एक बूँद इश्क - 10 Chaya Agarwal द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • जंगल - भाग 2

     ----------------------- अंजाम कुछ भी हो। जानता हु, "शांत लह...

  • व्यवस्था

    व्यवस्था जंगल में शेर ने एक फैक्ट्री डाली... उसमें एकमात्र क...

  • तीन दोस्त - भाग 1

    एक घना जंगल जहां हरे भरे पेड़ों की कमी नहीं है और जंगली जानव...

  • दो बातें

    हेल्लो और नमस्कार!     मैं राहुल नर्मदे, आज कोई कहानी लेकर न...

  • अंधेरे का बंदी

    रात का सन्नाटा गहरा और भयानक था। हवा में अजीब सी ठंडक थी, जो...

श्रेणी
शेयर करे

एक बूँद इश्क - 10

एक बूँद इश्क

(10)

"डिनर में क्या लोगे परेश? रीमा ने काफी पीते हुये पूछा।"

"तोरई की दाल और रोटी विद स्वीट डिश काउंटर पर नोट करवा दिया था डार्लिग" कहते हुये परेश ने रीमा को एक बार फिर से अपनी गिरफ्त में कस लिया।

अचानक इतना प्यार देख कर रीमा आश्चर्यचकित है-

"क्या बात है परेश? आज सूरज पश्चिम से निकला है क्या? इतना प्रेम तो कभी न देखा? हनीमून पर भी नही?"

जवाब में परेश मुस्कुरा दिया-

"जिन्दगी में हर चीज पहली बार ही होती है। समय पर जाग जाना एक सफल इन्सान के लिये फायदेमंद होता है।"

'आज फिर फायदे की बात?' रीमा कसमसा उठी। 'करीब होकर भी करीब कहाँ हो तुम? प्रेम को भी व्यापार समझ बैठे हो परेश?' वह बुदबुदाईं।

परेश की बाँहों का घेरा कितना असली है ये पता लगाना मुश्किल था। फिर भी झूठा या सच्चा जो भी हो उसका यह अभिनय सुखद था।

उसके बालों में ऊँगलियाँ फेरते हुये परेश एक दम शान्त है। न तो उसके चेहरे पर विजनेस की उड़ान है और न ही लगातार चलती फोन कॉल्स। सब कुछ जैसे थम सा गया है। क्या इसकी बजह रीमा की कहानी है? या उसकी फिक्र? या फिर रीमा को खोने का डर? पता नही यहाँ आते ही परेश को क्या हुआ है? उसने खुद को कभी इतना कमजोर नही पाया है। पिता की मौत के वक्त भी नही, तब बड़े भय्या ने कन्धें पर हाथ धर कर दौड़ने का साहस दिया था और कहा था- 'चल, हम साथ दौड़ेगें, गिरने नही दूँगा मैं तुझे, और मैं लड़खड़ाऊँ तो तू संभाल लेना।' बस एक-और-एक ग्यारह हो उड़ चले।

आज परीक्षा का दूसरा इम्तहान है। इसे भी उसी हिम्मत से पास करना होगा।

एक झटके से वह उस ज्वार भाटे से बाहर आ गया- 'नही...मैं यह किस रास्ते पर जा रहा हूँ? मैं आम इन्सान नही हूँ। यह मूर्खों जैसा बर्ताव मुझ पर शोभा नही देता। इतना बड़ा एम्पायर ऐसे ही नही खड़ा किया। कितना तपाया है तन और मन को? कितनी इच्छाओं को स्वहा किया है? तब जाकर हासिल हुई है यह सपनों की मंजिल। मैं मंजनू की तरह मिटना नही चाहता, हाँ फर्ज से पीछे हटना कायरता है जो मैं कभी नही करूँगा। रीमा मेरी पत्नी है मेरी जिम्मेदारी है उसे अच्छे- से -अच्छे डाक्टर को दिखाना होगा। उसके इलाज में कोई कोताही नही बरती जायेगी। मगर, क्या रीमा को इसकी जरूरत है? क्या डॉक्टर उसे ठीक कर सकता है? जैसा गणेश ने बताया, उस हिसाब से वह मानसिक रोगी हो सकती है क्या?'

