ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 4 Harish Kumar Amit द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 4

ज़िन्दगी की धूप-छाँव

हरीशं कुमार ’अमित'

डर

शाम को घर पहुँचकर मैंने बहुत डरते-डरते खिलौने का डिब्बा मुन्नू के हाथ में पकड़ाया. उसका जन्मदिन बीते एक हफ़्ता हो गया था, पर उसका पसंदीदा खिलौना उसे जन्मदिन वाले दिन मैं दे नहीं पाया था. वजह कड़की ही थी.

इस महीने के शुरू में तनख़्वाह मिलने पर उसका खिलौना खरीदने की बात सोची हुई थी, पर तनख़्वाह मिलने पर घर खर्च का हिसाब-किताब लगाने पर उस खिलौने को खरीदने की कोई गुंजाइश बहुत चाहने पर भी निकल ही नहीं पा रही थी. फिर भी एक कम कीमत वाला खिलौना मैं उसके लिए ले ही आया था. मुझे डर था कि यह खिलौना देखते ही मुन्नू बहुत नाराज़ हो जाएगा और अपना पसंदीदा खिलौना ही दिलवाने की ज़िद करेगा, पर ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ. खिलौने का डिब्बा खोलते ही मुन्नू ने खुशी के मारे एक किलकारी मारी और बड़े उत्साह से उस खिलौने से खेलने लगा.

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परमीशन

नेताजी ‘पेड़ बचाओ आन्दोलन’ की रैली में भाषण देने के लिए जा रहे थे. रास्ते में उनकी कार ट्रैफिक जाम में फँस गई. देर होती देख उन्होंने ड्राइवर को जाम की वज़ह पता लगाने के लिए कहा. ड्राइवर पता लगाकर आया कि कुछ दिन पहले ही चौड़ी की गई सड़क के बीचोंबीच स्थित एक पेड़ की वजह से कोई दुर्घटना हो गई है और इसी कारण ट्रैफिक जाम है.

यह सुनते ही नेताजी भड़क उठे, ‘‘क्या तमाशा है! पेड़ काटने की परमीशन अब तक मिली क्यों नहीं? मैं अभी वन मंत्री से बात करता हूँ.’’ कहते हुए वे कुरते की जेब से मोबाइल फोन निकालने लगे.

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मौक़ा

मेट्रो अभी प्लेटफॉर्म पर पहुँची ही थी. दरवाज़े खुलने से पहले ही उन्होंने देख लिया था कि मेट्रो में चढ़ने वालों का हुज़ूम बाहर खड़ा है. उन्हें अपने साथ सफ़र कर रही अपनी जवान बेटी की चिन्ता हो आई. मेट्रो से उतरते वक़्त लोगों की इस भीड़ में से कुछ लोग जाने-अनजाने उनकी बेटी को यहाँ-वहाँ ज़रूर छू लेंगे. बेटी को भीड़ के स्पर्श से बचाने के लिए उन्होंने अपनी बाँह का घेरा उसके कंधों पर बना लिया, लेकिन ऐसा करके डिब्बे से बाहर निकलते समय दो-तीन जवान लड़कियों को अपनी कोहनी से जान-बूझकर स्पर्श करने का मौक़ा वे बिल्कुल नहीं चूके.

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ताज़ा ख़बर

लंच टाइम में दफ़्तर के अपने कमरे में बैठा केले खा रहा था कि अचानक दरवाज़ा खोलकर निखिल आ धमका.

‘‘लंच के बाद केले खाए जा रहे हैं, सर!’’ वह कुछ-कुछ बेशर्मी से मुस्कुराते हुए कहने लगा.

‘‘आइए, बैठिए. लीजिए खाइए.’’ मैंने उसे सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए उसकी तरफ एक केला बढ़ा दिया.

कुर्सी पर बैठकर केला खाते हुए वह कहने लगा, ‘‘सर, लंच के बाद भी इतने केले खा लेते हैं आप?’’

‘‘नहीं भई, आज लंच की जगह ये केले ही खा रहा हूँ.’’ मैंने एक केला खत्म करके उसका छिलका बाईं तरफ पड़े कूड़ेदान में डालते हुए कहा.

‘‘भाभी जी ने आज लंच नहीं बनाया क्या?’’ निखिल ने प्रश्नवाचक मुद्रा बनाते हुए मुझसे पूछा.

