जय हिन्द की सेना - 1 Mahendra Bhishma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जय हिन्द की सेना - 1

जय हिन्द की सेना

महेन्द्र भीष्म

एक

सुबह मुँह अंधेरे अटल दा ने मुझे झकझोर कर जगा दिया। घर के सभी लोग अस्त—व्यस्त से कहीं जाने की तैयारी में लगे थे। कल देर रात तक हम सभी रहमान चाचा के घर के तहखाने में छिपे रहे, फिर जब उन्होंने हम लोगों को अपने फार्म हाउस में पहुँचा दिया तब सभी ने राहत की साँस ली। कस्बे में हो रहे उपद्रव से हम सभी भयभीत थे। सभी जागते रहे पर मैं पता नहीं कब सो गयी।

पिछले आठ दिनों से दौलतपुर कस्बे की पूरी व्यवस्था हलकान थी। हमारा परिवार प्रतिष्ठित ही नहीं था, बल्कि मेरे बाबा का रौब कस्बे के लोगों में व्याप्त था और लोग उनकी इज्जत करते थे। अतः इस उपद्रव के प्रारम्भ में हम लोग ज़रा भी चिंतित नहीं हुए थे, परन्तु जबसे यह सूचना आयी कि पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों ने कुछ उपद्रवियों की शह पर खुलना शहर में दो सौ से अधिक हिन्दू परिवारों को एक साथ घेरकर इसलिए खत्म कर दिया कि वे मुक्तिवाहिनी के गुरिल्लों की मदद कर देशद्रोह कर रहे थे। तब से कस्बे का, विशेष रूप से अल्पसंख्यक हिन्दू अपनी जानमाल की सुरक्षा के लिए चिंतित हो उठा। सभी के चेहरों पर मौत की छाया दिख रही थी। बी.बी.सी. व हिन्दुस्तानी न्यूज एजेन्सियों से बराबर सूचना मिल रही थी कि देश की दिनोदिन बदल रही राजनैतिक परिस्थितियों के कारण पश्चिमी पाकिस्तान में बैठा सैन्य शासक याह्‌या खॉ अंहकार और सत्ता के मद में चूर होकर पूर्वी पाकिस्तान में अपने वर्चस्व के लिए बराबर सेना का दुरुपयोग कर रहा है।

१९६५ में हुए भारत—पाक युद्ध के बाद ताशकंद में हुए समझौते को लेकर पाकिस्तान की जनता राष्ट्रपति अयूब खॉ से ज्यादा नाराज हो गई जो उसके ग्यारह वर्ष के सैन्य शासन से पहले से त्रस्त हो चुकी थी। अंततः जब स्थिति अपने हाथ से फिसलती देखी तब राष्ट्रपति अयूब खॉ ने २५ मार्च, १९६९ को सत्ता छोड़ने की घोषणा कर दी।

पाकिस्तान के संविधान के अनुसार राष्ट्रीय असेम्बली के स्पीकर को सत्ता सौंपने के स्थान पर अयूब खॉ ने अपने विश्वस्त सेना प्रमुख याह्‌या खॉ को पाकिस्तान की सत्ता सौंप दी। राष्ट्रपति बनते ही इस फौजी शासक ने तत्काल सारे नागरिक कानून समाप्त कर देश में मार्शल लॉ लागू कर दिया और ७ दिसम्बर, १९७० में पाकिस्तान में आम चुनाव करा दिए।

राष्ट्रीय असेम्बली के इस चुनाव में पश्चिमी पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्‌टो की पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को बहुमत मिला जबकि पूर्वी पाकिस्तान में आवामी लीग ने बहुमत से जीत दर्ज की, जिसके नेता शेख मुजीबुर्रहमान थे। भुट्‌टो चाहते थे शेख उनका साथ दें और दोनों मिलकर

