पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 16 Lajpat Rai Garg द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 16

पूर्णता की चाहत रही अधूरी

लाजपत राय गर्ग

सोलहवाँ अध्याय

मीनाक्षी और नीलू ने दोपहर का खाना इकट्ठे बैठकर खाया था। खाने के बाद बहादुर बर्तन उठा लेकर गया ही था कि डोरबेल बजी। खाना खाने के बाद नीलू बाथरूम में थी। इसलिये मीनाक्षी ने आवाज़ लगायी - ‘बहादुर, जाकर गेट खोल। देख, हरीश होगा। उसे बेडरूम में ही ले आना।’

कुछ पलों बाद ही हरीश और सुरभि ने आकर मीनाक्षी को नमस्ते की।

‘अरे सुरभि, तुम भी आयी हो! तुमने क्यों कष्ट किया?’

बहादुर हरीश और सुरभि को बेडरूम की ओर संकेत करके कुर्सियाँ लेने चला गया था।

सुरभि - ‘दीदी, इसमें कष्ट काहे का? कल जब हरीश ने बताया, मैं तभी से बहुत बेचैन थी। आज जब सुबह इन्होंने बताया कि दोपहर में अम्बाला जाना है तो मेरे से रहा नहीं गया। बहुत बेरहम निकले कैप्टन साहब!’

मीनाक्षी ने सुरभि की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। उत्तर कोई बनता भी नहीं था, क्योंकि मीनाक्षी की स्थिति को देखकर यह उसकी प्रतिक्रिया थी। इसलिये मीनाक्षी ने बात के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पूछा - ‘सुरभि, बच्चे तो ठीक हैं?’

‘हाँ दीदी, एग्ज़ाम चल रहे हैं, बस एक पेपर रह गया। पढ़ने में लगी हुई हैं।’

इतने में नीलू भी बाथरूम से निकल आयी। उसने हरीश और सुरभि को नमस्ते की।

‘नीलू, बहादुर को कह, चाय बना लेगा।’

हरीश - ‘नीलू, चाय के लिये अभी मत कहना। खाना खाते ही निकल लिये थे। थोड़ा रुक कर ले लेंगे।’

मीनाक्षी - ‘चल अभी चाय रहने दे। और सुन, तू थोड़ी देर आराम कर ले। पन्द्रह-बीस मिनट बाद दवाई मैं ख़ुद ले लूँगी। तुझे उसकी चिंता करने की ज़रूरत नहीं। और हाँ, बहादुर को कह दे कि खाना खाकर वह भी आराम कर लेगा।’

‘मैं चाय बनवा देती हूँ, फिर रेस्ट कर लूँगी।’

सुरभि - ‘नीलू, हम रुकेंगे घंटा-दो घंटे। चाय जब पीने का मन होगा, मैं बना लूँगी। तुम जाकर आराम कर सकती हो।’

इसके बाद नीलू बिना कुछ और कहे वहाँ से चली गयी। उसके जाने के बाद हरीश ने बात चलायी - ‘दीदी, कैप्टन के बारे में कुछ पता लगा कि कहाँ है वह?’

‘कल तुम्हारे जाने के बाद नीलू ने बहादुर से फ़ार्महाउस पर फ़ोन करवाया था, लेकिन वह वहाँ नहीं गया। आज ग्यारह-एक बजे ऑफिस भी पता करवाया था, किन्तु रामरतन के पास भी कोई समाचार नहीं था, बल्कि वह तो पूछ रहा था कि कैप्टन साहब कहीं बाहर गये हैं क्या? उसको इस घटना की भनक न लगे, इसलिये गोलमोल सा जवाब दे दिया था।’

‘दीदी, आप कहो तो मैं एडवोकेट सूद के पास हो आऊँ, सुरभि आपके पास बैठी है।’

‘उसका फ़ोन नम्बर है तुम्हारे पास तो जाने से पहले पता कर लो कि कहाँ मिलेगा?’

हरीश ने फ़ोन किया तो सूद ने कहा, आ जाओ, मैं घर पर ही हूँ। मीनाक्षी ने उसे जाने से पहले सचेत किया कि अभी सूद को नीलू के सम्बन्ध में कुछ न बताये।

घंटे-एक बाद हरीश वापस आ गया। उसने मीनाक्षी को बताया - ‘दीदी, एफ.आई.आर. लिखवाने से पहले एडवोकेट सूद आपसे मिलना चाहता है।’

‘हरीश, सूद को तो सब बातें बतानी पड़ेंगी, नीलू के जन्म की भी!’

