फरेब - 11 Raje. द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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फरेब - 11


जगह: कस्तूरबा आश्रम
वक्त: सुबह की आरती।

आरती खत्म होते ही।
बा- બધી છોકરીઓ ધ્યાનથી સાંભળો (फिर एक लड़के की तरफ इशारा करके) એ છોકરા તું આગળ આવ.
જો છોકરીઓ, આ રીષભ છે. મારો પરીચીત. આજથી આપણે ત્યાં ડ્રાઈવર નું કામ સંભાળશે અને સાથે બીજા કામ પણ.
આનાથી કોઈને પણ પ્રોબ્લેમ હોય. તે મને મળે.
(तभी एक लड़की बोल उठी)
પણ બા, આ તો પેલો લંફ્ફટ છે.
બા- હા, હવે બોલી તુ.
હું કવ, હજુ સુધી શ્યામલી બોલી કમ ના.
હા તો બકુડી,
આ રીષભ મારો જાણિતો છે. મારા દિકરાની જેમ.
અને સ્વભાવે થોડોક ઘેલીયો પણ છે. માટે જ્યારે એને ખબર પડી કે, તમે આશ્રમની છોકરીઓ છો. એટલે મજાક કરવા આવી ગયો.
तभी वृंदा मुंह में ही फूसफूसाते हुए, बेटा।
माय फूट।
बा, आप अभी इसे जानते ही कितना हो।
ત્યાં વ્હાલી બોલી પડી- હો હો બા,
આવો કાય મજાક હોતો હોય. મારી સખી બીહ ગઈ.
એનું શું ?
બા- હા, હવે બોલી સખીની ચમચી.
(वृंदा की तरफ इशारा करते हुए)
આ તારી સખી છે ને,
બધ્ધાનેય વેચી ખાય જાય એવી છે.
વ્હાલી- (नाराज मुंह बनाते हुए) બસ બસ હવે બા. મને કંઈ કહો, પણ મારી સખી નય.
બા- હા, બસ. તારી સખીને કશું નહીં કવ.
ચાલો હવે બધાય પોત-પોતાના કામે વળગો.
અને એય, શ્યામલી અને એની ચમચી.

તમે બંનેને જવાનું છે ઢેબર.
દરવખતની જેમ, આ વખતે પણ દિવાળી ના દિવા મેળામાં આપણા આશ્રમથી જ જશે.
સાથે પેલા રીષભને પણ‌ લેતી જજે.
શ્યામલી- પણ બા એની શી જરૂર છે.
બા- તો ગાડી કોણ, તારો ભયલો ચલાવસે ?
વ્હાલી- હે, બા ગાડીમાં જવાનું છે ?
બા- હા, હવે નીકળો. સાન્જ પડતા પાછું પણ આવાનું છે.
वृंदा और व्हाली वहां से जाने लगे। और जाते जाते व्हाली वृंदा से पुछ रही है।
એ શ્યામલી તને ખબર છે ?
આ બા છે ને, એ આપણી દોસ્તીથી બળે છે.
શ્યામલી- એવુ ના કેવાય. બા બહુ સારા છે.
વ્હાલી- ના નથી. એટલે જ તો એ મને, તારી ચમચી એવુ બધું બોલાવ્યા કરે છે.

પણ એમને શી ખબર !
આપણે કેટલી પાક્કી સખીયો છીએ. હું તો કોઈ દિવસ તારો સાથ નહીં છોડુ.
પણ એ શ્યામલી, એ શ્યામલી ( कहते हुए उसके होंठ कांपने लगे। आंखें नम हो गई।)
તું તો મારો સાથ નહીં છોડે ને ?
वृंदा- अरे तु रो। ( फिर रुककर गुजराती मे) અરે તું રડે છે કેમ. આપણે પાક્કા મીત્ર છિએ.
વ્હાલી (रोते हुए)- તો ખા મારા સમ.
શ્યામલી- હા બાપા હા. તારા સમ.
તને છોડીને નય જવ.
હવે ચુપ થઇ જા. નહીં તો હું તારી જોડે કિટ્ટા કરી લઇશ.
વ્હાલી- ( जल्दी से आंसू पोछते हुए) જો હું ક્યાં રડી છું.
પણ તને ખબર છે, સખી ?
આ બીજી આશ્રમની છોકરીઓ એકદમ સારી નથી. એ કોઈ મારા જોડે મીત્રતા નતી રાખતી.
પછી તું મળી. તને કેટલું બધું વાગ્યુ હતું, બા...
ત્યાં દવાખાને લઇ જતા. તે મારો હાથ પકડી રાખ્યો હતો. હું બોવ ડરી ગઈ હતી.
પણ જ્યારે તે મારો હાથ પકડ્યો. મેં તને સખી બનાવી લીધી હતી.
પછી ગમ્મે તેટલો ડર લાગે, સખીનો હાથ છોડાતો હોય ?
वृंदा ये सुनकर एकदम भावुक हो गईं। और व्हाली को कसके गले लगा लिया।
वृंदा- વ્હાલી, વ્હાલી, મારી વ્હાલી.
તારા જેવું કોઈ નય.
વ્હાલી- હાસ તો, હું તો હું જ છું. મારા જેવું બિજુ થોડી કોઈ હોય.
ये सब कहते हुए। वे अपने कमरे की और बढ़ चले।
###########

