Ek bund ishq - 19 books and stories free download online pdf in Hindi

एक बूँद इश्क - 19

एक बूँद इश्क

(19)

एक बार फिर से उन्हीं सर्पीली, घुमावदार और लुभावनी सड़कों पर होती हुई उनकी गाड़ी 'कान्हू रिजार्ट'पर जा लगी।

गणेश और शंकर पहले से उनकी राह देख रहे हैं। गाड़ी के रुकते ही मिलने को अधीर हो उठे। सब्र का बाँध दोनों ही सिरों से टूटा है। अश्रुधारा रीमा की आँखों मे ही नही है गणेश और शकंर की आँखें से भी झर-झर आँसू बह रहे हैं। दोनों तरफ की निश्छल, पवित्र संवेदनायें सभी पर अपना प्रभाव डाल रही हैं। बाबूराम समेत परेश भी हतप्रत है।

जैसे मायके पहुँचते ही लड़की चिड़िया बन चिहुकंने लगती है वैसे ही रीमा उस धरती पर पैर रखते ही झूमने लगी। दौड़ कर गणेश के गले लग गयी। इस बार वे दोनों बिल्कुल एक पिता और पुत्री की तरह मिली है,,,,, कोई संकोच या औपचारिकता नही। बाँध तोड़ कर नदी का बहाव देखा है किसी ने? वैसा ही नज़ारा है वहाँ का।

"काबेरी काकी कहाँ है वोह नही आईं मुझसे मिलने? " यकायक रीमा उदास हो उन्हें ढूढ़ने लगी है।

"बिटिया, चलो तो वोह घर पर तुम्हारी पशंद का खाना पका रही है। उशकी खुशी उशके चलते हाथों से दिख रही है, झोली के लिये चावल पीस रही है और आज खास दिन है न तो सिंगोरी भी बना रही है। शुबह शे रशोई शंभाले है बस कहे जा रही - 'बिटिया को जे पसंद है बिटिया को वो पसंद हैं' शंकर अपना गमछा संभालते हुये खुशी से चहक कर बोला।

"चलो जल्दी से परेश, क्या हम लोग पहले काकी के पास नही चल सकते?" रीमा की भीतरी सुगबुगाहट मचलने लगी।

स्तिथी से सामंजस्य बिठाना भी बेहद जरुरी है और फिर वोह आये ही हैं रीमा की खुशियों के लिये अत: परेश ने यह कह कर सांतवना दी- "अभी कुछ देर आराम कर लें, फिर हम साथ चलेगें।

बात सही है। गणेश और शंकर का भी समर्थन मिला- "आप अभी आराम कर लो बिटिया, शाम को सब इकट्ठे ही खायेगें। चलो आप ऊपर चलो हम आपके लिये कुछ खाने को लाते हैं,,, कह कर गणेश ने कार से निकाले हुये बैग हाथ में उठा लिये।

बाबुराम भी शंकर के साथ अपने कमरे की तरफ जा रहा है। गणेश ने उसी कमरें को तैयार कर रखा है जिसमें वह पिछली बार ठहरी थी।

सब कुछ प्रकृति की ओर से सुनियोजित है क्या? कमरें में पाँव धरते ही उन्ही यादों की सुगंध छाने लगी। रीमा ने चेहरे पर मिलन का नूर दमकने लगा। वह लपक कर बालकनी की ओर बढ़ने लगी कि ...गणेश ने आकर रोक दिया- "न..न...बिटिया, पहले कुछ खा पी लो...आराम कर लो..फिर...जी भर देख लेना इन बेजान पहाड़ों को......"

"नही दादा,,,,,, यह बेजान कहाँ? इनकी पसीजी हुई चुप्पी में ठहराव है जो अपनी कहानी को बगैर शब्दों के कितनी सरलता से कह डालता है.......अब कोई देख-सुन न पाये तो किसका दोष?"

