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फरेब - 8


आज वृंदाने किसी की बात न मानते हुए। सबको छकाके सीधा ऋषभ के तंबू में घुसने की हिमाकत की है। वो भी उसकी इजाजत के बगैर। इसका परीणाम क्या होगा ?
वो तो कोई नहीं जानता।
बस इंतजार कर सकते हैं की, क्या होगा ?
मगर वृंदा भी आज कुछ ठानकर ही अंदर गयी है। उसके चहेरे के हाव-भाव बता रहे थे की, वो आज अपनी बात मनवाए बीना यहां से नहीं जाएगी।

उसने झट से तंबू के दरवाजे का कपड़ा हटाया और सीधा अंदर जा घुसी। देखा ऋषभ बिस्तर पर लेटा पडा है। शायद शोने के प्रयास में आंख बंद ही की होगी की, वृंदा वहां प्रकट हो गयी थी।
ऋषभने बंध आंखों के साथ एक अंगड़ाई ली और वृंदा के मुंह से निकल पड़ा।

"महोब्बत का भी क्या सूरुर छाया है, हम पर
वो निंदो में अंगड़ाईया ले रहे हैं और
यहां हमारी आंखे कतरा निंद को तरसती है।"
ये आवाज कान तक पहुंची भी नहीं थी की ऋषभ जट से जाग गया। देखा सामने वृंदा खड़ी है। उसने झट से अपने शरीर पर पड़ी चंद्दरको हटाया और वृंदा की तरफ आगे बढ़ते हुए बोला, क्या नींद, क्या कतरा ?
हां ? बड़ी बातें करती है।
अरे! नींद तो तुने खराब कर रखी है, मेरी।
वृंदा, दूर से बात करो। मैं शराबीयो से सीधे मुंह बात नहीं करती।
ऋषभ- अहा, अच्छा। अब मैं नसेडी, ठीक है। जो कुछ भी हो, अब में तुमसे ऐसे ही बात करुंगा। बड़ी आयी जमीनदार की बेटी।
वृंदा- हां, तो हु ही मैं जमीनदार की बेटी। तुम्हारी तरह नहीं साधु बनके घुमता है और शराब पीता है। एक बात बताओ कौनसा साधु ऐसा है जो शराब पीता है।
ऋषभ- परम पूज्य संत श्री ऋषभदेव।।
तुम मेरा दीमाग मत खराब करो। मुझे सोने दो।
वृंदा- हां, सो जाओ, तुम्हें क्या ? मैं यहां तक कैसे आती हुं। घर में क्या हालात हो रखें है। इतनी शामके वखत मैं यहां आती हुं। कुछ मालूम भी है तुम्हे ?
ऋषभ- झनझनाते हुए। हां, तो मैंने कहा था की तुम आओ। ऐसे ही हर जगह पहुंच जाती हो। और एक नयी समस्या खड़ी कर देती हो।
वृंदा- (यह सुनते ही वृंदा की आंखें भर आयी) मगर ऋषभ, मैं तुमसे प्यार करती हु।
ऋषभ- प्यार ब्यार कुछ नहीं होता। सिर्फ ढोंग होता है। जो तुम हर बार करती हो। जैसे उस दीन अपनी कलाई की नस काटकर कर रही थी। फिर दूसरे दीन बाजार में हर एक को, नयी नयी कहानी सुनाकर बेवकूफ बना रही थी।
वृदां- मुझे तुम ये बताओ मेरी कही बातों में से, कौन-सी बात ग़लत थी। अगर एक भी ऐसी बात हो, तो मैं अभी यहा से चली जाउंगी और फिर कभी यहां नहीं आउंगी।
ऋषभ- ( कुछ देर सोचकर) हां ठीक है। कोई बात जुठी नहीं है। मगर सच भी नहीं है। अब तुम्हारे पुनर्जन्म के बारे में मैं क्या जानु ?
वह सब छोड़ो, और फिर उस दिन भरे बाजार में बोल रही थी की, मेरी जांघ पर काला नीशान है। उसे सबको दीखाने को कह रही थी। अब बाजार में मैं नंगा हो जाऊं क्या ?
कुछ समझती नहीं, (कहते हुए, शराब ने उसके पैरों को कमजोर कर दीया। वो लड़खड़ाने लगा)
अगर कोई तुम्हे कहे कि कपड़े निकालो, तो तुम क्या करोगी ?
वृंदा- मुझे किसी और से क्या, अगर तुम कहते हो तो मैं जहर भी खालु।
ऋषभ- अच्छा, तो ऐसी बात है। तो मैं भी आज देखता हु। चल नीकाल अपने कपड़े और तबतक नहीं पहनेगी जबतक मैं न कहुं।
चल निका...ल कहते हुए। उसने आगे बढ़ने की कोशिश की मगर पैर रुठ गये और वो सिधा पीछे की तरफ पलंग पर जा गीरा। बैहोसी ने उसे अपनी बाहों में ले लिया। और मुहने आखरी शब्द कह डाले। नी...का..लो।

