ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 9 Harish Kumar Amit द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 9

ज़िन्दगी की धूप-छाँव

हरीशं कुमार ’अमित'

लालच

लोकल बस से उतरकर मैं तेज़-तेज़ कदम बढ़ाते हुए अपने दफ़्तर की तरफ़ बढ़ रहा था. आज तो दफ़्तर पहुँचने में कुछ ज़्यादा ही देर हो गई थी.

तभी सामने से आ रहे एक नवयुवक ने मुझसे कोई पता पूछा. उसके पूछने के तरीक़े से लग रहा था जैसे वह पहली बार दिल्ली में आया हो. मैं झुँझला-सा उठा. ‘इसे पता बताने लगा तो और देरी से पहुँचूँगा दफ़्तर’ एकाएक यही बात मेरे दिमाग़ में आई, लेकिन तभी मेरी नज़र उस नवयुवक के साथ खड़ी नवयुवती पर पड़ी. नवयुवती वाकई बहुत ही सुन्दर थी.

‘‘यह जगह पास ही है. चलिए, मैं आपके साथ चलकर इस पते पर आपको पहुँचा देता हूँ.’’ कहते हुए मैं वापिस चल पड़ा. उस नवयुवक से तो मुझे क्या लेना-देना था, मगर इसी बहाने उस सुन्दर-सी नवयौवना का साथ कुछ देर को मुझे नसीब हो जाएगा - इसी लालच ने दफ़्तर में देर से पहुँचने के मेरे डर को तिनके की तरह हवा में उड़ा दिया था.

-०-०-०-०-०-

इज़्ज़त

‘‘यार दूलीचन्द, तू अपने पहले वाले साहब की तो खूब सेवा किया करता था, पर इस नए साहब को तो नमस्ते भी मरे मन से करता है. क्या बात है?’’ दूलीचन्द चपरासी का दोस्त सोहन लाल पूछ रहा था.

‘‘अब तेरे से क्या छुपाना सोहना. पहले वाला साहब खूब कमाई करता था और हमें भी खुश रखता था. यह जो नया आया है, यह तो साला जैसे हरिश्चन्द की औलाद है. ओवरटाइम तक देने में इसकी जान निकलती है. इस घटिया आदमी की क्या सेवा करना!’’ मुँह बिचकाते हुए दूलीचन्द ने जवाब दिया.

-०-०-०-०-०-

रक्षक

दफ़्तर में आज उसे काफी देर हो गई थी. प्राइवेट दफ़्तर में देर तक रूकने से मना करने का मतलब उसे अच्छी तरह पता था. घनघोर सर्दियों के मौसम में शाम को साढ़े आठ बजे ही ऐसा लग रहा था, मानो गहरी रात हो चुकी हो. अचानक एक सुनसान-सी जगह पर उसकी बस ख़राब हो गई. एक-एक करके सब सवारियाँ तितर-बितर हो गईं. बस के ड्राइवर-कंडक्टर भी किसी मैकेनिक की खोज में कहीं चले गए. जाने से पहले वे उसे कहकर गए थे, ‘‘मैडम, आप चिन्ता न करें, हम बस को ठीक करवाके आपको घर तक ज़रूर पहुँचाएँगे.’’ तभी उसे पुलिस की जीप का सायरन सुनाई देने लगा. जीप उसी तरफ आ रही थी. वह जल्दी से बस की आड़ में छुप गई. उस सुनसान में उसकी रक्षा करनेवाला कौन था.

-०-०-०-०-०-

जवाब

लोकल बस में मेरी पिछली सीट पर बैठा यात्री बार-बार खाँस रहा था. मुझे तकलीफ़ इस वजह से हो रही थी कि उस यात्री के खाँसते वक़्त अपने मुँह पर हाथ न रखने के कारण खाँसी का फव्वारा मेरे सिर पर आन पड़ता महसूस होता था. ऐसा जब कई बार हुआ तो मैंने पीछे मुड़कर उस यात्री को टोक ही दिया, ‘‘भाई साहब, खाँसते वक़्त मुँह पर हाथ रख लें तो अच्छा रहेगा, नहीं तो खाँसी के कीटाणु कई मीटर तक जा पहुँचते हैं.’’

जवाब में उस यात्री ने कुछ कहा नहीं, बस सिर हिला-भर दिया.

