पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 17 Lajpat Rai Garg द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 17

पूर्णता की चाहत रही अधूरी

लाजपत राय गर्ग

सत्रहवाँ अध्याय

कैप्टन ग़ुस्से में घर से तो निकल आया था। सड़क पर आने पर उसे होश आया। भावी परिणाम की आशंका से उसके सारे शरीर में सिहरन-सी व्याप गयी। ब्रह्म मुहूर्त में उठने वालों के लिये तो रात्रि समाप्त हो गयी थी, किन्तु आम लोगों के लिये तो अभी रात्रि का आखिरी पहर था। अभी पौ फटी न थी, काफ़ी अँधेरा था। कैप्टन के सामने समस्या थी कि इस समय किधर जाया जाये, जहाँ उसे कोई तलाश न पाये, पुलिस भी नहीं, यदि पुलिस को सूचित किया जाता है तो। काफ़ी सोच-विचार के बाद उसे कुलविंदर का ख़्याल आया। कुलविंदर के साथ उसके पुराने सम्बन्ध थे। लेकिन मीनाक्षी को उसके बारे में कुछ पता नहीं था। एक और बात जो कैप्टन को कुलविंदर के घर जाने के लिये प्रेरित कर रही थी, वह थी उसके बच्चों का बाहर पढ़ना अर्थात् घर में अकेले मियां-बीवी का होना। इसलिये कैप्टन ने उसके घर जाना ही उचित समझा। साथ ही वह सोचने लगा कि कुलविंदर को विश्वास में लेना पड़ेगा, तभी छिपकर रहना सम्भव हो पायेगा।

जब वह कुलविंदर के घर पहुँचा तो घर में पूर्ण सन्नाटा था यानी कि पति-पत्नी दोनों सोये हुए थे। उसने बेल बजायी। कुछ देर बाद नींद से बोझिल आँखें मलते हुए कुलविंदर ने दरवाज़ा खोला। कैप्टन को नाइट सूट में सामने खड़ा देखा तो उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। इसलिये उसने आश्चर्य के स्वर में कहा - ‘ओए कैप्टन, तूं ऐस वेले इस तरां किवें?’

‘अन्दर तो आने दे, फिर बताता हूँ।’

ड्राइंगरूम में आकर जब वे बैठ गये तो कुलविंदर ने फिर अपना प्रश्न दुहराया। तब कैप्टन ने

कहा - ‘कुलविंदर, पहले वायदा कर कि जो मैं तुझे बताने जा रहा हूँ, उसे अपने तथा भाभी तक ही सीमित रखेगा, किसी अन्य को नहीं बतायेगा।’

‘यारा, ऐह तूं केहोजी गल्ल करदा ऐं? तेरे वास्ते मैं कुझ वी कर सकदा हाँ। तूं बेफिकर होके दस, आख़िर की होआ?’

इसके बाद कैप्टन ने उसे घटना की पूरी जानकारी दी थी। सारी बातें सुनने के बाद कुलविंदर का मन तो बहुत ख़राब हुआ, किन्तु कैप्टन उसके कॉलेज के समय का दोस्त था, इसलिये वह बोला - ‘यारा, कम्म तां तूं बड़ा माड़ा कित्ता ऐ, पर तूं मेरा दोस्त हैं, ऐस लई दोस्ती निभाना मेरा फ़र्ज़ है। ऐत्थे तूं बेफिकर हो के रह सकदा ऐं।’

पहले डोरबेल और अब ड्राइंगरूम में से आती आवाज़ों के कारण कुलविंदर की पत्नी भी जाग गयी। उठने के बाद बाथरूम गयी और फ्रैश होकर ड्राइंगरूम में आकर उसने कैप्टन को ‘सत श्री अकाल भाई साहब’ कहा और फिर उसके आने का कारण पूछा। कैप्टन कुछ बताता, उससे पहले ही कुलविंदर ने उसे सोफ़े पर अपने साथ बिठा कर सारी बातें बतायीं। फिर कहा - ‘भागवाने जा, पहलां चा-छा बना। फेर ऐह अराम करुगा। अगांह की करना ऐ, ऐहदे उठन मगरों सोचांगे।’

चाय पीने के बाद कैप्टन को गेस्टरूम में छोड़कर कुलविंदर और उसकी पत्नी अपने बेडरूम में चले गये। शायद समय से पूर्व उठने के कारण उनकी नींद अधूरी रह गयी थी। किन्तु कैप्टन को बेड पर लेटने के बाद भी नींद नहीं आयी। जिस हालत में वह था, उस हालत में तो नींद आने का सवाल ही नहीं था। तरह-तरह के ख़्याल उसके मन को मथते रहे।

