एक बूँद इश्क - 17 Chaya Agarwal द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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एक बूँद इश्क - 17

एक बूँद इश्क

(17)

"परेश यह बैजू कौन है? रीमा से उसकी मुलाकात कहाँ और कैसे हुई? जल्दी से सारी बात बताओ मुझे?" दिव्या बगैर किसी भूमिका के तड़ातड़ सवालों से उसे पाटने लगी।

"रीमा बैजू से प्रेम करती है अथाह प्रेम..वो दोनों एक दूसरे को बेइंतहा प्रेम करते हैं। उनका प्रेम गंगाजल की तरह पाक है दिव्या.." परेश गंभीर है वह सब साफ-साफ बता रहा है बगैर किसी लाग -लपेट के।

"यह क्या कह रहे हो तुम परेश? व्हाट ए स्टुपिट एक्ट??? रीमा ऐसा कैसे कर सकती है? वह ऐसी लड़की नही है परेश...मैं उसे अच्छी तरह जानती हूँ। कालेज टाइम में बहुत से लड़के उसे चाहते थे मरते थे उस पर मगर रीमा ने मजाक से ऊपर कभी नही लिया उसे...वह चाहती तो तब अफेयर रख सकती थी? कौन रोकता???"

बगैर साँस लिये दिव्या बोलती जा रही है। वह अक्रामक हो गयी है। उसे दिव्या पर क्रोध आ रहा है या हालात पर यह कहना तो मुश्किश होगा मगर यह सच है कि उसकी संवेदनाओं के बीज चटखे जरुर हैं जहाँ से अपनत्व चोटिल है मगर उसे अभी भी रीमा पर पूरा भरोसा है।

"दिव्या, रीमा आज भी वही है उतनी ही पवित्र है। उसने कोई गुनाह नही किया, शी इज नॉट बैड.....यह तो हालात हैं जो क्रूर हो गये हैं।"

"आई एम नॉट रेडी टू एक्सैप्ट दिस.....मैं कैसे मान लूँ ? यह असंभव है परेश, और तुम क्या कह रहे हो मुझे कुछ भी समझ में नही आ रहा....।"

"बैजू उसका अतीत है, शायद पिछले जन्म का प्रेमी"

"व्हाट??? यह क्या बकवास है ....और तुम ऐसी बातों पर यकीन करोगे मैं सोच भी नही सकती? वो भी आज के जमाने में? यह कोई जोक है शायद?"

"दिव्या आई एम सीरीयस.....इटस नॉट फन.... डा. कुशाग्र जो कि एक बेहतरीन न्यूरोलॉजिस्ट हैं उनका भी यही कहना है।"

"परेश सच में मुझे अपने कानों पर यकीन नही हो रहा है। यह कैसे संभव है?"

"जो भी हो पर यह सच है और यह सच प्रूफ भी हो चुका है। इसीलिये मैं रीमा को लेकर कोसानी जा रहा हूँ। ताकि रीमा खुल कर उस अतीत से बाहर आ सके। कुशाग्र की यही राय है। हाँ थोड़ा सा रिस्क जरुर है मगर इसके सिवाय और कोई रास्ता भी नही है।"

"मैं चलूँ क्या साथ में?" दिव्या उदासी के घेरे में है।

"नो टेंशन, मैं हूँ न...अगर जरुरत पड़ी तो बेशक बुलाऊँगा...तुम ही हो जिस पर मैं आँख मूँद कर विश्वास कर सकता हूँ। "

बातचीत अभी चल ही रही है कि शुचिता ने आकर जैसे शान्त पानी में कंकड डाल दिया हो। उसने बातों का कुछ अंश जरुर सुन लिया है, जिसकी मद मस्तता उसके चेहरे पर साफ दिखाई दे रही है-

"हमसे क्या छुपा रहे हो परेश? हम तो हमेशा तुम्हारे साथ हैं तुम यकीन करो या न करो।" वह बनावटी गुस्साई।

परेश ने उसे यह कह कर फुसला दिया कि- 'रीमा को बुरे और डरावने सपनें आते हैं। जिसकी बजह से वह परेशान है।'

