आज का सारा काम बाकी रहा था मेरा और अब हिम्मत भी नहीं थी। ६बजे करीब घर पहुंची। बहन ने चाय पिलाया। मन दुखी था मेरा। कल से एक पूरा सप्ताह था सामने - थके शरीर और मन के साथ।
अगले दिन फोन की आवाज से नींद खुली, "अभी इस नंबर पर कॉल करो।" हर्ष था दूसरी तरफ। घबरा गई मैं , क्या हुआ? कहां का नंबर है। फोन उठाया। उफ़, नो बैलेन्स। कल सोचा था रिचार्ज करवाऊंगी ,पर समय नहीं मिला।
बाहर दौड़ी मैं बूथ पर। ठंड में नजदीक का बूथ भी सुबह ६:३० बजे तक खुला नहीं था। क्यों उठेगा कोई इतनी सुबह, इतने ठंड में। मैं भी कहां उठती हूं ७:३० से पहले कभी , वो भी इसलिए कि ठीक ९:३०बजे ऑफिस पहुंचना होता है। हमारे सर समय के बेहद पाबंद हैं, खुद ऑफिस में होते हैं।
थोड़ी दूर जाना पड़ा मुझे। फोन लगाया तो नाम बताने पर कनेक्ट किया गया। " सोच रहा कि दिल्ली से आज निकल जाऊ, तो सोचा तुम्हें बता दूं।"
" तुम कॉल भी कर सकते थे, ऐसे बोल कर क्यों काट दिया फोन।"
" वो दूसरे का फोन था, मैं ज्यादा इस्तेमाल नहीं करना चाहता था और बाहर बूथ पर जाने की इच्छा नहीं थी मेरी इतनी सुबह।"
तुम्हारी इच्छा नहीं थी, और मैं दौड़ रही थी सुबह से।
" ठीक है, हो सके तो मिलने आना आज शाम, जाने से पहले।"
घर पहुंच कर ऑफिस की तैयारी में लग गई मैं। बहन को मुझसे पहले निकलना होता था।
५बजे थे शाम के, एक घंटा बाकी था ऑफिस में अभी। ऑफिस बॉय ने आकर बताया कोई मिलने आया है।
"मुझसे?"
बाहर आई मैं - तुम अपने दो परिचित लडकों के साथ आए थे और साथ में थी मेरी स्कूल मित्र की छोटी बहन रिंकी , जोकि मुझे अपनी बहन जैसी ही प्रिय है। आज भी वो दिन वैसे ही स्मृतियों में ताज़ा है। झेंप गई थी मैं अपने ऑफिस में तुम लोगों को देख कर। दोनों लड़के लगता था वैसे ही उठ कर आ गए थे - बिना शेविंग किए और पूरे बालों को कवर करने वाले अजीब किस्म की टोपी पहने। हमेशा पॉलिश्ड दिखने वाले तुम भी - थके - हारे ही दिख रहे थे। सिर्फ रिंकी हमेशा की तरफ स्मार्ट दिख रही थी।
ये तुम थे - जिसकी खूबसूरती का बखान करते नहीं थकती थी मैं और आज पहली बार तुम आए मेरे ऑफिस, वो भी दिल्ली में, बिना तैयार हुए। तुम खुद ही तो बताया करते थे कि दिल्ली वाले चाहे कुछ जेब में हो ना हो, रहते हैं हमेशा बन - ठन के। फिर क्या तुम्हें लगा नहीं कि ऐसे नहीं आना चाहिए मेरे ऑफिस?
अनुमति लेकर मैं आ गई तुम लोगों के साथ। घर पास था मेरे, तो हमलोग घर की तरफ बढ़े। मैं बुरी तरह तनाव में थी, कैसे स्वागत करूंगी सबका, क्या खिलाऊंगी ? छुटकी घर में होती तो कोई बात ही नहीं थी। खाना बनाना हमेशा बहुत मुश्किल काम रहा है मेरे लिए। मैसेज किया बहन को, बोली आधे घंटे से पहले निकल नहीं सकती। यानी साढ़े छह या सात बजेंगे उसे आने में। तब तक तो सब कर चुकी होंगी मैं। सुबह हड़बड़ी में घर जैसा - तैसा छोड़ कर गए थे हम उस दिन , क्योंकि लाइट नहीं होने से पानी नहीं था।
बिठाया सबको। किचेन गई तो सारा बर्तन सिंक में पड़ा था। पानी अभी तक नहीं आया था। अब? रिंकी आई किचेन," दीदी क्या हेल्प करूं। " क्या करती वो, पहली बार आई थी मेरे घर। मैंने कहा "इनलोगों से बात करो तुम।"
पानी की ऐसी मुश्किल कभी आई नहीं थी इस घर में। लैंड लेडी के पास गई तो बोली कि रात तक ठीक होगा, तब तक छत से जाकर पानी ले आओ फिलहाल के काम के लिए। बाल्टी लेकर जल्दी - जल्दी पानी लाया मैंने। बर्तन धोए। रिंकी पूछ रही थी बार बार। तो मैंने कहा - "आलू छिल दो।"
किचेन साफ कर एक तरफ़ सब्जी चढ़ाई मैंने, दूसरी तरफ कढ़ाई पूड़ी तलने के लिए। प्लेट लगाने में रिंकी ने भी मदद किया । सबको नाश्ता दिया, तब तक बहन भी आ गई कुछ मिठाई लेकर। तो नाश्ता अच्छा रहा। अब तक लगभग काम हो चुका था। साढ़े सात बज चुके थे। निकलने की जल्दी हो रही थी सबको। बहन को भी थोड़ा नाश्ता देकर अब मैं बाहर निकली। मुझे लगा - आज कितने अच्छे से किया मैंने सब।
आज रात तुम निकलने वाले थे और टिकट तुम्हारे पास था नहीं। हम सब निकले सड़क पर बस के लिए। तुमने कहा तुम बस से नहीं जाना चाहते।
दिल्ली में ऑटो महंगा ही लगता है मुझे और पिछले दो दिन से ऑटो में खूब खर्च हो गया था। सब साथ हो तो बस में भी अच्छा लगता है मुझे। ऑटो में तुम बैठे और साथ में मेरी बहन एवम् एक परिचित तुम्हारा जो आज आया था।और बस में मैं , तुम्हारा परिचित वो दूसरा व्यक्ति और शायद रिंकी। याद नहीं आ रहा अभी ठीक से। तुम साथ नहीं थे मेरे, बस यही याद है। मैंने बहन को पैसा दिया ऑटो के लिए।
बस में मैं सोच रही थी कि तुम मुझसे मिलने आए थे आज। और तुम्हारे आने के बाद लगातार मैं पहले किचेन में रही, तुमने जरूरत भी नहीं समझी कि आकर मुझसे बात करो या हाथ बंटाओ वहीं, कितना कम समय था हमारे पास और अब मैं तुम्हें छोड़ने जा रही स्टेशन, अभी भी तुमने अपनी सहूलियत देखी। मैं बस में थी और तुम ऑटो में।
दिल्ली शायद कहने को ही दिल वालों की नगरी है, यहां आकर मैंने तुम्हें बिना दिल वाला ही महसूस किया है।
पर चलो , तुम लोगों की अच्छी खातिरदारी की मैंने, ऐसी भी स्थिति में। तुम्हें अच्छा लगा होगा घर आकर मेरे।
स्टेशन पर पहुंच चुके थे हम। लंबी लाईन लगी थी। तुमने आग्रह किया कि महिलाओं की लाईन अपेक्षाकृत थोड़ी छोटी है, तुम टिकट ले लो मेरा जाकर। और तुम्हारे लिए फिर से लाईन में खड़ी थी मैं।
टिकट मिलने तक ट्रेन का समय हो चुका था। टिकट तुम्हारे हाथ में रख कर हमलोग निकल पड़े।
तुम्हें ही याद कर रही थी मैं और बहन को बता रही थी कि आज कैसी परिस्थिति में इतना अच्छा इंतेज़ाम किया मैंने। खुद की तारीफ कर रही थी मैं कि बहन ने कहा - " हां, रिंकी दीदी ने सब्जी बना दिया। काफी हेल्प किया तुम्हारा।"
बुरी तरह पारा चढ़ गया मेरा। वैसे भी अपने काम का श्रेय किसी और को लेने दूं, ये स्वभाव नहीं है मेरा।
"क्या कहा? कौन बोला तुम्हें? सारा काम ऐसी हालत में ऑफिस से आकर अकेले किया और तुम बोल रही कि रिंकी दीदी ने किया। रिंकी बार - बार आई थी पूछने पर मैंने उसे भेज दिया था सबको अटेंड करने। दो - तीन आलू ही छिला था उसने।"
"और कौन बताएगा? तुम अपनी खातिरदारी की तारीफ कर रही हो, और मुझे पता है भी कि आज क्या हालत थी घर की। ऊपर से इतने सारे लोग। अगर हर्ष भैया को तुमसे मिलना था तो अकेले आते या रिंकी दीदी को सिर्फ लाते, इन कौन - कहां के लोगों को क्यों लाए तुमसे खातिरदारी करवाने? और एक बार भी तुम्हारी कोई तारीफ नहीं की रास्ते भर उन्होंने। सिर्फ बतलाते रहे कि छोटे से काम में कितना घबरा जाती हो तुम।"
गुस्से से मैं छटपटा उठी थी अब। क्या समझ रखा है मुझे। अगर घरेलू किसी लड़की का इतना ही शौक है तो गांव से उठाए किसी को। मेरे घर में मम्मी पापा ने छोटी - छोटी इच्छाओं का ख्याल रखा है मेरे। घर के काम में हमेशा पापा को बराबर मम्मी का सहयोग करता देखा मैंने। गोल्ड मेडलिस्ट रहे हैं पापा और उसी तरह के खुले विचारों के भी। मम्मी को सदा आप कह कर संबोधित किया है उन्होंने। छठ पूजा के बाद सबके समक्ष उतने ही गरिमापूर्ण तरीके से अपनी मां का पांव छूते देखा है मैंने पापा को, "इस समय यह मेरी पत्नी नहीं , छठ व्रती हैं। " - कहते हुए।
मां अलग ही निडर स्वभाव की अपनी बात मजबूती से रखने वाली रही है। जिस बात को वो गलत समझे, कोई फिर उनसे करवा नहीं सकता चाहे किसी भी रुतबे का व्यक्ति हो वो। शुरू में दम्पत्ति के रूप में मम्मी - पापा ही आदर्श रहें हैं मेरे। विभिन्न स्वभाव के, पर एक - दूसरे का हृदय से सम्मान करते हुए। बहुत कम घरों में इस तरह सही अर्थों में बराबरी देखा है मैंने।
और उनकी बेटी मैं, एक बिल्कुल सामान्य सोच वाले व्यक्ति के लिए दीवानी हुई जा रही थी। पहले तो सब कुछ ठीक भी था, अब दिनों दिन एक अलग ही व्यक्तित्व नजर आ रहा था मुझे।
याद आ रही थी सौरभ की वो बात -" लड़का अच्छा है पर तुम्हारे लायक नहीं है।"
तो क्या यही वजह थी? हमारे पारिवारिक - वैचारिक भिन्नता से परिचित था सौरभ शुरू से।
भूमिका तैयार हो चुकी की आगे की।रात करीब १०:३० बज गए उस दिन भी घर पहुंचते हुए।