पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 7 Lajpat Rai Garg द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 7

पूर्णता की चाहत रही अधूरी

लाजपत राय गर्ग

सातवाँ अध्याय

सैर से आने के पश्चात् कैप्टन प्रीतम सिंह ने बहादुर को बुलाया और कहा - ‘रामू, नाश्ते में आज कुछ स्पेशल बना के खिला। रोज़-रोज़ पराँठे-आमलेट खाते-खाते उकता गया हूँ।’

‘साब जी, जो आप कहें, बना देता हूँ।’

‘अरे, तुझे तीन साल हो गये मेरे साथ रहते। अभी तक तुझे यह भी नहीं पता चला कि मुझे क्या सबसे ज़्यादा पसन्द है।’

‘ठीक है साब जी। आप तैयार हो जाओ। आज मैं आपके लिये खास नाश्ते का इंतज़ाम करता हूँ।’

जब कैप्टन नित्यकर्म से निवृत्त होकर नाश्ते के लिये डाइनिंग टेबल पर आया तो बहादुर की तारीफ़ किये बिना न रहा। बहादुर ने नाश्ते में फ़्रेंच टोस्ट, फ़्राइड इडली, शाही टुकड़ा तथा दूध के साथ कॉर्न फ्लैक्स टेबल पर तैयार कर रखे थे।

ऑफिस में भी सारा दिन उसने न किसी को झिड़का, न किसी की कोई गलती निकली। दोपहर बाद चारेक बजे उसके सहायक रामरतन ने आकर बताया - ‘सर, अभी साइट से इंजीनियर मुकुल का फ़ोन आया था। वह आधे-एक घंटे में आपसे मिलने के लिये आने वाला है।’

‘रामरतन, मुकुल को फ़ोन करके कह दो कि आज मुझे कहीं जाना है। वह कल सुबह आ जाये।’

‘जो आज्ञा सर।’

रामरतन के जाने के बाद उसने मीनाक्षी का नम्बर डायल किया। फ़ोन महेश ने उठाया। कैप्टन ने अपना नाम बताकर मीनाक्षी से बात करवाने को कहा। जब मीनाक्षी लाइन पर आयी तो ‘हैलो-हाय’ के बाद उसने पूछा - ‘मीनाक्षी जी, ऑफिस से रेस्टहाउस ही जायेंगी या कोई और प्रोग्राम है?’

‘रेस्टहाउस ही जाऊँगी। थोड़ा आराम करके क्लब जाने का इरादा है, और तो कोई प्रोग्राम नहीं।’

‘फिर तो आज क्लब जाना कैंसिल करो। मैं आपको लेने आऊँगा। आज की शाम मेरा गरीबखाना आपकी चरणरज से पवित्र होना चाहता है।’

‘कोई विशेष प्रोग्राम?’

‘आपका आना ही विशेष होगा।’

‘ओ.के.। मैं ऑफिस से निकल ही रही हूँ।’

मीनाक्षी और कैप्टन की कारें साथ-साथ ही विश्रामगृह पहुँचीं। दोनों ने साथ-साथ ही विश्रामगृह में प्रवेश किया। कमरे में सीधे जाने की बजाय मीनाक्षी ड्राइंगरूम की ओर मुड़ गयी। कैप्टन को बैठने के लिये कहकर मीनाक्षी ने कहा - ‘कैप्टन साहब, आप चाय लीजिए, इतने में मैं चेंज करके आती हूँ। ........ अच्छा, अब तो बता दो कि क्या प्रोग्राम है ताकि उसी के अनुसार कपड़े पहनूँ?’

‘चाय-वाय घर चल कर ही लेंगे। प्रोग्राम कोई नहीं है सिवाय इसके कि आज की शाम मेरे गरीबखाने पर गुज़ारेंगे। आपके और मेरे सिवा कोई नहीं होगा। ऑफ कोर्स, बहादुर ज़रूर रहेगा। आपको जो कम्फ़र्टेबल लगता है, पहन लो। नो फॉर्मेलिटी प्लीज़।’

मीनाक्षी बाहर आयी। सतपाल उसके आगामी आदेश की प्रतीक्षा कर रहा था। उसे गाड़ी साइड में लगाने के बाद घर जाने को कहकर मीनाक्षी सीधे अपने कमरे में चली गयी। साड़ी उतार कर उसने जींस और टी-शर्ट पहनी। चेहरे पर पानी के छींटे मारे। बालों को सैट किया। हल्का-सा मेकअप किया और ड्राइंगरूम में आकर कहा - ‘चलिए कैप्टन साहब, आज की शाम आपके नाम।’

