पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 15 Lajpat Rai Garg द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 15

पूर्णता की चाहत रही अधूरी

लाजपत राय गर्ग

पन्द्रहवाँ अध्याय

होली से अगला दिन।

हरीश कार्यालय के अपने कमरे में बैठा काम निपटाने में व्यस्त था कि उसके स्टेनो ने उसे बताया - ‘सर, आपको पता चला कि नहीं, मैडम के सिर में काफ़ी गहरी चोट लगी है।’

‘नहीं। मैंने तो नहीं सुना। तुम्हें किसने बताया?’

‘अभी थोड़ी देर पहले अम्बाला से एक क्लर्क आया था। उसने बताया है।’

‘कैसे लगी चोट?’

‘चोट कैसे लगी, का तो उसे भी नहीं पता था। हाँ, वह इतना तो बता रहा था कि मैडम के सिर में कई टाँके लगे हैं।’

‘इसका तो सीधा-सा मतलब है कि चोट काफ़ी गहरी लगी है।’

चार बज गये थे। हरीश ने स्टेनो को अम्बाला रेंज में फ़ोन करने के लिये कहा। वहाँ से भी इतना ही पता चल पाया कि मैडम आज कार्यालय नहीं आयी हैं। इतना ही कन्फर्म हुआ कि चोट वाली सूचना सही थी। हरीश तत्काल घर जाने के लिये उठ लिया। सुरभि को मीनाक्षी के गम्भीर चोट लगने की सूचना दी और कहा कि मैं अपनी कार से अम्बाला जा रहा हूँ, हो सकता है कि वापसी पर लेट हो जाऊँ।

सुरभि ने हरीश को रोकते हुए कहा - ‘दीदी के इतनी चोट लगी है तो मैं भी चलती हूँ।’

‘सुरभि, चाहता तो मैं भी हूँ कि तुम साथ चलो, किन्तु वापसी पर लेट हो सकते हैं। बच्चों को अकेले छोड़कर जाना ठीक नहीं रहेगा।’

जब हरीश मीनाक्षी के निवास पर पहुँचा तो नीलू ने दरवाजा खोला और उसे नमस्ते की। प्रत्युत्तर देने की बजाय उसने पूछा - ‘दीदी कैसी हैं?’

‘बेडरूम में लेटी हुई हैं। आइए।’

नीलू उसे सीधे बेडरूम में ही ले गयी। मीनाक्षी दरवाज़े की ओर पीठ करके लेटी हुई थी। लगभग सारे सिर पर ही पट्टियाँ बँधी हुई थीं। हरीश ने ‘नमस्ते दीदी’ कहा तो उसकी आवाज़ सुनकर मीनाक्षी करवट बदल कर उठने की कोशिश करने लगी तो हरीश ने कहा - ‘दीदी, आप आराम से लेटी रहें। आपको उठने की आवश्यकता नहीं।’

इतने में नीलू उसके लिये कुर्सी ले आयी और बेड के पास रखते हुए बोली - ‘सर, आप बैठिए।’

बैठने के बाद हरीश ने पूछा - ‘दीदी, यह सब कैसे हुआ?’

उसके सवाल का जवाब न देकर मीनाक्षी ने नीलू को कहा - ‘जा, अंकल के लिये चाय बना ले।’

नीलू के जाने के बाद हरीश को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘हरीश, अच्छा किया कि तुम आ गये। मैं तुम्हें बुलाने के लिये फ़ोन करवाने ही वाली थी। पहले इत्मीनान से चाय पी लो, फिर तफ़सील से सब बताऊँगी’

नीलू को चाय के लिये कहते हुए मीनाक्षी द्वारा ‘अंकल’ शब्द का प्रयोग करना हरीश को बड़ा अजीब लगा, किन्तु हालात को ध्यान में रखते हुए उसने इस प्रसंग पर कोई टीका-टिप्पणी करना उचित नहीं समझा।

चाय देकर नीलू वहीं बैठने लगी तो मीनाक्षी ने कहा - ‘नीलू, तू अपने कमरे में जाकर आराम कर ले। हरीश मेरे पास बैठा है। ज़रूरत होगी तो तुझे बुला लूँगी।’

