जय हिन्द की सेना - 2 Mahendra Bhishma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जय हिन्द की सेना - 2

जय हिन्द की सेना

महेन्द्र भीष्म

दो

जब मेरी बेहोशी टूटी, तब अचानक पहले के सभी दृश्य फिल्म की तरह मेरे मस्तिष्क में घूम गये। दीदी की याद आते ही, मैंने झिरी से आँगन की ओर देखा। आँगन का वीभत्स दृश्य देख मेरे मुँह से तेज चीख निकल गयी।

दीदी का शव खून से लथपथ तख्त पर पड़ा था। उनके दोनों उरोज काट दिए गये थे। अनेक धारायें उनके शरीर पर चाकू की नोक से बना दी गयी थीं। गुप्तांग में एक बड़ा—सा चाकू घुसा हुआ था।

मैं यह भयानक दृश्य देख न सकी। मेरे साथ भी यही होता, इसकी कल्पना मात्र ने मुझे पुनः बेहोश कर दिया।

जब मेरी तंद्रा टूटी, मैंने अपने आप को एकांत कमरे में आरामदायक स्थिति में पाया। धीरे—धीरे मैंने कमरे का सूक्ष्म निरीक्षण किया। यह कमरा शेख अली का था। जब कभी मैं शेख अली के पास खेलने—पढ़ने आ जाया करती थी। यद्यपि मैं उससे तीन माह छोटी थी, जैसा कि उसकी अम्मी बताती थी, फिर भी वह मुझे छोटी आपा कहा करता था और दीदी को बड़ी आपा।

शेख अली की फोटो देख बीती घटनाएँ चलचित्र की भाँति मेरे मस्तिष्क में घूम गयीं और एक तेज चीख के साथ मैं उठकर पलंग पर बैठ गयी। मेरे चीखने की आवाज के साथ ही रहमान चाचा व चच्ची दौड़कर कमरे में आए, जो शायद बाहर ही थे। सीने से चिपकाते हुए चच्ची ने मुझे बेतहाशा चूमना शुरू कर दिया और पहली बार मैं फफक—फफक कर रो पड़ी।

रहमान चाचा ने बताया कि पूरे दो दिन बाद मेरी बेहोशी टूटी है

........फिर धीरे—धीरे मैं वज्र का हृदय लिये सब सुनती रही। माँ, बाबा, दीदी को रहमान चाचा ने अग्नि दी। अपने एकलौते पुत्र शेख अली को स्वयं दफन

तो अटल दा बचकर निकल गये या फिर उनकी लाश कहीं और ले जायी गयी है। मैंने उन्हें पूरी घटना से अवगत कराया कि कैसे उनके जाने के बाद फार्म हाउस पर उपद्रवी गुण्डों ने कुकृत्य किये।

रहमान चाचा ने यह भी बताया कि जिस नौकर को वे हम लोगों की रक्षार्थ छोड़ गये थे, उसी ने अब्दुल व उसके साथी रजाकारों को सूचना देकर विश्वासघात किया था, जिसका अभी तक कुछ पता नहीं चला।

चच्ची व रहमान चाचा के चेहरों से शेख अली का गम साफ झलक रहा था, फिर भी वे कोशिश कर रहे थे कि मेरी हालत पुनः खराब न होने पाये।

..........और मैं लगातार रोए जा रही थी। कभी तेज, कभी धीमे, जैसे याद आती, रुलाई कोशिश करके भी न रुक पाती। मैं काफी देर तक निढाल लेटी रही।

यहाँ मेरी उपस्थिति का किसी को अनुमान नहीं था। रहमान चाचा व चच्ची इस बात को गुप्त रखे थे तथा मुझे बाहर छत पर न जाने की हिदायत दी गयी थी।

मेरा स्वास्थ्य खराब रहने लगा और एक दिन मुझे तेज बुखार ने जकड़ लिया।

पाँच छः दिन बाद मेरी हालत में सुधार आना शुरू हुआ। धीरे—धीरे मैं पूरी तरह स्वस्थ हो गयी। घर के पर्याप्त काम भी करने लगी, थोड़ा हँसना—बोलना शुरू हो गया, पर मन उदास रहने लगा।

एक दिन शाम को मैं आँगन में बैठी थी, तभी अब्दुल रहमान चाचा के घर आया। मैं उसे देखकर चीख पड़ी। मेरी चीख सुनकर रहमान चाचा व चच्ची वहाँ आ गये।

