तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 8 - वो मेरा खत Medha Jha द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 8 - वो मेरा खत



बहुत खुश थी मैं उस रात, अगली सुबह की प्रतीक्षा करती हुई - पूरी उम्मीद के साथ कि जवाब आएगा ही और वो भी सकारात्मक। जैसे - तैसे रात बीती। सुबह मम्मी - पापा के ऑफिस जाने के बाद मैं भी निकल गई संयोगिता के घर।

पहुंचते ही मैं उद्दिग्न थी सब बताने को।

"पता है कल मैंने उसे पत्र लिखा है।"

"अच्छा"

"ये तो पूछो - क्या लिखा?"

"हां, बताओ क्या लिखा? तुमने तो अच्छा ही लिखा होगा।"

और फिर मैं शुरू हो गई अपने १०पृष्ठ के पत्र का पूरा विश्लेषण देने। ऐसे लिखा मैंने, ये लिखा मैंने। बहुत शांति और धैर्य के साथ पूरे पत्र का वर्णन सुनती रही संयोगिता। फिर उसने कहा - " तुम बैठो, मैं स्नान करके आती हूं।"

मैं उसके कमरे में रखी किताबों को उलटने - पलटने लगी। तभी एक किताब से कुछ गिरा। आंखे फैल गई मेरी। मेरा पत्र संयोगिता की किताब में कैसे? सब कुछ जानते हुए ये मेरी पूरी कहानी सुन रही थी। दुख एवम् क्रोध से जाकर जोर से धक्का दिया मैंने स्नानघर के दरवाजे पर।

" मेरा पत्र तुम्हारे पास कैसे पहुंचा? तुमने इतनी देर से बताया क्यों नहीं। निकलो बाथरूम से।"

हड़बड़ा कर वह निकली। मेरा हाथ पकड़ कर कमरे में ले गई।

" तुम शांत हो जाओ पहले।"

" बताओ पहले, मेरा पत्र यहां जैसे पहुंचा? इतनी देर से तुम क्यों सुन रही थी मेरी बातें, जब सब पता था ही तुम्हें? "

" कल शाम में मेरे घर हर्ष आया था। रीतेश ने उसे तुम्हारा पत्र दिन में ही दे दिया था। उसने आकर मुझे कहा कि यह पत्र तुमने अपने प्रिय को लिखा है। तुम्हारे एक एक शब्द जिसको समर्पित है , वो वह नहीं है। इसलिए उसे किसी लड़की का ऐसा पत्र रखने का हक नहीं है। हो सकता है घर में कोई देख ले या किसी और दोस्त की दृष्टि चली जाए उस पर। इसलिए उसने सोचा कि यह पत्र तुम्हारी किसी मित्र को लौटा देना चाहिए। और मेरा घर उसके घर से नजदीक है, इसलिए वो यहां देकर चला गया।"

"तो तुमने रखा क्यों? फ़ाड़ देती या जला देती।"

"अपराजिता, तुम्हारा यह पत्र किसी भी बड़े लेखक द्वारा लिखित पत्र से ज्यादा सुंदर है। एक- एक शब्द हृदय से निकला हुआ। मैं इसे सहेज कर रखूंगी।"

दिमाग शून्य हो गया फिर से मेरा। दिन भर उसी के घर रही। शाम को अपने घर की तरफ जा रही थी कि तभी हर्ष दिखा मुझे। पता नहीं मुझे क्या हुआ? दौड़ती हुई गई मैं और जाकर उसका हाथ पकड़ लिया।

"हिंदी समझ में नहीं आती तुम्हें।"

वही शांत सा स्वर - " आती है।"

" तब तुमने पत्र लौटाया क्यों? जवाब भी दे सकते थे।"

" मुझे यही करना ठीक लगा। "

" तुम्हें क्या लगता है, तुम बहुत स्मार्ट हो? तुम्हारे जैसे दस लड़के घूमते हैं मेरे आगे पीछे। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरा पत्र लौटने की?

"आप मेरा हाथ छोड़ दें। यह सड़क है।"

" ओह, ठीक है।"

और बिना कुछ कहे निकल गया हर्ष। उद्वेग में कांपती कुछ क्षण खड़ी रही मैं वही। फिर उसी तीव्रता से घर की तरफ बढ़ गई।