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जय हिन्द की सेना - 3

जय हिन्द की सेना

महेन्द्र भीष्म

तीन

पाँच दिसम्बर उन्नीस सौ इकहत्तर की यह कोहरे से ढँकी सुबह थी। भारतीय थल सेना के जाट रेजीमेंट की पूरी एक कम्पनी के एक सौ पचास सैनिक एक वर्ग किलोमीटर के इस बीहड़ वाले इलाके में पैराशूट से उतरने लगे ।

इन्हीं एक सौ पचास सैनिकों में एक सैनिक है लेफ़्िटनेंट बलवीर सिंह जो पिछले माह ही सैकेंड लेफ़्िटनेंट से लेफ़्िटनेंट बना था। वह एक कुशल पैराट्‌रूपर (छाताधारी सैनिक) है। मात्र चोैबीस वर्ष में यह उसकी दूसरी सफलता थी। इसके पहले उसने राज्य स्तरीय परीक्षा पास कर डिप्टी कलेक्टरी ज्वाइन की थी, पर पुरखों की साख व देश प्रेम की धारणा ने उसे भारतीय सैन्य अकादमी की ओर प्रेरित किया। अपने प्रथम प्रयास में ही उसने

एस.एस.बी. में सफलता हासिल की और भारतीय सैन्य अकादमी में ट्रेनिंग कर कमीशन प्राप्त कर लिया।

डिप्टी कलेक्टर का पद छोड़़ते समय कई लोेगों ने उसे ऐसा न करने की सलाह दी थी, पर बलवीर वही करता था जो उसकी माँ चाहती थीं। उसकी मॉँ भाांति देवी बलवीर को अपने पति की तरह फौज की वर्दी पहने देखना चाहती थी।

फिर बलवीर जैसा पुत्र अपनी माँ की इच्छा के लिए क्या नहीं कर सकता था। बलवीर के पितामह अंग्रेज़ों के शासनकाल में सूबेदार थे और पिता श्री बलदेव सिंह स्वतंत्र भारत के मेजर पद पर अन्तिम समय थे। उनका स्वर्गवास सीमा पर वीरगति पाकर हुआ था। १९६२ में चीन ने जब छल से भारत के ऊपर धावा बोल दिया था, तब उसके स्वर्गीय पिता अन्तिम समय तक सीमा चौकी पर मात्र पाँंच साथियों और थोड़े से गोला बारूद के साथ ईश्वरीय संयोग, बलवीर के पैर धरती पर नहीं, बल्कि मोना की पीठ पर टिके थे। बलवीर नीचे देख चौंक गया। उसने अनुमान लगाया अवश्य यह किसी बदक़िस्मत की लाश होगी, जो पश्चिमी पाकिस्तानी फौजी दरिदों का शिकार बनी होगी।

बलवीर ने अपने आप को पैराशूट से मुक्त किया और उसे पैक कर अपने कंधे पर रखी अटैची में रख लिया। इतना सब करते—करते वह लाश के चारों ओर चक्कर लगा रहा था।

पलभर के लिये उसका चेहरा क्रोध से तमतमा उठा, भुजाएं फड़कने लगीं। उसके हाथ मज़बूती से स्टेनगन पर कस गये। दृष्टि चारों ओर फैले घने कोहरे से टकराकर नीचे पड़ी लाश पर टिक गयी ।

बलवीर का ध्यान भंग हुआ। उसने देखा, जिसे वह अभी तक लाश समझ रहा था वह अब हिल रही है। बलवीर लपककर उसके ऊपर झुक गया। जैसे ही उसने लड़की के शरीर को सीधा किया और उसका सिर अपनी गोद में रखा हज़ारों तारे एक साथ टूट पड़े, वह अपलक उसे देखे जा रहा था। अप्रतिम सुन्दरी, उसे लगा मानो आसमान से कोई अप्सरा जो अपने विमान से कहीं जा रही थी पृथ्वी पर गिर पड़ी है या फिर पराजित परी देश की राजकुमारी थी जो अपने देश से निकल कर भटक गयी है।

बलवीर ने आज तक कभी किसी लड़की को इतने निकट से नहीं देखा था न ही इस तरह देखा था जिस तरह वह आज बेखबर हो उसे एकटक देखे जा रहा है।