ऋषभ गाड़ी के पास खड़ा है। वृंदा और व्हाली आश्रम से उसकी तरफ ही आरहे है।
दिये गाड़ी में रखे जा चुके हैं। जो यहां की लड़कियां और औरतें बनाती है।
ऋषभ- આવો બેસો વ્હાલીજી અને શ્યામલીજી.
શ્યામલી-(मुंह बनाते हुए) હા, બસ બસ.
વ્હાલી- શું વાત છે.
ગુજરાતી આવડી ગયું, એમને ?
ऋषभ- नही। बस इतना ही सीखा हु। अभी तो, व्हालीजी।
વ્હાલી- વ્હાલીજી નય, માત્ર વ્હાલી.
ऋषभ- ठीक है, चलिए बैठिए।

व्हालीजी, नहीं व्हाली।
मुझे यहां के रास्ते पता नहीं है। तो क्या आप मेरी मदद कर देगी। ढाबर तक पहुंचने में।
( ये बात सुनकर दोनों सखीया हंसने लगी)
फिर व्हाली बोली- वो ढाबर नहीं, ढेबर है। हमारे यहां दिपावली के त्योहार पर हरबार, वहां एक बड़ा सा मेला लगता है।
आप परेशान न हो। में आपको रास्ता बता दुंगी।
वृंदा- ( टोन्ट मारते हुए) ડ્રાઈવર બની ગયા, મોટા.
રસ્તા તો ખબર નથી.
વ્હાલી- હવે એને કેવી રીતે ખબર હોય. એ હમણાં નવો આવ્યો છે ને.
ऋषभ- क्या कह रही है, वो ?
व्हाली- कुछ नही। बस ऐसे ही।
वृंदा- अगर गुजरात में रहना है। तो गुजराती सीखलो।
ऋषभ- जी जरुर।
फिर गाड़ी चल पड़ी।

लगभग ढाई घंटे के सफर के बाद। वृंदा ने व्हाली के बताए रास्ते को मना करके दूसरे रास्ते से जाने के लिए कहा।
बिना पुछे जवाब दिया। ये सोटकट है।
व्हाली ने कुछ कहना चाहा। मगर वृंदा ने होंठों पर उंगली रखकर उसे चुप करा दिया।
ऋषभ ने गाड़ी उस और घुमाई। करीबन दस मिनट के रास्ते के बाद मेले के तंबू दिखाई पड़े।

कोई बोले, वो पहुंच गए। उससे पहले ऋषभने गाड़ी की ब्रेक अचानक दबाई।
बिचमे एक नाला था। जिसमें पानी बेह यहां था।
ऋषभ- अरे ये क्या हैं। अब हम आगे कैसे जाएंगे।
सब गाड़ी से बहार निकले।
वृंदा- चलके जाएगे और कैसे ?
ऋषभ-और ये दिये ?
वृंदा- उनको भी तुम ही लेकर जाओगे।
या हमसे काम करवाओगे क्या ?
ऋषभ- नही। में ही लेकर जाता हूं।
व्हाली- આ શું કે છે સખી !
ગાડીમાં ત્રણ બોરા દિવા છે.
એ બધા આ એકલો કેવી રીતે લઈ જશે ?
અને તને ખબર હતી કે આ સાઈડ નાળુ છે. તો પછી ગાડી આ બાજુ કેમ ગુમાવડાવી ?
वृंदा- એ બધુ તને નય સમજાય.
( तभी ऋषभ को नाले में उतरता देख)
वृंदा बोली- देखना एक भी दिया गीरे ना। और ना ही गीला हो। तुम पानी में गीर जाओ तो चलेगा। मगर दिया नहीं गिरना चाहिए।
फिर बात संभालते हुए, वरना दिये किंमत नहीं मिलेगी ना। बस इसी लिए।
बड़ी जद्दोजहद और सावधानी के बाद ऋषभ दुसरे किनारे पर पहुंचा।
उसे लगा मानो उसने कोई जंग जीतली हो। मगर जब खयाल आया कि, अभी दो बोरे और लाने है। तो सारा मजा गायब हो गया।
उसके ये सारे प्रयास वृंदा को खुश करने के लिए थे। और ये देखकर वृंदा खुश भी हुई। क्योंकि ऋषभ दर्दमे था।
लेकिन व्हाली खुश नहीं थी। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था, की वृंदा ऐसा क्यूं कर रही है।

