Kesaria Balam - 20 books and stories free download online pdf in Hindi

केसरिया बालम - 20

केसरिया बालम

डॉ. हंसा दीप

20

और दौड़ती दुनिया थम गयी

समूचा विश्व तेज गति दौड़ रहा था, बेतहाशा। इंसान आज यहाँ तो कल वहाँ। हज़ारों मीलों की यात्रा करते उसके पैर जमीन पर टिक नहीं रहे थे। एक पैर अमेरिका में तो दूसरा इटली में, एक स्पेन में तो दूसरा कैनेडा में। इस बात से सब अनजान कि वर्षों से चल रही इस दौड़ को रोकने की योजना नियति ने बना ली थी। महीनों तक घरों में बंद करने की योजना, इंसानों के उड़ते परों को काट देने की योजना। महामारी कोरोना बनाम कोविड19 ने ऐसा जाल बिछाया कि स्वयं को धरती का सबसे ताकतवर प्राणी मानने वाला इंसान खामोशी से घर के पिंजरे में कैद होकर रह गया।

यह एक ऐसा समय था जब उन्नत देश हो या गरीब सब समान रूप से इसके शिकार बन रहे थे। मौत का खौफ़ ऐसा था कि विश्व भर की सरकारों ने आपातकाल घोषित कर दिया। घरों से बाहर निकलने पर पाबंदी, लोगों से मिलने पर पाबंदी, सामाजिक दूरी बनाए रखने का सख्त निर्देश दिया गया। लेकिन फिर भी वायरस तेजी से फैलता रहा, मौन हमले करता रहा, गुणित होता रहा। चीन से चलकर आया यह वायरस तमाम देशों में फैला, एक से दूसरे तक, दूसरे से तीसरे तक और लाखों लोगों की जान ले बैठा। लाखों लोग बीमार हुए।

अपने घरों से दूर पढ़ाई या काम के लिये निकले लोग अपने-अपने घर वापस आ रहे थे। आर्या भी घर पहुँच गयी थी। उसके सकुशल घर पहुँचने पर धानी ने राहत की साँस ली। हर कोई समाचारों पर नज़रें गढ़ाए था कि कहीं से कोई अच्छी खबर मिले। लेकिन एक ही खबर मिलती रही “वायरस तेजी से फैल रहा है।” स्वास्थ्य कर्मियों से लेकर पुलिस तक, अपना काम कर रहे मुख्यधारा के लोगों से घरों के अंदर तक, कोरोना वायरस ढिठाई से प्रवेश करता रहा। कहा जा रहा था कि दस से लेकर साठ वर्ष की उम्र तक के लोगों के लिये यह अधिक घातक नहीं है, बावजूद इसके, वायरस की चपेट में हर उम्र का व्यक्ति आ रहा था। सबसे बड़ा खतरा इस बात का था कि इस वायरस की अभी तक कोई दवाई नहीं थी, न ही कोई टीका बन सका था जो इसके दुष्प्रभावों से लोगों को बचा सकता।

हर देश अपने तई लड़ रहा था। विकसित, विकासशील और अविकसित सब इसके शिकंजे में थे। आश्चर्य की बात तो यह थी कि इसका सर्वाधिक प्रकोप सबसे उन्नत देश अमेरिका में था। विश्व के सबसे व्यस्त शहर न्यूयॉर्क की वादियों में मौत का कारवाँ तेजी से बढ़ रहा था। मृत शरीरों की बढ़ती संख्या ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि ट्रकों में भर-भर कर शव ले जाए जाने लगे। हर देश, हर राज्य, हर शहर को सील करने के बावजूद किसी न किसी के साथ यात्रा करता कोरोना वायरस एक से दूसरी जगह अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा था।

कई देशों में लोगों ने बगावत कर दी – “मैं बीमार हूँ तो तुम कैसे बच सकते हो”, मानवता का ऐसा घिनौना रूप भी सामने आया। कुत्सित मानसिकता और आतंकवाद से लड़ती दुनिया, इस वायरस के भयावह आतंक से संघर्ष कर रही थी। देश-देश से, शहर-शहर से हज़ारों लोगों के पीड़ित होने, मरने की खबरें दिल दहला देतीं। लोग अपने घरों में दुबके रहे। कई लोगों की नौकरियाँ चली गयीं, गरीबों को खाने के लाले पड़ने लगे। सेवाभावी लोगों की सेवा के बावजूद मौत का मंजर भयानक होता गया। धीरे-धीरे उन नर्सिंग होम्स में जहाँ साठ-पैंसठ के ऊपर के सीनियर सिटीज़न्स थे, एक के बाद एक मौतों ने, सरकारी खेमों में हड़कंप मचा दिया।

समूचे विश्व में स्कूल-कॉलेज-यूनिवर्सिटी सब अनिश्चित काल के लिये बंद कर दिए गए थे। इससे लड़ने के लिये आवश्यक सामग्री का अभाव हर देश में था। न मास्क मिल रहे थे, न सेनेटाइजर्स, न ही तत्काल राहत के लिये कोई दवाई। अस्पतालों में बिस्तर और वेंटिलेटर्स कम पड़ने लगे। डॉक्टर्स भी कम पड़ने लगे। तमाम सावधानियों के बावजूद इलाज करने वाले भी इस बीमारी की चपेट में आ रहे थे।

पूरी दुनिया में फैले इस खतरनाक वायरस ने सामाजिकता को बेहद प्रभावित किया। सामाजिक दूरियों और एकांतवास के नियमों के बावजूद धानी का एलेक्स सेंटर में प्रवेश वर्जित नहीं किया गया बल्कि उसे और अधिक जिम्मेदारियाँ सौंप दी गयीं। वालिंटियर्स कम पड़ रहे थे।

