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रहस्यों से भरा ब्रह्माण्ड - 3 - 5

रहस्यों से भरा ब्रह्माण्ड

अध्याय 3

खंड 5

नरसिम्हा के लिए अपने बड़े भाई की मृत्यु का शोक अपार था। किंतु इस समय उनके ऊपर दो राज्यों का कार्यभार आ पड़ा, जिसको अपने दुख के कारण वो अनदेखा नहीं कर सकते थे। नरसिम्हा नहीं चाहता था कि उसके कारण दोनों राज्यों की प्रजा जिनकी जनसंख्या लाखों में थी किसी भी प्रकार से कष्ट भोगे, नरसिम्हा ने बड़े ही कुशलता पूर्वक दोनों राज्यों की देख रेख करनी शुरू कर दी। नरसिम्हा ने आने वाले प्रत्येक संकट का निर्भयता से सामना कर उनका हल निकाला। नरसिम्हा ने वसुंधरा राज्य के पर्वतों वाले गुप्त मार्ग को भी सामान्य रूप से खोल दिया। ताकि दोनों राज्य के वासियों का आना जाना सरल बन जाये।

धीरे धीरे नरसिम्हा को नई समस्या उभरती दिखाई दी।

गजेश्वर राज्य में पुराने राजा के समय में भ्रष्टाचार काफी अधिक था। जब पुराने राजा का वध हुआ तो कुछ समय के लिये भय के करण वो भ्रष्टाचारी शांत बैठे रहे। किन्तु समय बीतने के साथ उनके भीतर का लोभ धीरे धीरे किसी राक्षस की भांति जागरूक होने लगा। और उनका भय भी जाता रहा।

नरसिम्हा को गजेश्वर राज्य की ये नई समस्याएं दिखी, जिनमें भ्रष्टाचार और पद का दुरुपयोग करने वालो की एक बड़ी तादाद उभरती नज़र आई। इसके समाधान के लिए राजा नरसिम्हा ने जगह जगह चेतावनी की मुनादी करवाई ताकि अनुचित कार्य करने वाले लोग ये सब बन्द कर दे। मगर इनका दुष्ट लोगों पर कोई अधिक प्रभाव नहीं पड़ा। उलटा उनकी भ्रष्टाचार की गंदगी वसुंधरा तक आ पहुँची,

अब राजा नरसिम्हा ने ठोस कदम उठाते हुए। उन सभी भ्रष्ट और अपने पद का दुरुपयोग करने वाले लोगों को एक एक कर देश निकाला दे दिया

एक एक कर निकाले उन लोगों की संख्या सेकड़ो में पहुँच गई। जो गजेश्वर राज्य के आस पास के बीहड़ इलाकों में अपना बसेरा बना कर रहने लगे।

उन लोगों ने वसुंधरा और गजेश्वर राज्य के आने जाने वाले धनी और व्यापारियों पर आक्रमण कर डकैती डालनी शुरू कर दी।

जिस से तंग आ कर राजा ने मुख्य मार्गों पर सैनिकों की सुरक्षा मुहैया करवा दी। किन्तु यहाँ भी कुछ लालची व्यापारी ऐसे थे जो राजा से कर बचाने के लिए अपना धन उनकी नज़र से बचाने के चक्कर में कुछ अलग रास्तों से शहर में प्रवेश करते। जिसके कारण असुरक्षित स्थान से उनको गुजरना पड़ता। और वो लोग आसानी से डाकुओं की क्रूरता का शिकार हो जाते। यहाँ तक कि डाकुओं का साहस इतना अधिक हो गया, की वो जिस गाँव में कम सुरक्षा होती उसमें ही डकैती मारने के लिये घुस जाते, उनके पास बड़े ही शातिर लोग थे। जो उनको सटीक जानकारी दिया करते।

राजा ने कई बार इन से तंग आ कर अपने सेना की बड़ी टुकड़ी उनके बीहड़ इलाकों में डाकुओं को पकड़ने के लिए भिजवाई किन्तु वे डाकू बड़ी चतुराई से वहाँ से भी बच कर निकलने में सफल होते।

इसी प्रकार से एक सामान्य दिन राजा का एक प्रिय सेवक अपनी नई विवाहित धर्म पत्नी को उसके मायके छोड़ने जा रहा था। उसके पास अपने ससुराल के लिए कई मूल्यवान उपहार और खाने की सामग्री थी वो रथ पर था जो राजा द्वारा उसको विवाह में भेंट स्वरूप मिला था।

जब उन दुष्ट डाकुओं को इनकी जानकारी मिली, तो डाकुओं के लिए ये किसी स्वर्ण अवसर से कम नहीं था। बड़ी सरलता से दुष्ट डाकुओं ने उस प्रेमी जोड़े को पकड़ कर बंधक बना लिया।