उसके बाद वे, सारा दिन मेले में घुमते रहे। मतलब की, बैमतलबकी चीजें देखते रहे। साथ में ऋषभ भी उनके आगे-पीछे घुमता रहा। और साथ ही जो चीजें लड़कियों ने खरीदी उनको भी उठाता गया।

जब ऋषभने थककर पानी के लिए पुछा, तो वृंदा ने साफ मना कर दिया। की नहीं है अब पानी।
यह देखकर व्हाली को बड़ा गुस्सा आया। उसने अपनी बोतल निकाली और ऋषभ को पकड़ा दी।
यह देख वृंदा का दिल भी डोला। उसने खूदको ही सवाल किया, आखिर ये क्या कर रही हो तुम ?
लेकिन फिर कड़वी यादें ताजा हो गईं और मन मंक्कम कर लिया उसने।
############

वापस लौटते सफर में जब ऋषभने अपनी गाड़ी के आयने में झांक कर देखा। तो पाया दोनों लड़कियां सो रही है। सो क्या रही है!
व्हाली तो खर्राटे ले रही है।
एक नज़र वृंदा की और दौड़ाई। तो पाया एकदम शांत और सहज। मानो उसे समझना एकदम आसान हो।
वैसे पीछले दिनो के अनुभवों से ऋषभ ने पाया था की, वृंदा अक्सर ड्रेस पहना करती है। मगर आज उसने फिर चोली पहनली थी।
काला बेकलैश ब्लाउस जिसकी बोर्डर पर कांच की नक्काशी की गई थी। सफेद जमीन को छुता हुआ लहैंगा। जिसके नीचे का फोल काला हो रखा‌ है। जिस पर काले ऊन से ही अलग-अलग फूल बने हुए हैं।
लहैंगे के उपर की तरफ बिलकुल कमर पर पतला काला पट्टा जा रहा है। जो कमर की बाई ओर से लटकता हुआ। उसके घुटनों तक जा पहुंचा है। जो कि पुरा ऊन के, काले गोल लछ्छो से बना है। मानो कोई द्राक्षका झुमका किसी टहनी से लटकर बोल रहा हो।
बाल घुथे हुए, भाल पर छोटी सी काली बिंदी। हल्की लिपस्टिक के साथ चांदी के हल्के काले वाले झुमके।
खाली गला और कहर ढाने के लिए। छम छम करती उसके पैरों की पायल।
तभी सामने से आती गाड़ी के होर्नने ऋषभ का मोह भंग किया। वो होश में आया।
इस होर्नने वृंदा की निंद को भी आहत पहुंचाई।
गाड़ी संभालकर ऋषभ कहने लगा।
कितनी प्यारी लगती हो तुम, सोते हुए। उठती हो,
तब पता नहीं क्यूं ?
बदल जाती हो।
यह सुनकर वृंदा, जो आधि निंद में थी। कहने ही वाली थी कि, क्या बकवास किए जा रहे हो।
तभी ऋषभ बोल पडा- आखिर क्यों बदल जाती हो ? ये भी मुझे पता है।
इसपर वृंदा की निंद पुरी तरह उड़ गई। उसके दिमाग में सवालो की कतार लग गई।
इसे क्या पता है ?
कहीं इसे सब कुछ पता तो नहीं चल गया।
चल गया है, तो फिर ये यहां क्यू आया है ?
क्या ये अब मुझसे बदला लेगा ?
इन सभी सवालों ने उसे घेरा था। तब फिर ऋषभ बोल पड़ा।
ये बात किसे बताऊं समझ नहीं आ रहा। सोचा था, जब भी तुम मीलोगी। तुमसे ही कहुंगा। मगर अब जब तुम मीली हो। तो पाया तुम्हारी याददाश्त चली गई है। ये महादेव ने भी मेरी किस्मत में क्या लिखा है, पता नहीं।
पर आज तुम मीली हो। और साथ ही सो रही हो। तो सोचता हूं। ये बातें तुमसे ही कर डालु।
ऋषभ- ग्यारह महीने वृंदा, ग्यारह महीने।
