। मां की आंखों में दहशत थी। इस दहशत ने उसे भी गिरफ्रत में ले लिया। दरवाजे पर पिफर ध्म्म-ध्म्म हुई। वह उठा। लपककर दरवाजे तक आया। दूसरी ओर से कोई चीखा, ‘खोलता है दरवाजा कि तोड़ें!’
उसने झट से दरवाजा खोल दिया। सामने दो सिपाही थे। उनके पीछे मुशहर टोल के मर्द-औरत। सबके चेहरों पर अव्यक्त भय। वह समझ नहीं पाया, आखिर माजरा क्या है?
‘चल। तोरा थाना पर बुलावा है।’ थुलथुल जिस्म वाले बुजुर्ग सिपाही ने घुड़की के साथ आदेश सुनाया ।
भीतर जकड़े भय के बावजूद, पिन्टू ने खुद को संभालकर साहस जुटाया,‘काहे सर? इतनी रात को? क्या बात है?’
‘चल, थाना। वहीं सब पता चल जायेगा।’ यह दूसरा सिपाही था, अपेक्षाकृत ज्यादा जवान और कम चर्बी वाला।
बेचारगी ऐसी कि कोई जिरह मुमकिन नहीं थी। बगैर हुज्जत पिन्टू सिपाहियों के साथ हो लिया। मां, जो डर के मारे थर-थर कांप रही थी, सिसकते हुए पिन्टू के पीछे लग ली। टोल के मर्द-औरत भी मां के साथ हो लिए थे।
कुचकुच अंध्ेरे के बीच ढिबरी बाजार थाने में टिमटिमाते बल्ब की रोशनी कहीं ज्यादा दहशतनाक लग रही थी। मां, टोल के मर्द-औरत सभी को जवान सिपाही ने गेट के बाहर ही रोक दिया था। थुलथुल सिपाही पिन्टू को लेकर आगे बढ़ा। थाने में मौजूद साये दूर से प्रेत की मानिंद नजर आ रहे थे। नजदीक पहुंचते ही पिन्टू की आंखें पफटी रह गईं । थानेदार बनवारी सिंह के टेबुल के ठीक सामने मुखिया दिगंबर मिश्रा, उनके गोतिया विशंभर मिश्रा अगल-बगल बैठे बतिया रहे थे। उनके पीछे दीवार से सटी बेंच पर कम रोशनी के बावजूद चांदनी की-सी चमक थी। इस चमक में एक बुजुर्ग के साथ सिर झुकाये बैठी थी तारा कुमारी। पिन्टू की आंखों में अंध्ेरा कहीं ज्यादा गाढ़ा और खौपफनाक हो आया। जिस्म में एक गहरी चिलक-सी उठी। चेतना के सारे तार जैसे सुन्न पड़ गये थे।
‘का रे, पिन्टुआ, सुना कि तोरा मोबाइल की दुकान पर मोहब्बत का कनेक्शन बड़ी तेजी से लगता है।’ ठंडे सन्नाटे में थानेदार बनवारी सिंह की निहायत ठंडी आवाज सनसनी पैदा कर गई । बेजान जिस्म से आवाज क्या निकलती? पिन्टू थर-थर कांपने लगा था।
‘चुप रहे से जान ना बचे वाली है।’ थानेदार बनवारी सिंह की भाषा शालीन थी, अर्थ गंभीर, ‘जो पूछते हैं, पफट से बक दे, ना तो बूझ लिहो!’
पिन्टू की समझ में कुछ नहीं आ रहा था । दिमाग सुन्न पड़ गया था ।
उसे चुप देख, साथ आये थुलथुल सिपाही ने कसकर घुड़की दी, ‘बोलता काहे ना है, रे, मुंह में जाब लगा है क्या?’