याह्‌या खॉ के फौजी शासन को पूरी तरह से हटा दें, पर शेख मुजीबुर्रहमान

अलग बांग्लादेश के निर्माण से कम पर तैयार नहीं थे। भुट्‌टो कतई नहीं चाहते थे कि पूर्वी पाकिस्तान पश्चिमी पाकिस्तान से किसी भी कीमत पर अलग हो। फलस्वरूप उन्होंने सैन्य शासक राष्ट्रपति याह्‌या खॉ को पूर्वी पाकिस्तान में सैन्य कार्यवाही करने के लिए अपना मौन समर्थन दे दिया। राष्ट्रपति याह्‌या खॉ ने २५ मार्च, १९७१ को पूर्वी पाकिस्तान में ‘ऑपरेशन सर्चलाइट' शुरू करा दिया और इसी दिन आवामी लीग के सुप्रीमो शेख मुजीबुर्रहमान को नजरबन्द कर लिया गया। बाद में उन्हें पश्चिमी पाकिस्तान लाकर कैद में रखा गया। आवामी लीग के प्रमुख नेता व कार्यकर्ताओं को कैद कर लिया गया। पूर्वी पाकिस्तान के सैन्य बल व अर्द्ध सैन्य बलों से हथियार जमा करा लिए गए। विरोध करने पर उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। सैकड़ों बुद्धिजीवियों को मार डाला गया।

अनियंत्रित और गैर अनुशासित पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिक पूर्वी पाकिस्तान की भूमि पर दिन प्रतिदिन अपने अत्याचारों की नयी कहानी लिख रहे हैं। सबसे बुरी हालत अल्पसंख्यक हिन्दुओं की है, जिन्हें पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिक एवं धर्मान्ध रजाकारों की नफ़रत की आग में दोहरी मार पड़ रही है। कस्बे में दहशत का माहौल व्याप्त है, पता नहीं कब पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिक या रजाकारों का सैलाब उन्हें नष्ट करने के लिए आ जाये?

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बाबा कहा करते थे कि क़ायदेआज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने भी स्वीकार किया था कि अब से हम सभी पाकिस्तानी हैं, कोई हिन्दू या मुसलमान नहीं। वह कहते थे कि भारत और पाकिस्तान सरकार के मध्य ‘नेहरू—लियाकत' समझौता हुआ था कि दोनों देशों के अल्पसंख्यक धर्मनिरपेक्ष नागरिक के रूप में समान अधिकार के हक़दार होंगे। उनका जीवन, संस्कृति और सम्पत्ति का अधिकार निश्चित किया गया, उनके विचार व्यक्त करने और धार्मिक आचरण की स्वाधीनता को स्वीकार किया गया ... फिर क्यों हर बार पूर्वी पाकिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यकों को भयाक्रान्त किया जाता है और उनसे उम्मीद की जाती है कि वे यहाँ अपना सब कुछ छोड़कर भारत चले जायेें.... हजारों—लाखों हिन्दू पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे अत्याचार से दुःखी होकर अपनी धरती को छोड़ भारत में शरणार्थी के रूप में पहुँच रहे हैं। भारत ने शरणार्थियों के लिए अपनी सीमाएँ खोल दी हैं व सीमा पर शरणार्थी कैम्प लगवा दिए हैं...... हमारे कई नाते—रिश्तेदार भारत में शरण ले चुके हैं ...... बाबा अपनी जन्मभूमि छोड़कर जाने वालों को कायर कहा करते थे पर अब जबकि उनके परिवार की जान पर बन पड़ी है.......तब थक हारकर, मन मारकर बाबा ने अपनी मौन स्वीकृति दे ही दी। हम लोगों को रहमान चाचा के फार्म हाउस से डमुरिया उप जिला के मधु ग्राम पहुँचना है .....वहाँ बाबा के मुस्लिम मित्र के यहाँ कुछ देर