ये कोई छोटा वक्त नहीं होता।
( वृंदा ध्यानसे सुन रही है। मगर आंखें बंद और सोने का दिखावा कर रही है।)
ये बक्त तुम्हारा कैसे कटा पता नहीं ?
मगर मेरा, बदहाल था।
हररोज तुम्हें ढुढंने से सुबह होती थी। और ना मीलन पर निराश शाम होती थी।
अगर शहर के नाम गीनवाने बैठु, तो गला सुख जाएगा। इतने शहर घुमा हु तुम्हारी खोज में, जितना में अपनी पुरी जिंदगी में नहीं घुमा था। उन शहरों के हर छोटे बड़े अस्पताल में तुम्हारी खोज और उससे बत्तर जब कोई मुर्दा घरसे खबर आती थी। की एक लड़की की लाश मीली है। बिलकुल तुम्हारी हम-उम्र।
उन लाशों को देखकर मैं जो रोया हूं। उसका सुरते हाल वो वहां खड़ा डोक्टर या फिर मैं ही बता सकता हूं।
वो लाशे तुम्हारी न होने की खुशी, तो तुम्हारे अब तक लापता होने का मलाल। मुझे ना हंसने देता था, ना ही रोने देता था। उन लाशों को देखकर मैं जो मोते मरा हु, भगवान ऐसा किसी के साथ न करें।
यह सब सुनकर वृंदा पुरी तरह आहत हो गई थी। वो आंखें खोलना नहीं चाहती थी। मगर उसके दिल का पानी उसकी आंखों को चीरता हुआ बहार निकल आया। आंसु के बिच धुंधली नज़र जब ऋषभ पर गई।
तो पाया उसका पीला सर्ट, उसके बाएं कांधे से निचे हाथकी और भीगा पड़ा है। शायद पसीना होगा। मगर उसके आंखों के आंसु गालों से होते हुए, उसके होंठ पार गए थे। तब उसने अपना बायां हाथ उठाया और आंसू पोंछ डाले।
फिर वो बोलने लगा।
तुम यहां मज़े में थी। ये तो नहीं कहुंगा मैं।
मगर लापता महोब्बत को ढुंढना,
मतलब सो मोते मरना है।
मेरी भगवान से अब एक ही इल्तझा है।
अगर तुने, अब आगे कभी मेरी और वृंदा की जुदाई लिखी है। तो पहले मुझे मोत देना। क्योंकि ये दर्द अब शेह पाना ना-गवारा है।
तभी ऋषभ की नजर आयने से होती हुई पीछे गई। वृंदा के आंसु भी रुक नहीं रहे थै।
उसने खुद को संभाला, आंसु सब पोंछ डाले और कहने लगा।
आप कब की जग गई ?
मुझे पता ही नहीं चला।
मैं तो बस ऐसे ही बडबडा रहा था। आप इस पर ध्यान न दें।
वृंदा- हां बिलकुल। ( उसने भी खुदको संभाला और एक मजबूत आवाज निकालने के प्रयास के साथ कहा।)
मैं तो बस उभी जगी हु। मैंने कुछ सुना भी नहीं।
( मगर उसका ये मजबूत प्रयास पुरी तरह से विफल रहा।)
उसकी आवाज साफ बता रही थी, कि वो रो रही थी।
ऋषभ- वृंदा अहा, मेरा मतलब श्यामली। वैसे में किसी से कुछ केहता नहीं। मगर आपको एक राय दें देता हु।
कहानी का मज़ा तब ही आता है।
जब उसे पहले पन्ने से पढ़ा जाए।
और ज़िंदगी जीने का मज़ा तब आता है।
जब सब कुछ भुलाकर उसे नए सिरे से जिया जाए।
इस पर वृंदा कुछ समझी नही। मगर हां में सर हिला दिया।
फिर आगे का सफर दौनो ने मौन रहकर ही गुजारा। लेकिन मौन सिर्फ उनकी ज़बाने थी। दिल जज्बात पता नहीं, किस संमदरो में गौते लगा रहे थै।
और सफर होता रहा। वक्त गुजरता रहा।
###########

