पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 2 Lajpat Rai Garg द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 2

पूर्णता की चाहत रही अधूरी

लाजपत राय गर्ग

दूसरा अध्याय

जब वह वी.सी. से मिलने आयी थी तो सूर्य अस्ताचलगामी था, अपना प्रकाश समेट रहा था। लेकिन जब वह वी.सी. निवास से बाहर आयी तो घुप्प अँधेरा था। अँधेरे की सघनता को देखकर लगता था जैसे कृष्ण पक्ष की द्वादश या त्रयोदश हो। आसमान धूल-धूसरित था। इसलिये तारे कम ही दिखायी दे रहे थे। हवा ठहरी हुई थी। आसार ऐसे थे जैसे कि आँधी-तूफ़ान आने वाला हो!

जब वह घर पहुँची तो मौसी ने पूछा - ‘मीनू, क्या बना छोटी के दाख़िले का?’

‘मौसी, मैं कोशिश कर रही हूँ। उम्मीद है कि कल काम बन जायेगा।’ इतना कहकर वह सीधी अपने बेडरूम की ओर मुड़ गयी।

पीछे से मौसी ने आवाज़ लगायी - ‘मीनू, हाथ-मुँह धोकर आ जा और खाना खा ले।’

बिना पीछे मुड़े मीनाक्षी ने कहा - ‘नीलू के हाथ मेरा खाना अन्दर ही भेज दे मौसी।’

अभी तक अपनी जिज्ञासा के चलते मौसी ने मीनाक्षी की चाल-ढाल पर गौर नहीं किया था। उसकी चाल में हल्की-सी लड़खड़ाहट थी, क्योंकि उसने पहले कभी दो बड़े पैग नहीं लिये थे। वह मौसी के सामने न जाकर उसके अनचाहे प्रश्नों से बचना चाहती थी। जब नीलू उसका खाना लेकर आयी तो उससे मीनाक्षी की हालत छिपी न रही, परन्तु उसने कोई सवाल-जवाब नहीं किया। उसे अहसास था कि दीदी उसके काम के लिये जिस किसी के पास भी गयी होगी, वहाँ उसे पीनी पड़ी होगी। मीनाक्षी ने उसे जाते हुए दरवाजा बन्द करने की ताकीद की।

खाना खाकर थाली बेड के नीचे सरका कर मीनाक्षी वहीं ढेर हो गयी। शराब के प्रभाव से शरीर में शिथिलता थी, मस्तिष्क भी ऊहापोह में उलझा था। मीनाक्षी सोचने लगी कि यदि वी.सी. अपनी बात पर अड़ जाता तो क्या होता? क्या नीलू के एडमिशन के लिये, उसके भविष्य के लिये मैं उसका वर्तमान दाँव पर लगाने का निर्णय ले पाती? क्या उसे परिस्थितियों का शिकार बनने देती जैसा कि मुझे करियर के शुरुआती दौर में बनना पड़ा था। मन ने कहा - नहीं, कदापि नहीं। मेरे सामने जो मज़बूरियाँ थीं, नीलू को मैं उस तरह की परिस्थितियों का शिकार नहीं बनने दे सकती थी। वी.सी. ने इतनी शीघ्रता से मेरी बात मान ली, कहीं इसके पीछे कोई डर तो काम नहीं कर रहा था? वी.सी. को पता है कि मैं भी कोई मामूली शख़्स नहीं, अपने विभाग की ज़िला-इंचार्ज हूँ। उसके मन में अवश्य यह डर रहा होगा कि मैं कोई ऐसा कदम उठा सकती थी जिससे उसका करियर तबाह हो जाता। इस ख़्याल पर आकर उसे अपनी सफलता पर गर्व अनुभव हुआ और बड़ी राहत महसूस हुई। अन्ततः वह ऊहापोह से मुक्त हो शान्तचित्त होकर सो गयी।