रातने अपना काम किया और वह चल दी। सुबह का ये आलम था की, वृंदा नीचे सो रही थी और ऋषभ बैहोश। तभी ऋषभ के कानों में कोई आवाज पड़ी। लगता है कोई तंबू के बाहर खड़ा, उसे पुकार रहा था। उसने नजर घुमाई, वृंदा अभी भी जमीन पर सो रही है। वही नग्न अवस्था।
ऋषभ ने अपने हाथों में तेजी दीखाई। उसने झट से पलंग पर पड़ी चद्दर उठाई और वृंदा पर देमारी। फिर सीधा दरवाजे पर गया। वहां एक शिष्य खड़ा, सुबह के नाश्ते के बारे में पुछने लगा। ऋषभ ने साफ और कड़े शब्दों में कह दीया। आज मेरे तंबू के आसपास भी कोई भटकना नहीं चाहीए। चाहे कोई भी हो। अगर कोई ऐसा करता है, तो उसकी हालत का जीम्मेवार वह खुद होगा। अब तुम जाओ कहकर वो वापस तंबु मे लोटा।
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समय कुछ सुबह के ७:३० हो रहा है।
राजभा ने आज नाश्ता नहीं किया। राजभा क्या, आज घरमे किसीने भी नाश्ता नहीं किया। डाईनींग टेबल पर नाश्ता मुर्जाए पड़ा है। समीर की आंखें कब से उसे ही ताके जा रही है। मगर माहोल कुछ ऐसा है की वह भी नाश्ते से वंचित खड़ा सिर्फ उसे ताके जा रहा है।
घरका हर कोई सदस्य वहां कतार में खड़ा है। माहोल कुछ संगीन है। वह सब किसी का इंतजार करते दिखाई दे रहे हैं।
तभी वहां पर खुदीराम का आगमन होता है।
उसने वहां आकर बड़े ही नम्रभाव से राजभा से कहा, जी हुकुम। आपणे मारे को बुलवाया ?
राजभा-( अभी बड़े गुस्से में है, उसने कहा) खुदीराम, मेने वृंदा की जीम्मेवारी तुम्हे दी थी। तो बताओ वृंदा कहा है।
खुदीराम- हुकुम, बाईसा। बाईसा कठे को है मारे को कोणी पता। ठे को तो घर पर ही होणा चाहिए।
राजभा- वही तो नहीं है। वृंदा अपने कमरे क्या, वो तो इस हवेली में ही नहीं है। और नोकर-चाकर तो क्या!
खुद उसकी मां को ही नहीं पता की उसकी बेटी कहा पर है।
खुदीराम- हुकुम आप चींता कोणी करो। मैं अभी पता लगवाता हु की, बाईसा कठे को है।
और उनको लिवाने के बाद ही घर को लोटुंगा। जे आ खुदीराम नो वचन है।
( बस इतना कहकर खुदीराम कुछ साथी और जीप लेकर वहां से निकल गया।)
राजभा- इस घर में चल क्या रहा है ?
कोई बतायेगा मुझे।
तरु- कुछ सहमी सी अपनी जगह से दो कदम आगे आकर बोली। सुनीएजी।
राजभा- क्या है ?
( उसकी ये गुस्से भरी आवाज से तरु डर गई। मगर फिर हिम्मत करके बोली।)
आपको पता है न, उस दिन जब आप और राजवीर दौनो जोधपुर शादी में गए थे। और वापस लोट कर किसी भी साधु-संत से पुजा न करवाने की बात कही थी।
वह बोला, हां। मुझे पता है। तो ?
तरु- तो, उस दिन एक ओर बात हुई थी। जो आपको पता नहीं है।
राजभा- लो बताओ, अब तुम भी मुझसे बातें छिपाने लगी।
तरु- नहीं जी, वैसी बात नहीं है। बात ही कुछ ऐसी थी कि मैं आपको बता न सकी।