शुचिता कितना समझी?...कितना कयास में उलझी? यह सब सोच कर वह उलझना नही चाहता। अब हाथ से निकली हुई बाजी जीती नही जा सकती...देखा जायेगा...भाभी क्या कर लेगी?? ज्यादा-से-ज्यादा झूठे किस्से बना कर फैलायेगी....।

परेश खुद को किसी नई टेंशन में डालना नही चाहता। दिव्या रीमा के पास चली गयी और परेश ऑफिस निकल गया।

रीमा ने अपना सारा दर्द दिव्या के सामने उड़ेल दिया। कोसानी की यादें...बाँसुरी की मीठी तान...चिड़िया का कमरे में बार-बार आना....गणेश, शंकर और काबेरी का स्नेह...वहाँ का सौन्दर्य जो उसे बाँध रहा है.....नदी किनारे का सुखद अहसास....वहाँ के रास्तों का परिचित होना.....सब कुछ दिव्या को बता दिया ...वह आँखें भर-भर ला रही है और यह कह रही है कोसानी ही उसका घर है...वहीं उसका सब कुछ है...उसका प्रेमी बैजू भी वहीं है....उसकी पूरी दुनिया ही वहाँ है फिर वह यहाँ दिल्ली में क्यों रह रही है?? उसे बहुत याद आ रही है वह उनके बगैर नही रह सकती.......अचानक रीमा सुबकते हुये दिव्या से पूछ बैठी है-

"दिव्या, क्या तू ले चलेगी मुझे? बोल....? मेरा यहाँ मन नही लग रहा है मैं पागल हो जाऊँगी....प्लीज ले चल मुझे..."

उसकी बातों ने दिव्या की आँखों को आँसुओं से भर दिया है। उसने उसके बालों को सहलाते हुये खुद को संभाला, वह भरभराई सी बोल पड़ी-

"परेश ने कहा है न कल या परसों तुझे लेकर जायेगा? फिर....क्यों परेशान होती है बोल?? बस दो दिन की बात है उसके बाद तू वहाँ पहुँच ही जायेगी। मैं जानती हूँ परेश अपनी बात का कितना पक्का है? वह जो कहता है उसे पूरा भी जरुर करता है। "

दिव्या लगातार उसे सांत्वना दे रही है। कैसी भी करके रीमा की हालत सुधर जाये बस ..उसे अपनी वही हँसती- खिलखिलाती सखि चाहिये.....बिंदास, हिम्मती और सह्रदयी।

दोनों घण्टों साथ बैठी रहीं। दिव्या का यही प्रयास रहा कि कैसे भी करके वह रीमा को सामान्य कर पाये। मगर आज रीमा उसकी वह पुरानी वाली सखि नही है वह तो बस किसी बैजू की प्रेमिका है जिसे न अपनी सुध है न समाज की...इतना असीम प्रेम कोई कैसे कर सकता है? इतना गहरा प्रेम कि मरने के बाद भी नही छूटा? अदभुत है यह ...बिल्कुल किसी फिल्म की कहानी जैसा...अब तो फिल्में भी ऐसे बिषयों पर नही बनती....यह सब तो साठ के दशक की बातें हैं..आज इक्कीसवी सदीं में कितने मायने है इन किदबंतियों के? सब कोरी बकवास न कहेगें?

"मैं ईश्वर से प्रार्थना करूंगी कि रीमा जल्दी ही अपनी वर्तमान दुनिया में वापस लौट कर आ जाए। फिर से हंसे मुस्कुराए और हमारे साथ बात करे। जिसमें तुम बैठी हो रीमा वह कागज की कमजोर नाव है जो तुम्हें तुम्हारी मंजिल तक नहीं पहुंचा सकती। तुम्हारी मंजिल तो कोई और है रीमा, बस थोड़ा धैर्य रखो यह कठिन वक्त भी जल्दी ही गुजर जाएगा। आखिर जिस शाख से तुम जुड़ी हो वह इतनी कमजोर नहीं कि कोई भी आंधी उसे उड़ा कर ले जाए। मेरी सखी तुम्हारा यह दुख मुझसे देखा नहीं जाता। अब यही समय है मुझे अपनी दोस्ती निभानी होगी परेश के साथ कंधे से कंधा मिलाकर मुझे खड़े होना होगा जब भी उसे या तुझे जरूरत होगी मैं हमेशा तुम्हारे साथ खड़ी रहूंगी। शायद यह मेरे भी इम्तिहान का वक्त है।"