कुछ देर बाद उसकी एकाग्रता टूटी। उसने अपने चारों तरफ देखा, कोई नहीं था जो उसकी इस स्थिति का मज़ाक उड़ा पाता पर जैसे ही उसकी निगाह लड़की पर टिकी तो फिर वही स्थिति हो गयी, जो पहले थी और फिर वह हुआ जिसे वह सोच भी नहीं सकता था। उसका चेहरा नीचे झुका। उसके

दोनों हाथ लड़की का सिर लिए ऊपर उठे और बलवीर के अधर लड़की के अधरों से कुछ पल के लिए मिल गए..... अद्वितीय नवीन अनुभूति से उसका रोम रोम पुलकित हो उठा।

अचानक बलवीर हड़बड़ा कर खड़ा हो गया। हे भगवान! उसने यह क्या कर दिया, अधम पाप! चलते वक्त माँ को वचन दिया था कि वह प्रत्येक स्त्री का सम्मान करेगा, उसे माँ, बहन, पुत्री के समान देखेगा। कैसे हो गया यह सब? अचानक अंदर से आवाज़ आई, ‘माँं, बहन, पुत्री के अलावा भी स्त्री से

एक पवित्र संबंध होता है और वह है, पत्नी का।'

बिना माँ की सहमति के इन विषम परिस्थितियों में एक बिल्कुल अपरिचित लड़की को पत्नी मान लेना कितनी बड़ी मूर्खता है। अन्दर से पुनः किसी ने आवाज़ दी, यही ईश्वर की मर्ज़ी है, इसी को तो ईश्वरीय संयोग कहते हैं, जिसके आगे मानव के प्रत्येक प्रयास विफल हैं। पता नहीं कितनी देर तक बलवीर इसी उधेड़बुन में फँसा रहता यदि भानु वहाँ आकर उसे चौंका न देता। बलवीर के बाएँ कंधे पर उसके दोस्त भानु का हाथ था। भानु को वहीं बैठा उसने उसे सब कुछ बता दिया, सब कुछ।

‘‘भानु अब तुम मेरी मदद करो कि क्या करना चाहिए?'' बलवीर ने बेसुध लड़की का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘मैं इस लड़की को, भले ही यह कोई भी क्यों न हो, अपनी धर्मपत्नी स्वीकार करता हूँ।''

‘‘यार अजीब स्थिति है। तुम वास्तव में बडे़ जल्दबाज़ हो, जो निर्णय लेना होता है उसे तुरंत ले लेते हो।'' भानु हाथ पैर ऊपर नीचे करते हुए बोला, ‘‘मामला यह है कि यहाँ फ्रण्ट पर यह लड़की हमारे साथ कैसे रह पायेगी? ........और फिर पता नहीं यह कहीं शत्रुओं की जासूस वगैरह न हो।''

‘‘जासूस'' चौंका बलवीर पर तुरंत ही संयत हो बोला, ‘‘तुम्हें यह भोली—भाली लड़की जासूस दिखती है ? क्या उम्र होगी इसकी यही सोलह—सत्रह वर्ष, यह बेचारी ज़रूर दरिंदों से बचकर भागी होगी'' बलवीर भावुक हो उठा,

‘‘क्या तुम्हें यह किसी कुलीन घर की भली लड़की नहीं दिखती?''

‘‘दिखती तो है मेरे यार! पर तुम मुझे समझने की कोशिश तो करो, जो मैं कह रहा हूँ, इसके पहले कि तुम अपना निर्णय अन्तिम रूप में लो हमें इसके

होश में आने की प्रतीक्षा करनी चाहिए।'' भानु ने बलवीर का बायाँ हाथ अपने दाएँ हाथ में लेते हुए कहा।

बलवीर ने अपना सिर स्वीकृति में हिला दिया।

घने जंगल के मध्य यह एक अस्थाई सैनिक छावनी थी। प्रत्येक टेंट को इस प्रकार स्थापित किया गया था कि आसमान से नीचे देखने पर यह ज्ञात न हो सके कि यहाँ पर भारतीय सेना डेरा डाले हुए है। वैसे भी यहाँ तक का पूरा

क्षेत्र अब भारतीय सेना के नियंत्रण में आ चुका था। निर्वासित किए गए पूर्वी

पाकिस्तान की सेना के अधिकारियों व भारतीय खुफिया विभाग के सदस्यों

द्वारा बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी के गुरिल्लों को प्रशिक्षित करने का भी यहाँ पर अस्थाई कैम्प है।