नीलू को पता था कि अब हरीश आया है तो दीदी सारी दास्तान उसे सुनायेंगी जबकि डॉक्टर ने अधिक बोलने से मना किया हुआ है, इसलिये जाते-जाते कह गयी - ‘दीदी, आप अधिक मत बोलना।’

नीलू के जाने के बाद मीनाक्षी ने आहिस्ता-आहिस्ता बताना आरम्भ किया।

‘हरीश, नीलू परसों रात को आयी थी। कैप्टन ने उसके आने पर कई तरह से उसे बहलाने का प्रयास किया, किन्तु उसने कैप्टन से एक दूरी बनाये रखी। मैंने भी कोई दख़ल देना उचित नहीं समझा। कल हम सभी ने ‘नॉर्मल वे’ में नाश्ता किया और फिर होली खेलने लगे। कैप्टन और नीलू ने भी एक-दूसरे को खूब रँगा। नीलू के व्यवहार में पहले दिन वाले संकोच की रंचमात्र भी झलक नहीं थी। शायद यह त्योहार की ख़ुशी के कारण था या उसे विश्वास था कि मेरी उपस्थिति में उसका जीजा उसके साथ कोई अवांछनीय हरकत नहीं करेगा। कारण कुछ भी रहा हो, किन्तु कैप्टन का व्यवहार मर्यादित ही रहा। मुझे यह देखकर काफ़ी सुकून महसूस हुआ।’

आज पहली बार मीनाक्षी द्वारा ‘कैप्टन साहब’ की जगह केवल ‘कैप्टन’ कहने तथा नीलू और कैप्टन के बीच व्यवहार को लेकर मीनाक्षी की टिप्पणी को ध्यान में रखते हुए हरीश ने बीच में टोकते हुए पूछा - ‘दीदी, आपकी बातों से तो ऐसा लगता है जैसे कि कैप्टन साहब ने नीलू के साथ पहले कभी अवांछनीय व्यवहार किया था?’

‘सब बताऊँगी हरीश, क्योंकि तुम मेरे भाई हो।..........रात को टी.वी. के सभी चैनलों पर होली के उत्सव की झलकियाँ आ रही थीं। वैसे तो कैप्टन ऐसे मौक़ों पर पैग लगाये बिना रहता नहीं, किन्तु कल उसने इसका ज़िक्र तक नहीं किया। मन-ही-मन मैं हैरान भी थी। जब उसने इसका ज़िक्र नहीं किया तो मैं क्यों यह बात उठाती और ‘आ बैल मुझे मार’ की नौबत खड़ी करती। आख़िर हमने इकट्ठे बैठकर टी. वी. देखा, खाना खाया और सो गये। सब कुछ सामान्य-सा था, किन्तु सामान्य दिखने वाली स्थिति के नीचे ज्वालामुखी धधक रहा था, ऐसी क़तई आशंका नहीं थी।

‘सुबह चार-एक बजे होंगे। नीलू के कमरे से चीखने की आवाज़ आयी। मैं बौखलाहट में उठी। बेड पर कैप्टन नहीं था। मैं भाग कर गयी। नीलू ख़ुद को कैप्टन की गिरफ़्त से छुड़ाने की कोशिश कर रही थी। मुझे दरवाज़े पर देखते ही कैप्टन ने नीलू को छोड़ दिया और तेज़ कदमों से हमारे बेडरूम की ओर चला आया। मैंने नीलू से कुछ नहीं पूछा। उसे तसल्ली दी और कहा कि वह चिटकनी लगा कर सो जाये।

‘मैं जब अपने कमरे में आयी तो कैप्टन कंबल ओढ़कर लेटा हुआ था। मैंने कमरे को अन्दर से बन्द किया और उसे हाथ पकड़ कर उठाया तथा धमकाया - ‘तुम्हारी इतनी हिम्मत? मेरे सामने मेरी बच्ची की इज़्ज़त पर हाथ डालने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?

‘उसने कहा - वो तुम्हारी बच्ची नहीं, मेरी साली है। मैं अपनी साली के साथ कुछ भी करूँ, तुम मुझे रोक नहीं सकती। ........ उसकी नापाक हरकतों तथा इरादों को भाँप कर, हरीश, मेरी ज़ुबान उस राज़ की चुग़ली खा बैठी जिसे आज तक मैंने अपने मम्मी-पापा को छोड़कर किसी अन्य के समक्ष उजागर नहीं होने दिया था।....... मैंने कहा, नीलू मेरी बेटी है और अगर तुमने उसे हाथ लगाने की कोशिश की तो मैं तुम्हारे हाथ काट दूँगी। मेरा इतना कहना था कि वो आपे से बाहर हो गया। बेड से छलांग मारकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ और मुझे कंधों से झिंझोड़ते हुए गालियाँ देते हुए चिल्लाया - हरामजादी, बदजात औरत, इतना बड़ा धोखा! जब तुझसे शादी की सोची थी, तब इतना तो मैं मानकर चला था कि तू वर्जिन तो हरगिज़ नहीं होगी, लेकिन ख़्बाव में भी नहीं सोचा था कि नीलू तेरी बेटी होगी। और इसी के साथ उसने ग़ुस्से में पहले तीन-चार ज़ोर के थप्पड़ मारे, मैंने उफ़्फ़ तक नहीं की। इतने में उसकी नज़र दीवार पर टँगी राइफ़ल पर पड़ी। उसने फुर्ती से राइफ़ल उतारी और उल्टी करके धड़ाधड़ मेरे आगे-पीछे मारने लगा। शुरू में मैंने हाथापाई करके उससे राइफ़ल छीनने की कोशिश की, लेकिन मेरी एक ना चली। वो गालियाँ बकता रहा और मारता रहा। यह चीख-चिल्लाहट सुनकर नीलू भी आकर हमारे दरवाज़े को पीटने तथा दरवाज़ा खोलने की गुहार लगाने लगी। मुझमें तो दरवाज़े तक जाने की हिम्मत ही नहीं बची थी, मैं दर्द से कराह रही थी। शायद नीलू को दरवाज़े के बाहर शोर मचाते सुनकर कैप्टन के सिर पर खून सवार हो गया था। उसने राइफ़ल का बट बड़ी ज़ोर से मेरे सिर पर मारा और दरवाज़े की ओर लपका। मैं ढेर हो चुकी थी। मुझे नहीं पता कि उसके बाद क्या हुआ ।

‘क़रीब दो घंटे बाद मुझे होश आया। उस समय डॉक्टर प्रशान्त मेरे सिरहाने बैठे थे और नीलू खड़ी-खड़ी उनकी हेल्प कर रही थी। बाद में नीलू ने मुझे बताया कि कैप्टन हड़बड़ी में घर से बाहर चला गया था। उसका अभी तक कुछ पता नहीं चला कि कहाँ है? नीलू ने अन्दर आकर मुझे फ़र्स्ट-एड दी और फिर डॉक्टर प्रशान्त को फ़ोन करके बुलाया था। दिन चढ़ने पर अस्पताल ले जाकर मेरा सी.टी. स्कैन आदि कराया और इंजेक्शन, दवाइयाँ दीं। जिनके असर में मुझे गहरी नींद आ गयी। तुम्हारे आने से कोई आधा घंटा पहले ही मैं जागी थी।’

अब तक हरीश अपनी ओर से बिना कुछ कहे सुन रहा था। जब मीनाक्षी ने नीलू को अपनी बेटी वाला राज़ उसके सामने खोला तो वह भौचक्का रह गया था। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उसने मीनाक्षी को अपनी बात पूरी करने दी थी। लेकिन अब उसको समझ आया कि मीनाक्षी ने नीलू को चाय लाने के लिये कहते समय ‘अंकल’ शब्द का प्रयोग क्यों किया था। उसने पूछा - ‘दीदी, क्या नीलू जान गयी है कि आप उसकी मम्मी हैं?’

‘हरीश, कुछ कह नहीं सकती। जब गाली-गलौज और मारपीट के बीच मेरे मुँह से यह सच्चाई निकली थी, उस समय वह दरवाज़े के बाहर थी। शोर-शराबे में सुन लिया हो तो वह जाने, लेकिन उसने अभी तक इस विषय में मेरे साथ कोई बात नहीं की है। तुम मेरे भाई हो। मेरी हाथ जोड़कर विनती है कि तुम अपनी ओर से यह राज़ किसी को नहीं बताओगे।’

‘दीदी, आपको लगता है कि मैं ऐसी ओछी हरकत कर सकता हूँ! मेरी ओर से आप निश्चिंत रहें।........एक बात और, पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई है या नहीं।’

‘अभी तक तो नहीं। नीलू और डॉक्टर प्रशान्त तो कह रहे थे कि हमें पुलिस को इन्फॉर्म करना चाहिए, किन्तु मैंने कहा कि इसके लिये जल्दी करना ठीक नहीं। किसी अच्छे एडवोकेट से सलाह-मशविरा करके कोई कदम उठायेंगे। मैं कैप्टन को ऐसा सबक़ सिखाना चाहती हूँ कि उम्र भर उसको अपनी घिनौनी हरकत पर पछताना पड़े।’

‘दीदी, आप कहें तो मैं एडवोकेट सूद से बात करूँ? सूद की ऐसे केसों में अच्छी रेप्यूटेशन है।...... इसका मतलब तो यह हुआ कि कैप्टन साहब से सामाजिक और पारिवारिक नाता तो हमेशा के लिये टूट ही गया।’

‘हाँ, ऐसा ही समझो। तुम ही बताओ कि इतना कुछ होने के बाद भी क्या ऐसे नीच से रिश्ता रखा जा सकता है? मैं तो उसकी शक्ल भी नहीं देखना चाहती। अब तो यही सोच कर सब्र कर लूँगी कि जीवन में हवा का एक ऐसा झोंका आया था जिसकी शुरुआती छुअन ने दिल की गहराइयों तक ठंडक पहुँचाई, लेकिन बाद में बवंडर बन सब तहस-नहस कर गया। उस कमीने ने जो घाव दिया है, जीवन भर उसकी टीस सालती रहेगी। जो खरोंचें मन पर उकेर दी हैं इस घाव ने, उन्हें सहलाने से भी दर्द उभरेगा। ....... ठीक है, तुम सूद से बात करना।‘

‘दीदी, एक भाई के अधिकार से पूछ रहा हूँ कि क्या यह सब अचानक हुआ या पहले भी कैप्टन साहब के बिहेवीयर में इस तरह के लक्षण कभी दिखाई दिये थे?’

इस पर मीनाक्षी ने हरीश को मौसी के निधन के बाद कैप्टन के बर्ताव में आये बदलावों, झूठ बोलकर नीलू के पास रोहतक पहुँचने तथा नीलू के साथ किये गये बर्ताव के बारे में विस्तार से बताया। सुनकर हरीश के मन को और भी कष्ट हुआ तथा कैप्टन के प्रति उसके मन में घृणा उत्पन्न हुई। तब उसने कहा - ‘दीदी, कैप्टन साहब की आज की वहशियाना व निर्दयतापूर्ण हरकत तथा पिछले चार-पाँच महीने के व्यवहार को देखते हुए तो किसी तरह के पुनर्विचार की सम्भावना तलाशना मृगतृष्णा समान बेमानी होगा। अब वह समय तो रहा नहीं कि आदमी कितना भी ज़ुल्म करता रहे, औरत को ही सहनशीलता का पाठ पढ़ाया जाये।’

‘हरीश, तुम्हारी मोरल सपोर्ट से मुझे बहुत हौसला मिला है। अब तुम चलो, सुरभि और बच्चे इंतज़ार कर रहे होंगे। हो सके तो कल एक बार आ जाना।’

‘दीदी, यह भी कैसी बात करती हैं आप! मैं कल हाफ् डे लीव लेकर अवश्य आ जाऊँगा। .....