रीमा के जख्मों का दर्द दिव्या को भी उतनी ही गहरी टीस दे रहा है जितना कि रीमा को, बचपन से लेकर अब तक हर सुख दुख में वह दोनों एक दूसरे का साथ निभाती आई है तो फिर अब कैसे छोड़ सकती है वह उसको अकेला? ' नहीं रीमा मैं तुम्हें कभी भी अकेला नहीं छोड़ सकती।'

' आज भी मुझे याद है कॉलेज के समय की बात जब फुटबॉल टीम का चयन हो रहा था तो तूने जानबूझकर अपनी पैर में मोच का बहाना कर मुझे जिता दिया था और मेरा सिलेक्शन हो गया था तू क्या समझती है कि मुझे कुछ पता नहीं है बस मैं चुप रही मैं तेरे त्याग को जाया करना नहीं चाहती थी। अपनी आंखों के पानी को मैंने छुपा लिया था मैं जानती थी अगर तूने मेरी भीगी आंखों को देख लिया तो तू कमजोर पड़ जाएगी रीमा उस दिन तेरी दोस्ती पर जो गर्व हुआ था ना मुझे उसे बताने के लिए शब्द नहीं है आज मेरे पास लेकिन आज मेरा वक्त है तेरे लिए कुछ करने का। बैजू तेरा अतीत था रीमा, जो कभी वापस लौटकर नहीं आएगा उसी तरह जिस तरह पतझड़ आने पर शाख से पत्ता गिर कर माटी में मिल जाता है और फिर शाख नये पत्तों को जन्म देती है। यह प्रकृति का नियम है जो लगातार वृत्त की तरह चलता है जिसकी उम्र पूरी हो गई उसे जाना पड़ता है और फिर नई कोपले आती है फिर से जीवन को हरा-भरा करती हैं बागों को सजाती हैं महक से भरती हैं पुरानों के लिए रोती नहीं है। तुझे भी अब अपना उपवन सजाना है महक से भर देना है कणकण को।'

सोच के समुंदर में डूबती तैरती दिव्या रीमा के करीब ही बैठी है उसका हाथ थामें उसे महसूस कर रही है। शायद छुअन का एहसास उसे उर्जा दे। ठीक उसी तरह जैसे बीमार बच्चे को उसकी मां का स्पर्श उसे ठीक कर देता है। मां बनना इतना आसान तो नहीं मगर हां ममता को पैदा करना उतना कठिन भी नहीं। सब दिल की गहराई का खेल है जो उतर गया वह गहरा डूब गया जो तैरा ऊपर ही तैरता रहा।

शाम को परेश के वापस आ जाने पर रीमा अपने घर लौट गयी यह कह कर कि' अगर वो लोग कोसानी नही गये तो उसे बेहिचक बुला लें।'

कहते हैं जब परेशानियों का दौर आता है तो अकेले नहीं आता अपने साथ तमाम धूल मिट्टी अंधड़ साथ लेकर आता है। घर में कोहराम मचा था सब जानते थे कि रीमा किसी बैजू नाम के लड़के को चाहने लगी है और उसी के प्रेम में बीमार पड़ी है जो सभी को सरासर नागवार गुजरा दरअसल शुचिता ने दिव्या और परेश के बीच चल रही बातचीत का जो भी अंश सुना था घर वालों को बता दिया। दुष्ट हमेशा सामने वाले व्यक्ति की खामियां तलाशता है ताकि वक्त आने पर वह उसे इस्तेमाल कर सके और कमजोर साबित कर अपनी सत्ता बना सके।

क्रमशः