ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 5 Harish Kumar Amit द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 5

ज़िन्दगी की धूप-छाँव

हरीशं कुमार ’अमित'

चोरी

इतवार की शाम को साहब ने अपने दोस्तों के साथ अगले दिन दोपहर को किसी रेस्टोरेंट में खाना खाकर फिल्म देखने का प्रोग्राम बना लिया था. हालाँकि अगले पूरे हफ़्ते हैड क्लर्क को छुटटी पर रहना था, पर साहब को विश्वास था कि खुद उनकी और हैड क्लर्क की ग़ैरमौजूदगी में दफ़्तर के दोनों क्लर्क किसी-न-किसी तरह सब संभाल ही लेंगे. फिर चपरासी भी तो था. तीन-चार घण्टे की ही तो बात थी. बस उन लोगों को शाम की छुटटी हो जाने के समय यानी पाँच बजे तक दफ़्तर में मौजूद-भर रहना था ताकि कोई फोन आ जाए या कोई मिलने आ जाए, तो कोई बहाना बना दिया जाए कि साहब सरकारी काम से ‘बस्स, अभी-अभी’ दफ़्तर से उठकर गए हैं.

पर अगले दिन साहब के दफ़्तर पहुँचते ही एक क्लर्क का फोन आ गया कि उसकी सास की मृत्यु हो गई है. तीन बजे अंतिम संस्कार है, इसलिए वह दफ़्तर नहीं आ पाएगा. कुछ देर बाद दूसरे क्लर्क का भी फोन आया कि उसे बुख़ार है, इसलिए उसका दफ़्तर आना मुश्किल है.

‘‘ऐसा है कि फतहचन्द की सास मर गई है. वह ऑफिस नहीं आएगा. हैड ऑफिस से फोन आया है. कुछ रिर्पोटें आज ही भेजनी है. तुम जैसे भी हो, तुरन्त दफ़्तर चले आओ. स्कूटर-टैक्सी पकड़ लेना. उसका किराया कोई सरकारी काम दिखाकर दफ़्तर से ले लेना.’’ साहब ने गंभीर आदेशात्मक स्वर में दूसरे क्लर्क को कहा.

दूसरा क्लर्क पौने घंटे में ही दफ़्तर में हाज़िर था. साहब ने उसे जल्दी से कुछ रिर्पोटें बनाने को कहा. उसके बाद साहब अपनी रिवाल्विंग चेयर पर बैठकर सोचने लगे कि अब ऐसा क्या ड्रामा किया जाए कि जिससे बन रही रिर्पोटों को हैड ऑफिस भेजने की ज़रूरत का ख़ात्मा हो जाने की बात कही जा सके और अपने दोस्तों का साथ देने के लिए वे डेढ़ बजे दफ़्तर से निकल सकें.

तभी फोन की घंटी बज उठी. उन्होंने झपटपट ख़ुद ही फोन उठाया. उन्हें पता था कि कल शाम से उनके फोन का बजर काम नहीं कर रहा था, इसलिए उनकी बातचीत को अपने कमरे में बैठे क्लर्क वगैरह भी फोन की दूसरी लाइन पर सुन सकते थे. फोन पर साहब का दोस्त, सुनील, था जो कह रहा था, ‘‘यार, थिएटर में फोन किया था. यह फिल्म लम्बी है, इसलिए पौने तीन बजे ही शुरू हो जाएगी. इसलिए डेढ़ के बदले एक बजे मिलेंगे कनॉट प्लेस में.’’

‘‘ओ.के., ठीक है.’’ कहकर साहब ने जैसे ही फोन रखना चाहा, उन्होंने स्पष्टतः दूसरे कमरे से रिसीवर रखने की आवाज़ सुनी. उन्हें लगा उनकी चोरी पकड़ी गई है और उन्हें सरेआम नंगा करके बाज़ार में घुमाया जा रहा है.

