पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 3 Lajpat Rai Garg द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 3

पूर्णता की चाहत रही अधूरी

लाजपत राय गर्ग

तीसरा अध्याय

नीलू बड़ी खुश थी कि डॉक्टर बनने का उसका सपना साकार होने जा रहा था, उसका मेडिकल कॉलेज में प्रवेश सुनिश्चित हो गया था। मौसी ने मीनाक्षी पर आशीर्वादों की झड़ी लगा दी थी। बार-बार कह रही थी कि मीनू तूने बहिन होकर भी भाई का फ़र्ज़ निभाया है। ऑफिस में भी सब उसे बधाई दे रहे थे और कुछ ऐसे भी थे जो अन्दर-ही-अन्दर जल-भुन कर राख हुए जा रहे थे। वे अपने-अपने क़यास लगा रहे थे कि मैडम ने कौन-सी तुरुप की चाल चली होगी। मैडम अपने काम में व्यस्त थी। इतने में महेश ने आकर बताया कि हैड ऑफिस से फ़ोन आया है कि कमिश्नर साहब सरप्राइज़ इंस्पेक्शन के लिये दो बजे के लगभग आने वाले हैं। चाहे कमिश्नर साहब जिन्होंने कुछ दिन पूर्व ही विभाग के एचओडी का पदभार सँभाला था, ने अपने पी.ए. के अलावा किसी अन्य को अपने कार्यक्रम की भनक तक नहीं लगने दी थी, फिर भी कहते हैं न कि दीवारों के भी कान होते हैं, हैड ऑफिस में मैडम के किसी चहेते ने यह सूचना देकर अपनी वफ़ादारी पक्की कर ली थी। मैडम ने तुरत-फुरत में सभी अफ़सरों को अपना-अपना काम चुस्त-दुरुस्त करने के निर्देश दिये और स्वयं प्रत्येक सीट पर जाकर बाबुओं की लम्बित फ़ाइलों का निरीक्षण किया। दो घंटे में जितना निपटान हो सकता था, करवाया।

कमिश्नर साहब के आने पर मैडम जब चायादि का आदेश देने लगी तो उन्होंने कहा - ‘लैट’स टेक अ राऊँड ऑफ द ऑफिस फ़र्स्ट।’

कमिश्नर साहब पहले आर्मी में रह चुके थे। इसलिये जिस सीट पर भी गये, प्रत्येक कर्मचारी की नमस्ते के उत्तर में उससे हाथ भी मिलाया। एक सीट पर क्लर्क के साथ भूथन सेवादार भी खड़ा था। क्लर्क से हाथ मिलाने के बाद कमिश्नर साहब ने भूथन की नमस्ते के जवाब में उसकी तरफ़ भी हाथ बढ़ा दिया। उसने हाथ जोड़े-जोड़े कहा - ‘जनाब, मैं तो चपरासी हूँ।’

‘सो व्हाट!’ और कमिश्नर साहब ने दुबारा अपना हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया।

भूथन ने सकुचाते-सकुचाते अपना हाथ कमिश्नर साहब की ओर कर दिया। कमिश्नर साहब ने बड़ी गर्मजोशी से उसके हाथ को अपने हाथों में लिया और उसी मुद्रा में उसका हाल-चाल पूछा। वह इतना भाव-विह्वल हो गया कि उसकी आँखें भर आयीं। भर्राये कंठ से उसने कहा - ‘जनाब, मेरा जीवन शबरी की तरह धन्य हो गया। भगवान राम ने शबरी के जूठे बेर खाकर उसे धन्य किया था, आपने न केवल मेरा हाथ अपने हाथों में लिया बल्कि मेरे परिवार का हाल-चाल भी जाना। आप मेरे लिये भगवान राम का ही रूप हैं। जनाब, तीस साल हो गये मुझे नौकरी में। आपने जो इज़्ज़त बख्शी है, वैसी आज तक नहीं मिली। मैं ताउम्र आपका भक्त रहूँगा।’

कमिश्नर साहब ने उसका कंधा थपथपाया और मैडम के साथ आगे बढ़ गये।

मैडम के कमरे में आने पर कमिश्नर साहब ने कहा - ‘ऑय एम रियली हैप्पी दैट यू आर मैनेजिंग सो वैल। नाउ वी कैन हैव अ कप ऑफ कॉफी।’

‘सर, लंच....?’