सुबह जब बेडरूम के बाहर लॉन में लगे गुलमोहर की टहनियों और पत्तों से छनकर आती सूर्य की किरणों का ताप उसे अपने चेहरे पर अनुभव हुआ तो नींद की मदहोशी टूटी। कोई आधा-पौना घंटा पहले मौसी उसके कमरे में आयी थी यह देखने के लिये कि यदि वह जाग गयी हो तो उसके लिये चाय बना दे। किन्तु उसे गहरी नींद में देखकर सिर्फ़ खिड़की का पर्दा हटाकर चली गयी थी, क्योंकि मौसी का मानना था कि जब तक कोई बहुत ज़रूरी काम न हो तो सोये हुए व्यक्ति को जगाना नहीं चाहिए। मीनाक्षी आँखें मलते हुए उठी। अच्छी नींद ने रात का हैंगओवर दूर कर दिया था। बाथरूम जाकर फ्रैश हुई। चाय के लिये रसोई की ओर जाने लगी तो मौसी ने टोका - ‘मीनू, चाय मैं बनाकर लाती हूँ। तू कुछ और कर ले।’

‘मौसी, तूने चाय पी ली या अभी पीनी है?’

‘मैं तो कब की पी चुकी।’

‘मौसी, मैं थोड़ी देर बाहर बैठकर अख़बार देखती हूँ, चाय वहीं दे देना।’

दिन बहुत चढ़ आया था। इसलिये वृक्षों पर बसेरा करने वाले तथा प्रात:क़ालीन माहौल को मधुर कलरव से ख़ुशनुमा बनाने वाले पक्षी अपने-अपने दैनंदिन कर्त्तव्यों के पालनार्थ जा चुके थे। अतः वातावरण नितान्त शान्त था। मीनाक्षी अख़बार लिये लॉन में आकर झूले पर बैठ गयी। पैर ज़मीन से उठाकर हल्का-सा झटका दिया तो शरीर के साथ मन में भी हिलोर-सी उठी। पन्ने पलटते हुए मुख्य-मुख्य समाचार देखने लगी।

जब मौसी चाय बनाकर लायी तो एक बार फिर नीलू के एडमिशन के बारे में याद दिलाना नहीं भूली।

.........

दोपहर को नियत समय पर मीनाक्षी वी.सी. निवास पर पहुँच गयी। सिखर दोपहर थी। परीक्षाएँ चल रही थीं, इसलिये विद्यार्थी तैयारियों में जुटे हुए थे। वी.सी. निवास के आसपास संतरी के अलावा दूर-दूर तक कोई आदमी दिखायी नहीं दे रहा था। आज डोरबेल बजाने पर बहादुर ने नहीं, स्वयं वी.सी. ने दरवाजा खोला। बैठने के बाद वी.सी. ने कहा - ‘आज बहादुर तो कहीं गया हुआ है। चाय या ठंडे की तलब हो तो मैं बना कर पिला सकता हूँ।’

‘सर, आपको तकलीफ़ क्यों दूँगी। आप बताइये, आप क्या पसन्द करते हैं - ठंडा या गर्म?’

‘मैं तो चाय का तलबगार हूँ। कहते हैं न कि गर्मी में गर्म चाय गर्मी को भगाती है।’

‘आप बैठिये सर। मैं चाय बनाकर लाती हूँ।’

‘अच्छी बात है। पहले चाय ही हो जाये, फिर इत्मीनान से बातें करेंगे।’

मीनाक्षी उठी और कुछ ही मिनटों में चाय बना लायी।

‘अरे वाह! तुमने तो कमाल कर दिया। बिना कुछ पूछे इतनी फुर्ती से चाय बना लायी हो। मुझे तो चाय का सामान ढूँढने में ही इससे अधिक समय लग जाना था।’

मीनाक्षी ने एक कप वी.सी. को थमाया और दूसरा अपनी ओर करके आराम से बैठ गयी। वी.सी. ने चाय की एक घूँट भरी और कप टेबल पर रखते हुए कहा - ‘मैडम, बहुत स्वादिष्ट बनायी है चाय। ऑफिस के इतने झमेलों के होते हुए भी रसोई के कामों में एक्सपर्ट लगती हो!’

‘सर, यह तो हम लड़कियों को जन्मघुटी में ही सिखा दिया जाता है।’

‘खूब कहा। तुम और लड़की?’

