एक बूँद इश्क
(18)
मां परेश और मयंक के बीच लंबा वार्तालाप चला शुचिता जहाँ पर खामोश खड़ी है। आग तो वह लगा ही चुकी थी अब तो बस आने वाले अपने सुनहरे दिनों के बारे में सोचकर झूम रही है। कोई भी मानने को तैयार नहीं कि परेश सच बोल रहा है सभी को लग रहा है कि वो रीमा को बचाने की कोशिश कर रहा है यही समय है जो शुचिता के लिए बहुत आनंददाई है और यही तो वह चाहती है उस का सपना साकार होने जा रहा है वह खुश है। कोयले को जितना भी तोड़ो तो काला ही निकलेगा शुचिता अपनी नाटकीय भूमिका में प्रखर हो बोली-
" अगर रीमा से गलती हो गई है तो तलाक दे दो परेश तुम्हें तो बहुत लड़कियां मिल जाएगी रीमा से भी अच्छी, फिर क्यों रीमा के पीछे पड़े हो? ऐसी औरत को रख कर क्या करोगे जो तुम्हारी है ही नही?" शुचिता के जहर ने उस कमरे की आबोहवा को जहरीला कर दिया था सभी के मन में कड़वाहट भर गई थी और सभी लोग परेश के खिलाफ खड़े हो गए थे। मां ने भी साफ-साफ कह दिया-
"हमें ऐसी बहू नहीं चाहिए जिसका चरित्र ही मैला हो, जो पतिव्रता ना हो। दुनिया कितनी भी मॉडर्न हो जाए लेकिन भारतीय सभ्यता भारतीय ही रहेगी उसे कोई नहीं डिगा सकता।"
परेश ने लाख समझाया कि पिछले जन्म की यादें हैं जो वह भूली नहीं है रीमा आज भी पवित्र है वह आज भी मुझे उतना ही प्यार करती है लेकिन उसकी इस बात पर मयंक ठठाकर हंस पड़ा और कहने लगा-
" परेश पत्नी भक्त तो बहुत देखे हैं पर तुझ जैसा नहीं इक्कीसवीं सदी में तू आज पुनर्जन्म की बातें कर रहा है और तुझे लग रहा है कि हम सब तेरी बातों में आ जाएंगे। धिक्कार है तुझ पर.......एक पत्नी के लिये तू अपनी माँ और भाई को गुमराह कर रहा है?"
" भैया आप यकीन करें रीमा बीमार है उसे हम सबके सहारे की जरूरत है अगर हम सब ने उसको अकेला छोड़ दिया तो वह टूट जाएगी मैं आपसे वादा करता हूं इस सच्चाई को आपके सामने लाकर रहूंगा बतौर सबूत मैं सबको बताऊंगा कि रीमा गलत नहीं है उसके साथ प्रकृति ने एक मजाक किया है।"
" हर पीला रंग सोना नहीं होता परेश खूबसूरत औरत चरित्रवान हो यह जरूरी नहीं फिर रीमा के तो शुरु से तेवर ही अलग है कहाँ टिकता है उसका पैर घर में तेरे बगैर ही कोसानी नहीं चली गई घूमने, शुचिता जा सकती है क्या मेरे बगैर?"
" आप अच्छी तरह जानते हो मेरे स्वभाव को भैया मैंने कभी किसी पर बंदिशे से नहीं लगाईं, सबको अपनी जिंदगी जीने की पूरी स्वतंत्रता है, मुझे भी, यही बात मैंने रीमा पर भी लागू की, तो बुरा क्या है? वह जाना चाहती थी और मुझे वक्त नही था बस, इतनी सी बात है.......और फिर वह मेरे न जाने से खुश नही थी....खफा रही वो मुझसे ...और मै नही गया तो अपने विजनेस के लिये...अपने इस घर के लिये.....आपके लिये....आप अकेले कैसे संभालेगे?"
काफी देर से ऊहापोह से घिरी माँ बोल पड़ी-
"शायद परेश ठीक कह रहा हो?"
माँ के बोलते ही शुचिता के तन-बदन में आग लग गयी। वह कसमसा कर रह गयी। उसका तो सारा खेल ही निबट रहा है।
" सुना तो मैंने भी है। बचपन में तुम्हारी नानी कहानी सुनाया करती थीं- ' पड़ोस का बनवारी पिछले जन्म में नाई का बेटा था। जैसे-जैसे वह बड़ा हुआ दौड़े छूटे नाई की दूकान पर भागने लगा बस यही कहता-' यही मेरे बाबा हैं मैं तो यही रहूँगा। लाख समझाया मगर वह न माना और बीमार पड़ गया। डाक्टर भी कुछ न कर पाये। हार कर बनवारी को नाई के घर सौपना पड़ा। मगर नाई भी भला मानस था अन्दर-ही-अन्दर कलखता मगर उसने बनवारी का मन बदलने में बड़ा सहयोग किया। और फिर धीरे-धीरे बनवारी ने अपना यह जन्म स्वीकार किया। भगवान न करे कहीं ऐसा ही रीमा के साथ तो नही हो रहा?"
