Ek bund ishq - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

एक बूँद इश्क - 15

एक बूँद इश्क

(15)

आज सुबह-सुबह परेश के फोन की घण्टी बज उठी। गणेश का फोन है-

"शाब, रीमा बिटिया कैशी हैं? जब शे गयीं हैं कोई खबर ही नही..हम शब को बहुत याद आती हैं उनकी"

गणेश के फोन में न जाने ऐसा क्या है जिसने उसके शरीर में ऊर्जा का संचार कर दिया -

"हैलो गणेश...गणेश दादा, कैसे हैं आप? अच्छा लगा आपकी आवाज़ सुन कर....हाँ दादा, रीमा ठीक ही है, अच्छा तो नही कहूँगा।"

"क्या बात है शाब? बिटिया ....ठीक तो है न? हमने शंकोच में फोन नही किया..इन्तजार करते रहे, जब बिटिया ने शुध नही ली तो हमने कर लिया।"

"हममममम...रीमा का इलाज चल रहा है बीच में कुछ कहना मुश्किल होगा। संभव है हम जल्दी ही वहाँ आयें।"

"ये तो अच्छा है आप लोग यहाँ आने की शोच रहे हैं, हमारे लायक कोई काम तो नही?"

"नही...नही...ऐसा कोई काम नही है। डॉक्टर की सलाह लेनी होगी पहले.....दूसरे रीमा की इच्छा? "

"बिटिया शे बात हो शकती है क्या? हमनू उनके फोन पर जानबूझ कर नही किया। सोचा आपसे हालात जान लें पहले।"

"अभी रहने दीजिये, वह सो रही है दवा का नशा है। उठने पर मैं आपकी बात करवाता हूँ।"

शुचिता गर्म दूध और कुछ फल काट कर ले आई है। काफी देर उसके साथ कमरें में हाल-चाल लेती रही। माँ को पैरों की बजह से चलने में दिक्कत है फिर भी वॉकर घसीटती हुई जब-तब आकर हाल-चाल लेती रहतीं। माँ का आपरेशन भी होना है। सालों से चलने में दिक्कत है ऊपर से पेट में डेढ़ कि. की रसोली। अब आपरेशन कराना ही था तो इस परेशानी ने पैर जमा लिये।

परिवार का भरपूर सहयोग पर न जाने क्यों औपचारिक सा। जब से परेश कोसानी से लौटा है उसने इस बात को गहराई से महसूस किया। अभी गणेश के फोन की निस्वार्थ आत्मियता शक्कर घोल ही रही है कि ऐसे में परिवार के सदस्यों के बारे सोचना तुल्नात्मक तो है ही, एक नया अनुभव भी है। मेढक जब तक कुयें से बाहर नही निकलता उसी को ही अपनी दुनिया समझता है। कितना प्रेम है ? पैसा प्रेम नही हो सकता? पैसा साधन मात्र है विलासता का।

ऑफिस जाते समय परेश ने शुचिता को सब समझा तो दिया है मगर कहीं-न-कहीं उसे डर है कि अकेले में रीमा कुछ ऐसा न कह दे जो उसके चल रहे ट्रीटमेंट में रुकावट आ जाये, फिर शुचिता भाभी का क्या भरोसा? उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति को जानता है वह....खुद को बड़ा साबित करने के लिये वह कुछ भी कर लें। लेकिन अभी ऑफिस जाना रूटीन नही मजबूरी है। ऐसे में थोड़ा खतरा उठाना पड़े तो गुरेज नही।

रीमा ने आँख खुलते ही पूरे कमरे को अजनबी की तरह से देखा। उसे यह समझने में थोड़ा समय लगा कि वह कहाँ है? शुचिता सोफे पर बैठी अपने मोबाइल में लगी है। शायद कोई शार्ट फिल्म है जिसमें वह गहरे डूब गयी है, इतना कि उसे होश ही नही रीमा कब उठ गयी और बॉशरुम जाने की कोशिश कर रही है। दवाओं के नशे से उसकी चेतना पूरी तौर पर नही है। ऐसे में किसी का संभालना बेहद जरुरी है।

जिसका डर था वही हुआ, बिस्तर छोड़ते ही पैरों ने अपनी संतुलन खो दिया उसी तरह जैसे गहरी नींद से जागने पर होता है, वह लड़खड़ा कर गिर गयी। तब तक उसके माथे पर साइड टेबुल का किनारा लग चुका था। खून तो नही बहा लेकिन अन्दरूनी चोट से वह कराह उठी। शुचिता ने उसे संभाला और खुद को शर्मिंदगी से भरा पाया-