जगह: वृंदा का रुम, कस्तूरबा आश्रम
वक्त: बैलगाम गुजर रहा है।

वृंदा अपने पलंग पर अपने एक हाथ के बल पर आधी लेटी पड़ी है। दूसरा हाथ उसके हाथों में पड़ी एक किताब को संभाले बैठा है। और वृंदा खुद पता नहीं किसके खयालात अपने दिमाग में लिए बैठी है।
तभी एक जिद्दी हवाके झोके ने बड़ी हिम्मत करके खिड़की पर जोर से थपाड मारी और वृंदा अपने ख्यालों के महासागर में से बहार आयी।
उसने देखा खिड़की हवा से मीलकर नाच उठी है। तो एक, उनके मीलन में बांधा न बनके और दूसरा पलंग पर से उठने की आलश ने उसे खिड़की बंद करने से रोका। वैसे बारीश लगभग जा चुकी है। तो भीगने का कोई डर नहीं।
वह फिर से अपने खयालो में उतर ने ही वाली थी। कि उसकी नजर उस किताब पर पड़ी।
उसे देखते ही, वृंदा के मन में वो बात आ ठनकी। की कहानी हमेशा पहले पन्ने से पढ़नी चाहिए।
फिर उसने वो किताब उठाई। लेकिन असल में वो एक डायरी थी। और उस पर लिखा था। ' पांखी कि यादें' शायद उसने इसका नाम रखा था।
उसने आज डायरी पहले से पढ़ना शुरू किया है। वैसे पहले भी पढ़ चुकी है। मगर इस बार बात कुछ और है। वो पढ़ती जा रही है। कुछ पन्ने हंसी के, तो कुछ उदास कर जाते हैं। किसी पन्नो में रुठना-मनाना तो कोई तोफे लाजवाब देते हैं।
आखिर कुछ पन्नो के बाद वह रुकीं। और दिलने ये सवाल किया, क्या प्यार इतना प्यारा होता है ?
मैंने तो आज तक सिर्फ दिखावा किया है। मगर मेरी बहन तुने सच्चा प्यार किया है।
मगर वृंदा को क्या मालूम,
किसे दिखावा कहते हैं, और किसे प्यार ?
' क्योंकि आप जब प्यार को समझने लगो,
तो समझ लेना आप प्यार में हो,
या फिर प्यार में पड़ने वाले हो।'

फिर वृंदा उन खयालो में खो गई। जब वो ऋषभ से मीली। उसे अपनी तरफ आकर्षित करने के प्रयास। और वो सब हो गया तब,
वृंदा के लिए ऋषभ का बैइंतहा प्यार। और वो भी इस हद तक कि, आज वो उसे ढुंढता हुआ। उसके दरवाजे तक आ पहुंचा है।
तब दरवाजे पर व्हाली आ पहुंची। मगर वृंदा को उसका कोई ख्याल नहीं। व्हालीने देखा, वृंदा अपने खयालो में हल्का हल्का मुश्कुरा रही है। यह देखकर व्हाली बोली-
ઓ હો, શ્યામલી. આ કોના ખયાલોમા મંદ મંદ હસવું આવે છે ?
वृंदा को कोई खयाल न था। उसके मुंह से निकल गया, ऋषभ।
व्हाली- શું ! રીષભ ?
એ આપડો રીષભ.
પેલો ડ્રાઈવર ?
इतने सवालों के बाद। वृंदा को होश आया। वो सोचने लगी। ये क्या, मैं बोल गई ?
वृंदा -( अपने पलंग से उठते हुए) કશુંય નય, વ્હાલી.
તું પણ શું વાતો લઈને બેસી જાય છે.
व्हाली- પણ તું રીષભ, એમ બોલી.
वृंदा- હા બોલી તે શું ?
તું તો મજાક પણ નથી સમજતી.
इस बात पर व्हाली अपना सर खुजाने लगी। और वृंदा सीधे बाथरूम में जा घुसी।
जाते ही उसने, पानी की धपाडो से अपना चहेरा धो डाला। फिर वहां पर लगा। आधा टुटा हुआ आयना। जिसकी कोई फ्रेम ना थी। बल्की दिवार पर सीधा कोलगेट की मदद से चीपकाया गया था। उसमें अपना चेहरा झांकने लगी। और सवाल करने लगी।
ये क्या हो रहा है ?
मैं उसके बारे में क्यू सोच रही हूं।
वो कातील है ?
दुश्मन है मेरा। मैं उसे कदाबी नहीं बक्सुगी। यह सब बातें याद करके वृंदा ने अपने दिल को फिर मजबूत कर लिया। और एक नए संकल्प के साथ बाथरूम से बाहर निकली। कि अब जल्द से जल्द इस कहानी को खत्म करना पड़ेगा। इस मीत पटेल को आखरी शोक देने का वक्त आ गया है।
############

