Tum na jane kis jaha me kho gaye - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 4 - गर्मी की छुट्टियां

परीक्षाओं के दिन

अचानक से कॉलेज के माहौल में शांति छा गई। हर कोई व्यस्त था नोट्स, अनुमानित प्रश्न और परीक्षा की तैयारियों में। अपनी मित्रों में सिर्फ मैं साहित्य की छात्रा थी और सब विज्ञान संकाय से थे तो उनकी परीक्षा हो चुकी होती थी मार्च के अंत तक।

परीक्षा के बाद एक और प्रतीक्षा रहती थी अपने मित्र दीपक की। दीपक - पटना कॉलेज के प्रथम वर्ष का मेरा मित्र।परिचय उससे तब हुआ था जब वह कोई सूचना देने आया था मुझे। बाद में पता चला उसने अपने एक मित्र से सिर्फ इसलिए दोस्ती तोड़ ली क्योंकि उसका मित्र आकर्षित हो रहा था मेरी तरफ।

इस मामले में उसकी सोच बिल्कुल साफ थी - अगर आपने किसी को मित्र कहा है तो मित्र ही रहें , मित्रता की आड़ में कोई और गलतफहमी ना पालें। उसके हिसाब से यह ग़लत था। जब जाना मैंने, तो बेहद खुशी हुई थी मुझे कि चलो मेरी सोच से मिलता जुलता व्यक्ति है ये।

इंटर की पढ़ाई साथ की थी हमने , पर वास्तव में उससे मित्रता हुई जब स्नातक में उसने दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। मेरी मित्रों में मनीषा की इच्छा थी दिल्ली में पढ़ने की। दीपक वहीं था तो उसने फॉर्म लाने से लेकर जमा करने का काम भी किया सभी कॉलेजों में। और जानकारी मिली कि मनीषा को मिरांदा हाउस में दाखिला मिल गया। पर किन्हीं वजह से वो जा नहीं पाई। पर इस सिलसिले में दीपक हमारे ग्रुप का अभिन्न अंग बन गया।

छुट्टियों में जब भी वह आता, पटना कॉलेज में अपने डिपार्टमेंट के सामने आराम से उसकी बाइक पर बैठती मैं और निकल जाती। उस समय तक ये उतनी आम बात थी नहीं।मेरे कुछ करीबी मित्रों के अलावा लगभग सभी को लगता कि दीपक बॉयफ्रेंड है मेरा। बाहर किसी निर्धारित स्थान पर हमारे अन्य मित्र प्रतिमा,मनीषा, संयोगिता प्रतीक्षा करते। कभी संग्रहालय, कभी चिड़ियाखाना, गांधी मैदान या कभी मूवी का प्रोग्राम बनता हमारा। उस बार तो वह बोल कर गया था , अगली बार आमिर सलमान की मूवी आ रही है। साथ देखेंगे।

गर्मी की छुट्टियां और नानी घर - मेरे लिए पर्यायवाची ही रहे हैं। बचपन से स्कूल बंद होते ही नानी -नाना के पास चली जाती मैं। सारी मौसियां, मामा भी आते उस समय।

फिर वहां से मम्मी पापा भाई बहन समेत हमारे गांव जाते हम, खूब सारा आम खाने। गर्मी की लंबी दुपहरिया कितनी बार आम गाछी में बीतता। दादी से जिद करके कोशी में नहाने भी जाते हम। बरसात में जो कोशी शोक है हमारी तरफ का, गर्मियों में तन-मन को अंतर तक शीतलता प्रदान करता है। उसके निर्मल जल में देर तक हम सब खूब खेलते। नदियों और जल से उसी समय से लगाव है मुझे। बार- बार दादी के कहने के बाद ही निकलते पानी से हम।

विशाल बूढ़ा बरगद आज भी स्मृति में वैसे ही ताजा है। हमारी कितनी छुट्टियों का साथी, अपनी विराटता में हमारी स्मृतियां समेटे।

जब पटना आती मैं तो खूब सारे नए कपड़े भी साथ होते - नानी मौसी बाबा से मिले। और फिर कॉलेज जाने में और मजा आता।

इस बार जाने से पहले एक कसक सी थी दिल में - तुम भी तो आओगे छुट्टियों में पटना। फिर कैसे देख पाऊंगी तुम्हें मैं। पर फिर गांव पहुंच कर वहां भाई बहनों में रम जाती मैं।

छुट्टियां खत्म हुई और पटना आ गए हम। सुबह मम्मी ऑफिस निकल गई। पापा तैयार हो रहे थे ऑफिस के लिए। दरवाजे की घंटी बजी। दरवाजा खोला - सौरभ सामने था।

सुबह - सुबह कैसे आना हुआ? सौरभ हमेशा मजाक उड़ाता था मेरा कि तुम जब भी गांव जाती हो, पटना की सड़कें सूनी हो जाती हैं।

कल रात ही आए थे हमलोग पटना और आज एक परिचिता के नामांकन के लिए जाना था उसके साथ मुझे।

सौरभ थोड़ा गंभीर था। बिना किसी भूमिका के बोला - कल अाई तुम? हर्ष मिलना चाहता है तुमसे।



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