सोलहवाँ साल (8) ramgopal bhavuk द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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सोलहवाँ साल (8)

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707 Email:- tiwariramgopal5@gmai.com

भाग आठ

कुछ दिनों में परीक्षा परिणाम निकल गया। मैं भी प्रथम श्रेणी से हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करली। पापा मेरी इच्छा को देखते हुए अर्थशास्त्र, नागरिकशास्त्र, इतिहास की पुस्तकें ले आये।

मैंने कन्या उ.मा.वि. डबरा में ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश ले लिया।

हमारा गाँव डबरा से तेरह किलोमीटर की दूरी पर है। गाँव से एक किलोमीटर की दूरी पर डबरा के लिये बस मिलती है। बस कन्या विद्यालय के पास ही उतार देती है। लौटते में भी स्कूल के पास से बस मिल तो जाती है, किन्तु सड़क से गॅांव आने के लिये एक किलोमीटर रोज पैदल ही आना पड़ता है।

पापा जी की इन दिनों दोस्ती डबरा थाने के टी.आई. साहब से हो गई। इस बात का फायदा उठाकर पापा जी ने विद्यालय के समय के अनुसार आने जाने बाली बसों के कन्डक्टरों से टी.आई.साहब से कहला दिया। अब बस चाहे कितनी ही भरी हो, मुझे लेकर ही आता है।

इस तरह मेरा इतना व्यस्त कार्यक्रम हो गया कि विद्यालय से लौटने में बुरी तरह थक जाती हूँ। रात खा पीकर किताबें लेकर बैठती हूँ कि नींद आ जाती है।

सो अब रविवार के दिन ही किताबें उठा पाती हूँ। मैंने, इतिहास की पुस्तक उठा ली है। उसे मन लगाकर पढ़ने लगी। इन दिनों याद आने लगा है, पिछली कक्षाओं में पढ़ा इतिहास। इस समय इतिहास पढ़ते समय मिश्र सर के शब्द याद आ रहे हैं -

‘‘राजवंशों का इतिहास ही इतिहास नहीं होता। प्रत्येक काल के जन जीवन के सामाजिक और आर्थिक परिवेश की कहानी भी इतिहास है। दुर्भाग्य यह है कि ये इतिहासकार राजवंशों और सामन्तों तक ही उसे संकुचित करके रह गये हैं।’’

मैं समय से घर से निकलती किन्तु, एक- डेढ़ घण्टे का समय जाने आने और बस के इन्तजार में एक तरफ से बरबाद हो ही जाता है। इस समय का सदुपयोग करने के लिऐ इतिहास की कुछ रोचक घटनाओं के बारे में सोचना शुरू कर दिया ।

कल नन्दनी मैंडम ने इतिहास पढ़ाते समय पृथ्वीराज चौहान का प्रसंग उठाया था, याद आ रही है वह दन्तकथा, जो इतिहास के पृष्ठों पर अंकित तो नहीं हैं किन्तु जन मन के हृद्य में इतिहास बन कर बैठ गई हैं। मोहम्मद गोरी ने सत्रह बार हारने के बाद जब अठारहवीं लड़ाई में जीत प्राप्त की तो चौहान की तरह दुश्मन को माफ नहीं किया बल्कि चौहान और उनके मंत्री चंद बरदाई को बंदी बना कर अपने देश ले गया। वहां पृथ्वीराज चौहान की आंखें फोड़ दी गयी और उनसे कहा कि अगर वे अपने शब्द बेधी बाण यानि आंख बंद करने भी किसी आवाज की दिशा में सही लक्ष्य पर बाण मार देने का हुनर भरे मैदान में दिखा देंगे तो उन्हे माफ कर दिया जायेगा।

शब्द भेदी बाण चलाने में पृथ्वीराज चौहान की सानी नहीं थी, इस कला के परीक्षण के लिए सुल्तान एक मकान की छत पर जा बठा और बाण चलाने हेतु इशारा किया तो चौहान के मंत्री चंद बरदाई ने यह दोहा पढ़ा था। नंदनी मैडम कक्षा में सुना रही थीं ।