और तभी, एक और धमाका हुआ। एलेक्स सेंटर के एक मरीज को कोरोना से संक्रमित पाया गया। एक के बाद एक, सारे मरीजों में अस्सी प्रतिशत कोरोना पोज़िटिव थे। चार लोगों की मौत हो चुकी थी। जो अब तक कोरोना से बचे हुए थे, उनकी चिंता थी कि वे भी कहीं संक्रमित न हो जाएँ।

बाली के लिये बेहद चिंतित हो गयी धानी। अभी तक तो वह स्वस्थ था लेकिन इस स्थिति में तो उसे बीमार होते देर न लगेगी। ताबड़तोड़ यह विचार आया कि वह इतनी सक्षम है, क्यों न बाली को अपने घर ही ले आए। धानी ने पहला कदम यही उठाया और बाली को अपने साथ ले जाने की अनुमति माँगी। वायरस का आतंक इतना था कि अधिकारियों के पास मरीजों को एक दूसरे से दूर रखने का कोई और रास्ता था ही नहीं। शीघ्र ही धानी को अनुमति मिल गयी। दो दिन के अंदर बाली को घर ले जाना था। इस सुधारगृह के इतिहास में सिर्फ एक बार ऐसा हुआ था जब किसी मरीज को वहाँ से बाहर भेजने की अनुमति मिली हो, वह भी पच्चीस साल पहले।

हालाँकि यह बिल्कुल अलग हालात में लिया गया फैसला था। ये परिस्थतियाँ सामान्य नहीं थीं। ज़िदगियों को बचाने के लिये सरकारें कानूनी प्रक्रिया शिथिल कर रही थीं। धानी ने घर पर फोन करके जब आर्या को बताया तो वह खुश तो नहीं हुई पर दु:खी भी नहीं हुई – “ममा आप भी न!”

“बेटे, बाली को मेरी जरूरत है।”

“लेकिन मुझे आपकी चिंता है।”

“मेरी चिंता मत करो, मैं तो एक बीमार इंसान की मदद करना चाहती हूँ। उसकी देखभाल करना चाहती हूँ जिसे इस समय मेरी जरूरत है।”

“आपको भी कभी उनकी जरूरत थी ममा, भूल गयीं क्या!”

“याद है बेटा, सब याद है। लेकिन ये भी सोचो न कि कभी इस देह में तुम्हारे पापा थे।”

“वे खुद जिम्मेदार हैं अपनी इस हालत के लिये।”

“हाँ, लेकिन आज वे सिर्फ एक मरीज हैं। उन्हें कुछ भी याद नहीं है।”

“ठीक है ममा, जैसा आप ठीक समझें।”

आर्या अंतत: धानी की ही बेटी थी। उसे भी आज अपने उन कंधों पर पापा की जिम्मेदारी लेने का मन हुआ, जिन पर बैठकर वह बड़ी हुई थी। कोविड19 के इस हमले पर काफी कुछ पढ़ती रही थी। ऐसे में पापा को घर लाना ममा का काबिले तारीफ फैसला था।

यूँ तो जितनी तेज गति से समय चलता है उतनी ही धीमी गति से कागज चलते हैं। पर इन दिनों कागज अपेक्षाकृत तेज गति से दौड़ रहे थे।

रातों रात बाली के अपने घर आने के इंतजाम हो गए थे। पति-पत्नी का बेडरूम तो आज भी बंद ही रखा धानी ने। उसके लिये गेस्ट बेडरूम तैयार कर रही थी जहाँ जीवन के किसी खुशनुमा या बदनुमा समय के कोई निशान नहीं थे। वह अब भी बैठक को ही अपना बेडरूम बनाए हुए थी। आर्या भी घर पर सभी के स्वस्थ रहने के लिये पूरा इंतजाम करते हुए पापा के आने की तैयारियों में हाथ बँटा रही थी। ममा की खुशी देखकर संतोष हुआ आर्या को कि अब ममा कम से कम अकेली तो न रहेंगी, न ही दौड़-दौड़ कर एलेक्स सेंटर जाएँगी।

बचपन से आज तक अपनी ममा में उसने एक नदी की चंचलता देखी तो सागर का गांभीर्य भी देखा। ममा के इस विशाल ममत्व के सागर में वह स्वयं को एक छोटे कंकड़ पत्थर-सा ही पाती। अब उस जल की गहराई को समझती तो उससे जन्मे अपने अस्तित्व पर नाज़ होता। ममा की उन पहाड़-सी ऊँचाइयों को छूने की ललक होती। वह खुश थी कि उसे ऐसी माँ ने जन्म दिया जो जीवन के हर क्षण को स्वीकार करती है। चाहे वह खुशी का हो, दु:ख का हो या फिर क्षोभ और तिरस्कार का ही क्यों न हो।

धानी में उसने माँ के साथ ही कई और रूप भी देखे। प्यार का ऐसा प्रवाह जिसकी कुछ बूंदें उसे भी मिली थीं। वह खुश थी अपने पापा के लिये, अपनी ममा के लिये और खास तौर से उस घर के लिये जिसे उन दोनों ने साथ-साथ रचा था। इस रूप में ही सही पर उसके अपने जीवन के रचयिता दोनों लोग फिर एक साथ हैं।

समय का चक्र एक और कहानी शुरू कर रहा है और वह भी उस कहानी की एक पात्र है।

क्रमश...

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