-०-०-०-०-०-

फ़ायदे

‘‘यार, पैसे निकलवाने के लिए तुम इस लम्बी लाइन में क्यों लग गए थे? साथ वाले काउंटर पर छोटी लाइन थी. मैं तुम्हारे बाद बैंक में आया और तुमसे पहले पैसे निकलवा लिए मैंने.’’ जैसे ही मैं बैंक से बाहर निकला, मेरे इन्तज़ार में खड़ा मेरा दोस्त मुझसे कहने लगा.

मैं एकाध पल के लिए हिचका, लेकिन फिर मैंने उसे कह ही दिया, ‘‘तुमने देखा नहीं कि उस लम्बी लाइन के काउंटर पर बहुत खूबसूरत औरत बैठती है. उस लाइन में लगने के दो फायदे होते हैं - एक तो अपनी बारी आने पर उससे कुछ बातचीत हो जाती है और दूसरे, जब तक बारी न आए, उसका रूप निहार-निहारकर आँखें सेकते रहो. तेरी लाइन वाले आउंटर पर तो कोई खूसट-सी औरत बैठी थी न!’’

-०-०-०-०-०-


मजबूरियों के समन्दर

शाम को घर पहुँचा तो यूँ लगा जैसे किसी मरघट में आ गया होऊँ. बला की खामोशी छाई थी घर में. पत्नी और बेटी के चेहरे भी बहुत गम्भीर-से थे.

‘‘क्या बात है भई, इतने चुप-चुप-से क्यों हो तुम लोग?’’ मैंने खामोशी के समुन्दर में अपनी आवाज़ का पत्थर फेंका.

‘‘होना क्या है, हिन्दी की किताब गुमा आई है स्कूल में. अगले हफ़्ते से पेपर शुरु हैं.’’ पत्नी की आवाज़ में छिपी वेदना को मैं अच्छी तरह महसूस कर पा रहा था.

मुझे दुनिया घूमती हुई-सी लगने लगी. महीने के आख़िरी दिनों में पैसों की कड़की इतनी ज़्यादा थी कि तीन रुपये का भाड़ा बचाने के लिए मैंने लोकल बस में दस के बदले सात रुपए का टिकट खरीदी थी और अढ़ाई कि.मी. पैदल चलकर घर पहुँचा था. और यहाँ यह नई किताब खरीदने का झंझट. फल तो इन दिनों खरीद ही नहीं पा रहे थे. दूध और सब्ज़ी में भी बहुत कटौती करनी पड़ रही थी.

एकदम से मन में उबाल आया. जी चाहा कि एक झन्नाटेदार थप्पड़ बेटी को जड़ दूँ, मगर उसका बुझा हुआ-सा चेहरा देखकर मेरी मनःस्थिति बदल गई. मैं धम्म-से कुर्सी पर बैठ गया और अपने सिर को हाथों से थामकर चिन्ता के सागर में डूब गया. सोचते-सोचते मेरी आँखें भर आईं.

तभी अपने कंधे पर मैंने बेटी का स्पर्श महसूस किया. सिर उठाकर देखा, मासूम और भोला चेहरा लिए वह कह रही थी, ‘‘पापा, आप चिन्ता ना करो. किताब नहीं है तो क्या, मैं कॉपी से ही सब याद करके पेपर दे दूँगी. किताब अगले महीने खरीद लेंगे.’’

बेटी की बात सुनते-न-सुनते मेरी आँखों का बाँध टूट गया और मैं हिचकियाँ लेकर रोने लगा.

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अपना-अपना वादा

बच्चा कई दिनों से एक विशेष खिलौने के लिए मचल रहा था. आज सुबह जब उसने खिलौने के लिए कुछ ज़्यादा ही ज़िद की, तो मैंने झूठ-मूठ उसे कह दिया कि शाम को दफ़्तर से आते हुए मैं वह खिलौना लेता आऊँगा. यह सुनते ही वह ख़ुशी के मारे झूमते हुए कहने लगा, ‘‘पापा, मैं शाम तक मैथ (गणित) के वे सारे सम्स (प्रश्न) करके रखूँगा जो आपने कल कहे थे.’’

शाम को दफ़्तर से वापिस आते ही बच्चा मेरा बैग टटोलने लगा. मैंने खिलौना न ला पाने का कोई बहाना बना दिया. कुछ देर बाद जब मैं चाय पी रहा था तो बच्चा मैथ की कॉपी ले आया और कहने लगा, ‘‘पापा, मैंने सारे सम्स कर लिए हैं. आप चैक कर लो.’’

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ढाल

शहर में ‘क’ और ‘ख’ धर्म के लोगों के बीच साम्प्रदायिक दंगे हो रहे थे. जब ख़बर आई कि ‘क’ धर्म के लोग ‘ख’ धर्म के लोगों को लूटने और उनके मकान जलाने आ रहे हैं, तो ‘क’ धर्मवालों के एक घर के छत की मुंडेर पर बनी ‘ख’ धर्म के गुरू की मूर्ति को एकाएक कपड़ों-वपड़ों से अच्छी तरह ढक दिया गया.

कुछ घंटों बाद पता चला कि अब ‘ख’ धर्म के लोग ‘क’ धर्म के लोगों के यहाँ लूटपाट करने आ रहे हैं. अब उस मूर्ति के ऊपर से जल्दी-जल्दी कपड़े-वपड़े हटाए जा रहे थे.

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टिकट

शाम को दफ़्तर से छूटकर घर पहुँचने के लिए बस पकड़ी, तो श्रीवास्तव जी भी उसी बस में चढ़े. वे हमारे अपार्टमेंट्स में ही रहते हैं. उन्हें रिटायर हुए कई साल हो चुके हैं और वे इस उम्र में भी कोई छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरी करते हैं. बस में कोई खाली सीट नहीं थी, सो खड़े-खड़े ही सफ़र तय करना था. मैं यथासम्भव श्रीवास्तव जी से दूर-दूर रहने की कोशिश कर रहा था. मुझे डर था कि शिष्टाचारवश कहीं उनकी टिकट भी न खरीदनी पड़ जाए. लेकिन वे मुझसे कोई ज़्यादा दूर नहीं खड़े थे. मैंने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया ताकि कंडक्टर के आने पर जब मैं अपना टिकट खरीद चुके हों, तो उसके बाद ही मैं अपना टिकट खरीदूँ. तभी मुझे अपने कंधे पर किसी के स्पर्श का आभास हुआ. मैंने गरदन घुमाई. श्रीवास्तव जी कह रहे थे, ‘‘आपका टिकट खरीद लिया है मैंने.’’

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सांत्वना

सुबह दफ़्तर जाने के लिए तैयार होते वक़्त रुमालों के थैले से जब-जब रुमाल निकालता, पिताजी का रुमाल अक्सर हाथ में आ जाता. कुछ साल पहले पिताजी की मृत्यु हो जाने के बाद माँ ने वह रुमाल मुझे दिया था. अब तो माँ भी इस दुनिया में नहीं रही थीं. उस रुमाल का इस्तेमाल मैं करता नहीं था, बस उसे थैले में रख दिया हुआ था.

आज सुबह मन न जाने क्यों भरा-भरा सा था. रुमालों के थैले से रुमाल निकालते वक़्त पिताजी वाला रुमाल हाथ में आ गया. मेरी आँखों से लगातार आँसू बहने लगे. मैं उसी रुमाल से अपनी आँखें पोंछने लगा. मुझे लगा जैसे पिताजी और माँ ख़ुद मेरी आँखें पोंछ रहे हों.

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दृष्टिकोण

आज कई सालों बाद ऐसा मौका फिर बना था कि वह शाम को दफ़्तर से छुट्टी करके अपने दोस्तों के साथ कनॉट प्लेस घूमने गया था.

कॉरीडोर में चलते हुए अचानक उसके एक दोस्त ने उसके कंधे पर हाथ मारते हुए कहा, ‘‘देख यार, क्या शानदार चिड़ियाँ आ रही हैं!’’

उसने सिर उठाकर देखा. स्कूल-कॉलेज जानेवाली उम्र की दो मासूम-सी लड़कियाँ सामने से आ रही थीं. उसे लगा जैसे वे कोई और नहीं, उसकी अपनी दोनों बेटियाँ, अनु और कनु, हैं. चलते-चलते उसकी नज़रें झुक गईं.

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अफ़सोस

दफ़्तर में उसे बड़ी बहन का फोन आया कि बहन की लड़की का रिश्ता अच्छी जगह पक्का हो गया है. पूरी बात सुनते-न-सुनते उसके दिमाग़ में इस शादी के अवसर पर दिए जाने वाले शगुन और दूसरे खर्चों की बातें तैरने लगीं. उसे घबराहट-सी होने लगी. न जाने कैसे उसके मुँह से निकल पड़ा, ‘‘बड़ा अफसोस है!’’

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ज़िन्दगी की महक

शाम को दफ़्तर से लौटकर आया तो पूरा घर मानों भांय-भांय कर रहा था. पत्नी छोटे बच्चे को लेकर आज सुबह ही मायके गई थी दो हफ्तों के लिए. पत्नी और बच्चे के बिना घर ऐसा लग रहा था मानो कोई बियावान रेगिस्तान हो. सब कुछ एक जगह स्थिर, खामोश. कहीं सूई गिरने की आवाज़ तक नहीं.

मैंने पत्नी और बच्चे के कुछ धुले हुए कपड़े और बच्चे के कुछ खिलौने निकाले और उन्हें पलंग और कुर्सियों पर बिखेर दिया. फिर बच्चे की एक पुरानी दूध की बोतल में थोड़ा दूध भरकर उसे मेज़ पर औंधा कर दिया. उसके बाद बच्चे का फुटबाल निकालकर पलंग के पास रखा और ज़रूरत न होने पर भी फुल स्पीड पर पंखा चला दिया. हवा होने के कारण फुटबाल इधर-उधर डोलने लगा. मैंने कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ाई. मुझे लगा घर में ज़िन्दगी की महक कुछ हद तक लौट आई है.

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प्राथमिकता

वह बस से उतरकर घर लौट रहा था. तभी उसकी नजर माँस की एक दुकान पर पड़ी. दुकान का मालिक दुकान के बाहर रखे एक बड़े से पिंजरे से एक जिन्दा मुर्गा निकाल रहा था. मुर्गा जोर-जोर से चीख रहा था. आने वाली मौत का अहसास उसे हो गया लगता था. यह देख उसका दिल भर आया. उसका जी चाहा कि वह दो एक मिनट वहीं खड़ा रहे. मुर्गे के लिए यह और तो कुछ कर नहीं सकता, मगर थोड़ी देर अपनी मौन श्रद्धांजलि तो अर्पित कर ही सकता है.

तभी उसे करीब से दो जीन्स-धारी खूबसूरत-सी आधुनिकाएं गुजरती दिखीं. मुर्गे के लिए खड़ा रहना अब उसे मुश्किल लगा और वह उन दोनों के पीछे-पीछे चल पड़ा.

अभी जिन्दा रहने वाले माँस ने जल्द ही मर जाने वाले माँस पर प्राथमिकता पायी थी.

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तनख़्वाह

‘‘इसी तनख़्वाह पर काम करना है, तो करो, नहीं तो हम कोई दूसरी देख लेंगे. नौकरानियों की कोई कमी है क्या? एक ढूँढो हज़ार मिलती हैं.’’ रंजना की गुस्सेभरी आवाज़ रसोई में गूँज रही थी.