इसके पहले कि मैं गश खाकर गिर पड़ती, चच्ची ने मुझे संभाल लिया और अन्दर कमरे में ले आर्इं।

 

कुछ देर बाद रहमान चाचा व अब्दुल के बीच तेज बहस होने लगी, क्योंकि मैं फार्म हाउस में अब्दुल के गुण्डों के साथ होने का ज़िक्र रहमान चाचा से कर चुकी थी। इसी कारण रहमान चाचा उससे उलझ गये थे।

मैंने चच्ची को बाहर जाने को कहा कि कहीं विवाद ज्यादा न बढ़ जाये,

वे जाकर दोनों को सम्भाल लें।

तभी मुझे आभास हुआ कि अब्दुल को कोई तेज चोट मार दी गयी थी और वह चीखने—कराहने लगा था।

मैं पलंग से उठकर खिड़की के पास जा परदे की ओट से आँगन का दृश्य देखने लगी।

रहमान चाचा घायल अब्दुल पर जूते बरसाये जा रहे थे और चच्ची उसे रस्सी से कस कर बाँधने में लगी थींंं। मुझे यह सब देख बड़ा सुकून मिल रहा था। स्वयं मेरी भी इच्छा उसे दण्ड देने की हो रही थी, परन्तु पता नहीं क्यों मैं उसके सामने जाने से घबड़ा रही थी।

रात्रि देर तक जब अब्दुल को होश नहीं आया तो चच्ची ने मुझे सो जाने को कहा। आखिरकार मैं कमरे में सोने चली गयी।

रहमान चाचा व चच्ची बेहोश बंधे अब्दुल को होश में लाने की चेष्टा कर रहे थे।

वे निश्चित अब्दुल का क़त्ल कर देंगे, मैं जानती थी। साथ ही मैं उसे कत्ल होते भी नहीं देख सकती थी।

मुझे अभी नींद ने अच्छी तरह नहीं जकड़ा था कि अब्दुल की भरभराई आवाज़ ने मेरी नींद उचटा दी। मैं तुरंत अंधेरे कमरे में टटोलती हुई दरवाज़े के पास जाकर खड़ी हो गयी, वहाँ से बरामदे के अन्दर का दृश्य स्पष्ट दिख रहा था। कुछ पल सब कुछ शांत रहा, पर तुरंत ही मुझे बुरी तरह चौंकना पड़ा।

अब्दुल बता रहा था कि शेख अली का कत्ल अटल दा ने किया था, तभी उसने अन्य साथियों के साथ, कत्लेआम व मेरी बहन के साथ कुकृत्य किया था।

पहले तो रहमान चाचा व चच्ची ने उस पर विश्वास नहीं किया, पर बाद में उनके चेहरे के भाव से मुझे लगने लगा कि वे अब्दुल के झूठ को समझ नहीं पाए और बिना कुछ ज़्यादा सोचे विचारे उसकी बातों पर विश्वास करने लगे। कुछ ख़्याल कर उन्होंने मेरे कमरे की ओर प्रतिशोध की दृष्टि से देखा तो मैं कांप कर रह गयी और जल्दी अपने बिस्तर पर आ लिहाफ ओढ़ कर लेट गयी। कड़ी ठंड में भी मुझे लिहाफ के अन्दर पसीना छूट रहा था।

सारी रात मेरी जागते हुए बीती। कोई और घटना नहींं घटी। हाँ प्रातः

मैंने पाया कि अब्दुल नदारद था।

अब्दुल के बारे में मैंने कोई चर्चा न करना ही बेहतर समझा। दूसरे दिन मैं अपने आप को रात वाली घटना से अनभिज्ञ ज़ाहिर किये रही, पर रहमान चाचा व चच्ची के बदले तेवरों से मैं बुरी तरह भयभीत थी।

सुबह के बाद दोपहर और दोपहर के बीतते जब क्रमशः गहरा धुंधलका

छाने लगा तब रहमान चाचा ने मुझे अपने साथ फार्म हाउस चलने को कहा।

मैंने चच्ची की ओर देखा तो वह बोलीं, ''तुम अकेली चली जाओ। मेरी तबियत ठीक नहीं है। शायद तुम्हारे चाचा को तुम्हारे परिवार और शेख अली की याद आ रही है।''