‘ये किताब तुम्हारी है?’ थानेदार बनवारी सिंह ने सामने टेबुल पर रखे एक कागज के नीचे से किताब उठाते हुए सवाल दागा।
हवा में टंगी यह किताब नीरज का कविता संग्रह ‘तुम्हारे लिए’ थी। पिन्टू की घिग्घी बंध् गई। मुखिया दिगंबर मिश्रा, उनके गोतिया विशंभर मिश्रा और तारा कुमारी के पिता, उसकी ओर एकटक देख रहे थे। तारा कुमारी का सिर झुका था। चेहरा बुझा हुआ था। आंखें पफर्श में ध्ंसी जा रही थीं।
‘जी!’ थूक निगलते पिन्टू की आवाज गले में ही पफंस कर रह गई।
‘यह किताब तुम तारा कुमारी को काहे दिया?’ कहर बरपाती थानेदार बनवारी सिंह की आवाज मनहूस सन्नाटे में चाबुक-सी गंूजी।
‘जी! वही मांगी थी।’ पिन्टू के कंठ में कांटे उग आये थे।
‘झूठ बोलता है, बनवारी बाबू।’ तमतमाये-सेे तारा कुमारी के पिता बेंच से उठ खडे़ हुए । उनकी आवाज क्रोध् के मारे कांप रही थी, ‘हमरी बेटी का संस्कार ऐसी गंदी किताब पढ़े का ना है। स्साला मुशहर, सबका ध्रम नासे पर लगा है।’
बेबस पिन्टू ने किसी उम्मीद में तारा कुमारी की ओर देखा। तारा कुमारी तो अपने-आप में ध्ंसी जा रही थी।
‘देख, यह देख।’ टेबुल पर रखे कागज को उठाकर हवा में लहराते थानेदार बनवारी सिंह हकड़े, ‘तारा कुमारी तोरा खिलापफ कंपलेन की है। सापफ-सापफ लिखी है कि प्रेम-मुहब्बत वाली यह किताब तुम उसको दिये थे । तुम उससे मोबाइल पर भी बात करते हो। बोल है कि ना?’
‘बनवारी बाबू, स्साला यह क्या बतायेगा। उसको बोले का मुंह है?’ तारा कुमारी के पिता के भीतर जहर खदबदा रहा था। उनके होंठों के किनारे झाग से भरे थे, ‘आज हम अपना कान से सुने कि यह हमरी बेटी से मोबाइल पर बतिया रहा था। बस, उसी घड़ी तरवा के हाथ से मोबाइल छीने और लोढ़ा से कूचकाच के बराबर कर दिये।’
तारा कुमारी के पिता के नथुने पफूलने-पिचकने लगे थे।
‘बोल! अभी भी कुछ कहने को बाकी है?’ थानेदार की सुर्ख आंखें पिन्टू के चेहरे पर गड़ गईं
अबतक, अप्रत्याशित रूप से चुप बैठे मुखिया दिगंबर मिश्रा पफुंपफकार उठे, ‘ए बनवारी बाबू, यह स्साला मुशहर क्या बोलेगा? उलटा टांगकर मारिए, सब पक्क से उगल देगा।’
थानेदार बनवारी सिंह नाटकीय अंदाज में मुस्काराये और रहस्यमय अंदाज में बोले,‘ए मुखिया जी, सब काम कानून के हिसाब से करना पड़ता है। पता है कि ना एससी-एसटी कानून बड़ा सख्त है?’
मुखिया दिगंबर मिश्रा सकपकाये। तनिक संभले, पिफर तनिक संयत हो बोले, ‘यही सोचकर तो हम इसको ढिबरी बाजार में बसाये थे, कि जनमजात के कलंक से निकलकर कमाये खायेगा। लेकिन यह तो बाभने सबको नासे लगा।’
‘हम तो शूद्दर सबका लच्छन चीन्हते हैं। इसीसे इसको दुकान ना दिये थे।’ मौका देखकर विशंभर मिश्रा मुखिया दिगंबर मिश्रा पर ताना मारने से नहीं चूके।
मुखिया दिगंबर मिश्रा कसमसाकर रह गये।
थानेदार बनवारी सिंह ने देह तानी। कुर्सी पीछे खिसकाते हुए उठकर खड़े हुए। पफर्श पर उभरी खर्र-खर्र, पिन्टू के जिस्म पर खरोंचे भर गयी।
‘बनवारी बाबू, रमेश पांडे और रजकुमरिया पासिन कहां लुकाया है, सब पिन्टुआ को पता है।’ विशंभर मिश्रा ने थानेदार को उकसाने के लहजे में टोका, ‘पूछिए, इससे, पता है कि ना?’