‘‘आज पता है क्या हुआ. मेरे नौकरी छोड़ देने की धमकी का असर बॉस पर हो गया. उसने मेरी तनख़्वाह एक हज़ार रुपए बढ़ा दी है.’’ कुछ देर बाद घर के किसी दूसरे कमरे में खिलखिलाती मगर धीमी आवाज़ में रंजना अपने पति को बता रही थी.

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अपनी-अपनी दीक्षा

उस दिन सुबह दफ़्तर जाने के लिए घर से निकला तो देखा पड़ोसी वर्मा जी अपने आठ-नौ साल के लड़के को मारूति चलाना सिखा रहे थे.

एक घंटे बाद दफ़्तर के पास बस से उतरा तो देखा वहाँ बैठने वाला भिखारी अपने छह-सात साल के बच्चे को भीख माँगना सिखा रहा था.

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दुश्मन

‘क’ जाति के अंगरक्षकों द्वारा देश की प्रधानमंत्री का खून कर दिए जाने के बाद पूरे देश में दंगे भड़क गये थे. ‘ख’ जाति के लोगों ने ‘क’ जाति के लोगों पर बड़े निर्मम अत्याचार किए थे.

इन्हीं दिनों ‘ख’ जाति के एक नवयुवक को शाम को दफ़्तर से घर लौटते हुए बहुत देर हो गई. अंधेरा काफी घिर आया था इसलिए वह तेजी से कदम उठाता हुआ, अपने घर की ओर बढ़ता चला जा रहा था. अत्याचार तो ‘क’ जाति पर हुए थे, पर ऐसी अफवाहें भी बहुत गर्म थीं कि अब वे लोग ‘ख’ जाति के लोगों से बदला जरूर लेंगे. इसलिए आजकल अंधेरा घिरते ही सब लोग अपने-अपने घरों में दुबक जाया करते थे.

तभी उस नवयुवक को अपने आगे-आगे तीन और युवक जाते दिखायी दिए जो ‘क’ जाति के नहीं थे. वह तेज़-तेज़ कदम बढ़ाता उनके करीब पहुँच गया और लगभग उनके साथ-साथ ही चलने लगा. उसका घर करीब दो फर्लांग दूर ही रह गया था. लेकिन सबसे अंधेरी और सुनसान सड़क अभी आधी थी, जिसकी बत्तियाँ भी आज नहीं जल रही थी. मगर उस नवयुवक को तसल्ली थी कि वह अपनी जाति के ही तीन नवयुवकों के साथ (ऐसा उसे उनकी बातों से पता चल चुका था), इसलिए डरने की कोई बात नहीं. मगर अंधेरी सड़क पर दो-चार कदम चलते ही वे तीनों नवयुवक अचानक रूके और उस नवयुवक को घेरकर खड़े हो गए. उनमें से एक के हाथ में चाकू भी चमकने लगा था. जो कुछ उसके पास था, वह सब कुछ वे उसे उनके हवाले करने को कह रहे थे. उसके माथे पर पसीना गुदगुदा आया और वह डर के मारे थर-थर काँपने लगा था.

उसके बाद न जाने क्या होता कि तभी एक कार की हैडलाइट्स तेज़ी से उनकी तरफ़ बढ़ती दिखाई दीं. कुछ पलों में ही वे सब रोशनी में नहा गए. कार उनके करीब पहुँचते ही एकाएक रूक गई और उससे ‘क’ जाति का एक मोटा-तगड़ा अधेड़ व्यक्ति उतरने लगा. यह देखते ही ‘ख’ जाति के वे तीनों नवयुवक वहाँ से भाग निकले.

‘क’ जाति के व्यक्ति ने उस नवयुवक के पास आकर उससे सारी बात पूछी और उसे सांत्वना दी. साथ ही अपनी कार से उसे उसके घर तक छोड़ने का निमंत्रण भी. निमंत्रण पाकर वह कुछ पल असमंजस में खड़ा उस अधेड़ व्यक्ति को देखता रहा और फिर सरपट अपने घर की ओर भाग पड़ा.

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