मैंने वातावरण को थोड़ा हल्का करने की कोशिश में कह दिया, ‘‘भाई साहब, बुरा मानने की बात नहीं है.’’

अब भी उस यात्री ने कोई जवाब नहीं दिया, बस फिर से अपना सिर हल्का-सा हिला-भर दिया.

उसके बाद की यात्रा में मुझे लगता रहा कि उस यात्री पर मेरी बात का असर हुआ है और वह खाँसते वक़्त अपने मुँह पर हाथ रख रहा है.

जब मेरा स्टॉप आने वाला हुआ, तो मैं सीट से उठने का उपक्रम करने लगा. चूँकि उस स्टॉप पर दो-तीन से ज़्यादा यात्री उतरते नहीं थे, इसलिए मैं जल्दी-जल्दी सीट से उठने लगा. तभी पीछे वाला यात्री बग़ैर मुँह पर हाथ रखे ज़ोर से खाँसा. खाँसी का फव्वारा मेरे सिर और गरदन पर पड़ता साफ महसूस हुआ, मगर बस से उतरने की जल्दी में मैं पीछे मुड़कर देखने की भी हालत में नहीं था. मेरी बात का जवाब उस यात्री ने शायद अब दिया था.

-०-०-०-०-०-


साथ वाली सीट

‘‘यार, बस में तुम्हें कभी-कभी तो रश्मि के साथ वाली सीट मिलती है, पर तुम अक्सर अपनी सीट खड़े होकर सफ़र कर रहे किसी यात्री को दे देते हो. क्यों भई?’’

‘‘वो इसलिए मेरे दोस्त ताकि रश्मि के साथ मुझे कभी-कभी नहीं, बल्कि हमेशा सीट मिला करे.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब साफ है मेरे दोस्त. इसी तरह सीट छोड़ता रहूँगा तो रश्मि के दिल में सीट पा लूँगा. फिर जब उससे शादी हो जाएगी, तो हमेशा उसके साथ वाली सीट ही मिला करेगी या नहीं?’’

-०-०-०-०-०-

मौसेरे भाई

साहब की खुशी के रंग में भंग पड़ गई थी. किसी निजी कम्पनी का काम करने के एवज़ में कम्पनी का प्रतिनिधि बढ़िया उपहार देने उनके दफ़्तर में आया था. ऐसे मौकों पर हालाँकि साहब ख़ूब सावधानी बरता करते थे, मगर उस प्रतिनिधि द्वारा दिए गए सोने के हार को साहब जब अपने ब्रीफकेस में रख रहे थे, तो हुए रामदीन ने देख लिया था. कमरे का दरवाज़ा खोलकर वह अचानक अन्दर जो आ गया था.

कुछ देर बाद कम्पनी का प्रतिनिधि तो कमरे से बाहर चला गया, पर साहब का मन बिल्कुल उखड़ चुका था. रह-रहकर उन्हें लगने लगता कि रामदीन को यह बात पता चलना ठीक नहीं है.

साहब कुछ देर तक सोचते रहे. फिर फोन पर बजर मारकर उन्होंने रामदीन को अपने कमरे में बुलाया. रामदीन आया तो उससे कहने लगे, ‘‘रामदीन, तुम कह रहे थे न कि तुम्हारे बेटे को कम्प्यूटर के काम के सिलसिले में पैन ड्राइव चाहिए. ऐसा करो, यह पैन ड्राइव जो सरकारी काम के लिए पिछले दिनों मॅगवाया था, तुम घर ले जाओ. मैं प्रशासन वालों को लिख दूँगा कि पैन ड्राइव किसी हवाई यात्रा में छूट गया है और एक नया पैन ड्राइव दे दिया जाए.’’

रामदीन मन-ही-मन मुस्कुराया और फिर बोला, ‘‘सर, बेटे को एक केल्कुलेटर भी चाहिए था. यह दफ़्तर वाला ले जाऊँ. आप कुछ लिखकर नया मँगवा लीजिएगा.’’

जवाब में ‘हाँ’ की मुद्रा में सिर हिलाने के अलावा साहब के पास और कोई चारा था ही नहीं.