राजभा- खैर, बताओ क्या बात है।
वो बोली, उस दिन वृंदा ने अपने पुनर्जन्म की बात और बाकी कहानी बतायी थी। कहकर सारी घटना कह सुनाई।
राजभा- ठीक है, तो वो पेईन्टीग बताओ। जो वृंदा ने बनाई थी।
तरुने नोकर को बुलाकर वो पेईन्टीग मंगवाई।
उसे थोड़ी देर गौर से देखकर राजभा बोला- अरे बैवकुफ औरतों, तुम्हारी आंखें हैं या कंच्चे।
इसमें साफ-साफ दिखाई दे रहा है। अगर इसकी दाढी और बाल बढ़ा दीए जाए तो ये बिलकुल उस साधु की तरह ही दीखेगा। इसका मतलब साफ है, की वृंदा इसी कारण उसके आश्रम बार-बार जाती है।
ये बात सुनकर तरु, लता सब हैरान रह गए।
मगर राजभा एकदम सटीक था। उसने राजवीर से कहा, अब मेरा मुंह ही ताकता रहेगा ? या आश्रम चलने के लिए गाड़ी भी, मैं ही निकाल के लाऊं।
राजवीर- नहीं बाबासा, मैं निकाल कर लाता हु। आप गेट पर पहुचीए। कह, राजवीर भागकर वहां से चला गया।
तरु- देखीए जी, वो अब हमारी इकलोती बेटी है। जरा संभलकर।
राजभा- जो भी हो। मगर इज्जत से बढ़कर कुछ नहीं होता। कुछ भी नहीं, बेटी भी नहीं।
फिर तरु की ओर देखकर, समझी तुम।
कह, बड़े कदम भरते हुए दरवाजे की तरफ नीकल पड़ा।
और उसी वक्त एक मां का दिल रो पड़ा। फिर तरु भागी-भागी अपने ठाकुरजी के मंदिर में पहुची और अपने उपर हुए जुल्मो का हिसाब मांगने लगी।
लताभी उसके साथ ही आ-खड़ी हुई। अपनी मां समान सासको सांत्वना देने के लिए।
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ऋषभने लोटकर देखा, तो वृंदा जाग चुकी थी। शायद बाहर से आती आवाज के कारण ?
लेकिन उसके शरीर पर अभी भी वो कंबल पड़ा था। जो ऋषभने उस पर फेंका था।
उसने आते ही गुस्से की मुद्रामे कुछ कहना चाहा, मगर वृंदा की आवाज ने उसे रोक लीया।
वृंदा ने जमीन पर से धीरे-से उठते हुए कहा।
मुलायजा गौर फरमाइएगा, इस कनीज की और से पेसे खीदमत है। की-
" वो हमसे हमीको मांगते रहे।
हमने दिल दीया उन्हें,
वो है की, हुस्नको ही चाटते रहे।"
ऋषभ- ये क्या बंत्तमीजी है ?
तभी वृंदा पुरी तरह खड़ी हो गयी और उसके बदन पर पड़ी एकमात्र चद्दर उसके रेशमी हुस्न से शरक कर जमीन से लिपट गई।
लेकिन अगर वृंदा की बात करे तो, उसने एक पलक तक न जपकी। मानो कुछ हुआ ही नहीं।
' ना बादल बरसे, ना मोर नाचा।
और नाही किसी ने देखा।'
चहेरे पर एक शीकन तक नहीं। आंखें स्थिर और सीधी मानो कोई लक्ष तय कर रही हो।
यह सब एक स्त्री के चरित्र को किस तरह दीखाता है। ये तो मालूम नहीं।
मगर हां, इतना जरूर कह सकता हु। हरेक स्त्री, अपने आपमें नायाब होती है और हरेक की अलग सोच होती है। वो सोच हम लोगों के लिए, या फिर दुनिया के लिए गलत हो सकती है। लेकिन अगर वो ठान लें, तो वहीं सत्य और वही शीव है। और आज वृंदा में वही बात दिख रही है।