"परेश, क्या सोच रहे हो?" अचानक रीमा ने उसके विचारों की श्रृंखला को तोड़ दिया।

परेश का मौन सिर्फ मुस्कुराहट में बदला है। उसने उसका माथा सहलाते हुये उसे आराम करने का संकेत दिया- "आराम कर लो डिनर टाइम पर उठा दूँगा।"

रीमा उसकी नजदीकी पाकर अलसाई पड़ी रही। उन दोनों के बीच एक कशमकश सी है क्या बात की जाये और खामोश भी कैसे रहा जाये? रीमा तो जिक्र करना चाहती है अपने दिल की हलचल का....यहाँ की खुशबू का....नजारों से जुड़ाव का.....उस बाँसुरी की तान का....अपने मानस पटल पर उभरती उन अनचाही तस्वीरों का......तस्वीरें?? याद आते ही वह विचलित हो गयी। वह उठ कर बैठ गयी और परेश का उसके माथे पर रखा हुआ हाथ कस कर पकड़ लिया-

"परेश, कुछ अजीब सी आकृतियां हैं जो हर वक्त मेरा पीछा करती हैं। सोते -जागते, उठते-बैठते चैन नही आता और....और कल जब मैं नदी किनारे गयी तो पता नही क्या हुआ?....." रीमा कहते-कहते कुछ याद करने की कोशिश कर रही है। मगर कुछ भी याद नही, बस इतनी ही अनुभूति है कि जीवन में कोई बड़ा तूफान है जो उसे जीने नही दे रहा है-

"परेश, मेरे साथ यह क्या हो रहा है? मेरा मन चैन में नही है....." वह घबराई हुई सी परेश के लिपट गयी।

"डोंट वरी डियर, यू आर ब्रेव... इन छोटी-छोटी चीजों से यूँ घबरा जाओगी। कुछ नही होगा मैं आ गया हूँ न?" उसने रीमा को अपने सीने पर कस लिया- 'लेकिन यह कौन सी तस्वीरों की बात कर रही है? क्या अभी पूछना सही होगा? लेकिन इसके अन्दर चीजें भरे रहना भी सही नही है-

"कैसी तस्वीरें रीमा? तुम किन तस्वीरों की बात कर रही हो?" परेश ने उसकी पीठ को सहलाते हुये प्यार जताया।

"कुछ अजीब, अन्जाना सा है..कभी लगता है सब जाना-पहचाना है मगर अपनी बात को सही-सही बता पाना मुश्किल हो रहा है। परेश! उन तस्वीरों में एक लड़की भी है जो बिल्कुल मेरी हमशक्ल है। मैंने गणेश दादा से पूछा भी था मगर वह नही जानते ऐसी किसी भी लड़की को......फिर वह कौन है ? क्यों मेरे सामने आती है बार-बार? क्यों मैं विचलित हो जाती हूँ? परेश, मुझे बाहर निकालो इन सबसे, मैं सुकून चाहती हूँ। इन वादियों में रहना चाहती हूँ शान्ती से। शहर की आपाधापी को छोड़ कर इसीलिये तो आई थी यहाँ पर....मगर.....? "

"कुछ नही जान, वह सब तुम्हारा बहम है और कुछ नही...कहते हैं जो चीज इन्सान को बहुत भा जाती है उससे रिलेटिड पाजिटिव या कभी-कभी नगेटिव थाटस खुद-व-खुद दिमाग पर छा जाते हैं। मसलन, कुछ बनावटी कहानियाँ, कोई दृश्य, कोई फिल्म का सीन, जो कभी पास्ट में देखा हो सब मिल कर एक नई कहानी बड़ी कुशलता से गढ़ लेते हैं और व्यक्ति उसके केन्द्र में स्वयं को खड़ा होने की कल्पना करने लगता है।"

परेश ने उसे तनाव मुक्त करने के लिये मन -गढ़त क्या कहा उसे भी नही पता, वह तो बस इतना चाहता है उन घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। उन दृश्यावलोकन के रास्तें किसी तरह बंद हो जायें। वह एक मनोचिकित्सक की भूमिका निभा रहा है। ताकि रीमा को बाहर निकाला जा सके। वैसे जब से वह आया है इन दो घण्टों में वह बिल्कुल सामान्य ही लग रही है। अब यहाँ ज्यादा रुकना ठीक नही होगा। हमें जल्दी-से -जल्दी दिल्ली के लिये निकलना होगा। डा. कुशाग्र से अपाइंटमेंट भी तय हो चुका है।

"रीमा, हम कल सुबह-सुबह यहाँ से निकल लेगें। सब ठीक है जायेगा। हम रात को ही पैकिंग कर लेते हैं। कल शाम तक दिल्ली पहुँच जायेगें। वैसे भी दो दिन शहर से बाहर होना बड़ा नुकसान खड़ा हो सकता है। स्टाफ पर भरोसा नही किया जा सकता। उठो, हाथ मुँह धो लो फ्रेशनेस आ जायेगी।"

"वाट...?? हम कल ही जायेगें? नही..नही..परेश कल नही ..परसो, एक दिन रुक जाओ प्लीज। हर वक्त भागमभाग, जरा जी कर तो देखो यहाँ ....कितना सुन्दर है यहाँ का पत्ता-पत्ता? कितना रस है इन फिजाओं में?...एक बार मेरी बात मान लो "

रीमा का आग्रह भरा स्वर परेश को साल रहा है। वह उसे दुखी करना नही चाहता दूसरे वह यह भी नही चाहता कि कोई और मुसीबत खड़ी हो। स्तिथी को कैसे नियंत्रण में किया जाये वह जानता है-

"रीमा मेरी एक शर्त है, मैं रुक जाऊँगा कल, और परसों चलेगें दिल्ली लेकिन फिर तुम दोबारा कभी नही आओगी यहाँ.."

सुन कर रीमा सन्न रह गयी। उसका तो दिल जैसे टुकड़े-टुकड़े हो बिखर गया। खुद को लुटा हुआ सा पाकर दिल धौकनी सा धड़कने लगा। जैसे उसका कलेजा कोई निकाल कर ले जा रहा हो-

"यह कैसी शर्त है परेश? क्या तुम नही जानते मेरे इस जुड़ाव को? मैंने कभी तुमसे किसी चीज की डिमांड नही की, न कभी कोई ख्बाइश जताई.....तुम जानते हो यहाँ आना मेरे सपने के पूरा होने जैसा है...क्या तुम यह भी छीनना चाहते हो? यह कैसी सजा है?"

"मेरी दूसरी बात सुने बगैर ही नाराज होने लगीं , पहले सुन तो लो...अगर हम कल यहाँ से निकल जायेगें तो दोबारा फिर आयेगें, उस बार मैं भी आऊँगा साथ में...अब बताओ तुम्हें क्या मंजूर है? "

उदासी की परत छिटक कर दूर जा गिरी। वह खुशी से चहचहा उठी-

"सच में, हम साथ में आयेगें यहाँ? तुम घूमोगे मेरे साथ? नीचे नदी पर चलोगे न? मैं तुम्हें काबेरी काकी और शंकर दादा से भी मिलवाऊँगी, और उस बाँसुरी को भी सुनवाऊँगी जो रोज सुबह दूर पहाडियों के पीछे से कोई बजाता है। मैंने बहुत ढूँढा परेश, पर वह नही मिला मुझे। हम साथ में मिल कर ढूँढेगें उसे। कितना सुखद होगा ..अभी से सोच कर मन रोमान्चित हो उठा है।"

"ठीक है, जैसा तुम चाहती हो सब वैसा ही होगा। अब एक काम करो फटाफट अपनी पैकिंग कर लो। मैं भी थोड़ा आराम कर लूँ। कल फिर पूरा दिन तक ड्राइविंग करनी है।"

शाम हो चली है। परेश बिस्तर पर औंधा लेटा है। रीमा ने उसे यूँ ही लेटे रहने दिया। वह भी चाहती है उसकी थकान उतर जाये। लेकिन यह नही कि पूरी शाम ही बर्बाद कर दी जाये। वैसे उसका दिल चाह रहा था आज शाम कुछ रोमांस किया जाये। कहीं घूमने जाया जा सकता है। बहुत दूर न सही आस-पास ही सही। मगर परेश का मूड देख कर वह चुप रह गयी। इतनी खूबसूरत जगह पर आकर खुद को चाहरदीवारियों में कैद कर लेना व्यक्ति के स्वभाव का विश्लेषण कर सकता है। यहाँ किसी कठोर स्त्री का स्वभाव भी इससे अलग होगा।

प्रेम पुरुष के लिये स्त्री को पा लेने भर से पूर्ण हो जाता है। उसके लिये सुख का साधन मात्र है जिसे वह अपनी आवशयकतानुसार पा लेगा, मगर स्त्री वह सारी वर्जाओं को लाँघ कर प्रेम करती है और उम्र भर कभी पूर्ण नही होती, बगैर देह को पाये स्थूल प्रेम स्त्री के लिये कठिन नही है। उसके लिये प्रेम, प्रेम है कोई साधन नही। हाँ अगर चाहत अपने भिक्षु रूप में आ भी जाये तो भी वह पुरुष पर अधिकार नही जतायेगी वरन उसकी स्वेच्छा पर निर्भर रहेगी।

उन हाथ से फिसलती इच्छाओं को रीमा खुली आँखों से देख रही है जो बाहर भी हैं और भीतर भी।

क्रमशः