यह अस्थाई छावनी एक कम्पनी छाताधारी सैनिकों का प्रथम अस्थाई पड़ाव है, जिसका नेतृत्व मेजर पाण्डेय कर रहे हैं। ऑफीसर लाइन में अन्तिम टेंट बलवीर व भानु का है, जिसके बाएँ ओर पुराने बरगद की घनी छांव हमेशा बनी रहती है। दोनों के अलावा इस बात से शेष सभी अनभिज्ञ थे कि टेंट में दो नहीं तीन प्राणी हैं।

मोना को धीरे—धीरे अपनी स्थिति का भान होने लगा था। धीरे—धीरे वह पूरी तरह होश में आ गयी। उसे ध्यान आ रहा था कि उसे नदी किनारे़ कहीं गिरा पड़ा होना चाहिए था, पर यहॉँ वह दूसरी स्थिति में थी। कोई उसके तलुवों को हथेलियों से रगड़कर गर्मी पहुँचा रहा था। वह आँखें खोलने से पहले पूरी वस्तुस्थिति को समझ लेना चाहती थी। इसलिए बिस्तर पर शांत लेटी रही।

उसे अपने शरीर के किसी हिस्से से दर्द का ज़रा—सा भी आभास नहीं हुआ। अभी तक वह पूरी तरह सुरक्षित है, पर अभी बेहोशी का बहाना किये वह ज्यों की त्यों लेटी रहना चाहती थी। उसे यहाँ से हटना था, पता नहीं ये पाकिस्तानी सैनिक उसका क्या हाल बनायें। वह अभी इसी उधेड़बुन में थी कि तलुवों को रगड़ने के बाद वह सैनिक अब उसकी हथेलियों को रगड़ने लग गया था।

‘क्या करना चाहिये?' मोना ने अपनी बाईं अांँख थोड़ी—सी खोलकर सैनिक की ओर देखा। मोना की पहली नजर सैनिक के बाएँ कंधे पर पड़ी जिस पर सैनिक की टोपी खुसी हुई थी और आगे की नोक में लगा ‘अशोक— चक्र' मोना को स्पष्ट दिख रहा था, तो क्या यह भारतीय सैनिक है ? वह भारतीय छावनी में थी। उसने गद्‌गद्‌ हो हृदय से माँ काली को धन्यवाद दिया।

मोना ने अपनी आँखें एक पल के लिए खोल दीं, टेंट के अंदर का जायजा कनखियों से लिया और युवक को बाईं ओर से देखा जो सामने दरवाजे पर लगे परदे की ओर देख रहा था। मोना को अब कुछ शरारत सूझी। उसने अपना बायाँ पैर ऊपर की ओर खींचा और कुछ बड़बड़ायी, युवक सतर्क हुआ और उसे हिलाने डुलाने लगा। मोना आगे शरारत जारी न रख सकी। कारण नवयुवक ने अब उसके चेहरे पर पानी के छीटें मारने शुरू कर दिये थे और वह ठण्ड में पानी के ठंडे छीटें बर्दाश्त नहीं करना चाहती थी, फलस्वरूप उसने अपनी आँखें खोल दीं। मोना की आँखों के सामने बलवीर की आँखें थीं। दोनों एक दूसरे की ओर बंधे हुए देख रहे थे। यह स्थिति और जारी रहती यदि भानु टेंट की चिक उठाकर अंदर न आ गया होता।

‘‘वाह होश आ गया'' भानु ने चहकते हुये मोना को देखकर कहा, परन्तु मोना की तेज दृष्टि से उसकी स्थिति बिगड़ी। अगले पल वह सम्भलकर बोला, ‘‘बेबी नमस्ते!.... गुड मॉर्निंग बेबी!'' भानु की इस स्थिति पर मोना को बरबस हँसी आ गयी। कुछ पल टेंट में तीनों प्राणी इस प्रकार हँसते रहे जैसे कोई बहुत अच्छा जोक हुआ हो। हँसती मोना को अपलक बलबीर, देखने लगा जो स्वयं भी हँस रहा था और भानु नीचे मुँह किये अपना हैट हिलाते डुलाते हँस रहा था। कुछ देर बाद हँसी थमी, मोना अब उठकर बैठ चुकी थी, उसके पयताने भानु बैठ चुका था, जबकि बलबीर भानु की ओर उन्मुख हो खड़ा हो गया था।

‘‘मेजर साहब से बात हुई।'' बलवीर ने कहा

‘‘अभी नहीं वे पूजा कर रहे हैं।'' भानु ने उत्तर दिया।

‘‘अपने पाण्डेयजी भी फ्रण्ट में पूजा करना नहीं भूल़ते। मैं समझता हूँ

यदि गोलियों की बरसात शुरू हो जाये तो भी शायद पाण्डेय जी .... बलवीर

अचानक बोलते—बोलते रुक गया क्योंकि अब तक मोना खड़ी हो गयी थी।

‘‘आप—आप बैठिये! बैठिये न!'' बलवीर ने मोना को पलंग पर बैठाते हुए कहा।

‘‘आप, आप कौन हैं? अभी बताएँगी या कुछ देर बाद, वैसे मैं लेफ़्िटनेंट भानु प्रताप हूँ, और ये हैं मिस्टर बलवीर सिंह मेरे सहपाठी, आप भी लेफ़्िटनेंट हैं। हम दोनों एक ही बैच के हैं।'' भानु रटे रटाये स्वर में बोला।

‘‘मैं मोना हूँं, मोना बनर्जी .. और क्रमशः मोना ने अपना पूरा परिचय विगत दिनों की घटनाओं सहित सुनाना प्रारम्भ कर दिया। मोना के चेहरे पर बनते बिगड़ते हाव—भाव अपनी प्रतिक्रिया बलवीर भानु पर कर रहे थे। कभी गुस्से से दोनों के दाँत भिंच जाते, तो कभी मुठ्ठियाँ कस जातीं। कभी वे एक हाथ को दूसरे हाथ पर मारने लगते, कभी कुछ, कभी कुछ बड़ी अजीब स्थिति हो रही थी दोनों की।

मोना ने जैसे ही परसों रात के बाद की घटना सुनानी प्रारम्भ की दोनों का ख़्ाून ग़ुस्से से उबल पड़ा। भानु ने इसी बीच निश्चय किया कि वह पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों के साथ साम्प्रदायिक तत्वों को भी मज़ा चखायेगा।

......और अंत मे मोना का सब्र टूट गया और वह फूट—फूट कर रो पड़ी।

मोना के दुःख में सम्मिलित हो बलवीर व भानु की आँखें भी सजल हो उठीं।

''मोना बहन! आज से मैं तुम्हारा अटल दा हूँ। मुझे विश्वास है कि वह जीवित होंगे। भानु दा कहा करो मुझे, भानु दा! ... मैं अटल दा को ढूँढ़ निकालूँगा .. ईश्वर जरूर तुम्हें अटल दा से पुनः मिलवायेगा .. धैर्य रक्खो।' भानु भावुक हो कहने लगा। .......अब निश्चिंत रहो। यहाँ पर तुम्हें कोई दिक्कत नहीं होगी। मैं अभी मेजर साहब से बात करता हूँ। वे कोई न कोई रास्ता बतायेंगे।'' भानु का दायाँ हाथ मोना के सिर पर था मानो वह कोई निर्णायक शपथ ले रहा हो।

‘‘क्यों भानु मेजर साहब मान जायेंगे? कहीं मोना हमसे बिछुड़ न जाये? वैसे हमारे एक परिचित कलकत्ता में रहते हैं। मोना की ओर उन्मुख होते बलवीर ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें कलकत्ता पहुँचाने की कोशिश कर सकता हूँं, लेकिन क्या .....

‘‘नहींं'' मोना बीच में बोल पड़ी, ‘‘मैं अभी अपनी सुरक्षा नहीं चाहती हूंँ, मैं सुरक्षा चाहती हूंँ अपनी जैसी तमाम अभागिन लड़कियों, स्त्रियों, बच्चों और उन सबकी जो उपद्रवियों और पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों के अत्याचारों से पीड़ित हैं।''

''मोना तुम क्या कर सकती हो? तुम्हें सुरक्षित रहना ही होगा, बाकी के लिए हम सब यानी पूरी भारतीय सेना और मुक्ति वाहिनी के गुरिल्ला तो हैं हीं'' भानु बोला।

‘‘.....तो मुझे भी गुरिल्ला बना लो भानु दा!'' मोना ने भानु का हाथ पकड़ते हुए कहा।

‘‘यह कैसे सम्भव है मोना! तुम लड़की हो और यह काम इतना आसान नहीं, जितना समझ रही हो।'' भानु ने मोना को समझाते हुए कहा, ‘‘यहाँ खाना बदोस सी स्थिति है। पता नहीं कब किस मोर्चे पर जाना पड़ जाये और शायद हमारे उच्चाधिकारी भी तुम्हें साथ रखने की अनुमति न दें।''

‘‘तो मुझे एक बन्दूक दे दें। मैं अभी यहॉँ से निकल जाऊंगी। अपनी रक्षा करते हुए, आराम से रहना मैं नापसंद करती हूूंँ।'' मोना निर्भीकता से भानु का कंधा हिलाते हुए कह रही थी, '.....दीजिये मुझे बन्दूक और कुछ कारतूस।''

‘‘सोच लो मोना, अभी समय है।'' भानु बाहर जाते मुड़ा और बलवीर की ओर मुखातिब हो बोला, ‘‘बलवीर मैं जा रहा हूँ मेजर साहब के पास।''

‘‘ठहरो'! मेजर साहब से मोना के संबंध में कुछ बात करने की जरूरत नहीं है।'' बलवीर ने कहा, जो अभी तक शांत था।

‘‘यह तुम क्या कह रहे हो बलवीर?'' भानु के चेहरे पर प्रश्नचिह्‌न स्पष्ट था।

‘‘मैंने सोच लिया है मोना अब हम दोनों के साथ ही रहेगी। उसे कैसे रहना है, यह बाद में तय करेंगे, अभी अपनी बहन के लिये कुछ फल वगैरह ला रहे हो या ....''

भानु टेंट से बाहर निकल गया, इसके पहले कि बलवीर आगे कुछ बोल

‘‘हाँ तो मोनाजी.... मैंने जो निर्णय लिया है, वह ठीक रहा कि नहीं और मैं कहना यह चाहता हूँ कि '........ इसके पहले कि वह आगे कुछ कहे उसकी दृष्टि मोना पर पड़ी जो कभी बाक्स के ऊपर पड़े अपने कपड़ों को देखती तो कभी फौजी वर्दी में स्वयं को।

‘‘गुस्ताखी माफ करना मोनाजी! आप ठंड से काँप रही थीं, आपके कपड़े कोहरे की ओस से भीग चुके थे, आपके भानु दा के कहने पर यह सब मैंने किया है।' बलवीर बोला।

‘‘क्या ?'' मोना लगभग चीख उठी थी।

‘‘मेरा विश्वास करो, मैंने कुछ नहीं देखा इस साले भानु ने आँखों पर पट्‌टी बाँध दी थी।'' बलवीर लगभग हँसते हुए बोला।

अब मोना हँस रही थी, पर शर्म के साथ। मोना की इस अवस्था का बलवीर ने पूरा फायदा उठाया, उसके दोनों हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा,

‘सच मोना जब से मैंने तुम्हें देखा है सुध—बुध खो बैठा हूँ, मुझे लगता है मुझे कुछ हो गया है...... मैं....... मैं तुमसे प्यार करने लग गया हूँ।'' कहते—कहते बलवीर ने मोना के हाथ चूम लिये।

मोना जो पहली नज़र में बलवीर को अपना सब कुछ अर्पण कर चुकी थी, मन की बात होती देख दोगुनी खुशी से भर उठी। छः फुट के स्वस्थ, सुन्दर बलवीर के विशाल सीने पर मुँॅंह छिपा कर अब वह सिसक रही थी, पर

यह सिसकियाँ दुःख से भरी नहीं थी, बल्कि उस तरह की थीं जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल जाये।

पर यहाँ उसे तिनका नहीं, बल्कि मँझधार में एक पूरी अच्छी भली नाव मिल गयी थी, जिसमें नाविक भी था जो उसे दिलोजान से चाहता है।

दोनों मौन इसी मुद्रा में काफी देर तक बंधे रहे।

बलवीर सोच रहा था, उसने कोई गलत काम नहीं किया। मोना को पाकर माँ खुशी से झूम उठेगी और मोना सोच रही थी कि उसने बहुत कुछ खोकर बहुत कुछ पा लिया है।

पाता।

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