मैं बेबस थी, न करने का सवाल ही नहीं था। मन अशुभ की आशंका से भर उठा कि पता नहीं अब ये मेरा वहाँ पर क्या हश्र करें? मुझे चच्ची का बुर्क़ा ओढ़ा दिया गया और स्वयं रहमान चाचा बैलगाड़ी में बैठाकर मुझे फार्म हाउस ले आये जहाँ पर कुछ दिन पूर्व ही बहुत कुछ घट चुका था।

फार्म हाउस वीरान पड़ा था। रात का अंधेरा बढ़ता जा रहा था। रहमान चाचा बड़ी—सी टॉर्च लिये मुझे फार्म हाउस के अंदर ले आये। मैं अपने आप में सिमटी जा रही थी। प्रत्येक अगले पल की आश्ांका से मैं बुरी तरह भयभीत हो रही थी। दूर कस्बे में कुत्तों के रोने की समवेत आवाज़ें भयावह स्थिति बना रहीं थीं। मैं मन ही मन माँ काली का जाप किये जा रही थी।

तभी, जिसकी मुझे पहले कभी कल्पना तक नहीं थी, वह हुआ।

 

मैं रहमान चाचा की आँखें देख नहीं पा रही थी, ज़रूर उनमें बदले की आग धधक रही होगी, तभी तो उन्होंने मेरे पूरे शरीर को कई बार टॉर्च की रोशनी से देखा।

मैं शांत आश्चर्य की स्थिति में भयभीत थी, फिर भी आने वाली परिस्थितियों से निपटने के लिए मैंने अपना मनोबल बनाये रखा।

पता नहीं कहाँ से यह शक्ति मुझमें आ गयी थी कि अभी तक मुझे गश वगैरह कुछ नहीं आया था।

कुछ समय बीता होगा कि रहमान चाचा ने टॉर्च बंद कर दी। कमरे में

धुप अंधेरा छा गया। मैं रहमान चाचा कहकर पुकारना ही चाहती थी कि उन्होंने मुझे बुरी तरह दबोच लिया और मैं उनकी गिरफ्त में छटपटाने लगी। रहमान चाचा यह हरकत भी कर सकते थे, मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था।

वह मेरे साथ नोच—खसोट करने लगे। उनकी मंशा उनके मुँह से निकल रहे प्रतिशोध के स्वर बता रहे थे। वह बड़बड़ा रहे थे, ‘‘पहले तेरी जवानी को निचोड़ दूँं, फिर तेरा क़त्ल करूँगा। मेरे लड़के के कातिल की बहन।'' कहाँ मैं सत्रह वर्ष की अबला लड़की, कहाँ वह कसरती प्रौढ़।

मैं ज्यादा देर प्रतिरोध न कर सकी। मैं सिर्फ ‘माँ काली' को स्मरण करने लगी।

रहमान चाचा ने जो इस समय दरिंदे का रूप धारण कर चुका था, मेरे ऊपर से बुर्का खींचकर फेंक दिया। मेरी सलवार का नाड़ा तोड़कर चढ्‌डी सहित सलवार उतार कर परे फेंक दी। कुर्ता व समीज भी एक बार में ही फाड़कर अलग कर दी।

असहाय होते हुए भी मैं अभी भी उसके प्रत्येक कार्य का प्रतिरोध जारी रखे थी, तभी उस दुष्ट ने एक तेज झापड़ मेरे मुँह पर रसीद कर दिया, जिससे कुछ पल को मैं अपने होश गवाँ बैठी, किन्तु ऊपर वाले को मेरे साथ यह अन्याय मंजूर नहीं था। जैसे ही वह सब कुछ शुरू होता जिसके प्रारम्भ का आभास होने ही लगा था कि एक तेज रोशनी के साथ धमाका हुआ और वह दरिंदा मेरे ऊपर निढाल हो गिर पड़ा।

पलभर बाद अंधेरा पुनः व्याप्त हो गया। मैंने उस दरिंदे को अपने ऊपर से परे हटाया उसका शरीर खून से लथपथ था, तभी एक आवाज ने मुझे न केवल चौंका दिया बल्कि मैं प्रसन्नता से चीख उठी।

यह आवाज़ ‘बाबा' की थी, जिन्होंने कहा था, ‘‘मोना बेटी कपड़े पहन लो।''