उसके बदले हुए रूप को निहारते हुए कैप्टन बोला - ‘यू आर लुकिंग एट लीस्ट टेन ईयर्स यंगर इन दिस ड्रेस।’

‘थैंक्स फ़ॉर द कम्पलिमेंट।’

जब वे घर पहुँचे तो घर की साज-सज्जा देखकर मीनाक्षी बहुत प्रभावित हुई। उसने कहा - ‘मैंने नहीं सोचा था कि अकेले रहते हुए आपने घर को इतने सुरूचिपूर्ण ढंग से मेनटेन कर रखा होगा।’

इतने में एक ट्रे में पानी के गिलास लेकर बहादुर उनके पास आ चुका था। कैप्टन ने मीनाक्षी की टिप्पणी के जवाब में कहा - ‘यह सब हमारे बहादुर की मेहनत का परिणाम है।’

मालिक से अपनी प्रशंसा सुनकर बहादुर बड़ा खुश हुआ। मीनाक्षी ने कहा - ‘बहादुर की मेहनत तो है, बट इट स्पीक्स अ लॉट ऑफ योर टेस्ट्स।’

जब वे सोफ़े पर बैठ गये तो कैप्टन ने कहा - ‘मीनाक्षी जी, रेस्टहाउस में तो आपको आराम करने नहीं दिया। नॉउ यू कैन रिलैक्स। फ़ील एट होम।.........बहादुर, कड़क-सी चाय पिलाओ ताकि मैडम की थकावट उतर जाये।’

चाय पीते हुए मीनाक्षी ने बात चलायी - ‘कैप्टन साहब, आपने आर्मी कब ज्वाइन की थी?’

‘मीनाक्षी जी, हर शख़्स जो आर्मी में जाता है, उसकी दिली तमन्ना होती है कि वह कम-से-कम एक बार ज़रूर युद्ध में हिस्सा ले। मेरी ख़ुशक़िस्मती थी कि मुझे यह अवसर करियर के शुरुआती दौर में ही मिल गया। मैंने आईएमए, देहरादून से दिसम्बर 70 में पासआउट किया था और पूर्वी कमान में मेरी पोस्टिंग हुई थी। तब के पूर्वी पाकिस्तान में आवामी लीग के शीर्ष नेता मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में बहुमत से चुनी किन्तु निर्वासित सरकार के निर्देशन में गठित मुक्तिवाहिनी पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों तथा शोषण के विरुद्ध लड़ रही थी। जब मुक्तिवाहिनी की सहायता हेतु भारतीय सेना ने पूर्वी बंगाल में मोर्चा लेने का फ़ैसला लिया तो इस नाचीज़ के नेतृत्व वाली सैन्य टुकड़ी भी युद्ध के मैदान में तैनात की गयी थी। सितम्बर 71 से लेकर 16 दिसम्बर 71 के शौर्य दिवस तक हमारी टीम ने खुलना सेक्टर से पाक सेना को खदेड़ने में अहम भूमिका निभाई थी। मुझे गर्व है कि 16 दिसम्बर के अविस्मरणीय दिन की उस ऐतिहासिक घटना का मैं चश्मदीद गवाह हूँ जब ढाका के रमना रेस कोर्स गार्डन में पाकिस्तानी लेफ़्टिनेंट जनरल ए.ए.के. नियाज़ी ने अपने नब्बे हज़ार से अधिक सैनिकों सहित आत्मसमर्पण किया था और अपनी पिस्टल पूर्वी कमान के जीओसी-इन-कमांडर लेफ़्टिनेंट जनरल सरदार जगजीत सिंह अरोड़ा को पकड़ा कर आत्मसमर्पण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किये थे।

‘मैं तो अपनी टीम तथा स्वयं के अनुभव ही बता सकता हूँ। यदि किसी ने उस युद्ध की शौर्य-गाथा का जीता-जागता वर्णन पढ़ना हो तो ‘धर्मयुग’ पत्रिका के तत्कालीन प्रधान सम्पादक डॉ. धर्मवीर भारती लिखित संस्मरणों से बेहतर अन्य कोई दस्तावेज नहीं हो सकता, क्योंकि डॉ. भारती ने अपनी जान जोखिम में डालकर विभिन्न मोर्चों पर बीहड़ जंगलों, पहाड़ी कन्दराओं में सेना के कंधे से कंधा मिलाकर अनुभव अर्जित किये थे। उनके ये संस्मरण उस समय ‘धर्मयुग’ में धारावाहिक प्रकाशित हुए थे और ‘युद्ध क्षेत्रे-मुक्त क्षेत्रे’ के अन्तर्गत संगृहीत हैं। उन दिनों सेना के जवानों तथा अधिकारियों को ‘धर्मयुग’ का बेसब्री से इंतज़ार रहता था।’

‘बहुत रोमांचक रहा आपका शुरुआती करियर। वास्तव में, इन्दिरा गाँधी की यह बहुत बड़ी कूटनीतिक जीत थी।’

‘मीनाक्षी जी, केवल शुरुआती दौर ही रोमांचक नहीं रहा, अपितु सैन्य जीवन में हर पल रोमांचक होता है। आप कभी भी स्वयं को ढीला नहीं छोड़ सकते। सेना के कड़े अनुशासन से तो सभी परिचित हैं ही। मोर्चे पर लड़ने के अलावा प्राकृतिक आपदाओं तथा मानव-जनित साम्प्रदायिक दंगों आदि में भी हमें अपनी जान की परवाह न करते हुए देश और समाज की हिफ़ाज़त और सेवा करनी पड़ती है।’

‘कैप्टन साहब, इसमें कोई शक नहीं कि एक सैनिक हर वक़्त अपनी जान हथेली पर रखकर ही नौकरी करता है। इसीलिये मैं जाति तौर पर सैनिकों की बहुत क़द्र करती हूँ।’

कैप्टन ने अपने सैन्य जीवन के और भी बहुत से अनुभव मीनाक्षी को सुनाये। मीनाक्षी इतना दत्तचित्त होकर सुन रही थी कि कब दिन का उजाला ड्राइंगरूम से खिसक गया और बहादुर ने लाइट ऑन कर दी, उसे पता ही नहीं चला। आख़िरकार कैप्टन ने ही अपनी बातों पर विराम लगाते हुए कहा - ‘चलो, लॉन में बैठते हैं। यहाँ ह्यूमिडिटी हो रही है।’

‘लॉन में तो इस समय मच्छर होंगे?’

‘उसका इंतज़ाम भी किया हुआ है। लॉन में तीनों ओर ऑलआउट लगा रखी हैं। जिस दिन क्लब नहीं जाता या किसी यार-दोस्त ने आना होता है तो लॉन में बैठकर ही पैग-शैग एन्जॉय करता हूँ।’

‘तो जनाब अब पैग लगायेंगे?’

‘ओह, मैंने आपसे तो पूछा ही नहीं। यह तो सरासर ज़्यादती हो गयी। प्लीज़ फोरगिव मी। हाँ, कल तो आपने बताया नहीं था कि आप इसकी शौक़ीन हैं या नहीं। अब बता दीजिए, उसी के अनुसार बहादुर को कहूँ।’

‘जनाब कैप्टन साहब, मैं तो पहले ही आज की शाम आपके नाम कर चुकी हूँ। जो भी खिलायेंगे-पिलायेंगे, इनकार नहीं कर सकती मैं।’

‘यह हुई ना बात।’

‘मेरी ‘हाँ’ का यह मतलब क़तई नहीं है कि मैं इसकी शौक़ीन हूँ। कभी-कभार जब कोई दोस्त साथ देने के लिये आग्रह करता है तो साथ देने के लिये एक पैग लगा लेती हूँ।’

लॉन में लगे पेड़-पौधों पर छोटे-छोटे बल्बों की लड़ियाँ लटकाई हुई थीं जो ऐसे मौक़ों पर जला दी जाती थीं। टिमटिमाती रोशनी जुगनूओं का-सा आभास दे रही थी। उनके बैठने के कुछ पलों बाद ही बहादुर पीने का सारा सामान तथा तश्तरी में नमकीन काजू और सलाद रख गया।

दोस्ती की राह पर कदम बढ़ाते दो व्यक्तियों के बीच मदिरा एक सेतु बनी थी न कि नशे में बेसुध होने का साधन। कैप्टन अपने जीवन की बहुत-सी अहम बातें बता चुका था। अब उसने पूछा - ‘मीनाक्षी जी, क्या मैं भी कुछ जान सकता हूँ आपके जीवन के बारे में?’

