ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 10 Harish Kumar Amit द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 10

ज़िन्दगी की धूप-छाँव

हरीशं कुमार ’अमित'

नज़र बनाम नज़र

मेट्रो में यात्रा करने के दौरान कोट की जेब में हाथ डाला तो बस की एक पुरानी टिकट हाथ में आ गई. मैंने उस टिकट को हाथ में लिया और कुछ देर बाद इस बात का ध्यान रखते हुए कि कोई देख तो नहीं रहा, उस टिकट को नीचे फर्श पर फेंक दिया.

अगले स्टेशन पर एक नवयुवक एक बैग लेकर मेट्रो में चढ़ा. बैठने की कोई सीट न होने के कारण वह मेरे पास ही खड़ा हो गया. बैग को उसने अपने पैरों के पास टिका दिया था. फिर उस नवयुवक ने अपनी पैंट की जेब से एक चॉकलेट निकाली और उसे खाने लगा. उसे चॉकलेट खाते हुए देखकर मैं बराबर कुढ़ता रहा कि मेट्रो में खाना-पीना मना होने के बावजूद यह खा रहा है.

चॉकलेट ख़त्म कर चुकने के बाद उसके ख़ाली रैपर को उस नवयुवक ने अपने हाथ में पकड़ लिया. मुझे लग रहा था कि वह भी इसे मेरी तरह ही चोरी-छिपे नीचे फर्श पर फेंक देगा.

कुछ देर बाद वह नवयुवक नीचे अपने बैग की तरफ झुका. यह देख मुझे पूरा यक़ीन हो गया कि किसी बहाने से अब वह उस रैपर को नीचे फर्श पर फेंक ही देगा, मगर उसने अपने बैग की साइड पॉकेट की जिप खोलकर चॉकलेट का रैपर उसमें डाल दिया. फिर मेरे पैरों के पास पड़ी हुई बस की टिकट भी उसने उठाकर उसी साइड पॉकेट में डाल दी.

कुछ देर पहले तक मैं उसे चॉकलेट खाता हुआ देखकर घूरे जा रहा था, मगर अब मेरी आँखें ऊपर भी नहीं उठ पा रही थीं.

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अपना-अपना दर्द

दफ़्तर में बैठी काम कर रही थी कि पिताजी का दिल्ली से फोन आया.

‘‘बेटी, बेटे-बहू से बन नहीं रही. हर दूसरे दिन घर में झगड़ा मचा रहता है. कुछ दिनों के लिए तुम्हारे पास आने की सोच रहा हूँ.’’

अनमने भाव से मैंने उन्हें आने के लिए कह तो दिया, पर मन-ही-मन में डर रही थी घर जाकर परेश को यह सब बताऊँगी तो वह गुस्सा होगा. मैं अच्छी तरह समझती थी कि पिताजी के आने पर एक तो हमारा खस्ताहाल बजट और चरमरा जाएगा और फिर हमारे छोटे-से फ्लैट में कोई फालतू कमरा भी तो नहीं.

पिताजी के आने की बात शाम हो परेश को डरते-डरते बताई. सोच रही थी कि बात सुनते ही वह गुस्से से फट पड़ेगा. मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं. उल्टे उसके चेहरे पर खुशी का भाव खिल उठा. फिर वह उत्साहित स्वर में कहने लगा, ‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है.’’

‘‘मैं तो डर रही थी कि तुम नाराज़ होओगे उनके आने की बात सुनकर.’’ मैं बोल पड़ी.

‘‘अरे, इसमें नाराज़ होने की क्या बात है? बाऊजी (परेश के पिता) तो इस घर में कभी आ नहीं पाए. हमारे अपने घर में शिफ्ट करने से पहले ही वे नहीं रहे थे. पिताजी के आने पर मैं यही समझूँगा मानो मेरे बाऊजी ही मेरे पास रहने के लिए आए हैं. खूब सेवा करेंगे हम उनकी.’’ कहते-कहते परेश की आँखें भीग गईं.

आँखें तो मेरी भी भीग गई थीं - खुशी के मारे.

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घर बनाम घर

‘‘क्या ज़िन्दगी है हीरालाल जी! घर में हर कोई काटने को दौड़ता है! क्या बहू, क्या बेटा, सब ताने मारते रहते हैं मुझे! अपमान करने का कोई मौका नहीं छोड़ते. बेटे-बहू की देखादेखी पोता और पोती भी मुझसे उसी भाषा में बात करते हैं. घर तो नरक जैसा लगता है. यहाँ पार्क में सुबह-शाम जो दो-तीन घंटे समय बिता लेता हूँ, उसी से लगता है कि ज़िन्दा हूँ, वरना घर तो नरक की भट्टी जैसा है.’’ पार्क की बेंच पर बैठे हुए कैलाश जी कह रहे थे.

‘‘कैलाश जी, आपको घर जाने पर परिवारवालों की चहल-पहल तो मिलती है न. उनकी आवाज़ें भी सुनने को मिलती हैं, मगर मेरा जो हाल है वह मैं ही जानता हूँ. घरवाली के स्वर्ग सिधारने और दोनों बेटों के विदेश में जा बसने के बाद घर काटने को दौड़ता है. किसी खाना बनानेवाली के हाथों का खाना खा पाना मुझे गवारा नहीं, इसलिए खाना भी में ख़ुद ही बनाता हूँ. मैं तो घर में किसी की आवाज़ सुनने को भी तरस जाता हूँ. ’’

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दोस्ती बनाम दोस्ती

‘‘ओ.के., बाय-बाय!’’ कहते हुए मैंने बड़े स्नेह से उस छोटे-से बच्चे से हाथ मिलाते हुए विदा ली थी, जो दस-पन्द्रह मिनट पहले अपनी खूबसूरत माँ की गोदी में चढ़ा लोकल बस में मेरी साथवाली सीट पर आ विराजा था. यात्रा के दौरान मैंने ख़ुद आगे बढ़कर उस बच्चे से दोस्ती कर ली थी. उस बच्चे में रुचि लेने की वजह उसकी सुन्दर माँ ही थी, हालाँकि बच्चा कोई खास प्यारा नहीं था. बच्चे के बहाने मैं कुछ देर तक उसकी माँ से भी बातचीत कर पाने में सफल हो पाया था.

उन लोगों के सीट खाली करते ही एक काली-बदसूरत-सी ग्रामीण औरत अपने बच्चे को गोद में उठाए वहाँ आ बैठी. बच्चा बहुत खूबसूरत था और बड़े प्यार और अपनेपन से मुस्कुराते हुए मेरी ओर देख रहा था. तभी उस बच्चे ने जैसे दोस्ती करने की ख़ातिर मेरी तरफ़ अपना नन्हा-सा हाथ बढ़ाया. मैंने बड़ी सफाई से अपना चेहरा खिड़की की ओर घुमा लिया और बाहर के दृश्य देखने लगा.

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अपने-अपने इनाम

‘‘यार रमेश, तुम बेचारे संजीव को हमेशा डॉटते क्यों रहते हो? मेरे ख़याल से तो वह बहुत मेहनती और काम करने वाला क्लर्क है. दूसरी तरफ़ तुम उदित को कुछ भी नहीं कहते, जो कुछ काम करता ही नहीं, बस सारा दिन दफ़्तर में गप्पें लड़ाता रहता है.’’

‘‘वो ऐसा है कि संजीव को डाँटने का यह असर होता है कि वह और ज़्यादा काम करके दिखाता है. इससे मुझे मेहनत कम करनी पड़ती है. और वो उदित, वह तो चिकना घड़ा है. जितना मर्ज़ी डॉट लो, उसने जो थोड़ा-बहुत काम करना है, उससे ज़्यादा करना ही नहीं. इसलिए उसे डाँट-डाँटकर अपना मूड ख़राब क्यों करना.’’

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ज़िन्दगी-ज़िन्दगी

महीने की आख़िरी तारीख़. तनख़्वाह अगले दिन मिलनी थी. बच्चे की किताब लाने की फरमाइश वह बहुत दिनों से टालता आ रहा था. आज सुबह तो बच्चे ने अल्टीमेटम ही दे दिया था, ‘‘पापा, शाम को दफ़्तर से आते वक़्त क़िताब लेकर ही आना. हर रोज़ स्कूल में मुझे टीचर की डाँट खानी पड़ती है, किताब न होने की वज़ह से.’’

सुबह की बात याद आते ही उसकी आँखें पनीली हो आईं. कुछ दिन पहले उसने बहाने से बच्चे से किताब की कीमत मालूम करवा ली थी. बच्चे ने किसी सहपाठी की किताब देखकर बताया था कि किताब साठ रुपये की है. किताब खरीदने के लिए साठ रुपये उसने अलग से रख लिए थे, मगर दिन में दफ़्तर में कोई पुराना दोस्त मिलने आ गया था, सो उसे चाय पिलाने में पाँच रुपए खर्च हो गए, उसने अपनी जेब में पड़े पैसे गिने. अगर वह किताब खरीदता तो घर जाने के लिए बस का किराया नहीं बचना था. उसने कुछ देर सोचा और फिर किताबों की दुकान से बच्चे की किताब खरीद ली. उसके बाद वह तेज़-तेज़ कदमों से घर की ओर चल पड़ा. छह किलोमीटर का रास्ता तय करने में काफ़ी वक़्त जो लगना था.

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मजबूरी

हर रोज़ की तरह दफ़्तर के लिए घर से निकलने में देर हो गई थी, पत्नी पर भुनभुनाते हुए मैं ताबड़तोड़ घर से निकला. हालाँकि यह बात मैं अच्छी तरह समझता था कि इस देरी में उसका कोई दोष है ही नहीं. मैं ख़ुद ही अपना समय प्रबंधन ठीक से नहीं कर पाता था.

सीढ़ियाँ उतरकर घर से थोड़ी दूर ही गया था कि सामने से आ रहे घोष साहब से पता चला कि आज किसी वजह से दफ़्तर में छुट्टी हो गई है. छुट्टी की ख़बर अख़बार के पहले पन्ने पर भी छपी थी, पर सुबह-सुबह मुझे अख़बार की शक्ल देखने की भी फुर्सत कहाँ होती थी.

सीढ़ियाँ चढ़कर वापिस घर पहुँचते हुए यह बात मन में आ रही थी कि जैसे जहर-भरे व्यंग्य-वाण मैं पत्नी पर छोड़कर निकला था, उनकी वजह से घर में मातम का-सा माहौल होगा. मगर घर की कालबेल दबाने से पहले मुझे घर के अन्दर से पत्नी और बच्चों की हँसी और चुहलभरी बातें सुनाई दीं. मेरा जी चाहा कि मैं वापिस चला जाऊँ, पर हाथ में पकड़े ब्रीफकेस के मारे मजबूर था. भारी मन से मैंने कालबेल दबा दी.

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तब्दीली

आखिर आज उसे मौका मिल ही गया और उसने अपने दफ़्तर की सहकर्मी को लंच टाइम में चूम लिया. उसे लगा उसके होठों पर गुलाब खिल आए हैं. लेकिन अगले ही पल जब उसने अपनी सहकर्मी की आँखें देखीं, तो दंग रह गया. जिन आँखों में अब तक अपने लिए आत्मीयता और प्रेम की भावना वह महसूस किया करता था, उनमें अब धिक्कार और नफरत की आँधी बह रही थी. उसे लगा उसके होठों के गुलाब कैक्टस के काँटों में तब्दील होते जा रहे हैं.

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औक़ात के सच

शाम के समय दफ़्तर से घर लौट रहा था. अपनी हाउसिंग सोसायटी के गेट पर पहुँचा तो उस गार्ड ने मुझे देखकर ‘जयहिंद’ कहा जो से पिछले कुछ दिनों से मुझे आते-जाते देख ऐसा कर रहा था. उसे जवाब देकर मैंने अपने कदम आगे बढ़ाए ही थे कि वह लपककर मेरे पास आ गया और मुझसे कहने लगा, ‘‘सर, आपसे कुछ काम था.’’

प्रश्नवाचक नज़रों से उसकी ओर देखते हुए मैं बोला, ‘‘कहो.’’ मेरे मन में यही बात आ रही थी कि यह किसी बहाने से मुझसे कुछ धनराशि माँगेगा. अपने कोमल हृद्य के वशीभूत होकर मैंने पहले भी कुछ लोगों की आर्थिक मदद की थी - शायद इस बात की भनक इसे भी लग गई हो और बहती गंगा में हाथ धोने वाली बात यह भी पूरी कर लेना चाह रहा हो.

इस पर उस गार्ड ने अपने गाँव की ज़मीन के बारे में किसी कानूनी केस का ज़िक्र किया और पूछा कि वे लोग केस जीत जाएँगे क्या?

मैंने हैरानगी से उसकी ओर देखा और फिर कहा, ‘‘यह सब मुझसे क्यों पूछ रहे हो भइया? मैं कोई वकील थोड़े ही हूँ.’’

‘‘सर, आप वकील नहीं हैं? मगर आप तो काला कोट पहनकर जाते हैं न.’’ उसने कहा.

‘‘नहीं भइया, काला कोट पहनने का मतलब यह थोड़ा ही है कि मैं वकील हूँ.’’ कहकर मैं आगे बढ़ आया.

दरअसल मेरे पास दो ही कोट थे जो सर्दी के दिनों में मैं बारी-बारी से पहना करता था. संयोगवश दोनों का रंग काला था. शायद इसी वजह से इस गार्ड ने मुझे वकील समझ लिया था.

अगली सुबह जब मैं ऑफिस जाने के लिए सोसायटी के गेट से निकल रहा था तो वही गार्ड ड्यूटी पर था, पर अब उसने मुझे देखकर ‘जयहिंद’ नहीं कहा, बल्कि मुँह घुमाकर दूसरी ओर देखने लगा.

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कायाकल्प

शाम को दफ़्तर से वापिस घर आया तो कॉलबेल बजाने पर भी वह नहीं बजी. ‘शायद इन्वर्टर ने भी काम करना बन्द कर दिया है’, सोचते हुए मैंने दरवाज़ा खटखटाया. दो-एक बार खटखटाने पर दरवाज़ा खुल गया. सामने पत्नी खड़ी थी - पसीने से नहाई हुई.

और कोई दिन होता तो मैं घर आते ही बरसने लगता कि बिजली गई होने पर भी इतना टी.वी. क्यों देखते हो कि इन्वर्टर भी काम करना बन्द कर दे. मगर आज मैं शांत था - बेहद शांत. वजह इसकी यही थी कि आज घर वापिस आते समय हमारी बस रास्ते में ख़राब हो गई थी. जिस जगह बस खराब हुई थी, वहाँ से मेरा घर करीब एक किलोमीटर ही दूर था, इसलिए मैं पैदल ही चलकर घर आ गया था. मगर इस पदयात्रा के दौरान एक अन्य सहयात्री द्वारा सुझाया ‘शार्टकट’ अपनाने के चक्कर में मुझे एक झुग्गी-झोंपड़ी कॉलोनी के बहुत पास से गुज़रना पड़ा था. उन झुग्गियों में रहनेवालों की ज़िन्दगी देखकर मुझे कुछ-कुछ होने लगा था. न वहाँ बिजली थी, न कोई पानी के नल थे. रोशनी के लिए पेट्रोमेक्स या मोमबत्तियाँ थीं और एक हैण्डपम्प से ही लोग अपनी ज़रूरत का पानी भर रहे थे. किसी के पास पंखा, फ्रिज, टी.वी. होने की तो बात ही नहीं थी. उनका ऐसा जीवन देखकर मुझे लगा था कि इन लोगों के मुकाबले तो हम लोग राजाओं जैसी ज़िन्दगी बिता रहे हैं. यह बात अलग है कि इतनी सुविधाएँ होने के बावजूद हम लोग किसी-न-किसी कमी का रोना रोते रहते थे.

ऐसे ही विचारों के प्रभाव के कारण आज शाम घर आने पर मैं इतना शांत था. तभी बिजली आ गई. मैं झट से सोफे पर बैठ गया. पत्नी को ए.सी. चलाने के लिए कह दिया. सामने रखा टी.वी. भी मैंने रिमोट से चला दिया. पत्नी कटे हुए ठण्डे-ठण्डे फल ले आई. मैं काँटे से उन्हें खाने लगा.

तभी अचानक जी किया कि नहा लिया जाए. ए.सी. में बैठने से पसीना तो सूख ही गया था.

पत्नी को आवाज़ दी कि तौलिया और रात को पहने जानेवाले कपड़े बाथरूम में रख दे, पर उत्तर मिला कि आज तो ताज़ा पानी आया ही नहीं और टंकी का पानी भी खत्म हो गया है.

अगले ही पल पूरे घर में मेरी दहाड़ गूँज रही थी.

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