"मेरे हिसाब से तो यह सब दकियानूसी बातें हैं...अब कहाँ यह सब?? बेसब्र शुचिता ने भीतर की आग उगल ही दी।
" मां जो कह रही है वह ठीक हो सकता है मगर इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं।" मयंक ने तर्क दिया।
" यह बढ़िया है इश्क रचाओ और साबित कर दो यह कहानी तो पुनर्जन्म की है हा हा हा हा हा।" इस बार शुचिता पूरी तरह कुटिलता से भर चुकी है।
" सुचिता तुम घर की बड़ी बहू हो ऐसे हालात में तुम्हारा हंसना शोभा नहीं देता अपनी जिम्मेदारी को समझो और गंभीरता से बात करो।"
माँ की डपट से शुचिता तिलमिला गयी। अब उसका वहाँ खड़े रहना अपमानजनक था। वह यह कह कर निकल गयी- "आप सब के लिये चाय लाती हूँ।"
वास्तव में उस कमरे का माहौल कसैला हो चला, कटुता का धुआं उठ कर बाहर आने लगा। परेश ने उस बहस को विराम देने के लिये अपना पक्ष रखा-
" माँ, मैं रीमा को लेकर कल कौसानी जा रहा हूं डॉ कुशाग्र ने कहा है कि यही एक उपाय है जहां से वह ठीक हो सकती है अपनी दुनिया में वापस लौट सकती है उम्मीद करता हूं आप लोग मुझे सहयोग करेंगे लेकिन मैं भाभी से हाथ जोड़कर विनती करता हूं कि वह इस परिपेक्ष में रीमा से कोई बात ना करें।"
उस कमरे में रईसाना खामोशी है। मयंक और माँ से मौन सहमति लेकर परेश उठ खड़ा हुआ।
एक तरफ रीमा की मानसिक स्तिथी तो दूसरी तरफ परिवार का उपेक्षित रवैया, परेश को आज पहली बार कमजोर कर रहा है। यह तो वह पहले ही जानता था कि परिवार रीमा को नही समझेगा इसीलिये वह सबसे दूरी बनाये हुआ था मगर ये शुचिता भाभी भीतर से इतनी ईर्ष्यालु निकलेगीं उसे नही पता था। जो भी हो अब तो मुझे जल्द -से -जल्द कोसानी निकलना होगा देर करना उचित नही।
"हैलो... परेश, कल तुम लोगों का क्या प्रोग्राम है? जा रहे हो न कोसानी? " दिव्या ने परेश को फोन कर हाल जानने की कोशिश की।
"हाँ दिव्या, हम लोग सुबह निकल जायेगें। बस अभी कुछ पैकिंग करनी है, बताओ प्लीज क्या-क्या सामान रखना ठीक होगा? मुझे तो कुछ खास आइडिया ही नही।"
"मैं अभी तुम्हें पूरी लिस्ट बना कर वाटस एप करती हूँ। हाँ ये बताओ मेरी जरुरत है तो मैं साथ चलूँ?" रीमा ने बिल्कुल एक माँ की तरह कहा, जिसे सुन कर परेश का हौसला बढ़ गया। अभी ही तो वह खुद क़ो टूटा सा महसूस कर रहा था। सच कहा है किसी ने-'डूबने वाले को तिनके का सहारा ही बहुत होता है।'
लिस्ट से मिला कर परेश ने सारा सामान पैक कर लिया...दवाइयां, कपड़े, लिपिस्टिक, स्लीपर, चार्जर.....बगैहरा...बगैहरा...। इस बीच शुचिता डिनर के लिये बुलाने जरूर आई थी मगर उसने पैकिंग में मद्द की कोई बात नही की। करती भी क्यों? वह तो अपनी चाल धाराशायी होने से झटपटाई हुई है।
चलने से पहले कुशाग्र से बात करना जरुरी है इसलिये परेश ने दवा से लेकर रीमा की देखभाल और आगे के हर स्टैप की जानकारी भी ले ली। कुशाग्र ने साफ-साफ कह दिया- 'जल्दीबाजी नुकसानदेह हो सकती है। विजनेस की चिन्ता छोड़ दो और तुम्हें सिर्फ रीमा पर अपना सौ प्रतिशद देना होगा। जब तक वो न चाहे वापस मत आना। जी लेने दो जी भर उसे...जब खुद चाहेगी..समझ लेगी तभी अन्दर से स्वीकार पायेगी वर्तमान को। वही मनोदशा स्थाई होगी। ऐसे केस में रोगी मानसिक तौर पर बहुत भावुक हो जाते हैं। जिस तरह शीशा टूटने पर दोबारा नही जोड़ा जा सकता उसी प्रकार संवेदनायें पुन: नही सहेजी जा सकतीं, .....वैल आई नो, यू विल ऑल वी एविल टू डू वैल....."