ऋषभ की बात करें तो,
जैसे ही उसने चद्दरको वृंदा के शरीर पर से सरक ते देखा। उसे पकड़ने के लिए वो दौड़ा, मगर उसका ये प्रयास पुरी तरह से विफल गया। वह अभी वृंदा से बस पांच कदम की दुरी पर था की, वृंदा के शरीर ने चद्दर का साथ छोड़ दिया। और वैसे गिरी जैसे पानी की बुंद किसी पान से होकर गीरती है। और उसी के साथ ही ऋषभ के पैरोने भी काम करना बंद कर दीया। और वह धड़ाम से जमीन पर आ गीरा। जैसे कोई पतंग खूले आसमान में तैर रही थी। और किन्ना टुटने से चक्कर खाकर जमीन पर आ गिरती है। वैसे वह भी जमीन से आगीरा। आंखोंने पहले क्या देखा पता नहीं ? पर अब बंध है।
अगर ऋषभ की जगह कोई और होता। तो ये आंखें बंद करना, न कर पाता। वह चाहे कोई साधुभी क्यो न होता। इस यौवन को देखकर बेहक जाता।
वो हुस्न की कारीगरी थी ही, कुछ वैसी। वो गले का घाट मानो, गंगा का पानी बनारस के किसी घाटको भीघाकर जा रहा हो। उभरी छातीसे लिपटते तो, एक मौत ही जुदा कर पाती। कमर से झुकते, तो खड़ा होना मुश्किल था। वो कमाल का हुस्न मानो कोई हडप्पा के कारीगर कि नक्काशी हो।
अभी ऋषभ का सर वृंदा के पैरों के ठिक सामने आ गया है।
उसने कहा, ये क्या बेहूदगी है ? वृंदा।
अच्छा, ये शब्द वृंदाने इतनी तेजी से और एकदम दबे एवं व्यंगात्मक तरीके से बोला की सिर्फ 'च्छा' सुनाई दीया। लेकिन उस वक्त एक तरफ से उठी हुई उसकी दाईं भवे और बाईं आंख का हल्का-सा छोटा होना। अगर ऋषभ देखता, तो मालूम नहीं क्यू ?
मगर ये शब्द मुंह से जरुर नीकलता,। "फिदा"।
वृंदा बोली- देखो देखो ए जहां वालों,
'कलका भगवान मैं, आज रावण हो गया हु।
जीसने हुस्नकी चाह में कल नंगा किया मुझे,
आज उसी के लिए बदईमान हो गया हु।
वाह री महोब्बत।'
ऋषभ- वृंदा तुम बहुत अच्छी और भले खानदान की लड़की हो। तुम्हारा यह सब करना, एक खानदानी लड़की को सोभा नहीं देता।
तुम्हारे बाबासा की इज्जत के बारे में तो सोचो।
वृंदा- तुम्हे पता नहीं ?
कल क्या कहा था, तुमने मुझे।
ऋषभ- हां, मानता हूं मेरी गलती है। कल शराब के नशे में, मैं क्या बोल गया। इसका अंदाजा मुझे था ही नही।
मगर तुम तो समझदार हो, तुम्हे अपने अच्छे-बूरे का खयाल नहीं ?
कलको उठकर कोई भी तुम्हे कुछ भी करने को कहेगा, तो करोगी क्या ?
वृंदा-कोई भी नहीं, कोई ऐरा-गैरा नहीं। मुझे तुमने कहा था। सिर्फ और सिर्फ तुमने। इसिलिए मैंने ये किया, समझे तुम।
अरे कपड़े क्या चीज !
तुम केहकर देखो,
मैं अपनी चमड़ी निकालकर खड़ी हो जाउंगी।
ये मेरा प्यार है।
ना रोये टुटेगा, ना रुलाए टुटेगा।
तुम चीर दो मुझको या मेरे कपड़ों को,
ये ना जलाए जलेगा, ना राख तेरे हाथों से सिमटेगी।

तुम्हे शायद पता ही नहीं की, मैं तुमसे कितना प्यार करती हु। पर इसका अंदाजा तुम्हे होना चाहिए।
लेकिन आज तुमने मेरे प्यार का अपमान किया है। इसके लिए मैं तुम्हें माफ नहीं करुंगी।
ऋषभ-ठीक है, तुम जो चाहो। मुझे सजा दे सकती हो।

( ऋषभ इस वक्त पुरा डरा हुआ लग रहा था। क्योंकि उसे अपनी गलती का अहसास था। एक लड़की का किसी भी इंसान के सामने कपड़े उतारना। मौत की सजा से कम बिलकुल भी नहीं था। वो भी उस जमाने में जहां औरतें दिन मे अपने पती से पर्दा करती हो। वहां वृदाने मुझ जैसे इंसान के लिए कपड़े उतार डाले हैं। और साथ ही साथ वृंदा के लिए उसके दिल में सम्मान भी बढ़ गया था।)

वृंदा- (रोनी शकल पर एक निरास हंसी, एक सेकंड के लिए लाई) फिर बोली,
मैं क्या तुम्हें माफ नहीं करुंगी !
मैं मरती हूं तुम पर। इसिलिए तो ये हाल है।
हां, माना तुमसे नाराज़ नहीं। मगर खुदसे तो हो सकती हु।
मैंने आजतक चाहा है की, जो भी तुमसे मीले, मैं उसे तुमसे बीना कोई सवाल के ले लूंगी।
चाहे वो प्यार हो या फिर नफरत।
और आज जो तुमने मुझे बिना कपड़ों की इज्जत नवाजी है। मैं उसे भी कुबुल करती हु।
जिसकी परवा उसका प्रेमी ना करें, उसे दुनिया से क्या इज्जत की उम्मीद !
अब मैं इसी हालमे यहां से जाउंगी। चाहे कुछ भी हो जाए।
कह, वृंदा वहां से जाने लगी।
और इसी शब्द ने ऋषभ को झकझोर दिया। उसे खुद से कुछ छुटता हुआ लगा। वृंदा का बढ़ाया हुआ हर एक कदम, उसे कुछ कहने लगा।
बिना कोई कारण आंखें बहने लगी। और उसी वक्त उसकी बंध आंखों ने अपना पर्दा उठाया।
जब नज़र वृंदा की ओर गयी। तो धुंधली आंखोने किसी जलपरी को चलते देखा।
उसे लगा कुछ बिछड़ रहा है। दिल भारी हो रहा है। प्यार तो था ही, पर आज मानो हरकोई कह रहा था। भाई फिर ना मिलेगी। रोक ले।
ऋषभने अपने हाथों में ताकत भरी और जमीन को धकेलते हुए आगे बढ़ा।
अभी वृंदा ऋषभसे चार कदम की दूरी पर थी। और पांचवें कदम पर बढ़ रही थी।
ऋषभ ने उठते ही आवाज लगाई, वृंदा। और साथ ही अपना एक हाथ अपनी कमर पर बंधी धोती पर लगाया और उसे जोर से खींचा। साथ ही वृंदा की तरफ दौड़ा।
अभी वृंदा मुड़ी ही थी की,
ऋषभ उसके ठीक करीब पहोंच गया और अपनी धोती जो उसने पहन रखी थी। वृंदा के ऊपर लपेट दी। और साथ ही उसे अपनी बाहों में कस के भींच लिया।
तुम क्या हो ? कौन हो ? क्यू हो ?
मुझे कुछ भी पता नहीं।
तुम मुझसे प्यार करती हो या नहीं करती। मुझे नहीं पता।
मैं तुमसे प्यार करता हूं या नहीं ?
ये भी मुझे नहीं पता। हमारा क्या मेल है। या है भी नहीं। ये भी नहीं पता।
लेकिन इतना जरूर पता है कि, मुझे तुम चाहीए और सिर्फ तुम चाहिए।
फिर वो बोला, वृंदा- तुम सुन रही हो ?
मगर वृंदा का कोई जवाब नहीं।
उसने फिर कहा, वृंदा।
वृंदा ने कहा, हं।।
मगर उसकी ये आवाज साफ बता रही थी। की वो रो रही थी।
ऋषभ- वृंदा क्या तुम मुझसे शादी करोगी ?
वृंदा, वह अभी भी ऋषभ की बाहों में थी। और ये सवाल सुनकर इस तरह हो गई। मानो बरसों के प्यासे ने आज समंदर देखा है। और सारे दुखों को भुलाकर उसने ऋषभको ओर कसकर पकड़ लिया। मगर आंसु अभी भी रुक नहीं रहे थें।
ऋषभ- अरे, वृंदा धिरे से, मुझे दर्द हो रहा है।
वृंदा- अब तुम मुझे ठीक से गले भी नहीं लगाने दौगे।
ऋषभ- ठीक है लगालो, मगर जवाब तो दे दो।
क्या मुझसे शादी करोगी ?
वृंदा- अब तुमसे शबर भी नहीं होता। तुम कितने बुरे हो। कहते हुए, वृंदा ने ऋषभकी बाहें छोड़ी और अपने दौनो हाथों से उसे पीटने लगी।
ऋषभ- अच्छा बाबा, पीट लो। अब यही बाकी था।
वृंदा- हां, तो ?
कहते हुए, नीचे देखा तो ऋषभने कुछ पहना ही नहीं था। ये देखकर वृंदा उछल पडी और अपनी आंखें बंद कर पीछे की ओर मुड़ गयी।
फिर कहने लगी, तुम्हारी धोती कहा पर है, मीत ?
ऋषभ- ये क्या है , जो तुमने ओढ रखा है ?
वृंदा- ये तो, कहते हुए। वृंदा ने जब अपने उपर नजर डाली तो। वह ऋषभकी धोती थी। अब करें तो क्या करें। ना निकाला जाए और ना ही पहना जाए।
फिर कुछ सोचकर बोली, अब हम दोनों में कैसा पर्दा ? कहकर, उन दोनों ने एक-दूसरे को एक ही धोती में लपेट लिया।
और इतने दिनों के दर्दको काटने के लिए। एक दूसरे की आंखों में डुबने लगे।

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- जारी

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