मैंने टटोलकर अपने कपड़े ढूँढ़े। बुर्का कंधे पर डाल लिया और अंदाज़ से रहमान चाचा की बेजान लाश की ओर घृणित भाव से थूक दिया और कमरे से बाहर आ गयी जहाँ मुझे मेरे ‘बाबा' मिलने वाले थे,..... घोर आश्चर्य बाहर मेरे द्वारा आवाज़ें देने पर भी ‘बाबा' सामने नहीं आये और न ही कोई प्रतिक्रिया हुई।

तो क्या ‘बाबा' की आत्मा ने मेरी रक्षा की ? फिर वह बन्दूक का धमाका, तेज रोशनी, मैं विस्मित थी, पर अब मेरे पास से भय ग़ायब हो चुका था क्योंकि अब मुझे पूरा विश्वास था कि ‘बाबा' की आत्मा मेरी रक्षा करेगी। वह यहीं कहीं हैं बस प्रकट नहीं हो रहे हैं। मैं खम्भे से टिक थोड़ी देर नीचे अंधेरे फर्श पर बैठ कर राहत की साँस लेने लगी।

रहमान चाचा के प्रतिशोध का अंदाज़ मुझे आतंकित कर रहा था।

क़ाश! कहीं थोड़ी देर हो गयी होती?

एक बार पुनः मैं बाबा को आवाज़ देने को उद्यत हुई।

ढेर सारी आवाज़ें उन्हें दीं, सुझाव भी दिया कि वे अपनी उपस्थिति का आभास मुझे दें, पर सब व्यर्थ, कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।

रात्रि और गहराती चली गयी। मैं बेधड़क फार्म हाउस में विचरण कर रही थी। कोई और अवसर होता तो मैं इतने अंधेरे में नितान्त एकाकीपन में बेहोश हुये बिना न रहती, जबकि मुझे पता था कि यहीं पर कुछ ही दिन पहले मुझे छोड़ मेरे परिवार के सभी सदस्य क़त्ल कर दिये गये थे, पर मैं निर्भीक थी।

अचानक मुझे अपनी सुरक्षा का ख्याल आया और मैं पुनः उस ओर बढ़ गयी जहाँ दरिंदे रहमान का शव पड़ा था। निश्चित ही उसके पास कोई हथियार रहा होगा, जो मेरे लिये उपयोगी सिद्ध होगा।

 

मैं बेहिचक अंधेरे कमरे में प्रवेश कर गयी जहाँ ढूँढ़ने—टटोलने पर जल्दी ही लाश के पास पड़ा एक बड़ा—सा चाकू मेरे हाथ में आ गया।

अभी मैं चाकू को अपने दोनों हाथ से सहला ही रही थी कि कोई मुझसे टकराया, मैं संभलती इसके पहले ही उस टकराने वाले साये ने मेरी कमर में अपने दोनों हाथों का घेरा डालकर मुझे ऊपर उठा लिया। इसके पहले कि मैं कोई निर्णय ले पाती, उस साये ने मुझे अपने कंधे पर लाद लिया और कमरे से बाहर जाने लगा।

मेरे दोनों हाथ अभी भी स्वतंत्र थे और इस नये अभागे दरिंदे को यह पता नहीं था कि मेरे हाथ में उसकी मौत के रूप में चाकू मौज़ूद है। अब निर्णय मेरे पास था, इंतज़ार था सिर्फ शानदार मौके का। संयोग भी अच्छा था

या यह कहिये सब माँ काली की कृपा थी। वह यह कि इस साये ने मुझे भी उसी स्थान पर पटकना चाहा जहाँ मेरी दीदी के साथ नृशंस कृत्य हुआ था। मैं समझ गयी थी कि यह और कोई नहीं अब्दुल ही है...... और अगले ही पल पूरे वेग से चाकू का फल उसकी पसलियों मे पीछे से प्रवेश कर गया।

वह कराह उठा, उसकी पकड़ कमज़ोर पड़ गयी.... मैं छिटक कर दूर खड़ी हो गयी और जैसे ही वह लहराया चाकू का दूसरा वार उसके पेट पर था।

फिर तो मेरे अंदर पता नहीं कहाँ से इतनी शक्ति आ गयी और बेइंतहा चाकू के वार उस साये पर पड़ने लगे और जब सुध आयी तो पाया कि मैं बेजान लाश पर चाकू घोपे जा रही हूँ, फिर बदले की ज्वाला ने मुझे चण्डी बना दिया और मैंने उसकी लाश के साथ वही किया जो दीदी की लाश के साथ अब्दुल ने अपने साथियों के साथ की थी।

