तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 9 - गली में आज चांद निकला Medha Jha द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 9 - गली में आज चांद निकला



सौरभ आया अगले दिन।

"ये क्या किया, अपराजिता तुमने? कल शाम मुलाकात हुई मेरी। उसने बताया कि सड़क पर तुमने बेइज्जत किया उसे।"

"मेरा पत्र लौटा दिया उसने, इसलिए।"

"अरे, ये तो उसकी मर्जी है रखे, ना रखे। छोड़ दो उसे तुम। मैंने बोला ना, तुम्हारे लिए सही नहीं है। अगर मेरे लिए कोई इतना करे तो जीवन भर उसका गुलाम बन जाऊं।"

" अब मैं क्या करूं? तुम कुछ भी करके सब ठीक करो। अब कुछ बदतमीजी नहीं करूंगी।"

तीन दिन बाद सौरभ आया मिलने।

"अपराजिता, कल उससे मेरी मुलाकात हुई है। मैंने समझाया है तुम्हारे बारे में। शायद आज - कल में तुमसे मिलने आए। "

" तुम कितने अच्छे हो। मैं तुम्हारा आभार कभी नहीं भूलूंगी।"

और उस दिन बरामदे में बैठी थी मैं और मैंने तुम्हें अपनी गली में आता देखा।

मन आह्लादित हो गया - "कितने दिनों के बाद गली में आज चांद निकला।"

मेरी पूरी दृष्टि तुम पर केन्द्रित हो गई - तुम चले आ रहे थे । नीले रंग के टीशर्ट में तुम्हारा तांबई चेहरा और चमक रहा था और सदा की भांति गंभीरता पसरी हुई थी चेहरे पर। इसीलिए तो छुटकी हमेशा तुम्हें मिस्टर सीरियस कह कर संबोधित करती है। तुम्हारे इस आने को देखने में मैं इस कदर खोई कि तभी देखा मैंने , तुम मेरे घर के सामने पहुंचे और ये क्या , तुम सामने से लंबा डग भरते निकल गए आगे। एक क्षण को खड़ी रही मैं।

फिर अचानक पूरी शक्ति से दौड़ पड़ी मैं , तुम्हारे पीछे। जाकर पीछे से तुम्हारा शर्ट पकड़ लिया -" रुको, तुम तो मेरे घर आ रहे थे। वो तो पीछे छूट गया। " पहली बार तुमको स्नेह से देखते पाया मैंने अपनी तरफ।

"तुम सैंडल पहनना भूल गई शायद" - उसने कहा।

अभी मैंने खुद को देखा। सड़क तक उसके पीछे खाली पैर दौड़ती आ गई थी मैं। और भी लोग देख रहे थे मुझे।

छोटे शहरों में वैसे भी लोग जानते हैं एक दूसरे को और एक प्रतिष्ठित व्यक्ति की बेटी इस तरह खाली पैर दौड़ती हुई और रोकती हुई किसी हमउम्र युवा को अपने आप में दर्शनीय दृश्य था। पर मुझे कहां फिक्र रही दूसरों की कभी।

मैंने कहा कि मैं सैंडल पहन कर आती हूं। वहीं प्रतीक्षा करता रहा वो मेरा। मैं आई , फिर हम उसके काम से बिजली ऑफिस गए। मैंने आग्रह किया कि घर आए मेरे और इस बार आया वह। मैं सोच रही थी सौरभ ने लगता है अपना काम कर दिया था।

घर पर पापा के ऑफिस में मैं उन्हीं की कुर्सी पर बैठी और हर्ष को सामने बिठाया। इस कुर्सी पर मेरा आत्मविश्वास वैसे भी ज्यादा बढ़ जाता है।

तुम देख रहे थे मुझे। " तुम्हें कुछ कहना था?"

"हां।"

"बोलो।"

" हर्ष , तुम तो जानते ही हो कि तुम मुझे बहुत पसंद हो। ऐसा नहीं है कि मेरे जीवन में लोगों की , खास कर बॉयफ्रेंड्स की कमी है। मेरे जितने भी दोस्त है अगर उनमें से किसी को मैं प्रपोज करूं तो खुद को खुशकिस्मत मानेगा वो। लेकिन मुझे तुम पसंद हो और मैं चाहती हूं कि तुम मुझे पसंद करो।"

फिर वही मनोहारी स्मित।

" तो कल मैं तुम्हें फोन करूंगी ११ बजे। मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए और वह जवाब हां में ही चाहिए।"

तुम्हारी आंखें एकटक देख रही थी मुझे।

" क्या एक ग्लास पानी मिलेगा? "

छुटकी को पुकारा मैंने। वो पानी देकर चली गई।

तुम उठे। मैंने याद दिलाया -" कल ११ बजे ।"

तुम सिर हिला कर चले गए।