Ek bund ishq - 16 books and stories free download online pdf in Hindi

एक बूँद इश्क - 16

एक बूँद इश्क

(16)

चार दिन गुजर गये। रोते-मनाते, सुनते-समझते रीमा बच्ची सी हो गयी है। वह रोती, हँसती रुठती और फिर उदास हो जाती। कभी कोसानी को मचलती, कभी नींद में बैजू को पुकारती तो कभी काल्पनिक बाँसुरी सुन इठलाती। यह सब असहनीय तो है ही साथ ही सबसे छुपाना भी है। माँ की उम्र नही एक ऐसी घटना को समझना जो वास्तविक तौर पर उनके आस-पास कभी न घटी हो। शुचिता की अन्दरुनी ईर्ष्या भी परेश से छुपी नही है। ऐसे में खामोशी ओढ़ लेना बेहतर है।

कुशाग्र से लम्बी और सौहार्दपूर्ण मुलाकात के बाद यही निष्कर्ष निकला है कि दवाइओं से उसकी याददाश्त कमजोर ही की जा सकती है बस, जो बहुत नुकसान देह है। दूसरे रास्ते हैं जहाँ से उसको बाहर निकाला जा सकता है बशर्ते उस पर ईमानदारी से चला जाये।

मसलन, धीरे-धीरे रीमा को उसके अतीत से बाहर लाया जाये। उसने अपने अतीत और वर्तमान को मिला लिया है। वह समझती है कि वह उसे पा सकती है। उसे लगता है अतीत बीता हुआ हिस्सा नही बल्कि आज में परिवर्तित होने वाला स्वर्णिम युग है जो वह जरूर जियेगी। यहाँ पर एक दोस्त बन कर उसे सच्चाई से रु-ब-रू कराना होगा बजाये उससे भागने के। उसे वर्तमान के गुणों में लिप्त होना होगा। प्रेम के बिन्दू को वृत्त बना कर ही जीता जा सकता है। यह वृत्त सिर्फ एक प्रेमी ही बना सकता है जो उसके अतीत में बसे प्रेमी से बड़ा प्रेमी हो। अच्छा होगा उसकी भीतरी प्रतिक्रियाओं, उथल-पुथल और उन सभी दृश्यों पर बात करना, जिन्हें देख कर वो आह्वलादित है।

अच्छी बात यह है कि वह परेश से नफरत नही करती, उसे बैजू का दुश्मन नही मानती इसका मतलब है वह वर्तमान से पूरी अनभिज्ञ नही है हाँ उसका स्वप्न अतीत के समक्ष धुँधला जरुर जाता है। अगर परेश का साथ उसे अखरता तो स्तिथी गंभीर होती। अब यहाँ पर उम्मीद की एक लौ है।

उसे फिर से उसी माहौल में ले जाया जाये जहाँ से वह विचलित होती है। उन्ही आकृतियों को बनने दो जो छुप कर आती हैं अब उन्हें रास्ता दे दो बाहर तक आने का। कई बार जहर को जहर ही काटता है। ज्वालामुखी जब तक भीतर है उबलता है बाहर आकर भी उबलता है मगर ठंडा भी बाहर ही होता है। अन्दर रह कर ठंडा नही हो सकता।

यादें यतीम कर दें उससे पहले ही उसे बाहर निकाल कर खत्म करना होगा। इसके लिये जल्दी ही दोबारा कोसानी की यात्रा की तैयारी, जो फिलहाल रीमा के लिये भी सुखद होगी और परेश का किया वायदा भी पूरा होगा जो उसने चलते वक्त रीमा से किया था..साथ में कोसानी आने का।

परेश ने उसे दवाइयों के साथ एक गिलास में गुनगुना दूध दिया जिसे शुचिता रख गयी थी। हाल-चाल लेने के बाद वह वापस लौट गयी।

आज सबेरे ही दिव्या आ धमकी। जब से उसने रीमा का हाल सुना है बेचैन है। वह अपनी सबसे खास सखि की ऐसी हालत नही देख सकती। फोन पर उसका रोना सुन कर उसका कलेजा काँप गया था। जैसे ही वह दिल्ली लौटी उससे मिलने आ पहुँची।

परेश बाहर निकल ही रहा है कि उसने दिव्या को देख लिया। वह उसे देख कर आश्वस्त है। वह जानता है कि दिव्या रीमा की सबसे विश्वास पात्र मित्र है। अब वह निश्चित होकर ऑफिस जा सकता है।

"आओ दिव्या, अन्दर आओ" उसने औपचारिक सत्कार किया।

"परेश तुम भी आओ न..ऑफिस थोड़ा रूक कर चले जाना।"

दिव्या का आग्रह न ठुकरा सका फिर, वही तो है जिससे रीमा के बारे में खुल कर चर्चा की जा सकती है।

रीमा उसे देख कर खुशी से चहक उठी। दिव्या ने बाँहें फैला दीं और दोनों यूँ ही कुछ देर लिपटी रहीं। दिव्या को समझ में नही आ रहा है कैसे अलग हो? क्यों कि रीमा ने उसे कस कर पकड़ रखा है और भावुक भी हो गयी है।

परेश ने स्तिथी को ताड़ लिया और रीमा को अलग कर लिटा दिया।

दोनों चुप हैं। क्या कहें? कैसे और कहाँ से शुरु करें? और पूछे भी तो क्या? फिर भी दिव्या ने झिझकते हुये पूछ ही लिया-

"आप लोग रुके नही कोसानी में?"

"हाँ हमें आना पड़ा, लेकिन अब जल्दी ही दोबारा जाने का प्रोग्राम बना रहे हैं।" परेश ने रीमा से आँखें चुराते हुये कहा।

"कोसानी......हम कोसानी जा रहे हैं परेश? क्या सच में हम जा रहे हैं? " रीमा खुशी से उछल पड़ी।

"हाँ रीमा अभी तुम दिव्या से बात करो, इस बारे में हम बाद में बात करेगें। मैं कुछ नाश्ता भिजवाता हूँ।"

"नही...परेश, बताओ न प्लीज..हम कोसानी कब जा रहे हैं?" वह बच्चों की तरह मचलने लगी है। दिव्या हतप्रत सी सब देख रही है उसे कुछ भी समझ में नही आ रहा है- 'आखिर रीमा को हुआ क्या है? कोसानी की रट क्यों लगाये हैं? मैं तो पागल हो जाऊँगी।"

"आप लोग मुझे कुछ बतायेगें? क्या हुआ है इसे और यह सब क्या है परेश? प्लीज जल्दी से बताओ मुझे?" दिव्या बेसब्र आग्रह कर रही है। वह रीमा को लेकर बहुत चिन्तित है। रीमा ही उसकी सबसे करीबी और आत्मिय सखि है जिससे वह जब चाहे जैसी भी बात कर सकती है। हर सुख-दुख, अपना-पराया, सब आपस में ही तो करती हैं, फिर रीमा की यह हालत हो गयी और उसे किसी ने खबर भी नही की? वह अन्दर ही अन्दर बेहद नाराज भी है। वह परेश से कुछ पूछती इससे पहले ही परेश ने उसे ईशारे से चुप करा दिया।

"रीमा हम जल्दी ही चलेगें, कल या परसों ..मैं वायदा करता हूँ..बस थोड़ा ऑफिस का जरुरी काम निबटा लूँ।" उसने प्यार से उसके हाथ को पकड़ते हुये कहा।

अब कमरें में रीमा और दिव्या अकेलीं हैं। परेश बाहर नाश्ते के लिये निकल गया है। लाख परेश ने मना किया हो मगर दिव्या का दिल नही मान रहा। उसकी सखि उससे कोई भी बात नही छुपाती फिर आज क्यों? उसने रीमा के बैड पर बैठते हुये उसके हाथ को कस कर थाम लिया-

"बता मुझे सब सच-सच क्या हुआ है तेरे साथ? " दिव्या हल्के गुस्से में है। उसकी नाराजगी जायज़ भी है। उसका पूरा हक़ है रीमा पर, आज की नही बचपन की सखियाँ हैं दोनों...फिर आखिर उसकी ही सलाह पर गयी थी वह...ऐसा क्या हो गया वहाँ? "क्या परेश ने कुछ किया है तेरे साथ बोल???"

एक -के-बाद एक सवालों की झड़ी लगा दी उसने।

"पता नही दिव्या मुझे क्या हुआ है? सच में मैं नही जानती, बस इतना जानती हूँ कि मेरा बैजू है वहाँ पर..मुझे उसके पास जाना है।" कह कर वह रूआँसी हो गयी।

"व्हाट?? कौन है बैजू? और...यह तेरा कौन है? बता मुझे सब?"दिव्या आश्चर्य और उत्सुकता से भर उठी।

"मैं उसे बहुत प्यार करती हूँ...वोह मेरा है ...मैं उसके बगैर नही रह सकती" वह सुबकती हुई बोलती जा रही है और दिव्या के पैरों तले जमीन निकल रही है- 'यह क्या किया तूने रीमा? शादीशुदा होकर किसी गैर मर्द के साथ......? तू ऐसा नही कर सकती क्या कमी है परेश में? जो तूने ऐसा कदम उठा लिया.? जरा भी न सोचा अपने घर के बारे में...अपनी ससुराल के बारे में...परेश के बारे में??? बोल दिव्या....बोल.."

दिव्या उसे झिझोंड रही है। रीमा बस रो रही है। उसने दिव्या के एक भी सवाल का जवाब नही दिया है। रीमा की खामोशी में किसी अनहोनी का संकेत है जिसका भयाभह सन्नाटा उसे चुभ रहा है।

परेश नाश्ता लेकर कमरे के भीतर आ चुका है। रीमा और दिव्या के बीच चल रहा शाब्दिक शिकायती युद्ध किसी परिचय का मोहताज नही है। वह दिखाई पड़ रहा है। लेकिन परेश के पास सिवाय चुप रहने के और कोई रास्ता नही हैं। वह अपनी सीमायें पहचानता है, उससे भी पहले रीमा की जिन्दगी में दिव्या थी, बचपन से थी उसकी अपनी अलग बैल्यू है, जिसके बीच में हस्तक्षेप करना उचित नही है। गलती तो उसकी ही है उसे पहले ही दिव्या को फोन करके स्तिथी से अवगत कराना चाहिये था। अब उसकी नाराज़गी जायज़ ही है।

दिव्या ने परेश की तरफ आभारी नजरों से देखा तो परेश ने आँखों से माफी माँगते हुये शान्त रहने का आग्रह किया। दिव्या सोच रही है -'परेश का दिल कितना बड़ा है? यह जानता है रीमा किसी बैजू नाम के लड़के को चाहने लगी है फिर भी......? मैं ही गलत हूँ। मुझे तो परेश का अनुग्रहित होना चाहिये। कौन मर्द अपनी पत्नी का अफेयर बर्दाश्त कर पायेगा? बावजूद उसके उसकी देखभाल भी.......मैं वास्तव में शर्मिंदा हूँ परेश.....मगर रीमा भी ऐसी-वैसी लड़की नही है...अचानक क्या हो गया उसे?'

"परेश क्या हम एकान्त में बात कर सकते हैं?" दिव्या ने हौले से फुसफुसा कर कहा।

सहमति दर्शा कर परेश कमरे से बाहर निकल गया। रीमा को सांतवना देकर दिव्या ने कहा- "मैं घर के बाकि लोगों से मिल कर अभी आई।"

क्रमशः

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