‘‘मायके गई है वह.’’ बहुत कोशिश करने पर भी अपने स्वर की कड़वाहट को मैं दबा नहीं पाया.

‘‘अभी पिछले हफ़्ते ही तो लौटी थी न वे मायके से.’’ निखिल पूरे दफ़्तर के लोगों की एक-एक बात की ख़बर रखा करता था.

‘‘हाँ, फिर चली गई है.’’ अपने स्वर को यथासंभव सामान्य बनाए रखने की कोशिश के बावजूद मेरी आवाज़ से झलक रही गुस्से और कड़वाहट की भावनाएँ बहुत कुछ बयान कर रही थीं.

‘‘क्या, फिर से झगड़ा करके गई हैं?’’ निखिल ने ढिठाई से मुस्कुराते हुए कहा.

जवाब में मैंने ‘नहीं’ कहा तो सही, पर वह ‘नहीं’ इतना नकली था कि खुद मुझे उस पर विश्वास नहीं हो पा रहा था.

तभी निखिल उठ खड़ा हुआ. केले का छिलका कूड़ेदान में फेंककर मुस्कुराते हुए कहने लगा, ‘‘अच्छा, चलता हूँ सर. आप अपना ‘लंच’ ख़त्म कीजिए.’’

मुझे मालूम था हमारे दफ़्तर के ख़बरची के हाथ एक ताज़ा खबर लग गई थी, जो छुट्टी होते-न-होते सब लोगों को पता चल जानी थी.

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मृगतृष्णा

बस में साथ बैठी सुन्दर नवयुवती के आकर्षण में मैं इतना खो गया कि अपनी पत्नी की समस्या को तो जैसे भूल ही गया था. साथ बैठी नवयुवती शायद इस शहर में नई-नई आई थी और उसे यहाँ के रास्तों की ज़्यादा पहचान नहीं थी. बस आने से पहले उसने रास्ते सम्बन्धी कुछ जानकारी संयोगवश मुझसे माँगी थी. जिस जगह उसे जाना था, मुझे भी वहीं जाना था, बल्कि मैं तो उस कॉलोनी में रहता ही था. इसी कारण बस आने पर वह युवती मेरे साथवाली सीट पर बैठ गई थी. सौजन्यतावश मैंने उसे खिड़कीवाली सीट पर बैठने दिया था.

युवती के साथ ने मेरी परेशानी को काफ़ी हद तक मेरे दिमाग़ से पोंछ दिया था. दरअसल पैसों की कमी के कारण पत्नी के लिए इंसुलिन के इंजेक्शन की शीशी खरीदी नहीं जा सकी थी और वह पिछले दो दिनों से बगैर इंजेक्शन के ही काम चला रही थी. डायबिटीज़ की मरीज़ है वह.

आज दिन में दफ़्तर में घर से फ़ोन आया था कि पत्नी की हालत बहुत खराब हो गई है. यह दो दिनों से इंसुलिन न लेने के कारण ही था. मजबूरन मुझे किसी सहकर्मी से पैसे उधार माँगने पड़े थे. दफ़्तर से छुट्टी करके मैं तुरन्त घर की ओर चल पड़ा था.

मुझे उतने ही पैसे उधार मिल पाए थे जितने में पत्नी के लिए इंसुलिन के इंजेक्शन की एक शीशी आ पाती. डेढ़ सौ रुपए की एक शीशी आती थी. उसके अलावा मेरे पास घर जाने के लिए बस का किराया मात्र ही था.

बस में कंडक्टर जब टिकट लेने आया तो मैंने उस नवयुवती के लिए टिकट खरीद भी ली. उसके रूप का ऐसा नशा जो मुझ पर छा चुका था. उस नवयुवती ने अपने किराए के पैसे मुझे देने का काफी इसरार किया, पर मैंने पैसे नहीं लिए. मैं जानता था कि मेरे पास पत्नी के लिए इंजेक्शन खरीदने के लिए पूरे पैसे नहीं बचे हैं, पर साथ बैठी युवती के मोहक स्पर्श ने जैसे मेरी चेतना को हर लिया था.