‘हाँ दीदी, वह तो बताना ही पड़ेगा। मान लो, यदि एक बार हम नहीं भी बताते तो भी यह बात दबी तो रहेगी नहीं, क्योंकि कैप्टन अपने बचाव में अपने वकील को जो कुछ भी बतायेगा, उसकी शुरुआत ही नीलू के प्रसंग से होगी। फिर क्यों न नीलू को सारी स्थिति से अभी अवगत करवा दें ताकि अचानक पता लगने पर जो मेंटल शॉक उसे लग सकता है, उससे उसे तो बचा लें।’

‘बात तो तुम्हारी ठीक लगती है।’

‘लेकिन दीदी, यह करना आपको स्वयं होगा और वह भी तब जब कोई तीसरा व्यक्ति उपस्थित न हो। अच्छा रहेगा यदि यह वकील को मिलने से पहले हो जाय।’

‘रात को जब बहादुर रसोई समेट लेगा, उसके बाद नीलू को समझाने की कोशिश करूँगी।’

‘यद्यपि मामला गम्भीर है, किन्तु नीलू भी अब बच्ची नहीं। मुझे उम्मीद है कि सारी परिस्थितियों को जानकर वह कोई ग़लत धारणा नहीं बनायेगी और आपके साथ उसके प्यार में बढ़ोतरी ही होगी। ....... कल शाम को मैं एडवोकेट सूद को उसके घर से लेता आऊँगा।’

‘मतलब, कल तुम फिर आओगे?’

‘इसमें इतना सोचने वाली क्या बात है! हो सकता है, कल तक कैप्टन का भी कुछ अता-पता लग जाए! .... सुरभि, अब तुम चाय बना लो, फिर चलेंगे।’

‘हरीश, बहादुर को आवाज़ दे लो। वही चाय बना लेगा। और फिर पन्द्रह दिन की मेडिकल लीव लिख लो, मैं साइन कर दूँगी। कल ऑफिस में डायरी करवा देना।’

चाय पीने के बाद हरीश और सुरभि ने मीनाक्षी से जाने की इजाज़त ली।

........

रात को मीनाक्षी दिल कड़ा करके नीलू को अपने विगत जीवन के अँधेरे कोने में ले गयी। सालों से मीनाक्षी के हृदय पर पड़ा पत्थर तो हट गया और वह हल्का भी हो गया, किन्तु यह रहस्योद्घाटन नीलू को तो कैप्टन द्वारा की गयी हरकत से भी अधिक मानसिक तनाव दे गया। ऐसी बातें उसने कहानी-उपन्यासों में तो पढ़ी थीं, किन्तु वास्तविक जीवन में भी ऐसा कुछ हो सकता है, उसकी कल्पना से परे था। जीवन के इस सत्य से साक्षात्कार होने पर एकाएक वह मीनाक्षी के समक्ष किसी भी प्रकार से प्रतिक्रिया न दे पायी, बल्कि स्तब्ध रह गयी और वहाँ से उठकर अस्थिर चाल से अपने कमरे में आकर बेड पर लुढ़क गयी। मीनाक्षी ने उसे रुकने के लिये कहा भी, किन्तु वह तो जैसे बहरी हो गयी थी। मीनाक्षी ने फिर उठकर उसके कमरे में जाना उचित नहीं समझा।

बहुत देर तक तो नीलू समझ ही नहीं पायी कि जो उसने सुना या जो उसे बताया गया है, क्या वाक़ई ही वह सच है, या सच हो सकता है। पलकें भारी थीं, किन्तु नींद ..... दूर-दूर तक नहीं थी। कुछ वर्ष पहले की बातें स्मृति में उभर आयीं। शायद मैं आठवीं में थी या आठवीं पास कर ली थी, जब ‘दीदी’ ने मुझे ‘मेरी बच्ची’ कहना छोड़ा था, उससे पहले तो जब से मैंने होश सँभाला था, ‘नीलू मेरी बच्ची’ कहते ही सुना था। उसके बाद भी मैं ‘छोटी’ ही कहलायी, नीलू नाम तो पिछले दो वर्षों से ही लिया जाने लगा है। ‘दीदी’ ने बताया कि उन दिनों घर की आर्थिक दशा बहुत पतली थी। मम्मी-पापा ने न जाने कितनी मुश्किलों को झेलकर उसे पढ़ाई पूरी करने दी थी। इसलिये पहली नौकरी के समय जब कॉलेज के एमडी ने घर बुलाकर अपनी शर्त रखी तो विवश होकर उसे परिस्थितियों से समझौता करना पड़ा था। मम्मी-पापा की ज़िद्द के कारण ही उस समय अबॉर्शन न करवा पायी थी वरना जीवन की लय कुछ और ही होती! इसका अर्थ तो यह हुआ कि मेरा बॉयोलॉजिकल फादर उस कॉलेज का एमडी है (यदि वह जीवित है और था, यदि वह मर चुका है), जिस कॉलेज में ‘दीदी’ लेक्चरर रही थी। कौन था वह आदमी या आदमी की खाल में जानवर? क्या मुझे उस नर-पिशाच को ढूँढ़ने की कोशिश करनी चाहिए? क़तई नहीं। मैं ऐसा हरगिज़ नहीं करूँगी। मुझे तो ‘मम्मी-पापा’, नहीं नाना-नानी का अहसानमंद होना चाहिए जिनकी ‘जिद्द’ के कारण आज मेरा अस्तित्व है। इस बिन्दु पर आकर उसके मन को कुछ शान्ति मिली। आधी रात बीत चुकी थी। उठकर वह मीनाक्षी के बेडरूम में गयी। दवाइयों के प्रभाव में मीनाक्षी गहरी नींद में थी। नीलू ने मीनाक्षी के पैरों को हल्के से स्पर्श करते हुए मन-ही-मन कहा - मम्मी, मैं तुमसे कभी कोई सवाल नहीं करूँगी। और वापस आकर सो गयी।

क्रमश..