"रीमा, तुम अभी कमजोर हो अकेले नही उठना चाहिये था...मुझे आवाज़ दे दी होती।" बतौर सफाई अपनी बात कह कर वह उसकी चोट देखने का अभिनय करने लगी।

"मुझे क्या हुआ है भाभी? इतनी कमजोरी क्यों है? और परेश कहाँ है?" उसने एक साथ कई सवाल पूछ डाले।

"कुछ नही बस दवाओं का असर है, तुम ठीक हो जाओगी आराम करने को बोला है डॉक्टर ने" कह कर उसे सहारा दिया।

फ्रैश होकर रीमा लौटी तो सोच रही है-' दुनिया इतनी बदली सी क्यों है? पहले से कितना अलग? पहले का...??? पहले का कुछ याद क्यों नही?? और मैं बीमार कब हुई? क्या हुआ है मुझे?"

रीमा ने शुचिता से बहुत सारे सवाल किये मगर एक के भी जवाब से वह सन्तुष्ट नही हुई। फिर शुचिता ने भी कोई खास जद्दोजहद नही की। पहली बात तो उसे पता ही कुछ नही है दूसरा उसकी रुचि भी कम है रीमा में। बेशक रीमा के राज जानने में उसका पूरा ध्यान है वह भी सिर्फ अपनी सत्ता बनाने के लिये।

माथे पर बाम लगाने के बाद शुचिता उसके करीब ही बैठ गयी। उसके सवालों में रीमा की रत्तीभर भी रुचि नही और रीमा में शुचिता की, बस वहाँ साथ रहना एक औपचारिकता भर है।

अभी रीमा बैठी ही है कि उसका फोन घनघना उठा। स्क्रीन पर दिव्या का नाम फ्लैश हो रहा है। उसने हरे बटन को फुर्ती से स्वैप किया-

"हैलो डियर कैसी है तू?" दिव्या का चहकता हुआ स्वर गूँजा।

"आई एम फाइन" रीमा ने बगैर उत्साहित हुये कहा। वह निराश और उदास सी हो गयी। दर असल कोसानी का सारा प्रोग्राम दिव्य की मद्द से ही बना था। अब क्या जवाब देगी वह उसको?

"यह बुझे-बुझे से जनाब अच्छे नही लगते...क्या हुआ है तुझे? क्या कोसानी पसंद नही आया? या फिर...पतिदेव की याद सता रही है? "उसने शरारत की।

"कोसानी.....??? " रीमा तड़प उठी- "दिल्ली हूँ दिव्या"

"व्हाट??? तू तो कोसानी गयी थी न ? क्या हुआ??"

शुचिता के कान अपने फोन से हट कर उनकी बातचीत पर अटक गये हैं।

रीमा जवाब में रोने लगी और फोन उसकी गोद में पड़ा है जो चालू है उधर से दिव्या की आवाज़ लगातार आ रही है मगर रीमा बस रोये जा रही है।

शुचिता ने लपक कर फोन उठाया और यह कह कर काट दिया कि-' रीमा की तबियत ठीक नही।'

"क्या हुआ है रीमा? मुझे बताओ कुछ? उसकी जिज्ञासु इन्द्रियाँ जाग पड़ीं।

वह शुचिता से लिपट गयी- "भाभी, मुझे कोसानी जाना है।"

शुचिता के शक का कीड़ा बिलबिलाने लगा। भीतरी कौतूहल को छिपाते हुये उसने पूछ ही डाला- "तुम लोग कोसानी से लौटे ही क्यों?"

"पता नही भाभी, परेश यही चाहता था।" वह सिसक पड़ी।

जरुर दाल में कुछ काला है। क्या राज है पता लगाना ही पड़ेगा। उसने रीमा को कई बार उकसाया मगर वह बार-बार कोसानी जाने की रट लगाये है।

अचानक परेश आकर रीमा को संभाल लेता है- "भाभी, अब आप आराम कीजिये थक गयीं होगीं। मैं देख लूँगा रीमा को।"

शुचिता के हाथ आया खजाना जैसे लुट गया। वह कसमसाई सी मुस्कुरा दी और चली गयी।

क्रमशः

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED