एक बूँद इश्क - 3 Chaya Agarwal द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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एक बूँद इश्क - 3

एक बूँद इश्क

(3)

चिड़ियों की चहचहाट से रीमा की नींद खुल गयी है। आसमान पर चाँदी की परत चढ़ी है जो काले बादलों से कलछा सी गयी है और बरसने के लिये गरज रही है। मौसम में एक धुँध है। जिसे देख कर मोर भी कुहुक रहा है। एक तरफ पीहू-पीहू की आवाज़ से लुभा रहा है तो दूसरी तरफ पक्षीयों की चहचहाहट खुशी के कणों को एकत्र कर रही है....दोनों एक दूसरें से प्रतियोगितामें लगे हैं..एक में शहद की मिठास है तो दूसरे में चाश्नी की, एक की सुर साधना सदियों से प्रशिक्षित किसी साधक की लगती है तो दूसरे की प्रवीणता भी कुछ वैसी ही। मगर ये कुदरत का अमूल्य, अदभुत वरदान है जो इन दोनों के पास है।

रीमा ने बिस्तर पर अंगडाई ली और खुद को हल्का किया। ओह....चिड़ियों की आवाज़ से स्वप्न टूट गया..तो मैं सपना देख रही थी? कितना मीठा सपना था? कहाँ गया? जिन्दगी तो कड़वे अनुभवों से भरी है जहाँ भावनायें सबसे नीचें दबी हैं। अब इतना मीठा तो स्वप्न ही हो सकता है? वह रात को आने वाले सवप्न को याद कर रही है। उसका कतरा-कतरा जोड़ने में लगी है। उसे कभी भी रात को देखा गया स्वप्न सुबह तक याद नही रहता। उसने क्या देखा था याद नही बस कुछ टूटा -फूटा सा स्मरण हो रहा है। इसलिये आँख बन्द कर पुन: उसमें डूबने का प्रयास करने लगी है। भीतर चल रही हलचल न रात को शान्त होती है न दिन को।

ओह...अभी तो पाँच ही बजा है। दिल्ली में तो न रात का पता होता है न दिन का..परेश को अक्सर आने में देर हो जाती है या आकर भी काम में लगा रहता है, ऐसे में सुबह उठने का कोई समय नही। पूरी जीवन शैली ही अस्त-व्यस्त। मगर यहाँ पर सब कितना व्यवस्थित है सब प्रकृति के हिसाब से चल रहा है। पक्षीयों से लेकर जीव-जन्तु इन्सान सब अपने अनुशासन में हैं। सब अपने समय से उठते हैं, जागते हैं और काम करते हैं। सब सूर्य का अनुकरण कर रहे हैं। उसी की तरह ईमानदारी से अपने जिम्मेंदारियों का दोहन भी,,,,,,काश! परेश भी यहाँ आकर कुछ सीख सकता? इन वादियों का सुख ले पाता? इस आनन्द में डूब पाता? लेकिन सब अपनी मर्जी से नही होता। कुदरत जिसको जैसा चाहती है करवाती है।

कितना असीम सुख है यहाँ? यही तो जिन्दगी है, मैं कब से भटक रही थी इसे पाने के लिये? दिल तो चाहता है कभी वापस न लौटूँ। रह जाऊँ हमेशा के लिये इसकी गोद में। मुझे लगता ही नही कि मैं पहली बार यहाँ आई हूँ या यह कोई अनजानी जगह है? लगता है जैसे सब पूर्व नियोजित सा है। कितना अपनापन? कितना आत्मियता? और कितना खिचाव है यहाँ, जो मेरे पैरों में बेड़िया बाँध रहा है? उसे याद आया!

"अरे गणेश दादा आ गये होगें? आज तो उन्होनें मेरे साथ जाने का वायदा किया है। कल का दिन यूँ ही निकल गया वैसे वह भी जरुरी था कितनी जानकारी जुटा ली है कल भर में , अब घूमना आसान हो जायेगा।"

रीमा ने आज घण्टी बजा कर कम दूध की चाय आर्डर की है। उसे चाय में दूध कम ही पसंद है ये बात अलग है कि अक्सर उसकी इस आदत पर मजाक बनती है। कभी कोई गवॉर कहता है तो कोई बेवकूफ, लेकिन यह सब मजाक तक ही सीमित है। परेश ने तो यह भी कहा- "भई, चाय में दूध पसंद नही है तो ब्लैक टी पिया करो ये क्या गरीबों वाली चाय पीती हो?"

रीमा उन बातों को मजाक में हँस कर टाला करती- "कह लो जिसको जो कहना है मैं तो ऐसी ही हूँ। बस चले तो मैं अचार से रोटी भी खा लूँ, जमीन पर चटाई बिछा कर सो जाऊँ..अहा! क्या आनन्द है बगैर बनाबट की जिन्दगी में?"

इन्ही हल्के-फुलके विरोधाभास से गुजरती हुई जिन्दगी यहाँ लाकर खड़ा कर देगी किसने जाना था। वैसे कहते हैं कि शिद्दत से जो माँगों कुदरत देती जरुर है बस आपके माँगने में ताकत और लगन होनी चाहिये। उसने इस शक्ति के बारे में बहुत पढ़ा है। जिसको कहते हैं 'आकर्षण का सिद्धांत'

यह सिद्धांत कुदरत के नियमों पर ईमानदारी से काम करता है और बिल्कुल सटीक है। आप जब बच्चों की तरह कुछ पाने को मचलते हो अपनी जिद पर अड़ जाते हो या अपने सपने का लगातार दृश्यावलोकन करते हो तो यह सृष्टि उसे देकर ही रहती है। उसी तरह जैसे कोई बच्चा अपने माँ या पिता से कोई खिलौना पाने को मचल जाता है और हार कर उन्हें वो खिलौना दिलाना ही पड़ता है उसी तरह कुदरत को पिता मान कर माँगी गयी चीज आपको जरुर मिलेगी ये 'लॉ ऑफ अट्रैक्शन' का नियम है।

शायद यही हुआ है उसके साथ भी। वह कभी भी अपनी शादीशुदा जिन्दगी से खुश नही रही। न जाने क्या चाहत है? क्या पाना है उसे , जिसे वह लगातार पाने के लिये तड़पती रही है। क्या यह वही तो नही? क्या कुदरत उसे उसकी चाहत की मंजिल तक ले आई है? या और भी कुछ वाकि है अभी?

अभी इन विचारों से उफनती वह संभल ही रही है कि एक चिड़िया ऊपर बने रोशनदान से अन्दर आ गयी है और टुकुर-टुकुर कभी उसे तो कभी इधर-उधर देख रही है। रीमा एकदम शान्त हो गयी है उसे डर है कि जरा सी हरकत होने पर यह डर कर बाहर न चली जाये, सो वह साँस रोके पड़ी है और उसे ध्यान से देख रही है।

दरवाजे पर आहट हुई शायद उसकी काली चाय आ गयी है। जैसे ही वेटर अन्दर आया चिड़िया फुरररर से उड़ गयी।

"ओह...नही, कितना अच्छा लग रहा था उसको देखना, आपके आते ही उड़ गयी।" रीमा ने शिकायती अन्दाज़ में उससे कहा, तो वह भौचक्का सा उसे देखने लगा- "कौन उड़ गयी मेमशाव?"

"वह चिड़िया, जो अभी-अभी यहाँ इस फूलदान पर आकर बैठी थी।" रीमा ने हारे हुये अन्दाज में कहा तो वेटर की हँसी छूट गयी-

"वह तो पक्षीं है मेमशाव, हमारा आपका बश कहाँ चलने वाला उन पर? आजाद हवा में शाँश लेते हैं और खुल कर जीते हैं।" बेहद समझदारी वाले अन्दाज में वह कह रहा है।

वह वेटर गणेश नही था वही था जो कल शाम को था। रीमा ने उसकी बात को सहमति दी और पूछा-

"गणेश दादा नही आये आज? कहाँ हैं वो?"

"मेमशाश, वह छुटटी पर हैं दो दिन की, कह रहे थे कि किसी मेहमान को घुमाना है कोसानी"

"ओहहह..अच्छा, समझी उन्होनें मेरे लिये ही छुटटी ली है। वह मुझे ही लेकर जाने वाले हैं।" रीमा ने चहकते हुये कहा।

वेटर लंच के पूछ रहा है मगर रीमा ने इन्कार कर दिया- "लंच रहने दीजिये, हम तो शाम तक ही लौटेगें हाँ, डिनर तैयार करवा लीजियेगा और हाँ ब्रेकफास्ट ले आइयेगा ....सैण्डबिच और एक गिलास मिक्स फ्रूट जूस।"

चाय की चुस्कियों के बीच पूरे दिन की प्लानिंग चल रही है खास कर जब नीचे नदी पर जाने की बात जब निकलती है तो सिहरन सी दौड़ जाती है उसके पूरे जिस्म में। गजब की ताकत और उत्साह आ गया है। उसने जल्दी ही चाय पीकर बॉशरुम का रूख किया है। पता नही गणेश दादा किस समय आ जायें? तब.तक मुझे तैयार हो जाना चाहिये।

लोअर और टी शर्ट में रीमा बॉशरुम से बाहर आई ही है कि इण्टर कॉम की घण्टी बज उठी- "हैलै मेमशॉव, हम गणेश ..हम रिजार्ट के बाहर आपका वेट कर रहा है।"

"ओह..गणेश दादा, बस दस-पन्द्रह मिनट में आती हूँ। आप बाहर ही वेट करिये मेरा।" रीमा की तो भूख ही मर गयी है। नाश्ता कमरे में आ चुका है उसने बस एक साँस में जूस ही पिया है सैंडबिच यूँ ही पड़े हैं। उसे तो बस अब नदी पर जाने की उत्सुकता है।

रीमा ने आज फिरोजी कलर का सलवार सूट पहना है। जिसका दुपट्टा उसने गले में लपेट लिया है ऊपर से हल्का सा जैकेट भी ले लिया है जून का महिना तो दिल्ली के लिये है यहाँ तो गुलाबी सर्दी कह रही है कि-' मैं तुम्हारे लिये फरवरी हूँ। फिर अगर तबियत जरा भी बिगड़ी तो वापस दिल्ली जाना पड़ेगा। इसमें कोई कोताही नही।'

चेहरे पर हमेशा की तरह हल्का मेकअप, माथे पर एक बिन्दी और होठों पर गुलाबी लिपिस्टिक बस , उसे तो इतना भी पसंद नही मगर शादीशुदा औरत को इतना तो करने की जिम्मेदारी होती ही है। वैसे परेश ने उसे कभी ध्यान से नही देखा चाहे वह मेकअप करे या न करे उसे कोई फर्क नही पड़ता। जाने कौन सी मिट्टी का बना है?

"चलिये दादा, मैं तैयार हूँ।" भीनी-भीनी सी खुश्बू में लिपटी रीमा अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रही है।

कुछ रास्ता तो हाथ रिक्शे से तय किया गया बाकि आगे का रास्ता पैदल ही जाना है। जो बेहद उबड़-खाबड़ और सुनसान है।

वह गणेश का अनुसरण करती हुई चल रही है। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ रही है उसकी दिल की धड़कने तेज हो रही हैं। गणेश उसे

वहाँ के बारे में बता रहा है। अभी नदी से कुछ ही दूरी बची है। सामने एक बड़ा सा पत्थर खड़ा है बिल्कुल सीधा। अचानक उसे देख कर रीमा चीख उठी है- "बैजू, यहीं बैठ कर बाँसुरी बजाता था।"

उसकी बात सुन कर गणेश आश्चर्यचकित हो गया और चलते-चलते रुक गया है- " मेमशाव, आपको कैसे पता?" उसको याद आया कि कल भी मेमशाव की तबियत खराब होने से पहले इन्होनें बैजू का नाम लिया था और फिर यकायक बेहोश हो गयी थीं।

"देखो गणेश दादा, यहीं पर बैजू बैठा करता था, कितनी मीठी बाँसुरी बजाता था वह? "

"मेमशाव शुना तो हमने भी है कि आप जो कह रही हैं वो शच है मगर यह शब आपको किशने बताया?" गणेश अब उसे ध्यान से देख रहा है और अपने सवालों के जवाब ढूँढ रहा है।

"मैं जानती हूँ दादा, वह हमेशा कहा करता था- 'मैं रहूँ न रहूँ मगर तुम मेरी बाँसुरी को कभी न भूल पाओगी'

रीमा बोले जा रही है और गणेश हतप्रत होकर सुन रहा है। उसे रीमा में कोई और नज़र आने लगा है जिसे वह व्यक्त नही कर पा रहा है-

"मेमशाव, आप ठीक तो हैं न?" उसने बात का रूख बदलने का प्रयास किया जरूर मगर कहीं-न-कहीं वह भी उससे डर रहा है।

रीमा इन सबसे अन्जान बस कहीं खोई हुई है वह अपने-आप में भी नही है। वह उसी पत्थर के करीब पहुँच गयी और उसे छू रही है- "बैजू...कहाँ हो तुम???"

क्रमश: