पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 14 Lajpat Rai Garg द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 14

पूर्णता की चाहत रही अधूरी

लाजपत राय गर्ग

चौदहवाँ अध्याय

मीनाक्षी के विवाह के आठ-दस महीने बाद की बात है। जब वह ऑफिस से निकली, तभी आँधी चलने लगी। दिन में ही चारों तरफ़ अँधेरा छा गया। घर पहुँची तो आँधी-झक्खड़ तो रुक गया, लेकिन चारों तरफ़ धूल-मिट्टी फैली मिली। थोड़ी देर बाद ही बरसात शुरू हो गयी। धूल-मिट्टी के ऊपर बरसात। चहुँओर कीचड़-ही-कीचड़ हो गया। मीनाक्षी ने नौकर से छत के नीचे का सारा एरिया साफ़ करवाया। मौसम का मिज़ाज अभी भी बिगड़ा हुआ था, बादलों की गर्जन-तर्जन अभी भी जारी थी। आसार ऐसे थे कि किसी समय भी तेज बरसात हो सकती थी। इसलिये मीनाक्षी ने जल्दी ही खाना बनवा कर नौकर को जाने दिया। खाना खाने के बाद मीनाक्षी सोने की तैयारी में थी कि नीलू का फ़ोन आया। फ़ोन का सुनना था कि मीनाक्षी की आँखों से नींद नदारद। मन बेचैन हो उठा। विवाह के बाद कई महीनों तक या यह कह लो कि जब तक मौसी ज़िन्दा रही, कैप्टन ने मीनाक्षी को हाथों की तलियों पर रखा, उसे हर प्रकार से प्रसन्नता प्रदान की। हनीमून को चिरस्मरणीय बनाने के लिये दुबई में एक सप्ताह का प्रोग्राम बनाया। दुबई का टूर वाक़ई ही यादगार ट्रिप रहा। जन्नत तो किसी ने देखी नहीं। है तो वह कल्पना-सृजित ही। केवल कल्पना में ही हर शख़्स अपने मनोभावों के अनुरूप जन्नत के नज़ारों का आनन्द ले लेता है। किन्तु दुबई जाकर मीनाक्षी को अनुभव हुआ कि मरुस्थल में भी जन्नत को कैसे सजीव रूप में उतारा जा सकता है। डेजर्ट सफ़ारी के समय सूर्य-रश्मियों के नीचे बालू रेत सोने की तरह चमक पैदा कर रही थी। जहाँ तक दृष्टि जाती थी, ऊँचे-नीचे रेत के समुद्र में कचरे का कहीं नामोनिशान तक नहीं था तो शहर में साफ़-सफ़ाई का यह आलम था कि ज़मीन पर कहीं भी बैठकर खाना तक बेझिझक खाया जा सकता था। ड्रिप इरीगेशन द्वारा पार्कों तथा सड़कों के किनारे की हरियाली देखकर आँखें खुली-की-खुली रह जाती थीं। गगनचुंबी इमारतों और बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों का तो कहना ही क्या। हनीमून तो आनन्दमय रहा ही था, उसके बाद भी काम की व्यस्तता को दर-किनार करके प्रत्येक सप्ताहांत मौसी सहित फ़ॉर्महाउस में बिताना महज़ एक रूटीन जैसा नहीं होता था, बल्कि एक अनुष्ठान की तरह होता था जिसका मीनाक्षी को बेसब्री से इंतज़ार रहता था और कैप्टन उसका अनुपालन निष्ठापूर्वक करता रहा था।

लेकिन मौसी के परलोक सिधारने के बाद से कैप्टन के रवैये में परिवर्तन आना शुरू हुआ था। न केवल सप्ताहांत के फ़ॉर्महाउस के दौरों में नागा पड़ने लगा, मीनाक्षी के साथ अंतरंग सम्बन्धों में सौहार्दपूर्ण व्यवहार की जगह चिड़चिड़ेपन, नुक्ताचीनी और कर्कशता ने लेनी शुरू कर दी थी। मीनाक्षी ने कई बार कैप्टन से इस बदलाव का कारण जानने का प्रयास किया, किन्तु वह ‘कुछ नहीं यार, तुम्हारा वहम है’ कहकर टाल जाता था। अपने तौर पर भी मीनाक्षी ने विश्लेषण करने की कोशिश की, किन्तु किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुँच सकी। कैप्टन कई बार नशे की हालत में न केवल हाथ उठाने लगा था, बल्कि रात को सम्बन्ध बनाते समय वहशियाना हरकतें भी करने लगा था। जब उसने ऐसा करना आरम्भ किया था तो शुरू-शुरू में मीनाक्षी को अजीब तो लगता था, किन्तु उसे इसमें भी आनन्द की अनुभूति होती थी। उसे याद आयी यूनिवर्सिटी में पढ़ी क्लासिक पुस्तक - सिग्मंड फ़्रायड द्वारा लिखित ‘द इंटरप्रिटेशन ऑफ ड्रीम्स’। उसे लगा कि कैप्टन की ज़ोर-जबरदस्ती और मेरी परोक्ष स्वीकृति के पीछे सम्भवतः फ्रायड द्वारा प्रतिपादित मनोवैज्ञानिक सिद्धांत ही काम कर रहा था कि सेक्सुअल एक्ट में कभी-कभी नोंच-खसोंट से भी आनन्दानुभूति होती है। इसलिये उसने इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था।

किन्तु आज नीलू ने फ़ोन पर जो बताया, उससे मीनाक्षी की चिंता कई गुणा बढ़ गयी। कैप्टन सुबह कहकर गया था कि आज वह ऑफिस से ही दिल्ली जायेगा और कल किसी समय वापस आयेगा। इसलिये सुबह ही एक दिन के लिये कपड़े ब्रीफ़केस में डाल कर ले गया था। उसने ऐसा कोई ज़िक्र नहीं किया था कि वह दिल्ली के साथ रोहतक भी जायेगा। नीलू ने जो बताया है, उससे तो लगता है जैसे कि कैप्टन दिल्ली गया ही न हो, सीधा रोहतक ही गया हो। नीलू लगभग पाँच बजे हॉस्टल पहुँची थी। थोड़ी देर में ही अटेंडेंट ने आकर बताया था कि कैप्टन प्रीतम सिंह उससे मिलने आये हैं। जब गेस्ट-रूम में पहुँची तो हैलो-शैलो के बाद नीलू ने पूछा था - जीजा जी, दीदी कैसी हैं और जब वह चाय का ऑर्डर करने के लिये कैंटीन की ओर जाने लगी तो कैप्टन ने कहा था - नीलू, तू अपना कमरा वग़ैरह बंद कर आ और मेरे साथ चल, किसी अच्छे रेस्तराँ में कुछ खायें-पीयेंगे। नीलू ने सोचा, बहुत दिनों से पढ़ाई में उलझे रहने के बाद जीजा जी के साथ थोड़ी देर मटरगश्ती करने का अवसर मिला है तो वह झट से तैयार हो गयी। होटल में पहुँचने पर रेस्तराँ में जाने की बजाय कैप्टन जब उसे लेकर सीढ़ियों से ऊपर की ओर जाने लगा तो उसने पूछा था - जीजा जी, ऊपर किधर? जिसके जवाब में कैप्टन ने कहा था कि मैं अपने काम के सिलसिले में यहाँ आया हूँ और मुझे रात को यहीं रुकना है, इसलिये रूम बुक करवा रखा है। रूम में ही चाय-वाय पीयेंगे। रूम में चाय और कटलेट आदि खाने के दौरान हल्का-फुल्का मज़ाक़ भी चला। उसके बाद कैप्टन ने उसे अपनी गोद में बैठने को कहा। नीलू के इनकार करने पर कहने लगा - नीलू, अब तुम बड़ी हो गयी हो। जीजा-साली में ऐसा तो चलता ही है और साथ ही कुर्सी से उठकर उसे बाँहों में जकड़ लिया और उसकी कनपटी पर जलते होंठ रख दिये। नीलू तिलमिला उठी। उसने स्वयं को बाहुपाश से छुड़ाने की कोशिश करते हुए कहा - जीजा जी, यह आपको शोभा नहीं देता। प्लीज़, मुझे छोड़ दीजिए, लेकिन कैप्टन पर नीलू की गुहार का कोई असर नहीं हुआ। उलटे वह उसके होंठों पर ‘किस’ करने का यत्न करने लगा। नीलू की तमाम कोशिशों के बावजूद भी कैप्टन ने उसे छोड़ा नहीं। इतने में डोरबेल बजी। तब जाकर कैप्टन ने नीलू को छोड़ा और दरवाज़े की ओर मुख करके कहा - वेट, खोलता हूँ। वेटर बिल पर साइन करवाने आया था। वेटर के जाने के बाद कैप्टन ने और कोई हरकत नहीं की बल्कि कहा - नीलू, आज रात को मेरे साथ ही रुक जा। नीलू घबराई हुई थी, प्रतिवाद की स्थिति में नहीं थी। अतः उसने इतना ही कहा कि बिना वार्डन को सूचित किये रात को हॉस्टल से बाहर रहना मना है। तिस पर कैप्टन ने कहा - चलो, चलकर वार्डन से परमीशन ले लेते हैं। नीलू के साफ़ इनकार करने पर कहने लगा - मेरी इतनी बात तो मान लो कि डिनर इकट्ठे करेंगे, उसके बाद तुम्हें छोड़ आऊँगा। न चाहते हुए भी नीलू को डिनर तक रुकना पड़ा। उस दौरान कैप्टन नीलू के शरीर पर हाथ फिराता रहा, किन्तु बहुत आगे नहीं बढ़ा। नीलू पिंजरे में बन्द परिंदे की मानिंद अन्दर-ही-अन्दर तड़पती रही। अपने जीजा के विरुद्ध जाने की उसकी हिम्मत नहीं थी।

मीनाक्षी सोच रही थी कि कैप्टन के आने पर इस प्रसंग को लेकर कैसे बात करनी चाहिए। कोई सूत्र न सूझने पर उसने कैप्टन के आने पर परिस्थिति के अनुसार प्रसंग उठाने की मन में ठान कर आँखें मूँद लीं।

.......

दूसरे दिन रात के खाने के समय कैप्टन वापस आया। नौकर तब तक जा चुका था। मीनाक्षी भरी बैठी थी। कैप्टन के घर में कदम रखते ही बिना किसी प्रकार के अभिवादन और व्यंग्य के स्वर में पूछा - ‘हो आये दिल्ली?’

मीनाक्षी के सवाल करने के अन्दाज़ से कैप्टन को समझने में देर नहीं लगी कि नीलू ने मीनाक्षी को फ़ोन पर सब कुछ बता दिया है। अतः उसने मँजे हुए कलाकार की भाँति सामान्य लहजे में कहा - ‘अरे दिल्ली नहीं, अब तो मैं रोहतक से आ रहा हूँ। हुआ यूँ कि जब मैं कम्पनी ऑफिस पहुँचा तो पता चला कि एम.डी. साहब को अचानक रोहतक जाना पड़ गया और जाते हुए वे मेरे लिये मैसेज छोड़ गये कि मैं रोहतक ही आ जाऊँ, सो मैं उन्हीं पैरों रोहतक चला गया। शाम को फ़ुर्सत में था तो मैं नीलू से भी मिल लिया।’

मीनाक्षी ने तंज कसते हुए कहा - ‘मुझे सब मालूम हो चुका है जिस तरह से तुम नीलू से मिले। तुम्हें शर्म नहीं आयी नीलू के साथ ऐसा बिहेव करते हुए।’

‘तो इसका मतलब यह हुआ कि उसने खूब नमक-मिर्च लगा कर मेरे विरुद्ध तुम्हें उकसाया है। मैंने ऐसा-वैसा कुछ नहीं किया। साली है, थोड़ा-बहुत हँसी-मज़ाक़ कर लिया तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ा।’

‘अपनी और उसकी उम्र का तो लिहाज़ रखा होता। मैं तुम्हें वॉर्न करती हू कि आगे कभी ऐसा मत करना वरना अच्छा नहीं होगा।’

स्थिति को सम्भालते हुए कैप्टन ने कहा - ‘अच्छा बाबा, नहीं कुछ करूँगा आगे से। अब खाना तो खिलाओगी या छुट्टी समझूँ?’

तत्पश्चात् मीनाक्षी ने बात को बिना बढ़ाये बेमन से खाना टेबल पर लगा दिया।

क्रमश..