डाकुओं ने रथ और अन्य मूल्यवान वस्तु लूट ली मगर उन पापियों की क्रूरता इस पर समाप्त नहीं हुई। उन डाकुओं ने उस युवक को पेड़ के साथ रस्सियों से जकड़ कर बांध दिया।

उसके बाद उस निर्बल असहाय युवक के सामने ही उसकी पत्नी के साथ एक एक कर दुष्कर्म किया। उसके बाद बड़ी निर्दयता से एक बड़े पत्थर से उस युवती का सर बार बार कुचल कर उसकी हत्या कर दी।

अपनी नवविवाहिता स्त्री के साथ ऐसा अन्याय होता देखने वाले उस युवक की स्थिति का अनुमान लगाना बड़ा ही कठिन है।

इन सब हिंसक दृश्यों से आनंदित होते राक्षस रूपी डाकुओं में से एक उस पेड़ से बंधे युवक की हत्या के लिए उसकी ओर बढ़ता है। युवक के पास पहुँच वो डाकू अपनी तलवार का मुळा मजबूती से पकड़ता है। तभी बिजली की गति से एक घुड़ सवार उस डाकू के पीछे से गुजरता है। और वो डाकू वही जम सा जाता है। युवक इस दृश्य को समझे उससे पहले उस डाकू का सर धड़ से अलग हो कर उस युवक की गोद में आ गिरा।

युवक ने नज़रें उठाई। तो पाया काले घोड़े पर एक तलवार धारी योद्धा अपना चेहरा ढक कर बैठा है। उसको देख कर युवक को प्रतीत हो रहा था मानो कोई देवता साक्षात उन पापियों का विनाश करने उनका काल बन कर आया है। ना जाने क्यों उस घुड़सवार को देख कर युवक के भीतर एक नई ऊर्जा का संचार सा हुआ।

और उस युवक की आंखों से श्रद्धा और गर्व के आँसू बहने लगे। जैसे उसके आंसू कह रहे हो। इन पापियों का नाश कर इस धरती का उद्धार करो भगवन उद्धार करो...

अपने साथी का धड़ सर से अलग ज़मीन पर पड़ा देख। बाकी के सभी डाकू अपने भीतर क्रोध अग्नि को भर उस घुड़सवार पर झपटे, जो इस बात से अज्ञात की वो घुड़सवार कोई साधारण घुड़ सवार ना था। बल्कि चक्रवर्ती राजा हम्जा राणा था जिसका पता तब चला जब दो चार डाकुओं को यमलोक पहुँचाने के बाद उनका नकाब हट गया।

इस योद्धा का पराक्रम शूर वीरता और तेज़ उन डाकुओं में से बहुत से डाकू स्वयं अपनी आँखों से रणभूमि में महायुद्ध में देख चुके थे।

अब उन डाकुओं का आधा साहस वही पस्त हो गया। और बचे आधे साहस के साथ उन्होंने हम्जा राणा पर आक्रमण किया,

परंतु हम्जा जैसे अस्त्र विद्या में निपुण मनुष्य के आगे वो जंगली युद्ध करने वाले डाकू कहा टिकते। उन डाकुओं को तो केवल बल द्वारा युद्ध लड़ना आता था किंतु हम्जा बल और बुद्धि अस्त्र और शस्त्र सब का उपयोग करना जनता था।

देखते ही दखते पूरी भूमि रक्तमय हो गई। और उन डाकुओं में कुछ चुनिंदा डाकू ही शेष रह गए। जिन्होंने अपने प्राणों की रक्षा के लिए आत्मा समर्पण कर दिया। हम्जा ने उनके हाथों को मजबूती से बांध कर घोड़ों पर बिठा दिया। और बाकी डाकुओं के बचे घोड़ों को एक के पीछे एक बांध कर उनका झुण्ड बना दिया और सबसे आगे बंधे पांचों घोड़ों को उस रथ से बांधा। फिर युवक को मुक्त कर उसको रथ की कमान संभालने के लिए बोला। युवक मुक्त होते ही पहले अपने जीवन दान देने वाले के चरणों को बड़े ही आदर से स्पर्श कर उनको धन्यवाद देता है। उसके बाद अपनी पत्नी का शव उठा कर अपने रथ में रख कर ढक देता है। जिसको करते समय अपनी प्रियतमा के साथ बिताए कुछ मधुर क्षण उस युवक को भीतर से खसोटते थे। जीवन भी विचित्र है। जिसके साथ युवक कुछ समय पहले लम्बे समय तक साथ निभाने की कसमें खा रहा था अब उसका ही शव युवक के हाथों में है।

वसुंधरा में प्रवेश करते समय हम्जा ने अपना नकाब वापिस लगा लिया था वो नहीं चाहता था उसको देख कर लोग उसके इर्द-गिर्द किसी भी तरह इकट्ठा हों।