आराम कुर्सी पर बैठा, राजभा आराम से जुल रहा है। मगर उसका चेहरा बता रहा है। वो बिलकुल भी आराम में नहीं है।
चहेरा झुलस चुका है। आंखें खड्डा किए अंदर जा चुकी है। आवाज में जान नहीं और चहेरे का नुर मानो कोई चुश गया है।
वो मक्कम इरादे वाला। इज्जत की खातिर जिने मरने वाला, राजभा कहीं खो गया है।
और हो भी क्यूं ना।
जिसकी एक बेटी बरसों पहले भगवान को प्यारी लग गई। और अब दूसरी लापता हैं। वह बाप कैसे चैन से जिएगा ?
कहने को कुछ भी कहा जाए। मगर "बेटीयां घर की जान होती है।"

आज घर में पहली बार इतनी ऊंची आवाज सुनाई पड़ी है। बाबासा, मासा, बाबासा।
वह राजवीरभा था। वृंदा का भाई।
वह भागते हुए आया। और सीधा राजभा के पैरों में आ गीरा। फिर उसके हाथ में धरा एक अखबार, वह राजभा को दिखाने लगा।
देखिए बाबासा, वृंदा।
घर में कोई जान न थी। मानो कोई वेरान हवेली खाली पड़ी हो। राजवीरभा के इतने चील्लाने पर भी, तरु अपने ठाकुरजी के ध्यान से न उठी। मगर जब वृंदा शब्द सुनाई पड़ा। वो भागती हुई, आ पहुंची।
कहने लगी, कहा है मेरी वृंदा ?
कहा है मेरी लाडो ?
इस तरफ से लता, राजवीरभा की पत्नीभी आ पहुंची। उसका चेहरा भी खुश्क हो चुका था। क्योंकि वृंदा के जाने के शायद ही कोई खुशनुमा पल, उसने राजविरभा के साथ गुजारा होगा।
यहां राजभा तसवीर को ठीक से देखें, उससे पहले तरूने अखबार छीन लिया। और ध्यान से अखबार को देखने लगी। जब वृंदा की धुंधली तस्वीर दिखाई दी, तो उसे अपनी बाहों में भर कर रोने लगी।
मेरी लाडो मेरी लाडो।
राजभा में पुरी जान आ चुकी है। वह झट से खड़ा हो गया। राजवीर से कहने लगा,
ये वृंदा की तस्वीर है ?
राजवीर- हां।
राजभा- कौनसी जगह की है।
राजवीर- बाबासा, ये गुजरात की तस्वीर है। उसमें कहीं राजकोट की है। पुरा पता मालूम नहीं।
राजभा- तो फिर खड़े क्या हो ?
जाओ पता करो।
जैसे ही पता चले, हम सिधा गुजरात के लिए निकलेंगे।
ठीक बाबासा कहकर राजभा, वहां से बड़ी तेजी से वहां से निकल पड़ा।
राजभा- लाओ तरु हमें भी देखने दो तस्वीर को, मगर तरु माने तो !
वह तो उसे सीने से लगाए बस रोए जा रही है। और अपने ठाकुरजी का धन्यवाद किए जा रही है।
फिर राजभाने तरु को समझाया, ये तो बस तस्वीर है। इससे क्या लाड। अभी हम जब वृंदा को लेने जाएंगे। तो उससे जी भरके मील लेना।
तरु- मैं कहे देती हु। मैं भी वृंदा को लेने चलूंगी।
राजभा- उसे वहां से लाना ही तो है। वहां तुम्हारा क्या काम ?
तरु- वो मैं कुछ नहीं जानती। मैं आउंगी मतलब आउंगी।
राजभा- ठीक है चल लेना। मगर एक शर्त पर। की तुम्हें अभी भरपेट भोजन करना पड़ेगा। तुम्हारे इतने दिनों के उपवास को छोड़ना पड़ेगा।
तरु- मगर,
राजभा- अगर मगर कुछ नहीं ?
आना है तो खाना खाना पड़ेगा।
तरु- अछ्छा ठीक है।
राजभा( लता को इशारा करते हुए)- जाओ इसे खाना खीलाओ।
और फिर लता तरु को डाईनींग टेबल की और ले जाने लगी।
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- जारी