रुककर कलकत्ता के लिए प्रस्थान किया जाना तय किया गया था। कलकत्ता

में हमारे फूफाजी स्थाई रूप से रहने लगे हैं और बराबर हम लोगों से आग्रह करते हुए बुलावा भी भेज चुके हैं।

हमारे यहाँ काम करने आने वाले नौकर क्रमशः कम होते गये और उस दिन तो हद ही हो गयी थी जिस दिन हमारे यहाँ घोड़ों को दाना—पानी देने वाले अब्दुल ने अटल दा को जवाब दे दिया और बदतमीज़ी पर उतर आया था जिस पर अटल दा उसे मारने दौड़े तो वह भी गँड़ासा ले कर डट गया। किसी तरह मामला रहमान चाचा ने रफ़ा दफ़ा करा दिया पर एक नयी चिंता ने जन्म ले लिया कि जो लोग कल तक हमारे सामने आँख मिलाने तक का साहस नहीं जुटा पाते थे, वे अब हमें आँखें तरेरने लगे हैं, मानो किसी मौके की तलाश में हों, जिसके मिलते ही वे हमें बाज की तरह दबोच लेंगे।

परसों जब अब्दुल से अटल दा का झगड़ा हुआ था उस समय मैं भी माँ के साथ वहाँ पर मौजूद थी तब अब्दुल मुझे इस तरह घूरता हुआ वापस चला गया जैसे कोई कसाई बकरे को हलाल करने से पहले देखता है।

अब्दुल हम लोगों को धमकी देकर गया था कि वह खुलना जा रहा है। वहाँ रजाकारों से बताएगा, उन्हें अपने साथ लेकर आयेगा और दो—तीन दिन के अंदर दौलतपुर से हम लोगों का नामोनिशान मिटा देगा और आज तीसरा दिन है।

रजाकार उन मुसलमानों को कहा जाता है जो भारत वर्ष के विभाजन के समय बिहार व उसके आसपास से पूर्वी बंगाल चले आए थे। ये लोग बंगाली संस्कृति से मेल नहीं खाते। भाषा, बोली और रहन—सहन व इनको इनके आक्रामक स्वभाव के कारण बंगाली अपने से अलग रखते हैं। इनसे दूरी बनाए रखने में अपनी भलाई समझते हैं। अपनी उपेक्षा के कारण ये स्वयं को उपेक्षित महसूस करते हुए संगठित रहते हैं और बंगालियों को मनमाने तरीके से सताते रहते हैं। ये रजाकार मुसलमान पश्चिमी पाकिस्तानी सेना की ठीक उसी तरह मदद कर रहे हैं जिस तरह जमात—ए—इस्लामी के लोग कर रहे हैं।

मैं अपने परिवार में सबसे छोटी हूँ। कुल मिलाकर पाँच सदस्य हैं हमारे परिवार में— बाबा, माँ, अटल दा, दीदी ओैर मैं।

अटल दा व दीदी दोनों ने पिछले महीने की सत्रह तारीख को अपनी बीसवीं वर्षगाँठ मनायी थी, दोनों जुड़वाँ हैं पर दीदी अटल दा को ‘दा' ही कहती हैं। दोनों मुझसे उम्र में तीन वर्ष बड़े हैं। मैंने इसी वर्ष मैट्रिक की परीक्षा दी है जबकि अटल दा ग्रेजुएशन पूरा कर खुलना में रहकर प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे। दीदी की पढ़ाई इण्टरमीडिएट के बाद बन्द करा दी गयी थी। इसी वर्ष उनका विवाह भी हो जाना था। लड़का अटल दा के साथ ही खुलना में पढ़ता था। मँगनी हो चुकी थी, परन्तु कुछ माह से देश में उथल—पुथल भरा माहौल प्रारम्भ हो जाने के कारण यह तय किया गया कि जब अराजकता समाप्त हो जायेगी, तब शांति के वातावरण में विवाह कार्य सम्पन्न किया जायेगा।

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मुझे याद है जब दीदी की मँगनी हुई थी, तब मेरे होने वाले बहनोई का भांजा मुझे देखकर खो—सा गया था, वह शर्बत का गिलास मुँह में लगाये मुझे ही देखे जा रहा था, जब उसे किसी ने टोका तब वह इस तरह चौंका कि हड़बड़ाहट में गिलास का शर्बत उसने अपने ऊपर ही उड़ेल लिया। जैसे ही मैं सारा माज़रा समझी, शर्म से दीदी के पास से उठकर अंदर भाग गयी। तब पहली बार आदमकद शीशे में अपने आप को देखकर, मैंने सोचा शायद यौवन की दहलीज़ पर यह मेरा पहला कदम था, पहली बार यह जाना था कि क्यों लोग मुझे ग़ौर से देखा करते हैं।

फिर कुछ दिनों तक तो दीदी से भी ज्यादा मेरी हालत खराब रहने लगी थी। घण्टों बाथरूम में नहाते रहना, देर तक शीशे के सामने से न हटना। बार—बार अंदर ही अंदर एक गुदगुदी का अहसास होना। अजीब—सी स्थिति हो गई थी मेरी।

एक दिन तेज बारिश में मैं चुपके से छत पर चली गई और बारिश का आनन्द उठाने लगी थी। छत के चारों ओर की नालियाँ मैंने बंद कर लीं और छत पर बढ़ते आ रहे पानी के साथ ही मैं अपने अंदर उमड़ रहे आनंद के साथ खुश हो रही थी। जब बारिश थमी तब चुपके से मैं छत से भीगे कपड़ों में बाथरूम में घुस गयी और कपड़े बदलने लगी। अपने आप में खोई मुझे यह भी ध्यान नहीं रहा कि मैंने बाथरूम का दरवाजा खुला छोड़ दिया है। मात्र परदा दरवाज़े पर पड़ा था, और जैसे ही मैं कपड़े बदलकर बाहर आने को हुई तभी कोई तेजी से परदे से दूर अलग हुआ था। मैं बुरी तरह भयभीत व आश्चर्यचकित थी कि वह कौन था? पीछा करने पर मैं जान पाई वह मक्कार अब्दुल ही था। इसी घबराहट में मैं दौड़कर अपने कमरे में आ गयी थी और गुस्से में मैंने टेबल पर रखी प्याली को एक ओर फेंक दिया था, जिससे खिड़की का काँच ढेर—सी आवाज करता हुआ फर्श पर बिखर गया था।

काँच फर्श पर अभी भी बिखरा पड़ा था पर यह काँच हमारी हवेली की टूटी खिड़की का नहीं, अपितु रहमान चाचा के फार्म हाउस की खिड़की का था। मैं क्या सोच रही थी और उस सोच की प्रतिक्रिया पर चकित थी।

इतने में दीदी अंदर आईं और मुझे अपने साथ बाहर ले गईं। अभी सुबह

नहीं हुई थी, परन्तु आभास होने लगा था कि कुछ समय बाद सुबह हो जायेगी। बाहर अटल दा, बाबा, माँ, रहमान चाचा व दो नौकर बड़ी—सी बैलगाड़ी के साथ खड़े थे, बैलगाड़ी पूरी तरह ढँकी थी। हम सभी लोग मुसलमानी वेषभूषा में थे, यह युक्ति रहमान चाचा की थी। सभी उनकी ओर कृतज्ञतापूर्वक देख रहे थे। रहमान चाचा पर बहुत अहसान किये थे ‘बाबा' ने

शायद इस आड़े वक्त पर उसी को वह चुका रहे थे। हम लोग बैलगाड़ी में

बैठ गये। मुझे व दीदी को माँ अपनी बाँहों में लिपटाये भयभीत थीं, मैं उनसे चिपकी कुछ—कुछ राहत महसूस कर रही थी, आँखें बंद कर लेने से मुझे और राहत मिल रही थी।

हम सब मौन थे, केवल ‘बाबा' तथा रहमान चाचा ही दबी आवाज़ में खुसर—फुसर कर रहे थे। बैलगाड़ी धीरे—धीरे आगे बढ़ी। मुश्किल से बैलगाड़ी अभी कुछ फर्लांग ही चली थी कि रहमान चाचा के पुत्र शेख अली की आवाज़ ने हम सभी को चौंका दिया। मैंने देखा वह साइकिल लिए खेत की मेड़ पर खड़ा था। इस वर्ष उसने भी मेरे साथ मैट्रिक की परीक्षा दी थी।

शेख अली ने ‘बाबा' व रहमान चाचा से कुछ कहा और अलग हो गया।

शेख अली की सूचना पर बैलगाड़ी पुनः फार्म हाउस की ओर मुड़ गई। मैंने अनुमान लगाया खतरा टला नहीं है। अभी रवानगी में कुछ जोखिम होगा।

हम लोग वापस फार्म हाउस आ गये।

‘बाबा' रहमान चाचा से दयनीय मुद्रा में कह रहे थे कि, ‘वह उनका यह उपकार कभी नहीं भूलेंगे।' अपने ‘बाबा' को पहली बार मैं यह कहते हुए सुन रही थी। अपने व अपने परिवार के प्राणों की रक्षार्थ भयाक्रांत व्यक्ति की जिजीविषा की चरम दयनीय स्थिति, ‘बाबा' में इस वक्त स्पष्ट दिख रही थी।

रहमान चाचा ने बाबा को आश्वस्त किया और स्वयं कस्बे की ओर स्थिति का जायज़ा लेने चले गये, जो फार्म हाउस से दो मील दूर था। वह हम लोगों की देखभाल के लिए एक नौकर को छोड़ गये व दूसरे को अपने साथ लेते गये । शेख अली भी फार्म हाउस पर रुक गया। अटल दा शेख अली को एक ओर ले जाकर कुछ पूछने लगे जबकि ‘बाबा' कुछ सोच रहे थे। माँ हम दोनों बहनों के सिर पर बार—बार हाथ फेर रही थीं और साथ में ईश्वर

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को जप रहीं थीं। हम सभी आने वाले अनिष्ट से बुरी तरह भयभीत थे।

जैसे—जैसे सुबह निकट आ रही थी वैसे—वैसे हम सभी की हृदय गति तेज़ हो रही थी और बेचैनी बढ़ रही थी।

भोर के आगमन के साथ रात्रि की नीरवता भंग हुई। पक्षियाें की चहचहाहट स्पष्ट सुनाई देने लगी थी। पशु अपने समूह के साथ फार्म हाउस पर अंगड़ाई ले रहे थे, सभी स्वतंत्र अपनी दैनिक क्रियाओं में व्यस्त थे। मैं खिड़की के अंदर से यह दृश्य देख उनके बारे में सोचने लगी, सराहने लगी उनका भाग्य कि वे कितने खुशकिस्मत हैं, जिन्हें इस सबसे कुछ मतलब व सरोकार नहीं है। मानव अपनी बुद्धिजीवी दृष्टि, विस्तृत सोच के आगे आज लघु हो गया है जबकि पशु अपनी लघुता—संक्षिप्तता के साथ ज्यों का त्यों है। पशुओं में कोई गाय मुसलमान नहीं होती और न ही कोई सूअर हिन्दू होता है वह सिर्फ और सिर्फ पशु होते हैं। काश मनुष्य भी सिर्फ और सिर्फ मनुष्य ही होता तब ये दंंगे—फसाद तो न होते।

मैं कोसती हूँ उन क्षणों को जब धर्म नाम की चिड़िया ने जन्म लिया था, क्योंकि धर्म के कारण ही आज हमारे परिवार का अस्तित्व खतरे में हो गया है। आज क्यों नहीं धर्म के प्रणेता हम लोगों की मदद को आ रहे हैं ? क्या

यही धर्म का कर्तव्य है? क्या इन सभी कारणों की जिम्मेदारी इन विभिन्न भगवानों के ऊपर नहीं रही जिन्होने अलग—अलग धर्म को बनाने के संयोग प्रदान किये? क्या आज भगवान के रूप में स्थापित इन विभिन्न धमोर्ं के संस्थापक दोषी नहीं हैं, जो एक धर्म के अलावा भी अन्य धर्म की स्थापना करते हुए स्वयं पूजे गये। अपना उल्लू तो वे सीधा करते गये और धर्मावलम्बियों कोे सिखा गये कि उनका धर्म ही श्रेष्ठ है। उनके बाद के धर्म के ठेकेदारों ने क्यों भड़काना शुरू किया कि अपने धर्म की रक्षा के लिये मरो और दूसरे धर्म के विनाश के लिए उसके पालकों को मारो। आज इन्हीं धर्मान्धों के कारण मेरा परिवार भयाक्रांत है। मेरे बाबा और माँ सदैव इस्लाम धर्म का आदर करते रहे हैं, प्रत्येक वर्ष पीर साहब की मज़ार पर धूमधाम से हम लोग चादर चढ़ाने जाते हैं। अब वे सब हम लोगों को भूल गये जो कल तक हम सबसे ख़्ाानदानी रिश्ते की क़समें खाते थे। एक रहमान चाचा को छोड़कर आज उनमें से किसी का कोई पता न था।

जाने क्या—क्या विचार मेरे ज़ेहन में आ रहे थे, तभी माँ ने मुझे भी दैनिक क्रियाओं से निवृत्त हो आने को कहा। मैं फार्म हाउस में बने कमरेनुमा

शौचालय में चली गयी। माँ बाहर बैठी रहीं। शौचालय का दरवाज़ा मैंने अंदर से बंद कर लिया।

अभी कुछ समय ही बीता होगा कि मुझे फार्म हाउस के बाहर कोलाहल सुनायी दिया। मैंने चौंककर माँ से पूछा कि बाहर क्या हो रहा है.....? और एक तत्काल आई आशंका से जड़ हो गयी।

माँ ने शौचालय के बाहर की कुंडी लगा दी और पता करके आने को कह तेजी से उस ओर भागीं जहाँ पर शेष सभी थे।

कुछ देर बाद मैं दरवाज़े के पास सटी हुई खड़ी थी और बार—बार दरवाजे की झिरी से खाली आँगन की ओर देख रही थी। माँ के वापस न आने पर मुझे घबराहट हो रही थी और जितने ही निकट कोलाहल आ रहा था उतनी ही दूर मेरा धीरज जा रहा था और कुछ पल बाद वह सब होने लगा जिसकी आशंका मुझे व सभी को भयभीत किए हुए थी।

अटल दा व ‘बाबा' की तेज आवाज़ें..... फिर धीमी पड़ती आवाजें...... फिर बन्दूक का धमाका और उसके साथ चीखने की आवाजें। सम्भवतः ‘बाबा' ने फायर किया था और भीड़ में से कोई आहत हुआ था, फिर दरवाज़ा तोड़ने की आवाज़ें। मैं ईश्वर को स्मरण कर रही थी, बाहर लगी कुंडी से स्वयं को असहाय पाकर दरवाज़े से चिपकी खड़ी थी। प्रयत्न करने पर भी मुँह से स्वर फूट नहीं रहा था।

दरवाज़े को भड़ाभड़ तोड़े जाने की आवाजें और भीड़ का बढ़ता शोर, तेज शोरगुल में ‘बाबा' व अटल दा की धीमी पड़ती आवाजें अब चीखों में बदल चुकीं थीं....... माँ की चीख अब सुनाई नहीं दे रही थी.......दीदी भी शायद बेहोश हो गयी थीं।