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मतलब की यारी

कई सालों बाद कॉलेज के सहपाठी का फोन आया था. वह बड़ी लच्छेदार बातें करता रहा. मुझे हैरानी हो रही थी कि उसे अचानक मेरी याद कैसे आ गई. काफी देर तक बातें करने के बाद वह कहने लगा कि उसके बॉस की प्रमोशन की फाइल वित्त मंत्रालय में गई हुई है, मैं कोई सिफारिश लगवा दूँ. जवाब में मेरे यह कहते ही कि वित्त मंत्रालय से तो ट्रांस्फर होकर शिक्षा मंत्रालय आए हुए मुझे सात-आठ साल हो गए हैं और अब वित्त मंत्रालय में मेरी जान-पहचान का कोई है नहीं, उसका स्वर जैसे बुझ-सा गया. उसने जल्दी ही बात ख़त्म कर दी. मैं जानता था इसके बाद उसका फोन कहाँ आना था.

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रुतबे का असर

दफ़्तर में हैड क्लर्क को छोटे साहब ने फोन करके अपने कमरे में बुलाया. सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने के लिए कहकर बड़ी शालीनता से कोई ज़रूरी फाइल उसी दिन पूरी करने को कहा. हैड क्लर्क कमरे से बाहर आकर आराम से अपनी सीट पर पसर गया और अपने साथियों से गपशप करने लगा.

कुछ देर बार हैड क्लर्क को बड़े साहब का चपरासी बुलाने आया. कमरे में घुसते ही हैड क्लर्क को बड़े साहब ने गरजती आवाज़ में उसी फाइल को शाम चार बजे तक पूरा करने को कहा, जिसके बारे में छोटे साहब ने कुछ देर पहले बुलाया था. हैड क्लर्क भीगी बिल्ली बना अपनी सीट पर आया और अपने साथियों से बोला, ‘‘आज तुम लोगों के साथ लंच नहीं कर पाऊँगा. अढ़ाई बजे तक एक ज़रूरी फाइल पूरी करके बड़े साहब को देनी है.’’

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खुशी के रंग

आज वह बहुत खुश था, उसे एक बड़ा साहित्यिक पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई थी. दफ़्तर में जैसे ही उसे फोन पर यह सूचना मिली, उसने पुरस्कार मिलने की बात झट-से घर पर फोन करके पत्नी और बच्चों को बता दी थी. मगर शाम को घर पहुँचते-पहुँचते उसकी खुशी को जैसे ग्रहण लग गया था. घर आते वक़्त लोकल बस में उसका पर्स जो चोरी हो गया था.

मायूस-सा वह घर पहुँचा, तो देखा बीवी-बच्चों के चेहरे खिले हुए थे. वे लोग बाज़ार से मिठाई वग़ैरह खूब सामान ले आए हुए थे, उसकी उपलब्धि का जश्न मनाने के लिए. एक बारगी तो उसका जी किया कि वह उन्हें अपना पर्स चोरी होने की बात बता दे, पर फिर न जाने क्या सोचकर चुप रह गया. अगले ही पल वह भी घरवालों की खुशी में रंग चुका था.

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विद्रोह

‘‘इस मीटिंग को जनवरी में खिसका दें.’’ मेरा अफसर मुझसे कह रहा था.

‘‘क्यों सर, यह तो बड़ी जरूरी मीटिंग है.’’ मुझे हैरानगी हो रही थी कि मेरा अफसर उस मीटिंग को अगले महीने खिसकाने के लिए कह रहा था, जिसकी तैयारी के लिए हम सब लोग पिछले दो-तीन हफ़्तों से जी-जान-से जुटे हुए थे.

‘‘भई, अचानक अंडमान-निकोबार जाने का प्रोग्राम बन गया है. मैं कल से दस दिन की छुट्टी पर जा रहा हूँ. अब एक जनवरी को ही ऑफिस आऊँगा.’’ कहते हुए अफसर के चेहरे और आवाज़ से उल्लास झलक रहा था.

‘‘पर सर, मैंने भी इन दिनों दो-तीन दिन की छुट्टी लेनी थीं. बच्चों को आगरा घुमाकर लाने का प्रॉमिस किया हुआ है.’’ मैंने बेचारगी से कहा. मुझे मालूम था कि अफसर अपनी गैर-मौजूदगी में अपने स्टॉफ के सदस्यों के छुट्टी लेने के सख़्त खिलाफ था.

‘‘अरे यार, तुम बाद में कभी देख लेना. आगरा कौन-सा दूर है. वैसे तुम भी अगर छुट्टी कर लोगे तो दफ़्तर का काम कैसे चलेगा.’’ कहते-कहते अफसर सामने पड़ी फाइल पढ़ने लगा.

अफसर के कमरे से बाहर आते हुए मेरे सामने अपनी पत्नी और दोनों बच्चों के बुझे हुए चेहरे नाच रहे थे. बच्चे तो बेचारे आगरा जाने के लिए एक-एक दिन गिन रहे थे. मुझे मालूम था अभी दिसम्बर में खींच-तानकर किसी तरह आगरा घूम आते, तो घूम आते, नहीं तो बाद में स्कूल खुल जाएँगे और बच्चों के सिर पर मार्च में होनेवाली परीक्षाओं का भूत सवार हो जाएगा. और फिर सबसे बड़ी बात, जोड़-तोड़करके, सोसायटी से उधार लेकर आगरा घूमने जाने के लिए इकट्ठे किए गए रुपए भी तो घर की छोटी-बड़ी ज़रूरतों में ही गुल हो जाएंगे.

मैं बुझे मन से अपनी सीट पर पहुँचा. एक बारगी तो जी में आया कि घर पर फोन करके बता दूँ कि हम आगरा नहीं जा पाएंगे, तभी मन में कुछ विचार कौंधा और फोन पर घर का नम्बर डायल करके मैं कहने लगा, ‘‘हम लोग इसी बुधवार को चलेंगे आगरा. तैयारी करनी शुरू कर दो.’’

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एडजस्टमेंट

रोज की तरह आज भी लोकल बस में काफी भीड़ थी. ‘क’ यात्रियों के बीच सैंडविच बना धक्के खाता हुआ सफर कर रहा था.

‘‘सीधी तरह खड़े होइए’’ ‘क’ ने अपनी बाईं तरफ खड़ी एक ख़ूबसूरत-सी लड़की को उससे सटकर खड़े एक अधेड़ उम्र के आदमी से कहते पाया.

‘‘सीधा तो खड़ा हूँ, अब भीड़ है तो धक्के तो लग ही जाते हैं’’, उस आदमी ने बेशर्मी से जवाब दिया.

लड़की चुप रही और थोड़ा सा ‘क’ की तरफ खिसक आई. तभी अपनी दाईं ओर इशारा करते हुए ‘क’ बड़ी मासूमियत से लड़की से कह उठा, ‘‘इस तरफ आ जाइए आप’’. कहते-कहते उसने पीछे की तरफ काफी ज़ोर लगाकर बस की सीट ओर अपने बीच थोड़ी-सी जगह बना दी ताकि लड़की वहाँ से गुज़रकर उसकी दाईं तरफ जा सके. ‘क’ के मासूम-से बुद्धिजीवी चेहरे और धीर-गंभीर आवाज़ का लड़की पर असर हुआ और वह ‘क’ की बनाई जगह में से होती हुई उसकी दाईं तरफ़ जाने लगी. ‘क’ थोड़ा और पीछे हट गया ताकि लड़की को गुज़रने में कुछ कम तकलीफ़ हो. लड़की ने भी उससे बचकर गुजरने की कोशिश की, मगर फिर भी उनके शरीर आपस में रगड़ खा ही गए थे.

अब लड़की उसकी दाईं तरफ खड़ी थी. लड़की की दाईं तरफ एक अधेड़-सी औरत भीड़ के धक्कों से अपने थुलथुल शरीर को बचाने की नाकाम कोशिशें कर रही थीं. सुनहरा मौका अब ‘क’ के करीब था. ब्रेक लगने पर धक्का लगते ही ‘क’ ने अपने शरीर का काफ़ी हिस्सा उस लड़की से सटा दिया और अपने हाथ को भी छत का डंडा पकड़े लड़की के हाथ की तरफ खिसकाना शुरू कर दिया. लड़की के शरीर पर उसके शरीर का दबाव भी बढ़ता जा रहा था. यह बात अलग है कि प्रकट में ‘क’ खोयी-खोयी आंखों से बाहर के प्राकृतिक दृश्यों में मग्न दिखायी दे रहा था.

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