‘ऑय डोंट टेक लंच। कॉफी विल डू। आफ्टर कॉफी, ऑय वुड लाइक टू हैव अ टॉक विद द ऑफ़िसर्स।’

मैडम ने इंटरकॉम पर महेश को चाय की बजाय कॉफी भिजवाने के लिये कहा और साथ ही सभी अफ़सरों को तैयार रहने की ताकीद की।

सभी अफ़सरों के आने के बाद मैडम उनका परिचय करवाने लगी तो कमिश्नर साहब ने कहा - ‘मीनाक्षी, दे आर नॉट किड्स। लैट दैम इंट्रोड्यूस दैमसेल्वस।’

कमिश्नर साहब के इतना कहने पर सभी अधिकारियों ने अपना-अपना परिचय दिया। हरीश सबसे युवा अधिकारी था। परिचय के बाद उसे सम्बोधित करते हुए कमिश्नर साहब ने कहा - ‘यस मि. हरीश, टेल मी इन ब्रीफ़, व्हाट हैव यू डन सो फ़ार।’

हरीश अपनी फ़ाइल खोलकर पन्ने पलटने लगा तो कमिश्नर साहब ने उसे टोकते हुए कहा - ‘मि. हरीश, यू आर अ यंग ऑफ़िसर। यू शुड हैव योर फिगर्स ऑन योर फ़िंगर टिप्स।’

मैडम हरीश के बारे में कुछ कहने लगी तो कमिश्नर साहब ने कहा - ‘मीनाक्षी, होल्ड ऑन। बॉय डिफेंडिंग हिम, यू विल स्पॉयल दिस यंग ऑफिसर’स करियर।’

मैडम- ‘सॉरी सर।’

इसके पश्चात् जब तक अफ़सरों से पूछताछ होती रही और वे अपनी कारगुज़ारी की रिपोर्ट प्रस्तुत करते रहे, मैडम ने अपना मुँह बन्द ही रखा।

..........

शुक्रवार को हरीश स्टेशन लीव स्वीकृत करवाने के लिये जब मीनाक्षी से मिला तो उसने पूछा - ‘हरीश, तुम पिछले हफ़्ते भी कैथल गये थे, इस बार फिर?’

‘मैम, मैंने अपना मकान बनवाना शुरू किया हुआ है। इसलिये हर हफ़्ते जाना पड़ता है।’

‘कोई और नहीं है जो देखभाल कर सकें?’

‘मैम, वैसे तो पापा ही देखते हैं सारा काम, फिर भी वीकएण्ड में मैं चला जाता हूँ तो सलाह-मशविरा हो जाता है।’

‘ओ.के.।’

.........

रविवार को लॉन में बैठी मीनाक्षी चाय की चुसकियाँ ले रही थी कि अख़बार वाले लड़के ने अख़बार फेंका। चाय समाप्त कर उसने ज्यों ही अख़बार उठाया कि उसकी निगाह मुख्य सुर्ख़ी पर पड़ी। मुख्य सुर्ख़ी में कैथल ज़िले के तितरम मोड़ पर हरियाणा रोडवेज़ की तीन बसों और फायरब्रिगेड की एक गाड़ी का धू-धू कर जलती हुई का चित्र देखकर और साथ के समाचार को पढ़ कर मीनाक्षी चिंतित हो उठी। पिछले कई दिनों से ‘मंडल विरोधी आन्दोलन’ दिन-प्रतिदिन उग्र से उग्रतर होता जा रहा था। जगह-जगह हिंसक भीड़ सार्वजनिक सम्पत्ति को नुक़सान पहुँचाने में गुरेज़ नहीं कर रही थी। छुटभैया लीडरों को अपनी नेतागीरी चमकाने का सुनहरी अवसर हाथ लगा था तो वे भी खुलकर खेल रहे थे। आन्दोलन की आड़ में असामाजिक तत्त्व भी खुलकर मनमानी करने में लगे हुए थे। ऐसे हालात में सड़क पर चलते आम राहगीरों का जीवन भी भययुक्त हो गया था। हर समय अनहोनी की आशंका बनी रहती थी। मीनाक्षी की चिंता का कारण यह था कि शुक्रवार को हरीश ने कैथल जाने के लिये उसे स्टेशन छोड़ने की अर्जी दी थी। उसे चिंता थी कि तितरम मोड़ वाले हादसे की लपेट में कहीं वह भी न फँस गया हो। उससे सम्पर्क करने का कोई सीधा साधन नहीं था। पता करने को वह कैथल के ज़िला-इंचार्ज से स्थिति का पता लगा सकती थी, किन्तु ऐसा करना उसने उचित नहीं समझा। अत: सोमवार तक हरीश के सकुशल लौटने की उम्मीद का संबल ही रह गया था उसके पास।

सोमवार को मीनाक्षी ने ऑफिस पहुँचते ही सबसे पहले हरीश का पता करवाया, किन्तु वह तब तक आया नहीं था। उसके स्टेनो को कहलवाया कि आते ही उसे मेरे पास भेजना।

घंटे-एक बाद जैसे ही हरीश ऑफिस पहुँचा, उसके स्टेनो ने मैडम का संदेश उसे दिया। अपनी कुर्सी पर न बैठ कर वह सीधा मैडम के कमरे में गया। ‘गुड मॉर्निंग’ से अभिवादन कर बैठते हुए उसने पूछा - ‘आपने याद किया था मैम?’