शेख अली अभी भी भीड़ को ललकार रहा था पर तभी एक धमाके ने

शेख अली की आवाज को शांत कर दिया, एक तेज चीख के साथ वह शांत हो गया था। सम्भवतः उसे भी भीड़ द्वारा गोली मार दी गयी थी। भीड़ से

‘गद्‌दार' शब्द सुनायी दिया था। शेख अली अपनी कौम के साथ की गयी

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ग़द्‌दारी के कारण मार डाला गया या फिर मानवता की रक्षा करते सच्चे धर्म के लिए अपनी आहुति दे गया। यह सब सोचने के लिए समय नहीं था, पर पहली बार मुझे हल्की चीख ने साथ देकर ढांढस बंधाया, किन्तु स्वयं के जीवन की रक्षा की ललक ने मुझे पुनः चीखने नहीं दिया। स्वार्थी मन का मैं आभास कर रही थी। इसके अलावा मैं और कर भी क्या सकती थी?

अब कुछ—कुछ शांति थी। कोलाहल केवल भीड़ की ओर से था। कुछ आवाज़ें स्पष्ट सुनायी दे रही थीं, पर इसमें ‘बाबा' व अटल दा की आवाज़ नहीं थी। ..........तो क्या आतताइयों ने अपनी धर्मान्धता की आग को ठण्डा कर लिया?

दीदी मेरे सामने अक्सर कपड़े बदल लिया करती थीं। उनके सुकोमल

शरीर की यह दशा होगी मै सोच भी नहीं सकती थी।

दीदी को निर्वस्त्र करने के बाद गुण्डे दीदी के शरीर के ऊपर ऐसे झुक गये जैसे गिद्धों का झुण्ड किसी बेजान लाश पर टूट पड़ता है।

.....फिर इसके बाद मैं कुछ देख न सकी। एक घुटी चीख जरूर मुझे दीदी की सुनायी दी और मैं बेहोश हो गयी।

मैं रो पड़ी, चक्कर आ जाने से खड़ी न रह सकी और बैठ गयी। कुछ देर के लिये मेरी आँखों के सामनेे अंधेरा—सा छा गया।

‘‘साली छमिया बहुत रौब गाँठती थी।'' आवाज़ ने मुझे चौंका दिया। यह ‘अब्दुल' की आवाज थी।

मैंने झिरी से आँगन की ओर देखा। अब्दुल के साथ पाँच—छः अन्य उसी के हमउम्र गुण्डे थे जो दीदी को आँगन में पड़े तख्त पर लिटा रहे थे। बेहोश दीदी शांत थी। यदि होश में रहती तो भी वह कुछ नहीं कर सकती थीं।

यह सब बहुत जल्दी बीत रहा था। मेरी स्थिति किंकर्तव्यविमूढ़ की तरह हो गयी। तभी अब्दुल रुका, उसने अपने साथियों से कुछ बात की और वे यहाँ—वहाँ देखने लगे। वह निश्चित ही मेरी बात कर रहा था, क्योंकि अब्दुल जानता था कि मैं साथ में अवश्य होऊँगी। बाकी सभी के लिए मैं अपरिचित थी।

मुझे तलाश न पाने की बौखलाहट अब्दुल के चेहरे पर थी, शेष निश्चिन्त थे, क्योंकि अब उनके पास धैर्य नहीं रह गया था। शुक्र है ईश्वर का कि उनकी बुद्धि और दृष्टि अभी तक शौचालय की ओर नहीं गई थी।

आखिर अधीर गुण्डों में से एक ने अब्दुल को लताड़ दिया और दीदी के गाल पर कसकर चिकोटी काटी, फिर भद्‌दी गालियाँ बकते हुए उनके

शरीर को वस्त्रविहीन करने लगा।

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अटल दा के बारे में वह कुछ न बता पाए, उनका अनुमान था कि या

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