डा. कुशाग्र की बातों को ध्यान रखना उसकी जिम्मेदारी भी है और मजबूरी भी।
परेश कमर कस कर ही निकल रहा है। मयंक को बता दिया है - 'वह कितना समय रुकेगा कुछ पता नही है। जरुरत हो तो फोन पर बात की जा सकती है।
इस बार परेश ने पहले वाली गलती नही दोहराई है। ड्राइवर को भी साथ ले लिया है। बाबूराम उसका पुराना और वफादार ड्राइवर है। एक परिवारिक सदस्य...घर की अधिकांश बाते उससे छुपी नही हैं। सो रीमा को लेकर चिन्तित होने वाली कोई बात नही है। वैसे भी रीमा उनकी बहुत चहेती बन गयी है। पूरा घर उसे 'बाबूराम' कह कर पुकारता है मगर रीमा ने हमेशा चाचा जी कह कर ही संबोधित किया। इस बात का उन पर इतना प्रभाव उनकी आँखों में साफ दिखता है वह जब भी गाँव जाते रीमा के लिये अपनी गाय का बना शुद्ध घी, अपने बाग के कटहल और आम लेकर आते। रीमा ने भी बड़े आदर से उसे स्वीकार किया। आत्मिक रिश्ता बनाने के लिये धन नही सम्मान की जरुरत होती है।
फिर भी, परेश ने इस बार जाने से समय गणेश, काबेरी और शंकर के लिये कुछ उपहार खरीद लिये हैं। काबेरी के लिये गैस का चूल्हा.... रीमा ने बताया था कि काबेरी काकी मिटटी के चूल्हें पर खाना पकाती है , यह बात परेश को याद थी और....बच्चों के लिये कपड़े, किताबें और मिठाइयां... गणेश के लिये एक छोटा सा मोबाइल और आरामदायक जूते ...शंकर के लिये हाथ घड़ी।
इन उपहारों का मकसद केवल आत्यमियता बढ़ाना ही है। अब कर्ज उतारने जैसे भाव नही रहे परेश के दिल में.....उसने कुछ हद तक खुद को, रीमा की तरह पाया...वह भी अब वैसे ही भावुकता में बहने लगा है। कठोर व्यक्तिगत अपना खोल छोड़ने लगा था। इसका कारण परिवार की बेरुखी और गणेश, शंकर, काबेरी का निस्वार्थ अपनत्व भी है।
गणेश को आने की सूचना भी दे दी गयी है। वहाँ सभी बेतावी से इन्तजार कर रहे हैं। उन्होनें रीमा और परेश के लिये कमरें को अच्छी तरह तैयार करवा दिया है, और एक कमरा बाबूराम के लिये भी।
"परेश हम कितनी देर में पहुँचेगें? गणेश दादा, काबेरी काकी और शंकर दादा हमारा इन्तजार तो कर रहे होगें न? क्या हम फिर से जायेगें उनके घर? क्या हम नदी किनारे भी जायेगें परेश?.....फिर से उन वादियों का स्पर्श कर पाऊँगी मैं?.....मैं....अपने बैजू से इस बार जरुर मिलूँगी....तुम मिलवाओगे न परेश?" रीमा बिल्कुल बच्चों की तरह निवेदित आग्रह कर रही है। ऐसे ही कौतूहल से भरे सवालों को करती हुई रीमा रास्ते भर उत्साहित रही। उसके अन्दर एक गजब का परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है। जबकि दिल्ली में वह एकदाम बेजान और मुरझाई हुई सी थी।
परेश ने उसे खुद से सटा कर लिपटा लिया। वह उसके इस अबोध रुप को निहारता हुआ कभी उसके बालों को सहलाता तो कभी उसके माथे पर चुंबन अंकित कर देता।
क्रमशः