‘हाँ हरीश, मैं तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही थी।’

‘हुक्म मैम?’

‘हुक्म नहीं। तुम्हारी कुशलक्षेम जानना चाहती थी। कल समाचारपत्रों में तितरम मोड़ पर आगज़नी का समाचार पढ़ने के बाद से तुम्हारे लिये चिंतित थी।’

‘थैंक्यू मैम फ़ॉर योर कन्सर्न। शायद आपकी दुआओं का ही असर रहा होगा कि मैं आपके सामने सकुशल बैठा हूँ, वरना तो जो हालात थे, कुछ भी हो सकता था।’

‘आओ, सोफ़े पर बैठकर आराम से बातें करते हैं।’ साथ ही उसने चपरासी को बुलाने के लिये बेल बजायी।

चपरासी के आने पर उसे चाय लाने के लिये कहा और हरीश को सम्बोधित कर कहा - ‘हाँ तो अब बताओ, क्या और कैसे हुआ?’

‘मैम, शनिवार को ग्यारह-एक बजे मैं कैथल के लिये निकला था। जीन्द में पटियाला चौक पर काफ़ी लड़के दुकानें बंद करवा रहे थे तो कुछ गाड़ियों को रोक रहे थे। बचते-बचाते मैं वहाँ से तो निकलने में सफल हो गया। तितरम मोड़ के नज़दीक जाकर देखा तो वहाँ, जैसा आपने अख़बार में पढ़ा, रोडवेज़ की तीन बसों और फायरब्रिगेड की गाड़ियों से आग की लपटें उठ रही थीं। इतने में दस-बारह लड़कों ने मेरी कार रुकवाई। मैंने कार बंद की और लॉक लगाकर उनसे बात करने लगा। इतने में एक लड़के ने लाठी मारकर कार का पिछला शीशा तोड़ दिया और फ़ोम का एक रोल पिछली सीट पर फेंक दिया। उसे ऐसा करते देख कर, पता नहीं क्या सूझी कि मैंने लड़कों को कहा कि मैं भी तुम्हारी तरह इस आन्दोलन का हिस्सा हूँ, मैं रोहतक ज़िले का उप प्रधान हूँ। मैं कैथल अपने इस आन्दोलन के लिये समर्थन जुटाने के लिये जा रहा हूँ। अगर मेरी बातों का यक़ीन न हो तो चाहे कार फूँक दो। एक लड़का जो शायद मुखिया था, ने दूसरे लड़कों को पीछे हटने के लिये कहा और मुझसे चाबी माँगते हुए कहने लगा - सर, मैं कार आगे तक छोड़ देता हूँ। मैंने चाबी न देते हुए कहा कि मैं चलाता हूँ, तुम मुझे बस भीड़ से निकाल दो। इस तरह तत्काल सूझी बात ने बचा लिया वरना तो मेरी कार भी आग की भेंट चढ़ गयी होती।’

‘थैंक गॉड, यू वर नॉट हार्म्ड। मॉब कुछ भी कर सकता है। अक्सर वही लोग मॉब का शिकार होते हैं जिनका उनसे दूर-दूर का कुछ लेना-देना नहीं होता। हाँ, यह ठीक है कि कई बार हालात के मुताबिक़ सूझी हुई युक्ति बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है।........वैसे देखें तो जो यह ‘मंडल कमीशन’ का विरोध हो रहा है, ठीक ही हो रहा है। एस.सी./एस.टी. के साढ़े बाईस प्रतिशत रिज़र्वेशन के ऊपर ओबीसी जातियों के लिये सत्ताईस प्रतिशत और रिज़र्वेशन.......... बेचारे जनरल कैटेगरी वालों के लिये कहाँ बचेंगी नौकरियाँ? हरीश, मैंने आईएएस में एक चाँस लिया था। रिटन एग्ज़ाम में अड़तालीस प्रतिशत मार्क्स आने पर भी मुझे तो इंटरव्यू कॉल भी नहीं आयी थी जबकि मेरा एक क्लासफैलो जो कि एस.सी. है, बयालीस प्रतिशत मार्क्स लेकर न केवल इंटरव्यू में गया, बल्कि आईएफ़एस में सिलेक्ट भी हुआ। आजकल वह विदेश मंत्रालय में प्रथम सचिव के पद पर पोस्टिड है।’