नीलू के प्रति मैं क्यों कर आकर्षित हुआ? क्या केवल इसलिये कि वह मीनाक्षी की बहिन थी यानी मेरी साली? नहीं। विवाह के समय ही नीलू को पहली बार देखा था और पहली नज़र में ही उसमें मुझे कान्ता की छवि दिखी थी। मुझे लगा था जैसे समय बीस वर्ष पीछे चला गया हो! साक्षात् कान्ता ही मेरे समक्ष आ खड़ी थी! विवाह की रस्में निभाते समय ही नीलू से थोड़ा-बहुत हँसी-मज़ाक़ हुआ था, इससे अधिक साथ रहने का समय नहीं मिला था, क्योंकि मेडिकल की पढ़ाई के दबाव के कारण वह दूसरे दिन ही कॉलेज लौट गयी थी। उसके बाद सिर्फ़ एक बार वह अम्बाला आयी थी और तब भी उससे मुलाक़ात नहीं हो पायी थी, क्योंकि मैं मुम्बई गया हुआ था। रोहतक में नीलू को होटल में लाने का मेरा इतना-सा मक़सद था कि मैं उसके सान्निध्य में कान्ता को पहली बार बाँहों में लेने वाले अहसास को दुबारा महसूस करना चाहता था। उसके इनकार करने पर मेरी दमित कामना बलवती हो उठी। यदि मीनाक्षी ने इस पर हो-हल्ला न मचाया होता तो शायद मैं इतना कुंठित भी न होता! और आज यदि मीनाक्षी-नीलू का माँ-बेटी वाला राज़ न खुलता तो भी थोड़ा-बहुत हो-हल्ला होकर मामला रफ़ा-दफ़ा हो जाना था, इतना बड़ा काण्ड नहीं होना था।

दो-अढ़ाई घंटे कैप्टन ने इसी तरह की उधेड़बुन में ही गुज़ारे जब तक कि कुलविंदर ने आकर उसे नहाने-धोने के लिये उठने को नहीं कहा। कुलविंदर ने नया टुथब्रुश और अन्डरगारमेंट्स उसे देते हुए कहा - ‘इक बार नहा के नाइट सूट ही पा लवीं। बजार खुलन ते तेरे वास्ते पैंट शर्ट लिआ देवांगा।’

नाश्ता करने के बाद दोनों मित्र विचार करने लगे कि आगे क्या किया जाये। कुलविंदर ने कहा - ‘प्रीतम, दार जी होरां नू तां दस देईए।’

‘नहीं कुलविंदर, अभी ऐसा कुछ नहीं करना। उन्हें अभी से चिंता में डालना ठीक नहीं। देखते हैं कि मीनाक्षी क्या कदम उठाती है? आगे की प्लानिंग उसी के अनुसार करेंगे।’

‘जिवें तूं ठीक समझें। ऐह तेरा आपणा घर है, जदों तक तेरा जी करे, अराम नाल रह।’

कैप्टन ने अपने ऑफिस फ़ोन किया तो रामरतन ने पूछा - ‘सर, आप कहाँ से बोल रहे हैं?’

‘इस बात को छोड़ कि मैं कहाँ से बोल रहा हूँ, यह बता कि कोई फ़ोन आया था?’

‘हाँ सर, घर से कुछ मिनट पहले फ़ोन आया था। आपके बारे में पूछा था।’

कैप्टन की दिल की धड़कन तेज हो गयी।

‘तुमने क्या कहा?’

‘सर, मैंने तो इतना ही कहा कि आप अभी ऑफिस पहुँचे नहीं हैं।’

‘सुन, मैं कुछ दिनों के लिये बाहर जा रहा हूँ। मैं फ़ोन करके पूछता रहूँगा, लेकिन तुझे किसी को बताने की ज़रूरत नहीं कि मेरा फ़ोन ऑफिस में आया था।’

सहायक को बड़ा अजीब लगा, किन्तु बॉस से सवाल करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। फ़ोन काटने के बाद कैप्टन ने कुलविंदर को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘कुलविंदर, मैं सोच रहा हूँ कि यदि मीनाक्षी की तरफ़ से पुलिस कार्रवाई हुई तो पुलिस मुझे अरेस्ट करने की कोशिश करेगी। इसलिये मैं हफ़्ते-दस दिन के लिये शिमला या मसूरी चला जाता हूँ। मैं जहाँ कहीं भी होऊँगा, तुझे रोज़ फ़ोन करता रखूँगा। इस दौरान तू भी बिना कोई सुराग दिये पुलिस कार्रवाई के बारे में पता करते रहना और तुझे पता लगे कि एफ़आइआर हो गयी है तो किसी अच्छे वकील से राय ले लेना कि हमें क्या करना चाहिए।’

‘तैनूँ ऐनी जल्दी करन दी की ज़रूरत ऐ। ऐत्थे बी तूं ओना ही सेफ हैं, जिनां शिमले या मसूरी च। ऐस लई मैं तां कहदां हां कि तूं ऐत्थे ही रह। बाकी जिवें तेरी मरजी।’

‘कुलविंदर, एक बार तो मैं कल सुबह शिमला जाऊँगा, इसलिये तुम मुझे दस हज़ार रुपये दे दो। फिर देखते हैं, क्या होता है?’

‘रुपये दस हज़ार तां की, चाहे तूं होर लै लवीं। लेकिन इक्क बार सोच लै।’

‘मैंने सोच-विचार करके ही फ़ैसला लिया है। बिना किसी अच्छे वकील की राय लिये बिना खुद को पुलिस के हवाले कर देना भी तो अक्लमंदी नहीं है। शिमला या जहाँ-कहीं भी मैं जाऊँगा, वहाँ भी मैं कानूनी राय लेने की कोशिश करूँगा।’

क्रमश..