थानेदार बनवारी सिंह के बूट चरमराये। पफर्श, सन्नाटा, पिन्टू दहल गये। पिन्टू तो जैसे पीला ही पड़ गया था।
थानेदार बनवारी सिंह किसी दैत्य-सा पिन्टू के सामने आ खड़ा हुआ। उसकी बेंत की छड़ी पिन्टू की ठुढ्डी से टकराई, ‘अपनी जान की खैर चाहता है, तो सीध्े-सीध्े बता दे। कहां लुकाया है दोनों ?’
थुलथुल सिपाही जगह बनाने की गरज से थोड़ा पीछे खिसका। तारा कुमारी थुलथुल सिपाही के पीछे छिप गई थी।
‘सर, दोनों पटना में है।’ दहशत के सामने तारा कुमारी की दी गई नसीहत पफुस्स हो गई। पिन्टू की आंखों से आंसू टपक पड़े।
थानेदारी बनवारी सिंह अपनी कामयाबी पर मुस्कराया। इस मुस्कराहट में क्रूरता अठखेलियां कर रही थी, ‘पटना में कहां? कौन जगह पटना में?’
‘सर, और कुछ ना पता है। रमेश बाबा बस इतने बताये थे कि पफोन कट गया।’ पिन्टू के गीले शब्द थानेदार की बूटों से जा लिपटे।
‘ठीक है। जो तुमको ना पता है, वह हम पता कर लेंगे।’ थानेदार बनवारी सिंह पलटे और थुलथुल सिपाही को पफरमान जारी किया, ‘पासवान जी, बंद करिए स्साले को हजात में। रात भर में होश ठिकाने आ जायेगा।’
ध्रती डोली, कि दिशाएं घूमीं, कि आसमान हिला, पिन्टू का समूचा वजूद उड़ियाता हुआ थुलथुल सिपाही की गिरफ्रत में जा कसा। किसी मेमने-सा वह अंध्ेरे में गर्क हाजत की ओर घसीटा जा रहा था।
‘जाइए, मुखिया जी। आप सब लोग अब जाइए!’ थानेदार बनवारी सिंह की आवाज पिन्टू के कानों से उसके भविष्य का पता बनकर टकरायी, ‘कल भोरे-भोर इसका चालान कर देंगे।’
हवा में घुलती आवाज
पिन्टू ने गहरी, ठंडी सांस छोड़ी। उसकी आंखें झपक रही थीं मानो पिछले दृश्यों से सायास बाहर निकलने की कोशिश कर रहा हो । मेरी उत्सुकता उसकी चुप्पी में अंटकी हुई थी। वह जैसे सुस्ताने की मुद्रा में था।
‘जानते हैं, सर! तीन महीना बाद हमको जमानत मिली।’ पिन्टू के थकेे स्वर में गहरी पीड़ा पैबस्त थी।
मैंने उसे टोकना उचित नहीं समझा। उसका भरा मन स्वतः खुले, इस प्रतीक्षा में उसकी ओर देखता रहा।
‘सर, आप सोच भी नहीं सकते कि इस बीच क्या हुआ?’ पिन्टू मुझसे मुखातिब था। लेकिन उसकी आवाज कहीं और पछाड़ खा रही थी ।
पिन्टू खुद से जूझ रहा था या जो बोलना चाह रहा था, उसकी तैयारी कर रहा था, यह समझ पाना मेरे लिए अब आसान नहीं रह गया था। मैं सांसें रोके उसके बोलने की प्रतीक्षा करता रहा।
अपने जजबात को थामने की कोशिश करता पिन्टू एक झटके से बोल पड़ा, ‘रमेश पांडे और रजकुमरिया पकड़े गये, सर। थानेदार बनवारी सिंह ने दोनों को मुखिया दिगंबर मिश्रा के हवाले कर दिया। पिफर पंचायत बैठी। पंचायत में रमेश पांडे और रजकुमरिया को खड़ा किया गया। दोनों एक-दूसरे के साथ जिये-मरे की गुहार लगा रहा था।’
मेरी सांस टंग गई थी। पिन्टू मेरी तरपफ देखा जरूर रहा था, लेकिन संबोध्ति जैसे स्वयं से ही था, ‘रजकुमरिया का माथा मुंड़ाकर सारे गांव में घुमाया गया। बेचारी कलप-कलप कर रोती रही । लेकिन कोई उसकी मदद को आगे नहीं आया। अगली सुबह उसकी लाश भुतहा बगइचा में बरगद पेड़ पर लटकती मिली।’
पिन्टू की आंखों की कोरें भीग गई थीं। उसके चेहरे पर घनीभूत हो आई पीड़ा से घबराकर मैंने उसे टोका,‘और रमेश पांडे? रमेश पांडे का क्या हुआ?’