-०-०-०-०-०-

यथार्थ

अपनी महिला अधिकारी के कमरे की तरफ़ तेज़ी से कदम बढ़ाते हुए मेरा मन बल्लियों उछल रहा था. आज सुबह दफ़्तर पहुँचते ही खुद उस महिला अधिकारी ने फोन करके मुझे अपने कमरे में आने के लिए कहा था. नहीं तो पहले ऐसी सूचना उस अधिकारी के निजी सचिव से मिला करती थी. मुझे लग रहा था कि कल बीते रविवार को उस महिला अधिकारी को मैंने फोन पर जन्मदिन की बधाई जो दी थी, उसी से खुश होकर आज सुबह-सुबह मुझे बुलाया गया है. शायद मुझे कल के बचे केक या मिठाई का एकाध टुकड़ा भी खाने को मिल जाए.

करीब एक महीने पहले ही हमारे दफ़्तर में आई उस उच्च महिला अधिकारी का मोबाइल नम्बर किसी सरकारी काम के सिलसिले में मुझे पता चल गया था. फिर कुछ दिन पहले मुझे उस अधिकारी के जन्मदिन की तारीख़ भी संयोगवश मालूम पड़ गई थी. इस साल उसका जन्मदिन रविवार को पड़ रहा था.

वैसे तो वह अधिकारी काफ़ी सख़्त मिजाज वाली थी, मगर उसे जन्मदिन की बधाई देने से मैं अपने आप को रोक नहीं पाया था. हालाँकि मैंने बहुत डरते-डरते उसका फोन मिलाया था, पर उधर से मुझे काफी अच्छा उत्तर मिला था. इसी कारण मैं उस महिला अधिकारी से तीन-चार मिनट तक बात कर पाया था.

मैं जैसे उड़ता हुआ-सा उस अधिकारी के कमरे में पहुँचा. चूँकि उस अधिकारी ने मुझे खुद फोन करके बुलाया था, इसलिए उसके कमरे में जाने से पहले मैंने उसके निजी सचिव से यह पूछने की ज़रूरत नहीं समझी कि मैडम, कमरे में हैं या नहीं.

जैसे ही मैं उस अधिकारी के कमरे में पहुँचा, मुझे उसका सख़्त चेहरा दिखाई दिया. मुझे देखते ही उसने एक काग़ज मेरी ओर फेंकते हुए गुर्राती आवाज़ में उस कागज़ पर आवश्यक कार्रवाई करने के लिए कहा.

मैंने महिला के चेहरे की तरफ़ देखने की कोशिश की. बीते कल के वार्तालाप का कोई हल्का-सा सुखद चिन्ह भी उस चेहरे पर नहीं था. वह चेहरा वैसा ही सख़्त, रौबीला और पत्थर-सा था, जैसा पहले हुआ करता था.

-०-०-०-०-०-

तीर

‘‘दीपू, अब से राखी-भैयादूज के रुपए कम करके देना.’’ अपने छोटे भाई दीपक के घर राखी बाँधने आई शकुंतला कह रही थी. दीपक साठ साल का हो गया था, मगर शकुंतला उसे हमेशा से दीपू ही बुलाया करती थी.

‘‘क्यों, क्या बात हो गई दीदी?’’ दीपू ने हैरानी से पूछा.

‘‘अब तू रिटायर हो गया है न! अब तो पेंशन से ही गुज़ारा चलाना है तुझे!’’ जवाब मिला.

‘‘अरे नहीं, ऐसा कुछ नहीं है.’’ दीपू ने प्रतिवाद किया.

‘‘नहीं दीपू, अपना घर भी तो देखना है न तुझे.’’ शकुंतला ने फिर से अपनी बात पर ज़ोर दिया.

उसके बाद राखी बाँधने का कार्यक्रम शुरू हो गया.

कुछ देर बाद दीपक अन्दर कमरे में गया और कुछ देर बाद बाहर आकर उसने शकुंतला को एक लिफाफा थमा दिया - राखी के शगुन के रुपयों का. शकुंतला ने दीपक को आर्शीवाद देते हुए लिफ़ाफ़ा अपने पर्स में रख लिया.

अपने घर पहुँचकर शकुंतला ने लिफ़ाफ़ा खोला. उसमें 2,100 रुपए थे, जबकि पहले दीपक 1,100 रुपए ही दिया करता था. शकुंतला मुस्कुराई. उसका तीर सही निषाने पर जो लगा था.