‘पता नहीं इन पॉलिटीशियनों को समाज में शान्ति क्यों नहीं सुहाती? ‘मंडल कमीशन’ ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को 31 दिसम्बर, 1980 को सौंपी थी। तब से यह ठंडे बस्ते में पड़ी हुई थी। इसे लागू करने के लिये कहीं से कोई आवाज़ नहीं उठ रही थी। पता नहीं क्यों प्रधानमंत्री ने मधुमक्खियों के छत्ते को छेड़ दिया? आज के नेता लोग अंग्रेज़ों से कहाँ कम हैं; ये भी तो उन्हीं के नक़्शेक़दम पर चलते हुए समाज के विभिन्न वर्गों में ‘फूट डालो और राज करो’ की पॉलिसी ही अडप्ट कर रहे हैं।’

‘संविधान निर्मात्री सभा में देशभर से सभी वर्गों के प्रबुद्ध विद्वान प्रतिनिधि सदस्य थे। उन्होंने बहुत विचार-विमर्श के पश्चात् ही आरक्षण का प्रावधान केवल दस वर्ष के लिये ही किया था। लेकिन सभी राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के लिये हर दस वर्ष बाद इसकी समय-सीमा बढ़ा देते हैं। कोई भी नेता, कोई भी दल इसका विरोध नहीं करता। चालीस वर्ष बाद भी आरक्षण क़ायम ही नहीं है, ऊपर से सत्ताईस प्रतिशत कोटा और बढ़ा दिया गया है। आरक्षण का लाभ उठा कर जो नौकरियों में आ गये हैं, आगे भी उन्हीं के परिवार वाले और वंशज ही इसका लाभ उठा रहे हैं। एक तो उन्हें अच्छी शिक्षा के साधन उपलब्ध हो रहे हैं, दूसरे आरक्षण की बैसाखी। सामान्यजन तो राजनीति की बिसात पर प्यादा बनकर रह गया है। ....... मैं तो कहती हूँ कि आरक्षण स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को हतोत्साहित करता है। आरक्षण अपने आप में उत्थान का, किसी भी वर्ग के उत्थान का साधन नहीं हो सकता। हाँ, इससे राष्ट्र का नुक़सान अवश्य हो रहा है। आरक्षण प्राप्त वर्ग के लोग इसकी वजह से अपनी प्रतिभा का सौ प्रतिशत उपयोग नहीं करते और अन्य इसके कारण हतोत्साहित हो जाते हैं। वे यह मान लेते हैं कि क्या ज़रूरत है अधिक परिश्रम की, क्योंकि उनके कर्म का फल तो दूसरे को मिलना है। यहीं से राष्ट्र के पतन की शुरुआत होती है। मेरे विचार में तो समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े परिवारों को बिना जातिगत भेदभाव के शिक्षित करने, उन्हें हर तरह से सक्षम बनाने से देश का जो लाभ हो सकता है, वह आरक्षण से कभी नहीं हो सकता। आरक्षण की जगह इन लोगों को फ्री एजुकेशन तथा अन्य सुविधाएँ प्रदान करके सामान्य वर्ग के लोगों के बराबर लाने का सरकार को प्रयत्न करना चाहिए और नौकरियाँ केवल योग्यता के आधार पर ही दी जानी चाहिएँ। तभी राष्ट्र विकास और प्रगति की राह पर अग्रसर हो पायेगा, क्योंकि तब प्रशासन चुस्त-दुरुस्त होगा और देश को सही मार्गदर्शन मिलेगा।’

‘मैम, आरक्षित कैटेगरी के लोगों को छोड़कर अन्य कोई भी व्यक्ति आपके तर्क तथा विचारों से असहमत नहीं हो सकता। हाँ, नेता लोगों को ऐसे विचार सूट नहीं करते, क्योंकि उनके निजी स्वार्थ हमेशा देशहित से पहले रहते हैं और अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु वे कुछ भी कर गुजरने को सदैव तत्पर पर रहते हैं।’

‘तुम्हारे विचारों से मैं पूर्णतः सहमत हूँ। नेताओं के स्वार्थ का ताज़ा प्रमाण हमारे सामने है ‘मंडल कमीशन’ की सिफ़ारिशों को लागू करना।’

यह वार्तालाप चल ही रहा था कि इंटरकॉम पर महेश ने सूचित किया कि डी.सी. साहब ने मैडम को याद किया है।

‘अच्छा हरीश, तुम अपना काम देखो, मैं डी.सी. से मिलकर आती हूँ।’

‘ओ.के. मैम।’

क्रमश..