पिन्टू की शून्य में खोई आंखों के अन्दर कोई गहरी उथल-पुथल जारी थी। या तो कोई सिरा नहीं मिल रहा था, या कोई शब्द । वह चुप था। उसकी चुप्पी से मुझे डर लगने लगा । उसकी मनःस्थ्तिि से बचने के लिए मैं इध्र-उध्र देखने लगा। पता नहीं पत्नी कब से दायें दरवाजे के बीच आकर निःशब्द खड़ी थीं।
‘रमेश पांडे।’ पिन्टू बुदबुदाया। उसकी आंखें मुंद गई थीं। मैंने गौर किया कोरों पर पानी रिस आया था। उसकी आवाज किसी बियाबान में भटक रही थी, ‘रमेश पांडे की तारा कुमारी से शादी हो गई,सर।’
बियाबान से आई वह आवाज अचानक मेरे ड्राइंगरूम में हहराते बवंडर-सी चक्कर काटने लगी। आलमारी, टेबुल, सोपफा, खिड़की, दरवाजे, छत सबके सब अपनी जगह से हिलते नजर आये। करीने से रखी हर चीज एक-दूसरे से टकराती हुई, बेतरतीब होती जान पड़ रही थीं। सौंदर्यबोध् के सारे प्रतिमान तार-तार हो, निहायत विरूप दिख रहे थे। मैंने घबराहट में पिन्टू को झकझोरा, ‘ पिन्टू...!’
‘सर!’ पिन्टू ने आंखें खोलीं।
‘अब? अब क्या सोचा है तुमने?’ मैंने बदहवास-सवाल किया।
‘सर, केस करना है। तीन-तीन हत्याओं का केस!’ पिन्टू का चेहरा तन गया था। स्वर कहीं ज्यादा सख्त था।
‘लेकिन किसके खिलापफ? किसके खिलापफ केस करोगे ,पिन्टू?’ मेरे सवाल में उलझन थी। मन में उद्विग्नता।
पिन्टू के मन में कोई उलझन नहीं थी। हर सवाल से आगे थी, उसकी सोच और इस सोच में थी निर्णायक दृढ़ता। उसने मेरे चेहरे पर अपनी आंखें गड़ाते हुए जवाब दिया, ‘प्रेम करने के अध्किार की हत्या करने वालों के खिलापफ।’
पिन्टू...मेरे सामने बैठा पिन्टू, महज एक जवाब नहीं था, चुनौती देता एक ऐसी ललकार था, जिससे आंखें मिला पाना मुश्किल हुआ जा रहा था। मैंने बड़े कठिन स्वर में पिन्टू से जानने की कोशिश की, ‘ले...ले...लेकिन यह साबित कैसे होगा, पिन्टू ?’
‘साबित तो आप करेंगे, सर! आप जैसे लोग, जो एक बेहतर दुनिया की कामना में इतना कुछ रच रहे हैं।’ पिन्टू झटके से उठा और एक आदमकद सवाल-सा तनकर खड़ा हो गया था, ‘आखिर आपका लिखा, सच को साबित न कर पाये, तो पिफर किस काम का लिखना?’
मेरे पास उसके सवाल का कोई जवाब नहीं था। असहाय, अनुत्तरित मैं उठा और सहानुभूति भरा हाथ उसके कंध्े पर रखना चाहा कि उसने मेरे हाथ को झटक दिया। जब तक मैं इस झटके से उबरता, वह ड्राइंगरूम का दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया। मैंने उसे पुकारना चाहा । लेकिन मेरी पुकार से पहले ही वह पलटा और मेरी ओर मुखातिब होकर बोल पड़ा, ‘सर, मैं पिफर आउफंगा। बार-बार आउफंगा!’
मैं कुछ कह पाता, इससे पहले ही वह हवा में घुलती आवाज की तरह गुम हो गया। उसके पीछे रह गई थी, बस उसकी अनुगूंज।
-अवध्ेश प्रीत