सुरभि तो मेरे साथ आना चाहती थी, किन्तु इस समय बच्चों को अकेले छोड़ना ठीक नहीं समझा मैंने। इसलिये अकेला ही चला आया।’

‘अच्छा किया हरीश, सुरभि को नहीं लाये तुम। रात के समय बच्चियों को अकेले छोड़ना भी नहीं चाहिए। अब तुम जाओ।’

हरीश बाहर आया और कार स्टार्ट की और चल पड़ा।

जब तक हरीश मीनाक्षी के पास बैठा रहा, नीलू वहाँ नहीं आयी, किन्तु उसके जाने के बाद उसने ने मीनाक्षी को पहले सूप और खाना दिया और फिर दवाई। दवाइयों में पेन-रिलीवर होने की वजह से मीनाक्षी की आँखें जल्दी ही झपकने लगीं और इसी तन्द्रा की अवस्था में बाहर कहीं बज रहे फ़िल्मी गीत के स्वरों की अनुगूँज उसके कानों में घुलने लगी:

क्या मिलिए ऐसे लोगों से, जिनकी फ़ितरत छिपी रहे

नक़ली चेहरा सामने आये, असली चेहरा छिपा रहे।

दवाइयों के असर में कल लगभग सारा दिन सोये रहने और रात को जल्दी सो जाने के कारण सुबह चार-एक बजे मीनाक्षी की नींद खुल गयी। शरीर में दर्द नाममात्र रह गया था। अतः बाथरूम से फ़ारिग होकर स्वयं चाय बनाने के लिये रसोई में गयी। बर्तनों की उठा-पटक सुनकर नीलू भी जाग गयी और उसने रसोई में आकर मीनाक्षी को टोका - ‘दीदी, आप क्यों यह सब कर रही हैं? मुझे जगा लेना था, मैं चाय बना देती।’

‘नीलू, अब मैं ठीक हूँ। कल सुबह से सारा दिन तूने बिना आँख झपके मुझे सम्भाला, इसलिये मैंने तुझे डिस्टर्व करना ठीक नहीं समझा। तू अब अपने कमरे में जाकर सो जा। दो-तीन घंटे और आराम कर ले।’

नीलू ने देखा कि मीनाक्षी के चेहरे पर दर्द की रेखाएँ कल की बनिस्बत बहुत कम हैं तो उसने इतना ही कहा - ‘दीदी, मैंने किसी ग़ैर को तो सम्भाला नहीं था, जो किया अपनी दीदी के लिये ही किया। वैसे भी अब मैं डॉक्टरी कर रही हूँ तो डॉक्टर की ड्यूटी होती है पेशेंट की देखभाल करना।’

‘चल हट। अभी से मुझे अपना पेशेंट मत समझ। मुझे पता है, तुझे अभी नींद की ज़रूरत है।’

‘ठीक है दीदी। लेकिन आप चाय के साथ बिस्कुट वग़ैरह अवश्य खा लेना वरना एसीडिटी बढ़ जायेगी। चाय के आधे घंटे बाद सुबह वाली डोज़ ले लेना। आपको भी अभी आराम की ज़रूरत है।’

‘अच्छा बाबा, सब कर लूँगी। अब तू जा।’