यह सच है यह कहानी की जड़ता को भीतर सहेजे हैं। उनका अभिन्न अंग इसी के मूल में छिपा है...और मूल ही आधार है जिसे प्रकृति जोड़ने के अभिनय में लगी है ताकि इससे पूर्णता मिल सके और यह अपनी मंजिल को पा सके। बिखरे हुये कतरों को जोड़ना इतना मुश्किल भी नही तो आसान भी नही। हर काम अपनी कीमत माँगता है।

शाम हो चली। सूरज अपनी लालिमा को आसमान के हवाले करता हुआ पहाड़ों की ओट में छुपने लगा,,,,, बालकनी के अधखुले परदों से जाती हुई धमक, किरण बन कर रीमा के तकिये पर आ धमकी,,,, वह गुदगुदा कर कहने लगी - "उठो चन्दा, बैजू पुकार रहा है.........कब तक सोओगी?? देखो.....शाम घिर आई है...।।।।"

"बैजू......कहाँ हो तुम???" पहाड़ी घनेरी ठंड में पसीने से तरबतर हो जाना और फिर हड़बड़ा कर उठ बैठना वास्तव में भयभीत कर देने वाला है। रीमा की साँसें तेज चल रही हैं,,,, वह जाना चाहती है पुकारने वाली दिशा में.......उसकी देह में एक खिचाव सा हो रहा है.....कोई चुम्बकिये शक्ति है जो उसे खींच रही है।

परेश ने उसे कस कर लिपटा लिया- "रीमा, चलो उठो.....तुमने कोई डरावना ख्बाब देखा है शायद"

परेश जानबूझ कर बात को बदल रहा है वोह जानता है यह रीमा के भीतर का द्वन्द्व है.....बैजू से मिलन की चाह है....जो उसे खींच रही है,,,,,, यही समय है.. उद्वेग चरम पर हो तभी संवेदनाये अपना आकार लेती हैं.....अब इन कच्चे ढाँचों में मेरे हाथों के निशां भी होगें......मैं उस गुथे हुये आकार को कितना तराश पाऊँगा? यह परीक्षा की घड़ी है.....'परेश तुम कभी हारते नही,,,,, तुम परिपक्व हो अपने बनाये रास्तों में.....बाहों में रीमा को दबाये परेश दोहरी भूमिका को ओढ़े है...एक तरफ वोह बीमार का डाक्टर है तो दूसरी तरफ अपने जीवन साथी का सारथी.......एक की हार भी दोनों को हरा देगी'........उसने रीमा को दुलारते हुये चलने को कहा- "चलो घूम कर आयें।"

वह घबराई हुई बेजान कठपुतली सी लिपटी रही,,, तब तक, जब तक गणेश न आ गया।

"चलो शाब, शंकर का फोन आया है, काबेरी वाट जोह रही है..."

फोन?? अरे फोन से याद आया .".रुको , बैठो गणेश दादा...."

परेश ने उपहारों का पैकेट रीमा को पकड़ा दिया। अभी जो बैजू के ख्यालों में खोई थी उपहारों को देख कर खिल गयी-

"मुझे बगैर बताये परेश..?"

रीमा की खुशी देख कर परेश भी सुकून से भर उठा- "हाँ रीमा आओ गणेश दादा को अपने हाथ से दो।"

मोबाइल पाकर गणेश गदगद हो गये। ना नुकुर करने को परेश ने पहले ही मना कर दिया है,, सो वह उसकी बात से बँधा है। उसने भरी आँखों से मोबाइल को चूमते हुये कहा- "बिटिया कौन है जिशशे मैं बात करूँगा? एक तुम ही तो हो जब याद आयेगी तो झट से लगा लूँगा...अब हमें शंकर के पाश नही जाना पड़ेगा.....मगर इसकी क्या जरुरत थी??? भला कहीं अच्छा लगता है बिटिया से कुछ लेना? "