‘ऑफ कोर्स। मेरे पेरेंट्स सन् 47 में लायलपुर से विस्थापित होकर आये थे। दिल्ली में आकर अपने परिश्रम और लगन से जीवन-रूपी गाड़ी को दुबारा पटरी पर लाये। मैंने पहली साँस स्वतन्त्र हवा में ली थी। मेरे बाद पैदा हुआ भाई बचपन में ही हमारा साथ छोड़ गया था। छोटी बहिन मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही है। तीन साल पहले माता-पिता की एक रोड एक्सीडेंट में डेथ हो गयी थी। विधवा मौसी तब से हमारे साथ रहती है। जिस तरह की रोमांचक दास्तान आपने अपने जीवन की सुनायी है, वैसा कुछ बताने को मेरे पास नहीं है।’

‘आपके परिवार की दुखद घटनाओं को सुनकर मुझे भी दु:ख हो रहा है, किन्तु ये सब विधाता के खेल हैं, इनके पीछे उसकी मंशा को हम प्राणी समझने में असमर्थ हैं।’

इसके बाद काफ़ी देर तक चुप्पी छाई रही। दोनों ही तय नहीं कर पा रहे थे कि बातचीत का सिलसिला कैसे आगे बढ़ाया जाये। जब बहादुर ने आकर बताया कि खाना तैयार है, तब जाकर उनकी तन्द्रा टूटी। मीनाक्षी ने घड़ी पर नज़र डाली। नौ बज चुके थे। उसने कहा - ‘कैप्टन साहब, हमें खाना खा लेना चाहिए। फिर आप मुझे रेस्टहाउस छोड़ देना।’

मीनाक्षी के परिवार की दुखद दास्तान ने मस्त शाम को गमगीन माहौल में बदल दिया था। इसलिये कैप्टन ने कुछ और न कहकर बस इतना ही कहा - ‘ओ.के.।’

‘यदि हम खाना यहीं मँगवा लें तो कैसा रहेगा? जुगनुओं की भाँति टिमटिमाती रोशनी, हवा में हल्की-हल्की महक, ऐसे में यहाँ से उठकर अन्दर जाने को मन नहीं कर रहा।’

‘वन्डरफुल आइडिया।’

साथ ही कैप्टन ने बहादुर को आवाज़ लगायी। उसके आने पर उसे टेबल साफ़ करके खाना लॉन में ही लाने को कहा। खाना समाप्ति पर जब बहादुर बर्तन उठाने आया तो मीनाक्षी ने उसके खाने की तारीफ़ की तो उसने कहा - ‘शुक्रिया मेम साब।’

मीनाक्षी - ‘कैप्टन साहब, थैंक्स अ लॉट फ़ॉर द वन्डरफुल ईवनिंग। ऑय शैल ऑलवेज चेरिस दिस ईवनिंग।’

‘वी कैन हैव सच ऐन ईवनिंग व्हेनएवर यू वुड लाइक।’

‘थैंक्स वन्स अगेन। नॉउ प्लीज़ ड्राप मी एट द रेस्टहाउस।’

विश्रामगृह पहुँचकर कैप्टन ने कार पोर्च में रोककर फुर्ती से उतरकर मीनाक्षी की साइड वाला दरवाज़ा खोला। उसे ऐसा करते देख मीनाक्षी ने कहा - ‘कैप्टन साहब, ऐसा मत कीजिए प्लीज़।’

‘मीनाक्षी जी, यह तो साधारण-सा शिष्टाचार है।’

कैप्टन ने देखा, कार से उतरने के बाद मीनाक्षी थोड़ा लड़खड़ा रही है तो उसने कहा - ‘गिव मी योर हैंड। आपको रूम तक पहुँचने में हेल्प की ज़रूरत है।’

मीनाक्षी को लगा, कैप्टन ठीक कह रहा है। उसने बायाँ हाथ कैप्टन के हाथ में दे दिया।

कमरे में पहुँच कर मीनाक्षी ने कहा - ‘थैंक्स कैप्टन साहब। आज आपने मेरा हाथ थामा है, उम्मीद करती हूँ कि मेरा हाथ यूँ ही थामे रहोगे!’