चाय पीने के बाद मीनाक्षी बेड पर लेट तो गयी, किन्तु अब दवाई लेने से पहले नींद आने का तो सवाल ही नहीं था। यह तो गहरी नींद ही होती है जब मन-मस्तिष्क निश्चल हो पाते हैं। जाग्रत अवस्था में तो मन-मस्तिष्क एक पल ख़ाली नहीं रहते, कोई-न-कोई विचार चलता ही रहता है। विचार न हो तो कोई-न-कोई ख़ुराफ़ात ही कुलबुलाने लगती है। सोते समय सुने फिल्मी गीत के शब्दों और उनके अर्थ पर मीनाक्षी विचार करने लगी। जीवन में अब तक हज़ारों लोगों से वास्ता पड़ा है, अधिकांश के साथ नौकरी के दौरान। व्यक्तिगत परिचय के दायरे की गिनती भी सैंकड़ों तक तो आराम से पहुँच चुकी है। इनमें से दस-बीस ही ऐसे हैं, जिन्होंने मेरे जीवन को किसी-न-किसी रूप में प्रभावित किया है, अच्छे-बुरे दोनों ढंग से। इन्हीं चन्द लोगों में से कुछ लोग हैं, जिन पर गीत के बोल सटीक बैठते हैं। बुरी तरह प्रभावित करने वालों में कैप्टन प्रीतम सिंह का नाम शिखर पर है। कहते हैं कि फ़ेस इज द इंडेक्स ऑफ माइंड। कैसे यक़ीन करूँ इस पर? शुरुआती पाँच-छ: महीने के उसके बर्ताव और बाद के बर्ताव में दिन-रात का अन्तर है। दोनों अवधियों में परस्पर विरोधी बर्ताव। कौन से चेहरे को दोष दूँ या अपनी क़िस्मत को? शुरू के पाँच-छ: महीने में कैप्टन ने बहुत मँजे हुए कलाकार की भूमिका निभाई। नक़ली चेहरे को ही असली चेहरा समझती रही मैं, भनक तक नहीं लगी सतह के नीचे छिपे ग़लीज़ असली रूप की। जब असली चेहरे की झलक दिखायी देने लगी थी, तब भी कहाँ सँभली मैं? नीलू के साथ दुर्व्यवहार की घटना तो बाद की है। कैप्टन के बर्ताव में वहशीपन तो पहले ही प्रकट होने लग गया था। कहीं उसी समय मैं सचेत हो गयी होती तो शायद इतने बड़े आघात की नौबत ही न आती। लेकिन उस समय देह की आवश्यकता के आगे विवेक ने घुटने टेक दिये थे। लम्बे अरसे की देह की माँग हावी रही थी और मैंने फ्रायड की आड़ में खुद को तसल्ली दे ली थी।....... हमारे समाज की संरचना पुरुष-प्रधान है। विवाहित या अविवाहित पुरुष के पास देह की भूख की आपूर्ति के अनेक साधन होते हैं जो कि एक साधारण महिला के लिये दूर की कौड़ी हैं जबकि यह भूख स्त्री-पुरुष में समान रूप से विद्यमान होती है।

अगर विधाता को मेरे जीवन को अधूरा ही रखना था, मेरी ख़ुशियों पर इतनी जल्दी ग्रहण लगाना था तो क्या ज़रूरत थी कैप्टन को मेरे जीवन में प्रवेश करवाने की? जिस तरह आधा जीवन गुज़र गया था, आगे भी वैसे ही गुज़र जाता। इस आघात से तो बची रहती।

विधाता के रहस्यों को समझना कहाँ आसान है? उसके लिये भी कड़ी तपस्या की ज़रूरत होती है जो मेरे जैसी साधारण महिला के बस की बात कहाँ?

आधा घंटा हो चला था। मीनाक्षी ने उठकर दवाई ली और फिर विचारों में खो गयी। उसे याद आयी ‘द सैकिंड सेक्स’ की फ़्रेंच लेखिका सिमोन द बुआ की जिसने प्रख्यात लेखक सार्त्र के साथ बिना विवाह किये सारी उम्र गुज़ार दी थी। वह सोचने लगी, कहीं हमारे बीच भी विवाह का बँधन न होता तो हो सकता है, उन हालात में कैप्टन भी सम्बन्धों में बराबरी को नज़रअंदाज़ करके पुरुष वर्चस्व का शिकार न होता। लेकिन ऐसा ख़्याल ख़्याल ही रहता, क्योंकि कैप्टन के पेरेंट्स और यहाँ तक कि मौसी ने भी इसे स्वीकार नहीं करना था। ख़्यालों का कोई अन्त नहीं था। लेकिन दवाई ली हुई होने के कारण नींद को टालना भी अब मुश्किल लगने लगा था।

क्रमश..