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अपनेपन का स्वाद

बड़ी भाभी की जन्मदिन की पार्टी में शामिल होने फाइव स्टार होटल में जाना पड़ा था. बड़े भैया बहुत बड़े व्यापारी और मैं एक अदना-सा क्लर्क. कार तो मेरे पास थी नहीं और टैक्सी लेकर होटल में जाना बड़ा मँहगा पड़ता, इसलिए एक ऑटोरिक्षा करके गया था. हालाँकि उस ऑटोरिक्षा को भी होटल के अन्दर नहीं जाने दिया गया था. पत्नी के पास उस मौके के लिए बढ़िया कपड़े और गहने नहीं थे, इसलिए उसकी बीमारी का झूठा बहाना बनाकर अकेले ही पार्टी में गया था.

पार्टी में वक़्त काटना मेरे लिए बड़ा मुश्किल था, क्योंकि भैया-भाभी ने मुझे कोई खास अहमियत नहीं दी थी और दूसरे मेहमानों में व्यस्त थे. वहाँ मौजूद धनाढ्य वर्ग के लोगों के साथ घुलमिल पाने की कोशिश करना भी मुझे गुनाह लग रहा था. केक कटने के बाद डिनर के लिए रूकना मुझे बड़ा मुश्किल लग रहा था इसलिए कोई बहाना बनाकर मैंने भैया-भाभी से विदा ली और पैदल चलता हुआ होटल से बाहर आ गया था.

तभी मुझे याद आया कि भाभी की जन्मदिन की पार्टी में शामिल होने के चक्कर में आज के अख़बार तो मैंने सतीश से लिए ही नहीं थे. वह मेरे दफ़्तर की बिल्डिंग के सामने अख़बार बेचा करता था और मेरे लिए वे सब अखबार रख लिया करता था जो मैं उससे खरीदा करता था. लिखने का शौक़ होने के कारण मैं किसी अख़बार को किसी दिन और किसी अखबार को किसी दिन ख़रीदा करता था. मुझे अक्सर हैरानी हुआ करतीं कि सतीश को यह सब कैसे याद रह पाता था कि फलाँ दिन मुझे अमुक अख़बार चाहिए और फलाँ दिन अमुक.

रात हो गई थी. सर्दी भी बढ़ गई थी. मैं पैदल चलता-चलता अपने दफ़्तर की बिल्डिंग के बाहर पहुँचा. मुझे डर था कि सतीश कहीं अब तक चला न गया हो, मगर वह अभी वहीं था. मैंने उससे उस दिन के अख़बार माँगे. उसने झट-से अपने पास ही अलग से रखे मेरे अख़बार निकालकर मुझे दे दिए. तभी सतीश ने पास बैठे चाय बेचनेवाले को चाय देने के लिए कहा. चाय आने पर उसने चाय का प्लास्टिक का एक कप जबरदस्ती मुझे भी पकड़ा दिया, पहले तो मैंने कुछ ना-नुकुर की, मगर फिर उस कप को थाम लिया.

चाय पीते हुए मैंने दूर से उस फाइव स्टार होटल को देखा. हाथ में पकड़े कप की चाय का स्वाद मुझे उस होटल के खाने से कई गुणा ज़्यादा बेहतर लगा.

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अपना-अपना शनि

आज शनिवार था - यानी कि दफ़्तर की छुट्टी थी. दफ़्तर वाले दिन मुझे सुबह पाँच बजे उठ जाता था. फिर भी बड़ी हड़बड़ी में तैयार होकर किसी तरह दफ़्तर पहुँचता था, मगर आज छुट्टी के दिन नींद खुलने पर पहले तो कुछ देर तक मैं अलसाया-सा बिस्तर में पड़ा रहा, फिर सोचा घर के पास वाले पार्क में जाकर कुछ देर चहलकदमी कर ली जाए. कुछ देर बाद घर से पार्क की ओर जा रहा था तो देखा भिखारी-सा दिखनेवाला एक आदमी अपने पीछे-पीछे आ रहे भिखारी-से बच्चे को डपटकर कह रहा था, ‘‘जल्दी-जल्दी चल! बस अड्डा अब पास ही है! आज शनिवार है, खूब दान मिलेगा.’’

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