मीनाक्षी वी.सी. के तंज पर अन्दर-ही-अन्दर तिलमिलाई, किन्तु उसने अपनी तिलमिलाहट को दबा लिया; दबाने के अतिरिक्त और विकल्प भी क्या था उसके पास। उसने बस इतना ही कहा - ‘सर, मेरा मतलब था कि लड़कियों को बचपन से ही रसोई के कामकाज सिखा दिये जाते हैं।’

वी.सी. ने बातचीत को नया मोड़ देते हुए कहा - ‘मीनाक्षी, तुमने अभी तक विवाह नहीं किया, कारण जान सकता हूँ?’

‘सर, अब आपसे क्या पर्दा? पहले मन में था कि सर्विस में सैटल हो लूँ, फिर विवाह-शादी की सोचूँगी। लेकिन क़िस्मत में कुछ और लिखा था। माता-पिता की मृत्यु के बाद छोटी बहिन की ज़िम्मेदारी के कारण अभी इस विषय में सोचा नहीं है।........ सर, बुरा न मानें तो क्या मैं पूछ सकती हूँ कि आपने विवाह क्यों नहीं किया?’

‘मैडम, एक ओर तो मेरे बुरा न मानने की बात करती हो और साथ ही मेरे जवाब का इंतज़ार किये बिना पूछ भी लिया। खैर, कोई बात नहीं। अब हम बेतकल्लुफ़ होकर बैठे हैं तो बुरा मानने वाली कोई बात नहीं। पंजाबी में कहते हैं न कि ‘पहलां घोल घोल ‘च समां निकल गया, फेर उम्र निकल गयी।’ आँखों की शरारती मुद्रा बनाकर आगे कहा - ‘इसका यह मतलब मत समझ लेना कि मैं ब्रह्मचारी हूँ। कुँवारा ज़रूर हूँ, लेकिन ब्रह्मचारी नहीं हूँ।...... तुम्हारे भी तो अफ़ेयर रहे होंगे?’

मीनाक्षी मन-ही-मन सोचने लगी कि जो आशंका थी, बन्दा तो उसी ओर बढ़ रहा है। वी.सी. ने अगली बात कहने से पहले मीनाक्षी को तोलने की कोशिश करते हुए नज़रें उसके चेहरे पर गड़ा दीं। मीनाक्षी ने भी उन नज़रों की तपिश अनुभव की। उसने वी.सी. के सवाल का जवाब अभी दिया नहीं था। वी.सी. ने अपनी अनुभवी नज़र पर भरोसा करते हुए कहा - ‘चलो, अफ़ेयर वग़ैरह तो रूटीन का मामला है। नहीं बताना चाहती, न सही। काम की बात पर आते हैं। मेरा मानना है कि हमारे यहाँ का बार्टर सिस्टम सबसे बढ़िया सिस्टम था। मुझे अब भी अच्छा लगता है। मेरी फ़िलासफ़ी तो यह है कि एक हाथ दो, दूसरे हाथ लो।’

सब कुछ समझते हुए भी मीनाक्षी ने कहा - ‘मैं समझी नहीं सर।’

‘अब इतनी भी नादान मत बनो।...... बात इतनी-सी है कि तुम मुझे ख़ुश कर दो, मैं तुम्हारी सिस्टर का एडमिशन करवा देता हूँ।’

मीनाक्षी आयी थी यह सोचकर कि वी.सी. से काम करवाना है। पैसे खर्च करने के लिये वह तैयार थी। कल जब वी.सी. ने नीलू को अकेली भेजने के लिये कहा था, तब तो उसे लगा था कि वी.सी. कुछ इस तरह की मंशा रखता है, लेकिन जब उसने मीनाक्षी की बात मानते हुए नीलू की बजाय उसे ही आने को कहा था तो मीनाक्षी ने सोचा था कि वी.सी. ने अपना मन बदल लिया है और यह कोई बेगार डालकर काम कर देगा। लेकिन आज चाय के बाद जब उसने अपने कुँवारा होने और ब्रह्मचारी न होने की बात कही थी, तब ज़रूर उसका माथा ठनका था। और अब, बिना लाग-लपेट के शारीरिक सम्बन्ध बनाने का आमन्त्रण...........मीनाक्षी को ख़ामोश कर गया। उसकी दुविधा को ताड़ते हुए वी.सी. ने कहा - ‘संकोच छोड़ो। जिस काम के लिये आयी हो, उसकी क़ीमत चुकाओ और अपना काम करवाओ।’

क्रमश..