गणेश शिकायती लहजे में बोल ही दिया।

"बस दादा अब आप हमारा दिल दुखा रहे हैं। आइये मैं आपको सब सिखा दूँगा। लेकिन पहले शंकर के यहाँ चलते है।"

"बाहर हाथ रिक्शा खड़ा है शाब....आप लोग बाहर आइये तब तक हम जरा रिजार्ट का काम निवटा लें।"

आज शंकर का घर जंगली फूलों, आम के पत्तों और चूने के बने कँगूरों से सजा है। बाहर पड़े तख्त को भी रंग दिया गया है,, उस पर बिस्तर बिछा है...यह सब इसलिये कि इस बार रीमा बिटिया अकेली नही है परेश भी साथ है..एक तो पहली बार आ रहे हैं दूसरा रिश्ता भी जमाई का। बच्चे हाथों में पंखुड़ियां लिये खड़े हैं , जिन्हें हौले-हौले उनके ऊपर डाला जा रहा है। काबेली जल का कलश और दिया जलाये खड़ी है। पहले नजर उतारी गयी फिर दिये से आरती कर उन्हें अन्दर लाया गया।

भव्य स्वागत का कार्यक्रम देख कर परेश का ह्रदय भी दृवित हो उठा- "इतना सम्मान?? इतनी आत्मियता? इतना प्रेम?? असम्भव है......लाखों रुपये की सजावट, लग्जरी खाना, महँगे परिधान सब फीके हैं इसके आगे....ओहहहह अब जाना..रीमा का बेफिक्र आग्रह,,,,,, असमय मचल जाना,, उसकी मासूमियत का गर्भ स्थान यही तो है? क्यों न इतराये वोह इतनी दौलत पाकर?? एक मेरा परिवार है..डैडी के जाने के बाद जान लुटा कर रख दिया...कतरा-कतरा पसीना बहाया इतनी बड़ी इन्ड्रस्टी खड़ी की...ऐशो आराम..नौकर चाकर..गाड़िया...सब-का-सब बेकार हो गया...शुचिता भाभी ने तो तलाक तक की सलाह दे डाली...क्या दौलत रिश्तों को तोड़ने के लिये कमायी जाती है?? क्या रिश्ते सुविधाओं की नीवं पर टिके होते हैं? नही चाहिये ऐसे खोखले रिश्ते...नही चाहिये दौलत..नही चाहिये बड़ी-बड़ी गाड़िया...."

परेश की मानसिक स्तिथी भी रीमा से कम नही,,,,,,,,

पीतल और फूल के वर्तनों में झोली, चावल और फिर सिंगोरी परोसा गया। यह पहाड़ के खास पकवान हैं। सिंगोरी आमतौर पर शादीब्याह के मौकों पर खूब बनती है।

परेश और रीमा ने चटकारे ले कर खाना खाया। रीमा तो जैसे कई दिन की भूखी हो,,, परेश देख रहा है रीमा को खाते हुये...उसने पहले कभी इस तरह चाव से इतनी मात्रा में नही खाया है,, आज तो अदभुत नजारा है।

सब हँस रहे हैं बच्चे ठिठोली कर रहे हैं कि परेश ने सबको सब उपहार दे दिये हैं। काबेरी तो गैस और चूल्हा देख कर रो ही पड़ी...कहने लगी- "बिटिया तुम तो हमारी कोख जनी बिटिया ही लगती हो...शंकर घड़ी पहन कर गर्व से भर उठा और बच्चे तो खुशी से झूमते हुये झीनाझपटी कर रहे हैं....पूरा माहौल स्नेह, आत्म मुग्धता से रंगा हुआ है। गणेश भी बार-बार अपना मोबाइल जेब से निकाल कर दिखाने में लगा है। सबको बस यही शिकायत है कि इतना खर्चा बेटी के पक्ष से सही नही। जिसको परेश ने सिरे से नकार दिया।

क्रमशः

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