चार बाँस चौबीस गज अंगुल अष्ठ प्रमान ।

ता ऊपर सुल्तान है सो मत चूके चौहान ।।,

दोहे में बताये गये संकेतों से अनुमान लगा कर पृथ्वीराज चौहान ने धनुष पर बाण चढ़ाया और छोड़ दिया, तेज गति से बाण चला और सीधा सुलतान की छाती भेद गया । यह जनश्रुति हिन्दुस्तान के बच्चों के मुख से सुनी जा सकती है । किन्तु इतिहासकार इस तथ्य को काल्पनिक तथ्य मान कर इसे इतिहास के पृष्ठों में सम्मिलित नहीं कर रहे हैं।

मैं सोचती हूँ - ऐसे तथ्य भले ही कोरी कल्पना हो किन्तु जनमानस के चित्त में समाये इन तथ्यों को हमें भूलना नहीं चाहिए। यह प्रसंग सेाचने में मुझे पता ही नहीं चला, कब बस स्टेण्ड आ गया ? कभी इस रास्ते चलते, मैं महाराणा प्रताप के लिए कही गयी ये पंक्तियाँ गुनगुनाती -

चढ़ चेतक पर तलवार उठा,

रखता था भूतल पानी को ।

राणा प्रताप सिर काट काट,

करता था सफल जवानी को ।

कभी हिन्दी भाषा के प्रसंग सिर पर चढ़ कर बोलने लगते- एक दिन आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखित निबंध ‘क्या निराश हुआ जाये ’ में कही गई बात ‘‘बुराई में रस लेना बुरी बात है किन्तु अच्छाई को रस लेकर उजागर न करना और भी बुरी बात है। ’’

अनेक दिनों तक इस तरह के प्रसंग विद्यालय आते जाते स्मृति में आते रहे। यों पूरा वर्ष गुजर गया। मैं प्रथम श्रेणी से कक्षा ग्यारहवीं उत्तीर्ण कर गई। इस वर्ष का मेरा ग्रीष्म अवकाश उबाऊ रहा। इन्टर की इतिहास की पुस्तक उठाली।

इन दिनों याद आती रही- राजा राममोहन राय की सती प्रथा के विरोध की बात, उस दिन सोच रही थी - ‘‘हमारे देश में सती प्रथा की कैसी वीभत्स कहानी रही है ! उन दिनों जब भी किसी पुरूष की मौत होती तो परिवार के लोग उसकी पत्नी को पति की चिता पर जल जाने की प्रेरणा देते। या तो वह स्त्री सती होने तैयार हो जाती या घर के लोग मिलकर उसे उठा कर जलती चिता मे फेंक देते और सती माता की जय के गगन भेदी नारे लगाते हुए जोर से ढोल धमाक बजाते हुए चिता की परिक्रमा करने लगते। आग की लपटों में घिरी बेबश महिला रोती, चीखती, चिल्लाती लेकिन शोरगुल में उसकी आवाज दब जाती। अपने मान सम्मान के लिए लड़ मरना तो ठीक हैं किन्तु अपनी मर्यादा बचाने के लिए जल कर भष्म हो जाना, मानवीय दृष्टि से न्यायोचित नहीं है। उन्हें सती ही होना था तो महारानी लक्ष्मी बाई की तरह युद्धभूमि में लड़ते- लड़ते शहीद होना चाहिए। यदि नारियों में यह भावना भरी जाती तो वे उन कायर स्त्रियों की तरह अपने को खाक न करतीं। सतियों की समाधी पर जो मेले लगते हैं। वे पता नहीं कौन सा संन्देश देने के लिए लगाए जा रहे हैं।

आज हर पढ़ी लिखी नारी सती प्रथा के बुराई के बारे में सोचने को समर्थ है। इस बात की सच्चाई से अवगत होना चाहती है। पति की मृत्यु की , उसकी चिता में नारी को झोंकना कौन सा धर्म था ! उस समय का मानव समाज किस सतीत्व की रक्षा करना चाहता था।

आज मेरे समक्ष यह प्रश्न उठ रहा है-‘‘ मेरे जीवन में यदि ऐसी कोई घटना घट गयी तो क्या मैं सती हो पाऊँगी ?‘‘

तत्त्क्षण उत्तर मुखरित हो उठा-‘‘मानव समाज पर यह बहुत बड़ा कलंक का टीका लगा है यह कैसे मिटे ?‘‘

यहाँ पुनः प्रश्न उठा-‘‘ ऐसी स्थिति में क्या मैं अपने आप को पुनर्विवाह के लिए प्रस्तुत कर पाऊँगी ?’’

सम्पूर्ण आत्मविश्वास के साथ उत्तर आया-‘‘ऐसी स्थिति में पुनर्विवाह आवश्यक है।’’

राजा राममोहन राय ने इस दोषपूर्ण प्रथा को समझा और इसके विरोध में कानून बनवा दिया। आज हमारे समाज में यह प्रथा जड से समाप्त हो गयी है ।

प्राचीन काल से हम संस्कृति के जिन अन्धविश्वासों में बंधे हैं। उन अन्धविश्वासों को सती प्रथा की तरह जड़ से उखाड़ फेंकना होगा। आज के परिवेश में युवाओं में अन्धविश्वासों से मुक्त होने की छटपटाहट हैं।

ऐसे विचार यदि राजाओं की उन स्त्रियों के मन में उठे होते तो वे कायरों की तरह न मरतीं। दुर्भाग्य यह रहा कि नारियों को कोमलांगी होने की घुटी युग- युगों से पिलाई गई है। उसने भी अपने आप को कोमलांगी मान लिया है उन्हें बचपन से ही सती सावित्री के कथानक सुनाये जाते हैं।

इसी सोच में डूबी थी कि मम्मी की आवाज गूँजी-‘‘अरी सुगंधा जाने कहाँ खोई है ? बेटी तू जरा घर के काम में मदद कर दे, आज तो घर का सारा काम पसरा है।’’

उनकी बात सुनकर मैं उठी और घर के काम में मदद करने लगी ।

इस वर्ष की छुटिटयों के बाद मैं डबरा के कन्या उच्चत्तर माध्यमिक विद्यालय में गत वर्ष की तरह पढ़ने जाने लगी।

पहले दिन बस्ता लेकर घर से निकली तो पड़ोस में रहने बाली काकी ने आवाज दी- ‘‘सुगंधा कहाँ जा रही है ?’’

‘‘डबरा’’ कहते हुए मैं आगे बढ़ गयी थी। सोचने लगी- डबरा शब्द का अर्थ होता है गड्डा। तो क्या गड्डे में पढ़ने जा रही हूँ ? उस दिन नन्दनी मैंड़म इस सम्बन्ध में एक मजेदार कहानी सुना रही थी-जब पहली बार नौकरी लगी तो पढ़ाने के लिए जो स्कूल मिला वह इसी कस्बे मे था डबरा में । नाम सुन कर उनकी सहेलीयाँ उन्हें चिढ़ाने लगीं -

‘‘ अब हमारी प्यारी सहेली नन्दनी डबरा में कूदके बच्चों को पढ़ाएगी ।’’

दूसरी बेाली -‘‘ अच्छा है डबरा प्रगति करेगा । अब बह गड्डा नहीं रहेगा। हमारी सहेली वहाँ पहुँचकर डबरा को डबरा नहीं रहने देगी।’’

तीसरी बोली -‘‘ नन्दनी बहन, यह संस्कृत साहित्य के गौरव महाकवि भवभूति की कर्म स्थली रहा है । ’’

मेरी एक सहेली ने यह बात, बतलाई -‘‘इसके नाम परिवर्तन की बात उठ रही है, यह अब भवभूति नगर हो जावेगा। ’’

नन्दनी मैंड़म कह रही थीं -”इसके डबरा नाम के कारण, मैं यहाँ नौकरी करने ही नहीं आ रही थी किन्तु ऐसी नौकरी मुश्किल से मिलती है इसीलिए यहाँ आना पड़ा।” मैंड़म की ये बातें सुनी हैं तभी से मुझे लग रहा है नाम के अर्थ का भी महत्व होता है। यही सेाचते हुए, मैं काशीपुर स्टेंड पर पहुँची ही थी कि बस आ गयी।

यों भाग दौड में इन्टर की परिक्षायें निपट गयीं।

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