यह सब मैं स्वयं कभी कर सकती थी, कदाचित नहीं, पर वही सब हो चुका था, मैं स्वयं वह कार्य कर चुकी थी जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकती थी।

मेरे कपड़ों पर खून लग चुका था।

अपने शौहर के वापस घर न पहुँचने पर चच्ची यहाँ सुबह जरूर आएँगी।

अब मुझे आगे के लिए सोचना था। मैं बिना सुस्ताये यहाँ से सुबह होने के पहले हट जाना चाहती थी, एक अनजान सफर की ओर। मुझे इतना अंदाज़ा ज़रूर था कि यहाँ से पश्चिम की ओर भारत की सीमा अस्सी—नब्बे किमी. की दूरी पर होगी। रेडियो के माध्यम से मैंने सुन व पढ़ रखा था कि भारत ने पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे पश्चिमी पाकिस्तान के दमन—चक्र से वहाँ की निर्दोष जनता को बचाने के लिए अपनी सीमाएँ खोल दी थीं और उनके जान—माल की सुरक्षा के लिए सीमाओं के पास शरणार्थी कैम्प चालू कर दिए थे।

अगले पल मैंने तय कर लिया कि मैं पश्चिम की ओर जाऊँगी। मैंने अपना भविष्य माँ काली के ऊपर छोड़ दिया था, किंतु अभी मेरे पास सबसे बड़ी समस्या, खून के धब्बाें को अपने शरीर तथा कपड़ों से अलग करने की थी। मुझे तत्काल ख़्याल आया कि फार्म हाउस पर कहीं न कहीं हैंडपम्प ज़रूर होगा। मैंने चाकू हाथ में लिया और हैंडपम्प को ढूँढ़ने लग गयी।

थोड़े प्रयास के बाद फार्म हाउस के पिछवाड़े मुझे हैंडपम्प मिल गया। कपड़ों से खून के धब्बे साफ करते ख़्याल आया कि दीदी की लाश निर्वस्त्र थी। शायद उनके कपड़े आँंगन में पड़े हों, नहीं तो ये गीले कपड़े ऐसी ठंड में मुझे बीमार कर डालेंगे। मैं शीघ्रता से पुनः आँगन में आयी और अंधेरे में चारों ओर टटोल कर कपड़े ढूँढ़ने लगी। थोड़े प्रयत्न के बाद दीदी के सारे कपड़े मुझे बुर्क़ा सहित मिल गये। मैं वापस हैेंडपम्प तक आयी, हाथ—पैर व मुँह धोने के बाद दीदी के कपड़े पहन लिये। दीदी के कपड़े पहन लेने के बाद पहली बार मैं फफक—फफक कर रो पड़ी। क्या कभी सोचा था इस सबका, जो हो रहा है? मेरे मन में यह ख़्याल आया क्यों न मैं इस चाकू से आत्महत्या कर लूँ ? पर अगले ही पल मानो कोई शक्ति मेरे इस ख्याल से मुझे रोक रही थी, संघर्ष की पे्ररणा दे रही थी.....मैं आत्महत्या न कर सकी।

मैं सत्रह वर्षीया मोना बनर्जी अपना चाकू सम्भाल कोहरे से ढँके चाँद की स्थिति से अंदाजा लगा पश्चिम दिशा की ओर बढ़ चली। अभी रात्रि के

 

लगभग बारह बज रहे होंगे। सुबह होने के पहले मैं किसी जंगल जैसे इलाके में पहुँच जाना चाहती थी क्योंकि पता नहीं, बस्ती में और कितने अब्दुल और रहमान जैसे दरिंदे छुपे हा।

जब तक मैं भारत नहीं पहुँच जाती, मैं सुरक्षित नहीं हूँ। इस धारणा ने मेरे पैरों की गति बढ़ाये रखी। मैं निरंतर चलती रही। रास्ते में दो—तीन गाँव भी मिले पर उनको किनारे से काट कर आगे बढ़ ली। मुझे श्रीपुर गाँव भी मिला। यहाँ मेरा ननिहाल है; पर हो सकता है, अब यहाँ मेरे ननिहाल का कोई न हो वे सब भारत चले गये होंगे या फिर क़त्ल कर दिये गये होंगे।

एक पल के लिये विचार आया कि मैं यहीं रुक लूँ, शायद मामाजी वगैरह मिल जाये पर अगले पल इस विचार ने रुकने के विचार को स्थगित कर दिया कि यदि वे जीवित होते तो बीस—पच्चीस किलोमीटर दूर दौलतपुर हम लोगों के हाल—चाल जानने ज़रूर आते।