हम्जा सबसे आगे था, उसके पीछे अपने रथ में बैठा युवक और युवक के पीछे बंधे हुए घोड़ों का झुंड जिन पर पांच हाथ बंधे डाकुओं को लादा हुआ था।

युवक ने एक जगह देखा, की हम्जा के घोड़े की दाईं ओर एक पोटली सी बंधी हुई थी जिसको गोर से देखने पर ऐसा लगता कि उसके भीतर कोई शिशु सो रहा हो। मगर फिर इसको अपना भ्रम समझ युवक अनदेखा करता है। और मन में किसी वस्तु के होने का झूठ बसा कर अपना ध्यान उस से हटाता है।

हम्जा को गए हुए 1 वर्ष से भी अधिक गुजर चुका था। जिसके बीच बहुत से बदलाव हुए। यहाँ तक कि उसके प्रिय भाई नरसिम्हा और बहन दुर्गा दोनों का विवाह हो चुका था। हम्जा भी काफी बदल गया। उसे देख कर लगता था मानो उसके भीतर कई राज दफन है। जिसके खुल जाने के भय से उसने मोन व्रत धारण कर रखा है। खैर जिस प्रकार वसुंधरा राज्य में उसका आगमन हुआ। मतलब 50 से भी अधिक घोड़ों का झुंड और साथ में 5 खूंखार आतंकी तो भला कैसे लोगों का ध्यान उसकी ओर आकर्षित नहीं होता। जिसका परिणाम ये हुआ। की उसके महल पहुँचने से पहले ही उसके आने की सूचना महल पहुँच गई। मगर एक अज्ञात व्यक्ति के रूप में जिसका नरसिम्हा को कोई अनुमान नहीं की वो मित्र है या शत्रु, इसलिये अपने सलाह कारों के कहने पर वो स्वयं उसके स्वागत के लिये। किले के बहार पहुँच गया। मगर अकेला नहीं बल्कि अपनी शाही सैनिकों की टुकड़ी के साथ थोड़ी देर की प्रतीक्षा करने के बाद उन्हें वो अज्ञात व्यक्ति नज़र आ गया।

जब हम्जा ने किले के बहार शाही सैनिकों की टुकड़ी अपने भाई के साथ खड़ी देखी, तो ना जाने क्यों उसके भीतर का योद्धा जागृत हो गया और वो फुर्ती से घोड़े से उतर कर अपनी तलवार को अपनी मियान से ऐसे बाहर खिंचता है। मानो उन राज सैनिकों को युद्ध के लिए ललकार रहा हो। राज सैनिक भी अपने राजा पर खतरा मंडराता देख कर अपने योद्धा रूप में तुरंत ही परिवर्तित हो जाते है। इससे पहले कोई अनर्थ हो पीछे रथ पर सवार युवक अपनी पूरी जान लगा कर चीख पड़ा " रुको....

युवक की आवाज़ सुनकर हम्जा भी दो कदम पीछे हट गया। उसे देख कर ऐसा लगा मानो उसकी चेतना उसकी युद्ध इंद्री उसके नियंत्रण में नहीं थी और युवक की तीखी आवाज़ ने उसको जागरूक सा कर दिया, हम्जा को उसके शरीर का नियंत्रण लोटा दिया हो।

वही रथ से नीचे उतर कर दौड़ता हुआ वो युवक राजा के समक्ष जा पहुँचा। अपने विश्वास पात्र अपने प्रिय सेवक को देख कर राजा को उससे कोई खतरा महसूस नहीं हुआ और वो भी घोड़े से उतर कर उससे वापिस आने का कारण पूछने लगा।

युवक ने अपने साथ घटी सारी घटना विस्तार से बता कर बोला " और ये दैवीय पुरुष और कोई नहीं हमारे स्वामी आपके प्रिय भाई हम्जा राणा है। जिनके कारण आज आपका ये तुच्छ सेवक जीवित आपके समक्ष है।

युवक की बातों को सुन नरसिम्हा की आंखों से आंसू बहने लगे, भले ही उसने अपने भाई को अपनी आंखों से राख होते देखा, किन्तु जिस प्रकार एक माता अपने मृत बालक को जीवित देख कर उससे उसके जीवित होने पर सवाल करने की जगह उसको सीधा अपने हृदय से लगा लेती है। ठीक उसी तरह अपने बड़े भाई के जीवित होने की अविश्वसनीय सूचना सुन कर नरसिम्हा से भी रहा नहीं गया, और वो बिना अपने प्राणों की परवाह किए सीधा हम्जा के समक्ष जा पहुँचा, और उसका नकाब अपने हाथों से हटा दिया।

उस पर्दे को हटा कर नरसिम्हा ने केवल हम्जा का रूप ही नहीं उजागर किया, बल्कि उसके साथ उस चमत्कारी सत्य को भी उजागर किया जिसकी अपेक्षा वहाँ उपस्थित किसी भी मनुष्य के लिए करना असंभव था।

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