कैप्टन ने अनुभव किया कि मीनाक्षी ने यह बात बहुत भावुक होकर कही है और इसका उत्तर भी उसी रूप में देना चाहिए। उसने मीनाक्षी जो अभी तक खड़ी थी, को झप्पी में लिया तो मीनाक्षी ने अपना चेहरा थोड़ा-सा ऊपर उठा दिया। जैसे वर्षा की बूँद पाने के लिये सीपी का मुँह खुल जाता है, प्यासे होंठ बिना यत्न ही खुल गये, पलकें मुँद गयीं। सुप्त भावनाएँ जाग्रत हो उठीं। स्वत: ही उसकी सुडौल बाँहों ने कैप्टन की पीठ को घेर लिया। यह सब कुछ क्षणों में ही घटित हो गया। कैप्टन ने अपने हाथ मुक्त कर पीठ पीछे से मीनाक्षी की बाँहों के घेरे से स्वयं को आज़ाद करते हुए कहा - ‘मैं तुम्हारी उम्मीद को टूटने नहीं दूँगा। गुड नाइट। हैव अ साऊँड स्लीप।’ साथ ही मीनाक्षी के चेहरे पर आयी नयी चमक उसके अन्त:करण को छू गयी।

कैप्टन हाथ हिलाता हुआ कमरे से बाहर चला गया।

मीनाक्षी कुछ देर निश्चल अवस्था में बेड पर बैठी रही। फिर उठी, कपड़े बदले और लेट गयी। आज उसकी आँखों में नींद की बजाय एक अलग क़िस्म की खुमारी थी। कल कैप्टन से मुलाक़ात के बाद उस मुलाक़ात को लेकर उसके मन में किसी तरह के भाव जाग्रत नहीं हुए थे। जैसे प्रतिदिन बहुत से लोगों से मिलना होता है, कैप्टन से मुलाक़ात को भी उसी श्रेणी की मानकर मीनाक्षी आराम से सो गयी थी। मीनाक्षी सोचने लगी, आज सुबह से कैप्टन ने जिस तरह से मेरे जीवन में प्रवेश किया, फिर उसका शाम के लिये न केवल निमन्त्रित करना बल्कि स्वयं अपने घर लेकर जाना और अब छोड़ कर जाना, और सबसे दिलकश जाने से पूर्व मेरे सवालिया कथन के प्रत्युत्तर में उसका मुझे झप्पी में लेकर चूमना और मेरा पूरी तरह से उसके आलिंगन में खो जाना दर्शाता है कि उसकी भावी जीवनसाथी की तलाश को एक किनारा मिल गया है। अगर अपनी कहूँ तो लगता है जैसे कि समय का पहिया पीछे की ओर घूम गया हो! मैं फिर से उठती जवानी की भँवर में डूबने-उतराने लगी हूँ। ऐसे लगता है जैसे जीवन के द्वार पर मधुमय वसन्त ने दस्तक दी हो! ऐसी अनुभूति मुद्दतों बाद हो रही है। सच कहूँ तो दुष्यन्त से विमुख होने के बाद मैं इतनी निराश हो गयी थी कि मैं सोचने लगी थी कि मेरी क़िस्मत में प्यार की तलाश मृगतृष्णा समान है। मन को मारकर तलाश ही छोड़ दी थी। लेकिन कल से मैं कैप्टन के अनुसार आचरण कर रही हूँ बिना ‘किन्तु-परन्तु’ के। लगता है, जैसे कहीं अवचेतन में धकेली हुई मेरी भावनाएँ पुन: सचेत हो गयी हैं, जिनके कारण ही मैं यन्त्रचालित सी बन गयी हूँ। मन ने कहा, तो बुरा क्या है? अर्थात् मन दुविधामुक्त। उसकी पलकें भारी होने लगीं और वह नींद के आग़ोश में समा गयी।

........

इसके बाद तो दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन गहरा होता गया था। कोई दिन ही गया होगा ऐसा जब वे न मिले हों। दोनों ने अपने विगत जीवन से, कुछ अप्रिय घटनाओं तथा अनुभवों को छोड़कर, एक-दूसरे को अवगत करवाया। अब तक दोनों ही जीवन की मुख्य धारा के किनारे-किनारे चल रहे थे। अब लगने लगा था कि दोनों ही जीवन-धारा का हिस्सा बनने को आतुर हैं। एक-दूसरे के निकट आकर एक-दूसरे का अधूरापन दूर करके एक-दूसरे की पूर्णता के पोषक बनना चाहते हैं। कैप्टन मीनाक्षी को एक वीकेंड पर फ़ॉर्महाउस भी ले गया था। उसके पेरेंट्स को मीनाक्षी और मीनाक्षी को उसके पेरेंट्स बहुत अच्छे लगे थे।

क्रमश..