मैं आगे बढ़ ली पर अभी भी मेरे मस्तिष्क में यह विचार मथ रहा था कि दुष्ट रहमान को गोली ‘बाबा' की आत्मा ने मारी या स्वयं अब्दुल ने जिसने बाबा की आवाज़ निकाल कर मुझे दबोचने की युक्ति सोची और रहमान को बदले की भावना से मार डाला।

मैं मैट्रिक पास किशोरी समझ ही कितना सकती थी, पर यह विचार दृढ़ हो गया कि वह मेरे ‘बाबा' की आवाज़ नहीं, बल्कि अब्दुल की ही बनावटी आवाज थी।

निश्चित ही जल्दी व घबराहट में मैं अच्छी तरह आवाज न सुन सकी और ‘बेटी मोना' मात्र के उच्चारण से ग़लतफ़हमी में पड़ गयी। ख़्ौर, जो अब तक घटा था, मेरे अनुकूल ही था।

श्रीपुर के पश्चिम से बहती वह नदी मिली जिसमें हम भाई—बहन व मामाजी के बच्चे कभी खूब तैरते—नहाते थे, ऐसी ठण्ड में यही नदी आज पार करनी थी। मैंने नदी का पानी छुआ, पानी बहुत ठंडा था।

मैं हर हालत में नदी के उस पार पहुँच जाना चाहती थी। श्रीपुर गाँव के मुर्गे़ कुक्कडू़—कू करने लगे, ब्रह्म—मुहूर्त हो चला था।

नदी के उस पार मैं कभी नहीं गयी थी। उस पार बीहड़ व हल्का जंगल सा नज़र आता था। मैंने कभी उस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था, परन्तु इस समय वही सर्व—सुरक्षित जगह मैं अपने लिए समझ रही थी। तभी याद आया छोटी नावों का, जिनको कभी हम लोग खोलकर नदी के उथले जल पर चलाया करते थे। घाट के पास एक नाव जो मेरे अकेले खेने के लिए पर्याप्त छोटी थी, मिल गयी। नाव के अंदर बाँस का बड़ा—सा लट्‌ठ भी मिल गया, जो इस छोटी नदी की तली में पहुँच नाव को गति देने के लिये पर्याप्त था।

मेरे लिये यही कोई दो फर्लांग चौड़ी नदी को पार करना अब मुश्किल काम नहीं था। मैंने पत्थर से नाव खोली और नदी पार करने का प्रयत्न करने लगी। नदी के हल्के तेज बहाव के बावज़ूद नाव करीब आधे घण्टे बाद उस पार पहुँच गयी। अब मैं कुछ—कुछ निश्चिंत थी, थोड़ा सुस्ताने के बाद बीहड़ों की ओर बढ़ने लगी।

अंधकार छँट रहा था, भोर का उजास अंधकार को परे हटा रहा था, अर्थात्‌ एक का साम्राज्य समय काल के साथ समाप्त हुआ और दूसरा अपने साम्राज्य के विस्तार पर संलग्न था। सच वो सुबह कभी तो आयेगी ही, पर मेरे लिये सुबह का क्या मायने था, यह तो केवल मैं ही जानती हूंँ। पूरा शरीर थकान से चूर हो रहा था, ठण्ड अलग से अपना प्रभाव दिखा रही थी। दूर—दूर तक घना कोहरा छाने लगा था।

तभी मुझे अचानक उत्पन्न गड़़गड़ाहट की आवाज़ ने चौंकाया। मानसून का कोई सवाल नहीं था, फिर आकाश की ओर निगाह घुमायी, घने कोहरे में कुछ दिखायी नहीं दिया। यह गड़गड़ाहट ज़रूर विमानों की थी।

क्या मैं स्वयं मौत के मुँह तक आ गयी थी? मुझे महसूस हो रहा था कि अब मैं बेहोश हो रही हूँ। चक्कर आने शुरू हो गयेे। बेहोश होने से पहले मैं किसी सुरक्षित स्थान तक पहुँच जाना चाहती थी, फिर एकाएक आँखों के सामने घनघोर अंधेरा छा गया। कानों से टकरा रही गड़गड़ाहट मंद—मंद सुनायी देने लगी। धीरे—धीरे मैं संज्ञाशून्य होती चली गयी।

 

 

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